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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातयाँ भाग १४
बयालीसवाँ बोल संग्रह ६६०-आहारादि के बयालीस दोष
एपणा समिति के तीन भेद हैं-गवेपणेपणा, प्रह]षणा परिभोगपणा। गवेषणेपणा की शुद्धि के लिये १६ उद्गमदोष मौर १६ उत्पादन दोषों का परिहार करना चाहिये । इन दोषों के नाम और इनका स्वरूप इसी ग्रन्थ के पाँचवें भाग में बोल नं०८६५ और ८६६ में दिये गये हैं। ग्रहणेपणा की शुद्धि के लिये सांधुको शंकितादि दस एपणा दोषों का त्याग करना चाहिये । इन दस दोपों के नाम तथा उनके स्वरूप इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में रोल नं०६६३ में दिये गये हैं। सोलह उद्गम दोप, सोलह उत्पादान दोप और दस एपणा (ग्रहणेपणा)दोप-ये तीनों मिला कर आहारादि के वयालीस दोप कहे जाते हैं। ६६१-नामकर्म की बयालीस प्रकृतियाँ
चौदह पिएड प्रकृति आठ प्रत्येक प्रकृति,प्रस दशक और स्थावर दशक इस प्रकार नामकर्म की बयालीस प्रकृतियां है । इनके नाम, व्याख्या तथा पिएड प्रकृतियों के अवान्तर भेद और उनके स्वरूप इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं. ५६० (आठ कर्म) के अन्तर्गत नाम कर्म के वर्णन में दिये गये हैं। (पशापना २३ पद उदया २) ६६२-आश्रव के बयालीस भेद
जिन कारणों से श्रात्मा में शुभ अशुभ कर्म पाते हैं वे आश्रय कहलाते हैं। बच्चों ने संक्षेप से आत्मा में कर्म आने के षयालीस कारण बतलाये हैं। वे इस प्रकार है-- इदिय कसाय अन्वय किरिया पण चउर पंच पणवीसा। जोगतिगं यायाला आसवमेया (इमा किरिया)।