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२२० श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा। कामे य पत्थेमाणा, अकामा जंति दोग्गई॥८॥ __ भावार्थ-कामभोग शन्य रूप हैं, विष रूप हैं और विषधर सर्प के समान हैं। कामभोगों का सेवन तो दूर रहा, केवल उनकी अभिलाषा करने से ही श्रात्मा दुर्गति में जाता है।
(उत्तराध्ययन नवां अध्ययन गाथा ५३) कामेसु गिद्धा णिचयं करंति,संसिच्चमाणा पुणरिति गभं|
भावार्थ-कामभोगों में आसक्ति रखने वाले प्राणी कर्मों का संचय करते हैं। कर्मोंसे पूर्ण होकर वे संसार में परिभ्रमण करते हैं।
___ (श्राचारांग तीसरा अध्ययन दूसरा उद्देशा स्त्र ११२) अम्मताय ! मए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा। पच्छा कड्डयविवागा, अणुबन्ध दुहावहा ॥१०॥
भावार्थ-हे माता पिता ! मैंने विष फल के सदृश इन भोगों को खूब भोगा है । अन्त में ये कटुक यानी अनिष्ट परिणाम वाले एवं निरन्तर दुःखदायी होते है । (उत्तराध्ययन उन्नीसवां अ० गाथा ११)
गुरू से कामा, तओसे मारते, जओरोमारते तओ से दूरे, नेव से अंतो नेव से दूरे ॥११॥
भावार्थ-अपरमार्थदर्शी आत्मा के लिये इन कामभोगों का त्याग करना अति कठिन है और इसी कारण वह जन्म मृत्यु के चक्र में फंसारहता है । जन्म मृत्यु के चक्र में फंसकर वह यथार्थ सुख से बहुत दूर रहता है । इस प्रकार विपयाभिलापी आत्मा विषय सुखों के प्राप्त न होने से न उनके समीप होता है और विषयाभिलापा कात्यागन करने के कारण, नवह उनसे दूर ही होता है।
(श्राचारांग पांचवां अध्ययन पहला उ० सूत्र १४२)