________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग
११५
होते हैं और शास्त्रों का रहस्य उन्हें अवगत होता है । निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुराग में उनके अस्थि एवं मज्जा तक रंगे होते हैं। इसी उत्कृष्ट अनुराग से प्रेरित हो वे निर्ग्रन्थ प्रवचन को ही अर्थ एवं परमार्थ बतलाते हैं और शेष सभी उनके लिये अनर्थ रूप हैं । वे इतने उदार होते हैं कि याचकजनों के खातिर वे किवाड़ों में भोगल नहीं लगाते बल्कि दरवाजे खुले रखते हैं। उनका किसी के घर एवं अन्तःपुर में प्रवेश करना उस घर के लोगों के लिये प्रीतिकारी होता है । अष्टमी, चतुर्दशी और अमावस्या तथा पूर्णिमा को वे प्रतिपूर्ण पौषध व्रत की आराधना करते हैं । श्रमण निर्ग्रन्थों का संयोग मिलने पर वे उन्हें अशन पान खादिम स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्मल, रजोहरण, औषध, भेषज तथा पडिहारी पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक-ये चौदह प्रकार की वस्तुओं का दान देते हैं । उपरोक्त गुणों से विशिष्ट ये श्रावक अन्त समय में आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक . संथारा कर समाधि सहित काल कर के कहाँ उत्पन्न होते हैं !
उत्तर- उपरोक्त गुण वाले श्रावक काल प्राप्त कर उत्कृष्ट बार
अच्युत देवलोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ उनकी बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होती है। उन देवताओं के ऋद्धि (पारिचारिक सम्पत्ति), युति, यश, बल, वीर्य एवं पुरुषाकार पराक्रम होते हैं । ये देवता परलोक के आराधक हैं अर्थात् देव भव की स्थिति पूर्ण होने के बाद वे दूसरा जन्म मोक्ष साधनों के अनु( श्रपपातिक सूत्र ४१ ) कूल प्राप्त करते हैं ।
1
L
(१७) प्रश्न- ग्राम आाकर यावत् सन्निवेशों में कई मनुष्य ऐसे होते हैं जो आरम्भ परिग्रह से रहित, धार्मिक, सुशील, सुत्रत चाले एवं साधुजन को देखकर प्रमुदित होने वाले होते हैं। वे प्राणा. तिपात यावत् मिथ्यादर्शन शन्य रूप अठारह पापस्थानों से सर्वथा विरत होते हैं। सभी आरम्भ समारम्भ, कृत कारित, पचन पाचन,