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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग १८५ होते हैं और कहीं कीड़े मकोड़े आदि प्राणी होते हैं। दिन में उन्हें देख कर बचाया जा सकता है पर रात्रि में उनकी रक्षा करते हुए संयमपूर्वक कैसे चला जा सकता है ? एयं च दोस दट्टणं, नायपुत्तेण भासियं । सवाहारं न भुजंति, निग्गंथा राइ भोयणं ।। ५॥ __ भावार्थ-ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर द्वारा कहे हुए प्राणि-हिंसा, आत्मविराधना आदि रात्रिभोजन के दोषों को जानकर निर्ग्रन्थ मुनि रात्रि में किसी प्रकार का आहार नहीं करते ।
(दशव मलिक छटा अध्ययन गाथा २३, २४, २५)
१६-मरवृत्ति जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ण य पुष्कं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥ १॥ __ भावार्थ-श्रमर वृक्ष के पुष्पों से इस प्रकार रसपान करता है कि फलों को जगभी पीड़ा नहीं होती और वह चुप्त भी हो जाता है। एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया ॥२॥
भावार्थ-लोक में बाह्य प्राभ्यन्तर परिग्रह से मुक्न जो तपस्वी साधु हैं वे भी दाता द्वारा दिये हुए निर्दोष आहार की एपणा में ठीक उसी तरह रत रहते हैं जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों में रत रहते हैं। वयं च वित्तिं लम्भामो, न य कोइ उवहम्म अहागडेसु रीयंते, पुप्फेतु भमरा जहा//l भावार्थ-साधु इस प्रकार वृत्ति प्राप्त करते हैं कि किसी भी