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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातव भाग
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चतुदर्शन ये दो ही भेद कैसे किये हैं ? चक्षु की तग्ध श्रोत्र यदि इन्द्रियाँ भी दर्शन में कारण हैं और इस प्रकार पाँच इन्द्रिय और मन से होने वाले छः दर्शन होते हैं न कि दो ही ।
उत्तर- वस्तु मामान्य विशेष रूप होती है। कहीं उसका मामान्य रूप से कथन होता है और कहीं विशेष रूप से । यहाँ चक्षुदर्शन विशेष रूप से और अक्षुदर्शन सामान्य रूप से कहा गया है । इन्द्रिय के प्राप्यकारी और श्रापकारी दो भेद मान कर, इनसे होने वाले दर्शन के भी ये दो भेद किये गये हैं और इसलिये अन्य प्रकार से कहना सम्भव नहीं है । यद्यपि मन अप्राप्यकारी है किन्तु मन का अनुसरण करने वानी प्राप्यकारी इद्रियाँ बहुत हैं इसलिये मन विषयक दर्शन भी अनुदर्शन शब्द से ग्रहण किया गया है । (भगवनी सूत्र पहला शक तीसरा उद्देशा टीका)
(११) प्रश्न- सामायिक से ही सभी गुण प्राप्त हो जाते हैं फिर सर्वविरतिरूप सामायिक वाले को पोरिसा आदि के प्रत्याख्यानों की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर - सर्वाविरतिरूप सामायिक वाले को भी अप्रमाद की वृद्धि के लिये पोरिसी आदि प्रत्याख्यान करना चाहिये। कहा भी है- सामाइए विहु सावज्जचागरूवे उ गुणकरे एवं । अप्पमायवुढि जणगत्तणेण आणाओ विष्णेयं ॥
भावार्थ - सावद्यत्याग रूप सामायिक होने पर भी ये पोरिसी यादि के प्रत्याख्यान गुणकारी हैं क्योंकि ये अप्रमाद को बढ़ाने वाले हैं | ऐसा भगवान् की आज्ञा से समझना चाहिए ।
भगवती सूत्र पहला शतक तीसरा उद्देशा टीका)
(१२) प्रश्न- क्या साधु के सत्यवचन में विवेक होना चाहिये ? उत्तर - सूत्रकृताङ्ग सूत्र के वीरस्तुति नामक छठे अध्ययन में कहा गया है - 'सच्चे वा अवज्जं वयंति' अर्थात् सत्य वचन