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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवा भाग mmmmmmmmmmmmm
(१३-४६) चौतीस व्यंजन-पचीस स्पर्श, चार अन्त:स्थ, चार ऊष्मा और च । कख ग घ ङ च छ ज झ न, ट ठ ड ढ ण, तथ द धन,प फ ब भ म-ये पचीस स्पर्श हैं । य र ल र अन्तःस्थ है शप सह ऊष्मा अक्षर हैं और छियालीसवाँ च अक्षर है।
(समवायाग ४६) सैंतालीसवां बोल संग्रह १०००--आहार के सैंतालीस दोष
सोलह उद्गम दोप, सोलह उत्पादना दोप, दस एपणा (ग्रहणेपणा) दोप और पंच ग्रासपणा (मांडला) के दोष-ये सभी मिलाकर आहार के सैंतालीस दोष कहे जाते हैं । सोलह उद्गम
और सोलह उत्पादनादोपों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के पाँच भाग में क्रमशः बोल नं० ८६५ और ८६६ में दिया गया है। एपणा के दस दोपों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में चोल ०६६३ में तथा ग्रासपणा (मांडला) के दोषों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के प्रथम माग में बोल नं० ३३० में दिया गया है।
अड़तालीसवां बोल संग्रह १००१-तिर्यञ्च के अड़तालीस भेद
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय-इनके सूक्ष्म, पादर के मेद से भाठ एवं पर्याप्त अपर्याप्त के मेद से सोलह भेद होते हैं । सूक्ष्म, प्रत्येक और साधारण के भेद से वनस्पति काय के तीन भेद है। पर्याप्त अपर्याप्त के मेह से इन तीन के छ भेद होते हैं। इस प्रकार स्थावर जीवों के बाईम भेद हुए। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन तीन विकलेन्द्रियों के पर्याप्त अपर्याप्त