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श्री.जन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग ११३ __भावार्थ-विजयादि चार अनुत्तरविमानों में गये हुए जीव के लिये यह नियम है कि वह वहाँ से निकलकर स्वभाव से ही नरक से लेकर तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय तक तथा व्यन्तर ज्योतिषी देवों में कभी नहीं आवेगा पर मनुष्य तथा सौधर्मादि विमानों में आवेगा ।
(१५) प्रश्न-अभव्य जीव ऊपर कहाँ तक उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर-अमन्य जीव ऊपर नवग्रेवेयक तक उत्पन्न होते हैं । प्रवचनसारोद्धार १६० द्वार में कहा है कि मिथ्यादृष्टि भव्य एवं अभव्य जीव जिनोक व्रत, अष्टमादि उत्कृष्ट तप तथा प्रतिलेखनादि दैनिक क्रियाओं का आचरण कर उत्कृष्ट ग्रैवैयक तथा जघन्य भानपति देवों में उत्पन्न होते हैं। चारित्र परिणाम से रहित होने के कारण उक्त अनुष्ठान करते हुए भी ये जीव असंयती ही हैं। भगवती सूत्र के पहले शतक के दूसरे उद्देशे में देवत्व योग्य असंयती जीवों की उत्पत्ति जघन्य भवनपति उत्कृष्ट ऊपर के ग्रैवेयक में कही है। टीकाकारने व्याख्या करते हुए कहा है कि यहाँअसंयती से श्रमणगुणधारी साधु की समाचारी और उसके अनुष्ठानों का पालन करने वाले द्रव्यलिंगधारी मिथ्यादृष्टि भव्य अथवा अभव्य जीव समझने चाहिये। ये जीव साधु की पूर्ण क्रिया पालने के कारण ही ऊपर के अवेयक में उत्पन्न होते हैं। चारित्र परिणाम से शून्य होने के कारण साधुयोग्य अनुष्ठान करते हुए भी उन्हें असंयत कहा है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि ऐसे जीच किस प्रकार श्रमणगुणों के धारक हो सकते हैं? समाधान में टीकाकार ने कहा है कि यद्यपि उनके महामिथ्यादर्शन रूप मोह की प्रबलता है फिर भी राजा महाराजा चक्रवर्ती आदि से साधु महात्माओं का प्रवर पूजा सत्कार होते देख कर उन्हें प्रवज्या एवं साधु के क्रिया अनुष्ठानों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है और उक्त पूजा सत्कार आदि पाने के लिये ये श्रमण गुणधारी होकर उक्त क्रियानुष्ठानों का पालन करते हैं।