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भी मेठिया जैन प्रधमाला
अवगणिय जोमुक्खसुह, कुणइ निआ असारसुह हेडं। सो कायमणि करणं, वेरुलियमणि पणासेइ ।।७।।
भावार्थ--जो मोक्ष सुख की अचगणना कर संसार के असार सुखों के लिये निदान करता है वह काच के टुकड़े के लिये वैडूर्य मणि को हाथ से खो बैठना है ! भक्ताशा प्रकीर्णक गाथा १३८)
जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमट्टकालम्मि । दुल्लह बोहीयत्त, अणंत संसारियत्तं च ॥८॥ तो उद्धांति गारव रहिया, मूलं पुणभवलया। मिच्छा दसण सल्लं, माया सल्लं नियाणं च ॥१॥
भावार्थ - अन्तिम भागधना काल में यदि भावशल्य की शुद्धि न की जाय तो वह शल्य आत्मा का बड़ा ही अहित करता है। • इसके फल म्वरूप आत्मा को बोधि (सम्यक्त्व) दुर्लभ हो जाती है एवं उसे अनन्त काल तक. संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है।
अतएव प्रात्नार्थी पुरुष गारवशत्याग कर, भवलता के मूल समान मिथ्यादर्शन,माया एवं निदान रूप शल्य की शुद्धि करते हैं।
(मरणसमाधि प्रकीर्णक गाया १११, १५२)
४१-आलोचना कयपावोऽवि मणूसो, आलोइय निदिउ गुरुसगासे। होइ अइरेग लहुओ,ओहरिय भरोच भारवहो ॥१॥
भावार्थ--जैसे भारवाही भार उतार कर अत्यन्त हल्कापन अनुभव करता है इसी प्रकार पापी मनुष्य भी गुरु के समीप अपने दुष्कृत्यों की आलोचना निन्दा कर पाप से हल्का हो जाता है।