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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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भी दिगम्बर जैन मुमुक्षु मण्डल, देहरादून का पुष्प नं० २ जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला
द्वितीय भाग.
(चतुर्थ सस्करण
प्रकाशक
श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मडल,
देहरादून ___winta Fir-महान देश
np पुस्तक प्राप्ति स्थान नेमचन्द्र जैन, जैन बंधु पलटन बाजार, देहरादून-२४८००१ (यू० पी०)
मूल्य : चार रुपया
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प्रकाशकीय निघेदन , जगत के सब जीव सुख चाहते है अर्थात् दुख से भयभीत है । सुख पाने के लिए यह जीव सर्व पदार्थों को अपने भावो के अनुसार पलटना चाहता है। परन्तु अन्य पदार्थों को बदलने का भाव मिथ्या है क्योकि पदार्थ तो स्वयमेव पलटते है और इस जीव का कार्य मात्र ज्ञाता-दृष्टा है।
सुखी होने के लिए जिन वचनो को समझना अत्यन्त आवश्यक है। वर्तमान मे जिन धर्म के रहस्य को बतलाने वाले अध्यात्म पुरुष श्री कान जी स्वामी थे। ऐसे सतपुरुप के चरणो की शरण मे रहकर हमने जो कुछ सिखा पढा है उसके अनुसार प० कैलाश चन्द्र जी जैन द्वारा गुथित जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के सातो भाग जिन-धर्म के रहस्य को अत्यन्त स्पष्ट करने वाले होने से चौथी बार प्रकाशित हो रहे है।
इस प्रकाशन कार्य मे हम लोग अपने मडल के विवेकी और सच्चे, देव-गुरू-शास्त्र को पहचानने वाले स्वर्गीय श्री रूप चन्द्र जी, माज़रा : वालो को स्मरण करते हैं जिनकी शुभ प्रेरणा से इन ग्रन्थो का प्रकाशन कार्य प्रारम्भ हुआ था।
हम बडे भक्ति भाव से और विनय पूर्वक ऐसी भावना करते हैं कि सच्चे सुख के अर्थी जीव जिन वचनो को समझकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करे। ऐसी भावना से इन पुस्तको का चौथा प्रकाशन आपके हाथ मे है।
इस दूसरे भाग मे छहकारक, उपादन-उपादेय, योग्यता, निमित्तनैमित्तिक आदि विषयो का स्पष्टीकरण करके सौवा गाथा के चार बीलो को समझाया गया है ताकि भव्य जीव इन सबको समझकर धर्म की प्राप्ति कर मके।
विनीत श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मडल
देहरादून
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जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला
दूसरे भाग की विषय सूची पाठक्रम विषय
कितने प्रश्नोत्तर है लेखक को भूमिका
४० प्रश्नोत्तर है पहला पाठ छह कारक अधिकार
कारक किसे कहते है और उनके प्रकार छह कारक मे निश्चय-व्यवहार कैसे कर्ता कारक का स्पष्टीकरण
२६- ३१ कर्मकारक का स्पष्टीकरण
३२-४२ करण कारक का स्पप्टीकरण
४२-४६ सम्प्रदान कारक का स्पष्टीकरण ४६-- ४८ अपादान कारक का स्पष्टीकरण
४८- ५२ अधिकरण कारक का स्पष्टीकरण ५२-- ५६
कारको के विषय मे प्रश्नोत्तर दूसरा पाठ उपादान-उपादेय अधिकार
उपादान उपादेय की परिभापा ७१-६२ कुम्हार ने धडा बनाया-इस पर प्रश्नोत्तर ६३
बाकी दूसरे प्रश्नो पर उपादान उपादेय ९४-१२३ तीसरा पाठ योग्यता का स्वरूप
१२४-१३० चौथा पाठ निमित्तकरण का स्पष्टीकरण । १३०-१४५ पाचवा पाठ निमित्त नैमित्तिक का स्पष्टीकरण १४५-१६१ छठवा पाठ व्याप्य-व्यापक का स्पष्टीकरण । १६१-१६६ सातवा पाठ समयसार गाथा सौ के चार बोलो का कार्य १६६-१७४ आठवा पाठ मैने मुह से शब्द बोला इस पर
