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'श्री सेठिया जन ग्रन्थमाला
जन्म एवं मासिक धर्म होने पर भी अस्वाध्याय रखने के लिये कहा है । जिस गांव में अशिव-महामारी आदि बीमारी या भूखमरी के कारण बहुत से लोग मरे हों और निकाले न गये हों अथवा जहाँ संग्राम में बहुत से आदमी मरे हों ऐसे स्थानों में बारह वर्ष तक स्वाध्याय करने के लिये मना किया है । छोटे गांव में यदि कोई मर गया हो तो जब तक उसे गांव से बाहर न ले जावें तब तक अस्वाध्याय रखना चाहिये । शहरों में मोहल्ले से बाहर न निकालें तब तक अस्वाध्याय रखने को कहा है। उपाश्रय के पास मुर्दा ले जाते हो तो वह सौ हाथ से आगे न निकल जाय तब तक स्वाध्याय का परिहार करना चाहिये।
उक्त व्यवहार भाष्य एवं हरिभद्रीयाश्यक में इन अस्वाध्यायों के भेदों का वर्णन द्रव्य क्षेत्र काल भाव के भेद से विस्तार पूर्वक शंका समाधान के साथ दिया गया है। यहाँ अस्वाध्याय का काल स्थानाङ्ग सूत्र की टीका एवं इन्हीं ग्रन्थों से लिया गया है। विशेष जिज्ञासा चाले महाशयों को ये सूत्र देखना चाहिये । (स्थानाङ्ग सूत्र २८५,स्थानान १० मूत्र २७४'प्र० सा०२६८द्वारगाथा१४५०-७१) (व्यवहारभाष्य उद्देश७)(हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन अस्वाध्यायिक नियुक्ति) ६६६-वन्दना के बत्तीस दोष
आध्यात्मिक विकास में वन्दना को विशिष्ट स्थान प्राप्त है । साधु और श्रावक के दैनिक कर्तव्यों में इसीलिये इसका समावेश किया गया है। 'सो पावइ णिव्यगणं अचिरेण विमाणवासं वा' कह कर शास्त्रकारों ने निर्वाण एवं सुरलोक की प्राप्ति इसका फल बतलाया है । इसके आचरण से कर्मों की महानिर्जरा होती है। पर यह चन्दना विशुद्ध होनी चाहिये । विशुद्धि के लिये मुमुनु को वन्दना के बत्तीस दोपों का परिहार करना चाहिये। वत्तीस दोष क्रमशः नीचे दिये जाते हैं: