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श्री जैन सिद्धान्त बाल संग्रह, सातवां भाग १ वन्दना करना भी कारण दोष से दूषित है क्योंकि इस वन्दना का मुख्य उद्देश्य ज्ञान नहीं किन्तुं पूजा प्रतिष्ठा है।
(१६) स्तैन्य-दूसरे साधु या श्रावक मुझे चन्दना करते हुए देख न लें, मेरी लघुता प्रगट न हो, इस भाव से चोर की तरह छिप कर या उनकी दृष्टि बचाते हुए वन्दना करना स्तैन्य दोप है।
(१७) प्रत्यनीक-गुरु महाराज आहारादि करते हों उस समय उन्हें वन्दना करना प्रत्यनीक दोष है।।
(१८) मट-क्रोध से जलते हुए वन्दना करना रुट दोष है।
(१३) तर्जित-'आप तो काष्ठमूर्ति की तरह हैं, वन्दना न करने से न नाराज होते हैं और वन्दना करने से न प्रसन्न ही होते है। इस प्रकार तर्जना देते हुए बन्दना करना तर्जित दोष है। अथवा 'यहाँ जनता के बीच मुझ से चन्दना करा रहे हो, पर अकेले में पता लगेगा, इस प्रकार वन्दना करते हुए मस्तक अथवा अंगुली से गुरु को धमकी देना तर्जित दोप है।
(२०)शठ-'विधिवत् वन्दना करने से श्रावक आदि का मुझ पर विश्वास बढ़ेगा इस अभिप्राय से भाव विना सिर्फ दिखावे के लिये चन्दना करना शट दोष है । अथवा बीमारी का झूटा बहाना कर सम्यक् प्रकार से वन्दना न करना शठ दोप है।
(२१) हीलिन-'आपको वन्दना करने से क्या लाभ ? इस प्रकार हँसी करते हुए अवहेलनापूर्वक वन्दना करना हीलित दोष है।
(२२) विपरिकुंचित-वन्दना को अधरी छोड़ कर देश आदि की कथा करने लगना विपरिकुंचित दोप है।
(२३) दृष्टादृष्ट बहुत से साधु चन्दना कर रहे हों उस समय किसी साधु की आड़ में वन्दना किये बिना खड़े रहना या अंधेरी जगह में वन्दना किये बिना ही चुपचाप जाकर बैठ जाना तथा प्राचार्यादि के देख लेने पर वन्दना करने लगना दृष्टादृष्ट दोप है।