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श्री जन सिदान्त बोल संग्रह, सातवां माग २१३ एमाणे,दाहिणाओ वा हणुयाओचामं हणुयं णो संचारेज्जा आसाएमाणे |से अणासायमाणे लाघवियं आगममाणे । तवे से अभिसमन्नागए भवइ ॥४॥
भावार्थ- साधु या साध्वी अशनादि काश्राहार करते समय, स्वाद के लिये ग्रास को मुंह में बांयी ओर से दाहिनी ओर, और दाहिनी ओर से बांयी ओर न करे । इस प्रकार स्वाद का त्याग करने से साधु श्राहार विषयक लघुता--निश्चिन्तता प्राप्त करता है और उसके तप कहा गया है ।
(श्राचाराग आठयां अध्ययन छठा उद्देशा सूत्र २१७) अलोलो न रसे गिद्धो,जिन्भादतो अमुच्छिओ। न रसट्ठाए मुंजिज्जा, जवणहाए महामुणी ॥५॥
भावार्थ-जिह्वा को वश करने वाला अनासक मुनि सरस आहार में लोलुपता एवं गृद्धि का त्याग करे । महामुनि स्वाद के लिये नहीं किन्तु संयम का निर्वाह करने के लिये भोजन करे ।
(उचराध्ययन पैतीसवां अध्ययन गाथा १७ ) आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरजवोदगं च । नोहीलए पिंडं नीरसंतु,पंतकुलाणि परिन्चए सभिक्खू ।।
भावार्थ-ग्रोसामण, जौ का दलिया, ठंडा भोजन, कॉजी का पानी, जौ का पानी, इस प्रकार स्वाद रहित नीरस मिक्षा पाकर भी जो साधु उसकी हीलना नहीं करता तथा असम्पन्न घरो में नाकर मिक्षा वृत्ति करता है वही सच्चा साधु है।
(उत्तराध्ययय पन्द्रहवा अध्ययन गाथा १३) तपि न स्वरसत्शं. न य वण्णत्थं न चेव दप्पत्थं । सजम भरवहणत्वं, अक्खोवंगं व वहणत्वं ॥७॥