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अन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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इत्यादि कह कर परिपद् का भेदन करे तो आशातना होती है।
(२६) सभा उठी न हो, लोग गये न हों, जनता विखरी न हो कि शिष्य रताधिक की लघुता और अपना गौरव दिखाने के लिये उसी सभा के आगे रत्नाधिक की कथा को दो, तीन या चार बार कहता है और कहता है कि इस सूत्र के व्याख्यान के ये भी प्रकार हैं। ऐसा करने से आशातना होती है।
(३०) रत्नाधिक के शय्या संस्तारक को पैर से छूकर उनसे क्षमा माँगे बिना ही यदि शिष्य चला जाय तो आशातना होती है।
(३१) यदि शिष्य रत्नाधिक के शय्या संस्तारक पर खड़ा रहे, ठे या शयन करे तो आशातना होती है।
(३२) शिष्य के रत्नाधिक के आसन से ऊँचे आसन पर खड़े होने, बैठने और सोने से अाशातना होती है।
(३३) शिष्य के रत्नाधिक के वरावर श्रासन पर खड़े होने, बैठने और सोने से प्राशातना होती है
हरिभद्रीयावश्यक में तेतीस माशातनाएं संग्रहणीकार ने तीन गाथाओं में दी हैं । वे गाथाएं इस प्रकार हैं
पुरओ पक्खासण्णे गंता चिहणनिसीयणायमणे । ११ १२
१३
१४ आलोयणपडिसुणणा पुव्वालवणे य आलोए ।
१५ १६ १७ १८ तह उवदंस णिमतण खद्धाईयाण तह अपडिसुणणे। २१ २२ २३ २४
२५ खद्धतिय तत्थगए किं तुम तज्जाइ णो मुमणे॥
२६ २७ २८ णो सरसि कहं छेत्ता परिसंभित्ता अणुहियाइ कहे।