________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवी भाग
•
६६
(१०) मृपावाद, मैथुन परिग्रह और अदत्तादान - ये प्राणियों को सन्ताप-कष्ट देने वाले हैं अतएव शस्त्र रूप हैं तथा कर्म-बन्ध के कारण हैं । विद्वान् पुरुष को इनका स्वरूप जान कर इन्हें हेय समझ कर छोड़ देना चाहिये ।
(११) माया, लोभ, क्रोध और मान ये चारों कपाय लोक में कर्मबन्ध के कारण हैं । इनके दुष्परिणाम को जानकर समझदार पुरुष को इनका त्याग करना चाहिए ।
(१२) हाथ, पैर, वस्त्र आदि को धोना और रंगना, वस्तिकर्म यानी एनिमा लेना, जुलाब लेना, श्रपधि द्वारा चमन करना, आँखों में अंजन लगाना ये तथा शरीर संस्कार के ऐसे ही अन्य साधन संयम की घात करने वाले हैं । इनके दुर्विपाक को जान कर विद्वान् साधु को इनका सेवन न करना चाहिए ।
(१३) गन्ध, फूलमाला, स्नान, दंतधावन, सचिचादि का परिग्रह, स्त्री, हस्तकर्म या सावधानुष्ठान-इन्हें मंयम का घातक एवं पापकर्म का कारण जानकर विद्वान मुनि को छोड़ देना चाहिए ।
(१४) जो आहार गृहस्थ द्वारा साधु आदि के उद्देश से बनाया गया हो, साधु के निमित्त खरीदा या उधार लिया गया हो, साधु के लिए सामने लाया गया हो तथा जिसमें श्रधाकर्मी का अंश मिला हो या अन्य दोषों से दूषित होने के कारण अनेपणीय हो विद्वान मुनि को उसे, संसार का कारण जान कर, न लेना चाहिए ।
(१५) हृष्ट पुष्ट और बलवान बनने के लिए रसायन आदि का सेवन करना, शोभा के लिए आँखों में अञ्जन लगाना, शब्दादि विषयों में गृद्ध रहना तथा जीव हिंसाकारी कार्य करना, जैसे हाथ पैर धोना, उबटन करना आदि इन सभी को कर्म बन्ध का कारण जान कर पण्डित मुनि को इनका त्याग करना चाहिए ।
(१६) असंयति के साथ सांपारिक वार्तालाप करना, असंयम के