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श्री जन सिदान्त बोज पह, साता भाग १२१ नोट-अठारह पापस्थानों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के पाचवें माग में बोल नं. ८९५ में दिया गया है।
(२५) प्रश्न-ईर्यासमिति पूर्वक यतना से जाते हुए साधु से चींटी आदिका मर जानाद्रव्य हिंसा कही है। पर यह भाव हिंसा नहीं है क्योंकि प्रमत्त योग से होने वाले प्राणीवध को हिंसा कहा गया है।
जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुच्च जे सत्ता। वावज्जंति नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ ॥
भावार्थ-जो प्रमादी पुरुष है उसके व्यापार से जिन जीवों की हिंसा होती हैं। उनका हिंसक नियमतः वह प्रमादी ही है।
इस प्रकार द्रव्य हिंसा में हिंसा का लक्षण घटित न होते हुए भी वह हिंसा कैसे कही गई? ___ उत्तर-ऊपर जो हिंसा की व्याख्या की गई है वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा की है वैसे द्रव्य हिंसा तो मरण मात्र में रूद्ध है और इस अपेक्षा उक्त हिंसा को द्रव्य हिंसा कहना असंगत नहीं है। (भगवती पहला शतक तीसरा उद्देशा टीका) (२६) प्रश्न-क्या सभी मनुष्य एक सी क्रिया वाले होते हैं ?
उत्तर-सभी मनुष्य एक सी क्रिया वाले नहीं होते । भगवती सूत्र प्रथम शतक के दूसरे उद्देशे में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। संयत, संयतासंयत और असंयत के भेद से मनुष्य तीन प्रकार के हैं। संयत के दो भेद है-सराग संयत और वीतराग संयत । उपशान्त एवं क्षीण कपाय पाले महात्मा वीतराग संयत होते है। राग रहित होने के कारण वे पारम्मादि नहीं करते। अतएव वे क्रिया रहित होते हैं । सरागसंयत के भी दो भेद हैं-प्रमत्त संयत और अप्रमत्संयत । कपायक्षीण या उपशांत न होने के कारण अप्रमत्त संयत के केवल मायाप्रत्यया क्रिया होती है। प्रमच संयत के कपाय भी वीण नहीं होते तथा प्रमादपूर्वक प्रवृत्ति भी होती है