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श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला कार्यों की प्रशंसा करना,संसार व्यवहार एवं मिथ्याशास्त्र सम्बन्धी प्रश्नों का तदनुसार यथावस्थित निर्णय देना अथवा आदर्शप्रश्न (दर्पण में देवता का आहान कर प्रश्न का उत्तर देना) आदि का कथन करना, शय्यातर का आहार लेना-इन्हें ज्ञपरिज्ञा से हेय जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । __ (१७) मुनि को चाहिये कि वह अर्थशास्त्र तथा अन्य हिंसकशास्त्र न सीखे और अधर्मप्रधान वचन न कहे । कलह तथा शुष्कचाद को संसारभ्रमण का कारण जान कर विद्वान् मुनि को उनका त्याग करना चाहिये । __(१८) जूते पहनना, छाता लगाना, जुआ खेलना, मयूरपिच्छादि के पंखों से हवा करना तथा आपस में कर्मवन्ध कराने वाली एक दूसरे की क्रिया करना-इन सभी को कर्मोपादान का कारण जान कर विद्वान मुनि को छोड़ देना चाहिये ।
(१६) मुनि को हरी वनस्पति वीज पर तथा शास्त्रोक्त स्थण्डिल के सिवाय अन्य स्थान पर टट्टी पेशाब न करना चाहिये । चीज हरित हटाकर अचित्त जल से भी उसे आचमन (शौच) न करना चाहिये।
(२०) साधु को गहस्थ के पात्र में न भोजन करना चाहिये और न पानी ही पीना चाहिये । इसी प्रकार वस्त्र न रहने पर भी उसे गृहस्थ के वस्त्र न पहनना चाहिये । गृहस्थ के पात्र एवं वस्त्र का उपयोग करने से पुरस्कर्म पश्चात्कर्म आदि अनेक दोषों की संमावना रहती है । अतएव इन्हें संसारपरिभ्रमण का कारण जान कर विद्वान् मुनि को इनका त्याग करना चाहिये । . (२१) अासन एवं पलंग पर बैठना, सोना, गृहस्थ के घर में अथवा दो घरों के बीच बैठना, गृह-थ से कुशल प्रश्न पूछना तथा पूर्व क्रीड़ा को याद करना ये सभी संयम की विराधना करने वाले एवं अनर्थकारी हैं। विद्वान् मुनि को इन्हें संसार बढ़ाने वाला