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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
( प्रसन्नचित्त) एवं अलंकृत होकर क्रीड़ा करते हैं ।
(उत्तराध्ययन अठारहवा अध्ययन गाथा १५, १६ ) मच्चुणा Sभाहओ लोओ, जराए परिवारिओ । अमोहा रयणी वुत्ता, एवं ताय वियाणह ||९||
भावार्थ - हे पिताजी ! यह लोक मृत्यु से पीड़ित है एवं जरा ( बुढ़ापा से घिरा हुआ है। दिन रात रूप अमोघ शस्त्र हैं जो प्रति क्षण प्राणियों के जीवन का नाश कर रहे हैं ।
( उत्तराध्ययन चौदहवा अध्ययन गाथा २३ )
जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ किस्सन्ति अंतवो । १९ ।
भावार्थ - संसार में जन्म का दुःख है, जरा का दुःख है और रोग तथा मृत्यु का दुःख है । अहो ! संसार ही दुःख रूप है जहाँ प्राणी क्लेश-दुःख प्राप्त करते हैं। (उतराध्ययन उन्नीसवां श्र० गाथा १६ )
इहलोग दुहावहं विऊ, परलोगे वि दुहं दुहावहं । विद्धंसण धम्ममेव तं इइ विजं को गारमावसे |११|
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भावार्थ - स्वजन, सम्बन्धी, परिग्रह आदि इसलोक और परलोक में दुःख देने वाले हैं तथा सभी नाशवान् हैं । यह जान कर गृहस्थ में रहना कौन पसन्द करेगा ? (सूयगडांग अ० २३०२ गाथा १० )
जह जह दोसोवरमो, जह जह विसएसु होइ वेरग्गं । तह तह वियाणाहि, आसन्नं से पयं परमं ॥ १२ ॥
भावार्थ-ज्यों ज्यों दोष शान्त होते जाते हैं और विषयों में विराग होता जाता है त्यों त्यों आत्मा को परमपद यानी मोच के अधिकाधिक समीप समझो । ( मरणसमाधि प्रकीक गाया ६३१ )