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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग
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३६-प्रमाद समयं गोयम ! मा पमायए ॥१॥ . भावार्थ-हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो।
(उचराध्ययन दसवा अध्ययन ) मज्जं विसय कसाया, निद्दा विगहा य पंचमी भणिया। इअ पंचविहो एसो, होइ पमाओ य अपमाओ ||२||
भावार्थ-मद्य (नशा), विषय, कपाय, निद्रा और विकथा ये पाँच प्रकार के प्रमाद हैं। इनका अभाव रूप अप्रमाद भी पाँच ही प्रकार का है। (उत्तराधयन चौथा अ० नियुक्ति गाथा १८०)
पमा कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं ।। तभावादेमओ वावि, बाले पण्डियमेव वा ॥३॥
भावार्थ-तीर्थङ्कर देव ने प्रमाद को कर्म कहा है और अप्रमाद को कर्म का प्रभाव बतलाया है अर्थात् प्रमादयुक्त प्रवृत्तियाँ कर्म बन्धन कराने वाली हैं और जो प्रवृत्तियाँ प्रमाद से रहित हैं वे कर्म वन्धन नहीं करातीं। प्रमाद के होने और न होने से ही मनुष्य क्रमशः मूर्ख और पण्डित कहलाता है । ( सूयगडाग श्र० ८ गाथा ३) सन्चओपमत्तस्स भयं,सचओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं।
भावार्थ-प्रमादी को चारों ओर से भय ही भय है, अप्रमत्त पुरुष को कहीं से भी भय नहीं है ।
(पाचाराग तीसरा अध्ययन तीसरा उ० सूत्र १२४) पमत्ते पहिया पास, अप्पमत्तो परिवए ॥२॥ भावार्थ-विषय कपाय आदि प्रमाद का सेवन करने वालों