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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
संगों से निर्लिप्त रहता है वही सच्चा भिक्षु है ।
( दशवेकालिक दसवां अध्ययन गाथा १६ )
१५ – रात्रि भोजन त्याग
अत्थंगयम्मि आइचे, पुरत्था य अणुग्गए । आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए || १ ||
भावार्थ- सूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के अस्त हो जाने के बाद मुनि को सभी प्रकार के भोजन पान आदि की मन से भी इच्छा न करनी चाहिये । (दशवैकालिक चाटना थ० गाथा २८)
जता दिया न कप्पड़, तमं ति काऊण कोट्टगादीसुं । किं पुण तमस्सिनीए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ ॥ २ ॥
भावार्थ - अन्धकार वाले कोठे आदि में, अन्धकार के कारण, जब दिन में भी आहार पानी लेना मुनि को नहीं कल्पता फिर अन्धकार वाली रात्रि में श्राहारादि लेना उसके लिये कैसे ठीक हो सकता है ? ( बृहत्कल्प भाष्य पहला उ० गाथा ७०१ )
संति मे सुहुमा पाणा, तसा अदुव धावरा | जाई राओ अपासंतो, कहमेसणिअं चरे ॥ ३॥
भावार्थ-संसार में बहुत से त्रस स्थावर प्राणी इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे रात्रि में दिखाई नहीं देते। फिर उनकी रक्षा करते हुए रात्रि में आहार की शुद्ध एषणा एवं भोजन कैसे हो सकते हैं ?
उदउल्लं वीयसंत्तं, पाणा निवडिया महि |
! दिआ ताइं विवज्जिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे ॥४॥
? भावार्थ- जमीन पर कहीं पानी पड़ा होता है, कहीं बीज बिखरे