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भी सेठिया जेन अन्यमाला (१६) प्रश्न-ग्राम पाकर यावत् सनिवेशों में कई मनुष्य अल्प श्रारम्भ वाले, अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्म का अनुगमन करने वाले, धर्मप्रिय , धर्म के उपदेशक, धर्म को उपादेय समझने वाले, धर्म में अनुराग रखने वाले, हर्पित होकर धर्म का आचरणकरने वाले,धर्मानुकूल कार्यों द्वारा आजीविका कमाने वाले, शोभन मनोवृत्ति वाले और साधु का दर्शन कर आनन्दित होने वाले होते हैं। वे प्राणातिपात आदि पापस्थानों से जीवनपर्यन्त देशतः विरत होते हैं और देशतः अविरत होते हैं। राजाभियोग आदि कारणों से अन्यतीर्थियों को वन्दनादि करने का आगार रखकर वे जीवन भर के लिये मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होते हैं । आरंभ समारंभ, करना कराना, पचन, पाचन, कूटना, पीटना, तर्जना ताड़ना देना तथा वध,बन्ध और क्लेश का वे यावज्जीवन देशतः त्याग किये होते हैं और देशतः इनसे अनिवृत्त होते हैं । स्नान, मालिश, वर्णक (सुगन्धित चूर्ण), विलेपन, शब्द, स्पर्श, रस, रूप गन्ध, मान्य और अलंकार से भी वे जीवनपर्यन्त देशतः विरत होते हैं और देशतः अविरत होते हैं । इस प्रकार कपायकारणक सावध योग वाले, दूसरों को परिताप देने वाले व्यापारों से वे जीवन भर के लिये एक देश से निवृत्त होते हैं और एक देश से अनिवृन होते हैं । ये श्रमणोपासक श्रावक जीव, अजीव और पुण्य पाप के जानकार, श्राश्रय, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण वन्ध और मोक्ष के हेयोपादेय स्वरूप के ज्ञाता होते हैं। कर्मवाद पर दृढ़ श्रद्धा होने से वे आपत्ति में भी दूसरे की सहायता नहीं चाहते। भवनपति व्यन्तर आदि देव भी उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित नहीं कर सकते । निर्ग्रन्थ प्रवचन में वे शंका काँक्षा और विचिकित्सा रहित होते है । सिद्धान्त का अर्थ उनका जाना हुआ एवं धारा हुआ होता है । संदिग्ध विषय उनके पूछे हुए एवं निर्णीत