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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ६६ (6) उनके दोनों ओर तेजोमय (प्रकाशमय) श्रेष्ठ चवर रहते हैं। (8) भगवान के लिये आकाश के समान स्वच्छ, स्फटिक मणि का बना हुआ पादपीठ वाला सिंहासन होता है। (१०) तीर्थङ्कर देव के आगे आकाश में बहुत ऊँचा हजारों छोटी छोटी पताकाओं से परिमण्डित इन्द्रध्वज चलता है।
(११) जहाँ भगवान ठहरते हैं अथवा बैठते है वहां पर उसी समय पत्र पुष्प और पल्लव से शोभित, छत्र, वज, घंटा और पताका सहित अशोक वृक्ष प्रगट होता है।
(१२) भगवान् के कुछ पीछे मस्तक के पास अतिभास्वर (देदीप्यमान) भामण्डल रहता है।
(१३) भगवान् जहाँ विचरते है वहाँ का भूभाग बहुत समतल एवं रमणीय हो जाता है। (१४) भगवान जहाँ विचरते हैं वहाँ काँटे अधोमुख हो जाते हैं। (१५) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ ऋतुएं सुखस्पर्श वाली यानी अनुकूल हो जाती हैं।
(१६) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ संवर्तक वायु द्वारा एक योजन पर्यन्त क्षेत्र चारों ओर से शुद्ध साफ हो जाता है।
(१७) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ मेघ आवश्यकतानुसार परस कर आकाश एवं पृथ्वी में रही हुई रज को शान्त कर देते हैं।
(१८) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ जानुप्रमाण देवकृत पुष्पवृष्टि होती है । फूलों के डंठल सदा नीचे की ओर रहते हैं।
(१३) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श,रस, रूप और गंध नहीं रहते।
(२०) भगवान् जहाँ विचरते हैं वहाँ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध प्रगट होते हैं। (२१) देशना देते समय भगवान का स्वर अतिशय हृदयस्पशी