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थी से डिश जैन मन्थमाला
द्वारा प्राप्त करता है। • इससे स्पष्ट है कि ग्लान साधु की सेवा परिचर्या तीर्थङ्कर देव की भक्ति के बराबर है और इससे ज्ञान दर्शन चारित्र की धाराधना होकर भगवान् की आज्ञा की आराधना होती है।
वैयावृत्य की महत्ता दिखाने के लिये श्रोधनियुक्तिकार की दो गाथाएं उद्धृत की जाती हैं-- वेयावचं निययं करेह, उत्तर गुणे धरिताणं । सव्वं किल पडिवाई, यावच्च अपडिवाई ॥५३२॥ पडिभग्गस्स मयस्स वा, नासइ चरण सुर्य अगुणाए । न हु वेयावञ्चचिअं, सुहोदयं नासए कस्म ॥५३३ ।।
भावार्थ-उत्तम गुण धारण करने वाले साधुओं की निन्तर वैयावृत्य करो । सभी प्रतिपाती हैं किन्तु वैयावृत्त्य अप्रति गाती है। संयम से गिर जाने एवं मृत्यु होने पर चारित्र नष्ट हो जाता है। नहीं फेरने से शास्त्र ज्ञान विस्मृत हो जाता है किन्तु चैयावृत्त्य से अर्जित शुभ फल देने वाले कर्मों का कभी विनाश नहीं होता। ' (१४) प्रश्न-विजय आदि चार अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुआ जीव क्या नरक तिर्यश्च के भव करता है ? • उत्तर-प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें पद के दूसरे उद्देशे की टीका में कहा है कि विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित विमानों में उत्पन्न हुआ जीव वहाँ से निकल कर कभी भी नरक तिर्यश्च में तथा व्यन्तरं एवं ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होता। केवल मनुष्य और सौधर्म आदि वैमानिक देवों में ही जाता है। टीका यह है-- - इह विजयादिषु चतुएं गतो जीवो नियमात् तत उवृत्तो न जातुचिदपि लैरयिकादि पञ्चेन्द्रियतिर्यक् पर्यवसानेषु तथा व्यन्तरेषु ज्योतिष्लेषु च मध्ये समागमिष्यति तथाखाभाव्यात, मनुष्येषु सौधर्मादिधुं चागमिष्यति ।