________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवां भाग ६१ (३०) आत्महित दुर्लभ है इसलिये साधु को स्नेह का त्याग कर, ज्ञानादि सहित होकर आश्रय का निरोध करते हुए विचरना । चाहिये । श्रुत चारित्र रूप धर्म ही उसका उद्देश्य होना चाहिये। जितेन्द्रिय होकर उसे तप में अपनी शक्ति लगा देनी चाहिये।
(३१) समस्त जगत् को जानने वाले ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जो सामायिक आदि कास्वरूप वतलाया है उसे इस आत्मा ने निश्चय ही पहले नहीं सुना है, यदि सुना भी हो तो उसका सम्यक् प्रकार से आचरण नहीं किया है।
(३२) आत्महित अति दुर्लभ है, मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र आदि अनुकूल अवसर है यह जानकर और उत्तम जिनधर्म को जानकर ज्ञानादि सहित अनेक पुरुपगुरु की इच्छानुसार उनके बताये मार्ग पर चल कर पाप से विरत हुए हैं एवं संसार से तिर गये हैं ऐसा मैं कहता हूँ। (सूयगडांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय अध्ययन द्वितीय उद्देशा)
तेतीसवाँ बोल संग्रह ९७५-तेतीस आशातनाएं
'आय' का अर्थ है सम्यग्दर्शनादि का लाभ और 'शातना' का अर्थ है खण्डना । सम्यग्दर्शनादि का घात करने वाली अविनय की क्रियाओं को आशातना कहा जाता है। एवं धम्मस्स विणो मूलं' कह कर शास्त्रकारों ने विनय का महत्व बतलाते हुए उसकी अनिवार्य आवश्यकता भी बतलादी है।धर्म का प्रासाद विनय की नींव पर खड़ा होता है । इसलिए विनय रहित क्रियाओं को आशातना (सम्यग्दर्शनादि का नाश करने वाली) कहना ठीक ही है। ये आशातनाएं तेतीस प्रकार की हैं। छोटी दीक्षा वाले साधु (शैक्ष) को रत्नाधिक (दीक्षा में पड़े) के साथ रहते हुए इनका