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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग २५ (१५) त्रिभक्तिभिन्न-विभक्ति का अन्यथा प्रयोग होना विभक्तिभिन्न दोष है । जैसे-प्रथमादि विभक्तियों के स्थान पर द्वितीया आदि का प्रयोग होना।
(१६) लिङ्गभिन्न-स्त्रीलिंग, पुलिंग, नपुंसकलिंग-ये तीन लिंग हैं। इनका अन्यथा प्रयोग होना लिङ्गभिन्न दोष है । जैसे-स्त्रीलिंग के स्थान पर पुलिंग का प्रयोग होना।
(१७; अनभिहित-अपने सिद्धान्त में जो बातें नहीं हैं उनका अपनी इच्छानुसार कथन करना अनभिहित दोप है । जैसे-सांख्य मतानुयायी का प्रकृति पुरुष से भिन्न पदार्थों का निरूपण करना ।
(१८) अपद-जहाँ छन्द विशेष की आवश्यकता हो वहाँ उससे भिन्न छन्द में रचना करना अथवा एक छन्द में दूसरे छन्द का पद रखना अपद दोप है।
(१६ स्वभाव हीन-जिस वस्तु का जो स्वभाव है वह न कह कर उसका दूसरा स्वभाव बतलाना स्वभाव हीन दोष है। जैसे वायु का स्थिर स्वभाव कहना। . (२०) व्यवहित-एक वस्तु का वर्णन करते हुए वीच ही में दूसरी वस्तु का विस्तार पूर्वक वर्णन करने लगना एवं बाद में पुनः प्रकृत वस्तु का वर्णन करना व्यवहित दोप है।
(२१) कालमिन्न-काल का अन्यथा प्रयोग करना कालभिन्न दोप है । जैसे भृत काल के बदले वर्तमान काल का प्रयोग करना। . .२२) यविदोष-पद्य में आवश्यक विराम का न होना अथवा उसका यथास्थान न होना यति दोष है।
(२३) छवि दोप-यहाँ छवि से अलंकार विशेष (तनस्विता). का तात्पर्य है, उसका न होना छवि दोप है।
(२४) समय विरुद्ध-स्वाभिमत सिद्धान्त से विपरीत वचन कहना समयविरुद्ध दोष है।