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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला पूर्णिमा और आसोज बदी प्रतिपदा इन दो अस्वाध्यायों को बत्तीस अस्वाध्यायों में मिलाकर चौतीस अस्वाध्याय भी गिनते हैं । किन्तु निशीथ और स्थानाङ्ग दोनों में ही चार महाप्रतिपदाएं वर्णित हैं । व्यवहार भाष्य, हरिभद्रीयावश्यक आदि में भी महाप्रतिपदाएं चार ही मानी हैं । पांच महाप्रतिपदाओं का उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता। इसीलिए यहाँ बत्तीस अस्वाध्याय दिये हैं।
(२६-३२) प्रातःकाल, दुपहर, सायंकाल और अर्द्धरात्रि ये चारों संध्याए हैं। इन संध्याओं में भी स्वाध्याय न करना चाहिये ।
स्थानांग सूत्र में उक्न प्रकार से बत्तीस प्रस्वाध्यायों का वर्णन है । व्यवहार भाष्य एवं हरिभद्रीयावश्यक में भी भस्वाध्यायों का वर्णन है पर वह और ढंग से दिया गया है। वहां प्रात्मसमुत्थ और परसमुत्थ के भेद से अखाध्याय के दो प्रकार कहे हैं। आत्मसमुत्थ (अात्मा से होने वाले) अखाध्याय एक या दो प्रकार के हैं। एक प्रकार का अर्थात् व्रण से होने वाला अस्वाध्याय साधु के होता है और दो प्रकार के अर्थात् व्रण एवं मासिकधर्म से होने वाले आत्मसमुत्थ अस्वाध्याय साध्वी के होते हैं। परसमुत्थ अर्थात् आत्मभिन्न कारणों से होने वाले अस्वाध्याय के पांच प्रकार दिये हैं-संयमपाती, औत्पातिक, देवताप्रयुक्त, व्युद्ग्रह जनित एवं शरीर से होने वाला अस्वाध्याय । अस्वाध्याय के इन पांच भेदों के प्रभेदों में उक्त बत्तीसों अस्वाध्यायों का तथा औरों का भी वर्णन दिया गया है। संयमघाती के अन्तर्गत महिका, वर्षा और सचित्त रज के अस्वाध्याय दिये है। औत्पातिक अस्वाध्याय में पांशुवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरवृष्टि, केशवृष्टि, शिलावृष्टि (ोलों की वर्षा) तथा रज उद्घात-इन्हें अस्वाध्याय माना है। देवताप्रयुक्त अस्वाध्याय में गंधर्वनगर, दिग्दाह, विद्युत्, उल्का, यूपक, और यक्षादीप्त अस्वाध्यायों का वर्णन है। इनमें गंधर्व