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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां माग
विपाक से दुखी हुआ मनुष्य पीछे से पश्चात्ताप करता है। इसी प्रकार दुःख परिणाम वाले स्त्री के शब्दादि प्रलोभनों में फंसा हुआ साधु भी अन्त में पछताता है। इससे यह सबक सीखना चाहिये कि चारित्र का विनाश करने वाली स्त्रियों के साथ एक स्थान में रहना राग द्वेष रहित साधु के लिये ठीक नहीं है।
(११) विपलिप्त कण्टक के समान स्त्री को विपाकदारुण समझ कर साधु को उसका दूर से ही त्याग करना चाहिये। स्त्री के वश होकर जो अकेला ही गृहस्थ के घर जाकर उपदेश देता है वह साधु नहीं है । निषिद्ध आचरण के सेवन से अपाय (हानि) ही होता है।
(१२) जो साधु उत्तम अनुष्ठान का त्याग कर स्त्री संसर्ग रूप निन्दनीय कर्म में आसक्त है वह कुशीलों में शामिल है। अतएव उग्र तप से शोपित शरीर वाले महान् तपस्वी साधु को भी स्त्रियों के साथ विहार न करना चाहिये।
(१३) साधु को चाहिये कि वह अपनी कन्या, पुत्रवधू एवं धाया माँ के साथ भी एकान्त में न रहे। नीच दासियों तक के सम्पर्क का भी उसे त्याग करना चाहिये। छोटी अथवा बड़ी सभी स्त्रियों के साथ साधु को परिचय न रखना चाहिये।
(१४) साधु को एकान्त स्थान में स्त्री के साथ बैठा हुआ देख कर स्त्री के रिश्तेदार एवं मित्रों का चित्त खिन्न होता है । वे कहते हैं जिस तरह सामान्य प्राणी विषयों में आसक्त रहते हैं उसी प्रकार यह साधु भी है । यही कारण है कि संयमानुष्ठान का त्याग कर निर्लज्ज हो यह इस स्त्री के साथ बैठा रहता है। कभी क्रुद्ध हो वे साधु को यह भी कहते हैं कि हम तो केवल इसके रक्षण पोपण करने वाले हैं इसके पति तो तुम ही हो जो यह घर का काम काज छोड़ कर तुम्हारे पास एकान्त में बैठी रहती है।
(१५) रागद्वेष रहित तपस्वी साधु को भी स्त्री के साथ एकान्त