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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातको माग २९५ शल्य की शुद्धि नहीं करताऔर शल्य सहित ही काल कर जाता है उसे माराधक नहीं कहा है। (मरणसमाधि प्रकीर्णक गाथा ६८)
ससल्लो जइ वि कटुग, घोरवीरं तवं चरे । दिव्वं वाससहस्सं पि,ततो वि तं तस्स निष्फलाश
भावार्थ--शन्य वाला श्रात्मा चाहे देवता के हजार वर्ष तक भी वीरता पूर्वक घोर उग्र तप का आचरण करे पर शन्य के कारण उसे उसका कोई फल नहीं होता। (महानिशीथ १ अ०)
तं खलु समणाउसो! तस्स णियाणस्म इमेयारूवे पावए फल विवागे भवति जनो संचाएति केवलिपण्णत्तं धम्म पडिसुणित्तए ॥४॥
भावार्थ-हे आयुष्मन् श्रमण ! उम निदान (नियाणे, का यह - पाप रूप फल होता है कि श्रात्मा सर्वज्ञभाषित धर्म भी नहीं सुन सकता।
(दशाश्रुतस्कन्ध दसवी दशा (प्रथम निदान) हत्यिणपुरम्मि चित्ता, दट्टणं नरवई महिड्डियं । कामभोगेसु गिद्धेणं, नियाण मसुहं कडं ॥९॥ तस्स मे अपडिकंतस्स, इमं एयारिसं फलं। जाणमाणोविजं धम्म, काम भोगेसु मुच्छिओ।
भावार्थ- हे चित्त मुने ! हस्तिनापुर में महाऋद्धि सम्पन्न नृपति (सनत्कुमार नामक चौथे चक्रवती) को देखकर, मैंने कामभोग में अत्यन्त श्रासन हो, उस ऋद्धि की प्राप्ति के लिये अशुभ निदान किया था। - उस निदान का मैने प्रतिक्रमण नहीं किया। उसी का यह फल है कि धर्म का स्वरूप समझने हुए भी मैं कामभोगों में गृद्ध हो रहा हूँ। ( उत्तराध्ययन तेरहवां अध्ययन गाथा १८, ३६)