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श्री जैन सिद्धान्त गोल संग्रह, सातवां भाग द्वारा वैयावृत्त्य में नियुक्त किये जाने पर साधु को ग्लानिभाव का त्याग कर वैयावृत्त्य करनी चाहिये ।
वैयावृत्त्य करना साधु के लिये जितना आवश्यक है उसका उतना ही अधिक माहात्म्य भी है। उत्तराध्ययन मा के उनत सवें अध्ययन में यावृत्य का फल बतलाते हुए कहा हैवेयावचेण भंते ! जीवे कि जणयइ ? तित्थयरनामगोतं कम्मं निवन्धइ ।
हे भगवन् ! यावृत्य से जी को क्या फल होता है ? वैगवृत्त्य से जीव तङ्का गांत्र बाँधता है ।
श्रेघानयुक्ति के टीकाकार ने गाश ६२ की टीका में ग्लान साधु की सेवा की महत्ता दिख ने के लिये यह गाथा उद्धृत की हैजो गिलाणं पडियरइ, सो ममं पडियरइ । जो ममं पडियग्इ, सो गिलाणं पडियरई ॥
अर्थ- भगवान् कहते हैं जो ग्ल'न माधु की सेवा करता है बह मेग सेवा करता है और जो मेरी सवा करना है व: ग्लान साध की सेवा करता है।
सा युकिक लघु भाष्य वृत्तिक वृहत्कल्प सूत्र में ग्लान की सेवा के सम्बन्ध में बहा हैतित्थाणुसजणा खलु भत्ती य कया हवड एवं ॥१८७८॥
भावार्थ-इम प्रकार ग्लान और उमकी वैयावृत्त करने वाले साधुओं की वैयावृत्य करने से तीर्थ की अनुवर्तना होत है और तीर्थक देव की भक्ति होत है । वृतिका ने ग्लानसेवा की महिमा दिखाने के लिये यह उद्धरण दिया है--
जो गिलाणं पडियरइ से मनं णाणेण सणेणं चरित्तेण पडिवज्जइ ।
अर्थ-जो ग्लान की सेवा करता है वह मुझे ज्ञान दर्शन चारित्र