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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला भावार्थ:-जैसे पहिये को घराबर गति में रखने के लिये धुरी में तैल लगाया जाता है उसी प्रकार शरीर को संयम यात्रा योग्य रखने के लिये आहार काना चाहिये। किन्तु न स्वाद के लिये, न रूप के लिये, न वर्ण के लिये और न बल के लिये ही भोजन करना चाहिये।
(गच्छाचार पहराणा गाथा १८) ३०-कठोर वचन मुहुत्त दुक्खा उ हवन्ति कंटया,
अओमया ते वि तओ सुउद्धरा । वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धारणि,
वेराणुगंधीणि महन्भयाणि ॥१॥ भावार्थ--लोहे के तीखे काँटे थोड़े समय तक ही दुःख देते हैं। और वे सहज ही शरीर में से निकाले जा सकते हैं। किन्तु हृदय में चुभे हुए कठोर वचनों का निकालना सहज नहीं है। इनसे वर वधता है और ये महा भयावह सिद्ध होते हैं ।
(दशवैकालिक नवा अध्ययन तीसरा उद्देशा गाथा ५) पहिगरणकडस्स भिक्खुणो,वयमाणस्स पसज्झदारुणं। अपरिहायति बहू,अहिगरणं न करेज्ज पंडिए ॥२॥
भावार्थ--जो साधु कलह करता है, दूसरों को भयभीत करने वाले दारुण वचन बोलता है। उसके मंयम की बहुत हानि होती है । अतएव पंडित मुनि को चाहिये कि वह कलह न करे ।
(सूयगडाग दूसरा अध्ययन दूसरा उ० गाथा १६) अप्पत्ति जेण सिआ, आसु कुप्पिन्न वा परो। सव्वसो तं न भासिजा, भासं अहिअगामिणि ॥३॥
भावार्थ-जिस भाषा को सुनकर दूसरों को अप्रीति उत्पन