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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
मछली की तरह शीघ्र पार्श्व फेर कर पास में बैठे हुए रत्नाधिक साधुओं को वन्दना करना मत्स्योदवृत दोष है ।
(६) मनसा प्रद्विष्ट - चन्दनयोग्य रत्नाधिक साधु में गुण विशेष नहीं है, यह भाव मन में रख कर असूया पूर्वक चन्दना करना मनसा प्रद्विष्ट दोष है। अथवा शिष्य को या उसके सम्बन्धी, मित्र आदि को आचार्य महाराज ने कोई कठोर या अप्रिय वचन कह दिया हो, इससे अथवा और किसी कारण से मन में द्वेष भाव रखते हुए वन्दना करना मनसा प्रद्विष्ट दोष है ।
(१०) वेदिकावद्ध - दोनों घुटनों के ऊपर, नीचे पार्श्व में अथवा गोदी में हाथ रख कर या किसी एक घुटने को दोनों हाथों के बीच में करके चन्दना करना वैदिकाबद्ध दोप है ।
(११) भय - आचार्यादि कहीं गच्छ से बाहर न कर दें इस भय से उन्हें चन्दना करना भय दोप है ।
(१२) भजमान - ये हमें भजते हैं यानी हमारे अनुकूल चलते हैं अथवा भविष्य में हमारे अनुकूल रहेंगे इस ख्याल से आचार्यादि को' भो आचार्य ! हम आपको वन्दना करते हैं' इस प्रकार निहोरा देते हुए वन्दना करना भजमान वन्दनक दोष है ।
(१३) मैत्री - वन्दना करने से याचार्यादि के साथ मैत्री हो जायगी, इस प्रकार मैत्री निमित्त वन्दना करना मैत्री दोप है । (१४) गौरव - दूसरे साधु यह जान लें कि यह साधु वन्दन विपयक समाचारी में कुशल है इस प्रकार गौरव की इच्छा से विधि पूर्वक यथावत् वन्दना करना गौरव दोष है।
(१५) कारण - ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सिवाय अन्य ऐहिक वस्त्रादि वस्तुओं के लिए चन्दना करना कारण दोष है । 'मैं लोक में पूज्य हो जाऊँगा, अन्य श्रुतधर साधुओं से बढ़ जाऊँगा' इस प्रकार पूजा प्रतिष्ठा के खातिर ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से