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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
लिये धर्मही एक मात्र द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है और उचम शरण है।
(उत्तराध्ययन तेइसवां अध्ययन गाथा ६८) मरिहिसिराय!जयातया वा,मणोरसे कामगुणे विहाय। इक्कोहु धम्मो नरदेव ताणं,न विजई अण्णमिहेह किंपिण ___ भावार्थ-हे राजन् ! इन मनोरम शब्द रूप श्रादि कामगुखों. का त्याग कर एक दिन अवश्य मरना होगा। उस समय केवल, एक धर्म हो शरण रूप होगा। हे नरदेव ! इस संसार में धर्म के सिवाय आत्मा की रक्षा करने वाला कोई नहीं है।
(उत्तराध्ययन चौदहवां अध्ययन गाथा ४०) लन्भंति विमला भोगा, लन्भंति सुरसंपया । लभति पुत्त मित्तं च, एगो धम्मो न लन्भइ ॥५॥
भावार्थ-मनोरम प्रधान भोग सुलभ है, देवता की सम्पचि पाना भी सहज है। इसी प्रकार पुत्र मित्रों का सुख भी प्राप्त हो जाता है किन्तु धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। (प्रास्ताविक) • जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न वढइ ।
जाविंदिया न हायति, ताच धम्म समायरे ॥ ६ ॥
भावार्थ-जब तक बुढ़ापा नहीं सताता,जब तक व्याधियाँ नहींपंदतीं, जब तक इन्द्रियों की शक्ति हीन नहीं होती तब तक धर्म को आचरण कर लेना चाहिये। ... . (दशवैकालिक अाठवां अध्ययन गाथा ३६) · अद्धाणं जो महंत तु, सपाहेजो पवबई । "गठछंतो सो सुही होइ, छुहातण्हाविवजिओ ॥७॥' एवं धम्म पि काऊण, जो गच्छइ परं भवं । गच्छतो सो सुही होइ, अप्पकस्मे अवेयणे ॥ ८ ॥ भावार्थ-जो पथिक पाथेय (भाता) साथ लेकर लम्बी. पात्रा