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श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह, सातवां भाग २३ ९६७-सूत्र के बत्तीस दोष अप्परगंथ-महत्थं वत्तीसा दोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्टहि य गुणेहि उववेयं ।। , भावार्थ-जिसमें अक्षरथोड़े हों, अर्थ अधिक हो, बत्तीस दोष न हो और आठ गुण हों ऐसा सूत्र लक्षण युक्त कहा जाता है। __यहाँ सूत्र के बत्तीस दोष क्रमशः दिये जाते हैं -
(१) अलीक-अलीक का अर्थ असत्य है । यह दो प्रकार का है-अभूतोद्भावन और भूतनिह्नव । 'जगद् ईश्वर का बनाया हुआ है। इस प्रकार अभूत (अविद्यमान) वस्तु का प्रगट करना अभूतोद्भावन है । 'श्रात्मा नहीं है। इस प्रकार विद्यमान वस्तु का गोपन करना भूतनिहव है।
(२) उपधात जनक- वेद विहित हिंसा धर्म के लिये है, मांस भक्षण में दोष नहीं है- इस प्रकार जीव हिंसा में प्रवृत्त कराने वाला सूत्र उपघातक है।
(३) निरर्थक-डित्यादि की तरह अर्थशून्य सूत्र निरर्थक है।
(४) अपार्थक-शब्दों के सार्थक होते हुए भी जिनका समुदायरूप से कोई संबद्ध अर्थ न हो इस प्रकार असंबद्ध अर्थ वाला सूत्र अपार्थक है । जैसे-शंख कदली में है और कदली मेरी में है। - (५) छल-सत्रकार जिस अर्थ को नहीं कहना चाहता उस अनिष्ट अर्थ को निकाल कर जहाँ उसके (सूत्रकार के) इष्ट अर्थ, की बात की जा सकती है ऐसे सूत्र का कहना छल दोष है। जैसेयह देवदत्त नव कम्बल वाला है । यहाँ 'नव कम्बल से वक्ता का प्राशय 'नई कम्बल' है किन्तु दुसरा व्यक्ति 'नौ कम्बल वाला' अर्थ कर वक्ता के इष्ट अर्थ की बात कर सकता है।
(६) हिल-पाप व्यापार का पोपक होने से जो सूत्र जीवों के हित का नाश करने वाला है वह दुहिल कहा जाता है। जैसे