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श्री जैन सिद्धान्त बोल संरह, सातवा भाग २७५ (४१) सचिच रुमा लवण (रोमक क्षार) का सेवन करना । (४२) सचित्त समुद्र का नमक सेवन करना । (४३) सचित्त ऊपर नमक का सेवन करना। (४४) सचित काले नमक (सैंधव लवण, पर्वत के एक देश में उत्पन्न होने वाले) का सेवन करना । (४५) धूपन-अपने वस्त्रादि को धूप देकर सुगन्धित करना । (४६) वमन-औपधि लेकर वमन करना। (४७) वस्तिकर्म वित्यिकम्म,- मलादि की शुद्धि के लिये वस्तिकर्म करना। (४८) विरेचन-पेट साफ करने के लिये जुलाब लेना । (४६) अंजन-आँखों में अंजन लगाना । (५०) दन्तकाष्ठ (दंतवएणे;-दतौन से दाँत साफ करना । (५१) गात्राभ्यङ्ग-सहलपाक आदि तैलों से शरीर का मर्दन। (५२) विभूषण-स्त्र, आभूषणों से शरीर की शोभा करना । यहाँ अनाचीर्ण का स्वरूप टीका अनुसार दिया गया है। किन्तु दो एक बातों में टीका से भिन्नता है । टीका में ५३ अनाचीर्ण गिने हैं। किन्तु ५२ अनाचीर्ण प्रसिद्ध होने से यहाँ वाचन ही दिये गये हैं। टीकाकार ने सांभर नमक को अलग अनाचीर्य माना है इसी लिये वहाँ एक संख्या बढ़ गई है। इसके मिवाय टीका में राजपिएड
और किमिच्छक एक अनाचीर्ण में गिने हैं पर यहाँ अलग अलग दिये गये हैं । अष्टायद और नालिका का अनाचीर्ण यहाँ एक माना है किन्तु टीका में दोनों अलग अलग हैं । चंचल और काला नमक एक है ऐमा कई लोग समझते हैं और इसलिये यहाँ शंका हो सकती है पर बात ऐमी नहीं है। दोनों नमक जुदे जुदे
(दशवकालिक तीसरा अध्ययन सटीक)