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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह, सातवा भाग १५३ करता है यह रास्ते में भूख और प्यास से तनिक भी पीड़ित न होकर अत्यन्त सुखी होता है । इसी प्रकार जो मनुष्य यहाँ भालमाँति धर्म की आराधना कर परलोक में जाता है । वह वहाँ अन्पकर्म याला एवं वेदनारहित होकर परम सुस्त्री होता है।
(उत्तराध्ययन उन्नीसवा अध्ययन गाथा २०-२१) २-नमस्कार माहात्म्य ते अरिहंता सिद्धाऽऽयरिओवज्झाय साहवो नेया । जे गुणमयभावाओ गुणा व पुजा गुणत्थीणं ॥१॥ भावार्थ-अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ये ज्ञानादि गुण सहित हैं । अतएव गुणामिलापी भव्यात्माओं के लिये ये मूर्तिमान गुणों की तरह पूज्य हैं।
मोक्खत्यिणो व मोक्खहेगवो दसणादितियगं व । तो ते ऽभिवंदणिज्जा जइ व मई हेयवो कह ते ॥२॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की तरह ये पाँचों पद मुमुनुओं के मोक्ष के हेतु हैं। अतएव ये उनके चन्दनीय हैं। पाँचों पद मोक्ष के हेतु इस प्रकार हैं
मग्गो अविप्पणासो आयारे विणयया सहायत्तं । पंचविहणमोक्कारं करेमि एएहिं हेअहिं ॥३॥
भावार्थ-सम्यग्दर्शनादि रूप मुक्ति का मार्ग अरिहन्त भगवान् का दिखाया हुआ है। सिद्धों के अग्निश्वर शाश्वतत्व गुण को जान कर प्राणी संसार से विमुख होकर मोक्ष के लिये प्रयत्न करते हैं। प्राचार्य स्वयं प्राचारवन्त एवं श्राचार के उपदेशक होते हैं, उन्हें प्राप्त कर भन्यजीव ज्ञानादि प्राचार का ज्ञान प्राप्त करते हैं एवं उनका आचरण करते हैं । उपाध्याय को प्राप्त कर भव्यात्मा कर्म नाश करने वाले ज्ञानादि विनय की आराधना करते हैं।