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श्री सेठिया जन प्रन्थमाला
(२४) श्रृंग-वन्दना करते समय ललाट के बीच दोनों हाथ न लगा कर ललाट की वाँयीं या दाहिनी तरफ लगाना शृंगदोष है।
(२५) कर-वन्दना को निर्जरा का हेतु न मान कर उसे अरिहंत भगवान् का कर (महसूल) समझना कर दोष है।
(२६) मोचन-साधु व्रत लेकर हम लौकिक कर (महसूल) से छूट गये परन्तु वन्दना रूप अरिहन्त भगवान् के कर से मुक्ति न हुई-यह सोचते हुए वन्दना करना मोचन दोष है। अथवा वन्दना से ही मुक्ति संभव है, चन्दना विना मोक्ष न होगा, यह सोच कर विवशता के साथ वन्दना करना मोचन दोप है।
(२७) आश्लिट अनाश्लिष्ट-'होकायं काय' इत्यादि आवर्त देते समय दोनों हाथों से रजोहरण और मस्तक को छूना चाहिये। ऐसा न कर केवल रजोहरण को छूना और मस्तक को न छूना, या मस्तक को छूना और रजोहरण को न छूना अथवा दोनों को ही न छूना प्राश्लिष्ट अनाश्लिष्ट दोष है।
(२८)ऊन-पावश्यक वचन एवं नमनादि क्रियाओं की अपेक्षा अधूरी वन्दना करना अथवा उत्सुकता के करण थोड़े ही समय में वन्दना की क्रिया समाप्त कर देना ऊन दोप है।
(२६) उत्तर चूड़ा-वन्दना देकर पीछे ऊँचे स्वर से 'मत्थएण वंदामि' कहना उत्तरचूड़ा दोष है।
(३०)मूक-पाठ का उच्चारण न कर वन्दना करना मूक दोप है।
(३१) ढड्ढर-ऊँचे स्वर से वन्दनासूत्र का उच्चारण करते हुए • वन्दना करना ढड्ढर दोप है।
(३२) चुडुली-अर्द्धदग्ध काष्ठ की तरह रजोहरण को सिरे से पकड़ कर उसे घुमाते हुए वन्दना करना चुइली दोप है। (हरिभद्रीयावश्यक वन्दनान्ययन गाथा १२०७से १२११) (सनियुक्तिकलघुभाष्यवृत्तिक वृहत्कल्प सूत्र तीसरा उद्देशा गाथा ४४७१ से ४४६४ टीका) (प्रवचनसारोद्धार दूसरा वन्दनक द्वार गाथा १५० से १७३)