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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातो भाग
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आदि रूप शुद्ध मोक्षमार्ग की विराधना करते हैं एवं संमार दाने पाले उन्मागे का आचरण करते हैं। ऐमा करने वाले ये लोग वस्तुतः दुःख एवं मृत्यु की ही प्रार्थना करते हैं। ... ' (३०) जैसे जन्मान्ध पुरुष छिद्र वाली नाव पर सवार होकर नदी के पार जाना चाहता है किन्तु वह बीच ही में डूब जाता है।
(३.) इसी तरह कई एके मिथटि अनार्य कर्म करने वाले अमण पूर्णरूप से कर्माश्रय रूप प्रवाह में वह रहे हैं। ये लोग प्रवाह को पार करने के बदले यही महाभयावह दुःख प्राप्त करेंगे। ..
(३२, काश्यपंगोत्रीय भगवं न् महावीर से कहे हुएं ईम 'श्रुत चारित्ररुप धर्म को स्वीकार कर बुद्धिमान् पुरुर को संसार पर्यटन रूप भीषण भावस्रोत को पार करनाचाहिये तथा पाप कर्मों से प्रान्मा की रक्षा करने के लिये संगम का पालन करना चाहिये।
(३३) शब्दादि इन्द्रिय विपयों में रागद्वप का त्याग करने वाले आत्मार्थी माधु को. संमार के प्राणियों को अपनी ही तरह सुख वाहने वाले और दुःख के द्वेषी जान कर उनकी रक्षा में पराक्रम करते हुए संगम का पालन करना चाहिये।
(३४) विवेकशील मुनि को अति मान और मायाँ तथा कोष और लोम रूप कंपायं को संसार बढ़ाने वाली एवं संयम का नाश करने वाली जान कर इन सभी का त्याग करना चाहिये तथा मोरे ही को अनुसन्धान करना चाहिये। . (३५) साधु क्षमा श्रादि दर्शविध यति धर्म की वृद्धि करे और पापमय हिंसात्मक धर्म का त्याग करे । तप में अधिकाधिक शाह
गाने हुए उसे क्रोध और मान की प्रार्थना न करनी चाहिये। - (३६) जैसे तीने लोक सभी प्राणियों के लिये आधारभूत है उसी तरह भूत, भविष्य एवं वर्तमानकालीनं तीर्थङ्करों के तीर्थ परस्त्र का प्राधार शान्ति अर्थात् .मामार्ग है । इसका मानव