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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवाँ भाग
१०५ परिणत हुए हैं इसलिए इनकी चिन्तनीय वस्तु यह होनी चाहिए। इस प्रकार अनुमान द्वारा वह चिन्तनीय घटादि वस्तुएं जानता है। ( विशेषावश्यक भाष्य गाथा ८१० से ८१४ )
(E) प्रश्न - शास्त्रों में मन:पर्ययदर्शन नहीं कहा गया है, फिर नन्दी सूत्र में मन:पर्ययज्ञान के वर्णन में सूत्रकार ने 'अनन्तप्रदेशी स्कन्ध जानता है और देखता है' यह कैसे कहा ?
उत्तर - मन:पर्ययज्ञान विशिष्ट क्षयोपशम से होने के कारण वस्तु को विशेष रूप से ही ग्रहण करता है पर सामान्य रूप से ग्रहण नहीं करता। यही कारण है कि मनःपर्ययदर्शन नहीं माना गया है।' नन्दी सूत्र की टीका में टीकाकार ने सूत्रकार के 'देखता है' शब्दों का स्पष्टीकरण इस प्रकार किश है --
मन:पर्ययज्ञानी मनोद्रयों द्वारा चिन्तित घटादि साचात् नहीं जानता किन्तु यदि ये पदार्थ चिन्तन के विषय न होते तो मनोद्रव्यों की इस प्रकार विशिष्ट परिणति नहीं होती' इस प्रकार अनुमान द्वारा जानता है और वहाँ मनःकारणक चनुदर्शन होता. है । इस यचदर्शन की अपेक्षा सूत्रकार ने 'मन:पर्ययज्ञानी देखता है' इस प्रकार कहा है । यही बात चूर्णिकार ने भी कही है
मुणियत्वं पुण पञ्चखओ न पेक्खड़, जेण मणोदव्वालेवणं मुत्तममुत्तं वा, सो य छउमत्थो तं अणुमाणओ पेक्खड़, अओ पासणिया भणिया ।
भावार्थ - मन:पर्ययज्ञानी चिन्तित अर्थ को प्रत्यक्ष से नहीं देखता है क्योंकि मोद्रव्य का विषय मूर्त अथवा अमूर्त होता है । मनः पर्यज्ञान है इसलिये वह उसे अनुमान से देखता है इसीलिये मन:पर्ययज्ञानी के लिये देखना कहा गया है ।
विशेषावस्यक भाष्य में भी इसका स्पीकरण इसी प्रकार किया गया है | जैसे कई याचायों के मत से श्रुतज्ञानी अत्रदर्शन'