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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग द्रव्य मन और भाव मन की व्याख्या इस प्रकार दी है। मनयोग्य पुद्गल द्रव्यों को ग्रहण कर जीव उन्हें जो मन रूप से परिणत करता है वही द्रव्यमन है । द्रव्यमन के आधार से जीव का जो मनन व्यापार होता है वह भाव मन कहा जाता है। टीकाकार ने इसकी पुष्टि में नन्दी अध्ययन की चूणि उद्धृत की है। वह इस प्रकार है भणपज्जत्ति नामकम्मोदयओ जोग्गे मणोदव्वे घित्तुं मणतण परिणामिया दवा दब्चमणो भन्नइ । जीवो पुण मणपरिणामकिरियावंतो भावमणो, किं भणिय होइ मणदवालवणो जीवस्स मणवावारो भावमणो भण्णइ। भावार्थ-मनःपयोति नामकर्म के उदय से जीव मनयोग्य द्रव्य ग्रहण कर उन्हें मन रूप से परिणत करता है । मनरूप से परिणत इन द्रव्यों को ही द्रव्यमन कहा जाता है। मन परिणाम क्रियावाला अर्थात् मनन रूप मानसिक व्यापार वाला जीव ही भावमन है। श्राशय यह है कि द्रव्यमन के आधार से होने वाला जीव का मनन व्यापार ही भावमन कहा जाता है। __भारमन के होने पर अवश्य द्रव्यमन होता हैं और द्रव्यमन होने पर भावमन होता है और नहीं भी होता है। द्रव्यमन के न होने पर भावमन नहीं होता किन्तु भावमन के न होने पर भी द्रव्यमन हो सकता है । जैसे भवस्थ केवली । लोकप्रकाश में भी कहा है-- द्रव्यचित्तं विना भावचित्तं न स्यादसंज्ञिवत् । विनाऽपि भावचित् तु द्रव्यतो जिनवद्भवेत् ॥ . अर्थ-द्रव्यचित्त विना भाव चित्त नहीं होता जैसे असंज्ञी जीव किन्तु भावचित्त विना भी द्रव्य चित्त होता है। जैसे जिनदेव । . भावमन का अर्थ चैतन्य भी किया जाता है और इस अपेक्षा से भावमन द्रव्य मन रहित असंझी जीवों के भी होता है । भगवती । तेरहवें शतक प्रथम उद्देशे में 'नोइ दियोवउत्ता उववज्जति' की
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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