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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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उबलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पह | भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ||१२||
भावार्थ - शब्दादि भोग भोगने पर आत्मा कर्म मल से लिप्त होता है और भोगी लिप्त नहीं होता । भोगी संसार में परिभ्रमण करता है और मोगी संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है । (उत्तराध्ययन पचीसवां अध्ययन गाया ३६ ) विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसो व धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो ॥
भावार्थ - जैसे कालकूट विष पीने वाले को, उल्टा पकड़ा हुआ शस्त्र शस्त्रधारी को एवं मंत्रादि से वश नहीं किया हुआ वेताल सावक को मार डालता है । इसी प्रकार शब्दादि विपय वाला यतिधर्म भी वेशधारी द्रव्य साधु को दुर्गति में ले जाता है ।
( उत्तराध्ययन वीसवा अध्ययन गाथा ४४ ) तण कट्ठेहि व अग्गी, लवण जलो वा नईस हस्से हिं । न इमो जीवो सक्को, तिप्पेडं कामभोगेहिं ॥ १४ ॥
भावार्थ - जैसे व काष्ठों से अमि तृप्त नहीं होती, हजारों नदियों से भी लवण समुद्र को संतोष नहीं होता । इसी प्रकार कामभोगों से भी इस जीव की तृप्ति नहीं हो सकती ।
(
प्रकीर्णक गाथा ५० )
आतुरप्रत्याख्यान
जस्सिमे सदा य, रूवा य, गंधा य, रसा य, फासा य अहिसमन्नागया भवनि से आयबी, णाणवी, वेयवी, धम्मवी, बंभवी ॥१५॥
भावार्थ - जो आत्मा मनोज एवं मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शो में राग द्वेप नहीं करता, वही आत्मा ज्ञान, वेद (चाचा