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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
(२४) इसी शुभ योग संग्रह के लिये उसे उत्तरगुण विषयक प्रत्याख्यान भी करना चाहिये ।
(२५) योगों की प्रशस्तता के लिये साधु को द्रव्य एवं भाव दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना चाहिये ।
(२६) शुभयोगों के लिये साधु को प्रमाद छोड़ना चाहिये।
(२७) योग की प्रशस्तता के लिये साधु को प्रति क्षण शास्त्रोक्त समाचारी के अनुष्ठान में लगे रहना चाहिये ।
(२८)शुभ योग संग्रह के लिये साधु को शुभ ध्यान रूप संवर क्रिया का आश्रय लेना चाहिये।
(२६) प्रशस्त योग चाहने वाले साधु को मारणान्तिक वेदना का उदय होने पर भी घबराना न चाहिये।
(३०) शुभयोग संग्रहार्थी साधु को ज्ञपरिज्ञा से विषय संग हेय जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा द्वारा उसका त्याग करना चाहिये।
(३१) योगों की प्रशस्तता के लिये साधु को दोष लगने पर प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होना चाहिये।
(३२) प्रशस्त योग संग्रह के लिये साधु को अन्त समय संलेखना कर पण्डित मरण की आराधना करनी चाहिये। (उत्तराध्ययन अ० ३१ गाथा २० टीका) (प्रश्नव्याकरण ५ धर्मद्वार सूत्र २६ टीका) (समवायांग ३२) (हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन गाथा १२७४ से १२७८) ६६६ वत्तीस सूत्र
ग्यारह अङ्ग, वारह उपाङ्ग, चार मूल सूत्र, चार छेद सूत्र और श्रावश्यक ये बत्तीस सूत्र है । ग्यारह अङ्ग और बारह उपाङ्ग का विशद वर्णन इसी ग्रन्थ के चौथे भाग में क्रमशः बोलनं० ७७६
और ७७७ में दिया गया है। चार मूल सूत्र और चार छेद सूत्र का विषय वर्णन इसी ग्रंथ के प्रथम भाग में क्रमशः बोल नं.