सौ प्रश्नोत्तरो के द्वारा स्पष्टीकरण १७४-२११ नवमा पाठ स्वतन्त्रता की घोषणा कलश २११ २१२-२३३ दसवा पाठ उपादान-निमित्त का ४७ दोहो मे सम्वार २३३-२४७
भारतीय स्ति-दर्शन के
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भाग २
प्रारम्भ से पहले अशुद्धियों को शुद्ध कीजिये
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अशुद्धि
मर्ग
त्रिकालो
जा
और शान्ति
मने
व्यकर्म
क्षक्षिण
जॉर
ठाक
त्रिकाला
नश्वर
उपपदान
उहादान कारण
उपादानकार
शुद्ध
मार्ग
त्रिकाली
जो
ओर शन्ति
माने
द्रव्यकर्म
क्षणिक
और
ठीक
त्रिकाती
नम्बर
उपादान
उपादान कारण
उपादान कारण
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जिनेन्द्र कथित विश्व व्यवस्था
"जोव अनन्त, पुद्गल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म-आकाश एक-एक और काल लोक प्रमाण असंख्यात है। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त-अनन्त गण हैं । प्रत्येक गुण में एक ही समय में एक पर्याय का उत्पाद, एक पर्याय का व्यय और गुण नौव्य रहता है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य के गुण में हो चुका है, हो रहा है और होता रहेगा।"
[जैनदर्शन का सार]
स्व-(१) अमूर्तिक प्रदेशो का पुज (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो
का धारी (३) अनादिनिधन (४) वस्तु आप है। पर-(१) मूर्तिक पुद्गल द्रव्यो का पिण्ड (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि
गुणो से रहित (३) नवीन जिसका सयोग हुआ है (४) ऐसे शरीरादि पुद्गल पर हैं । [मोक्षमार्गप्रकाशक]
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सम्पूर्ण दुःखों का अभाव होकर सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति का उपाय
अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती है । कोई किसी के आधीन नहीं हैं। कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होती । पर को परिणमित कराने का भाव मिथ्यादर्शन है।
[ मोक्षमार्गप्रकाशक]
अपने-अपने सत्त्व कूं, सर्व ऐसे चितव जोव तब, परत
वस्तु विससाय | ममत न थाय ॥
सत् द्रव्य लक्षणम् । उत्पाद व्यय धौम्य युक्तं सत् ।
[ मोक्षशास्त्र ]
"Permanancy with a Change" [ बदलने के साथ स्थायित्व ]
NO SUBSTANCE IS EVER DESTROYED IT CHANGES ITS FORM ONLY
[ कोई वस्तु नष्ट नहीं होती, प्रत्येक वस्तु अपनी अवस्था बदलती है । ]
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लेखक की भूमिका
अनादिकाल से परमगुरु सर्वज्ञदेव, अपरगुरु गणधरादि ने जिस वस्तुस्वरूप का वर्णन किया है, वही वस्तुस्वरूप पूज्य श्री कानजी स्वामी बतला रहे थे। उसी वस्तुस्वरूप का ज्ञान जो मेरे ज्ञान मे आया, उसे मैं सदैव प्रश्नोत्तरो के रूप मे लेखबद्ध करता रहा था। धीरे-धीरे सरल प्रश्नोत्तरो के रूप मे समस्त जैन-शासन का सार लेखबद्ध हो गया। मेरे विचार मे सत्य बात समझ मे न आने का मुख्य कारण जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पता न होना और जिनागम का रहस्य दृष्टि मे न आने से अपनी मिथ्या मान्यताओ के अनुसार शास्त्रो का अभ्यास करना है। जिसके फलस्वरूप अज्ञानी जीव स्वय की मिथ्यावुद्धि से ससार मार्ग का श्रद्धान-ज्ञान-आचरण करते हैं। वस्तुत किसी भी अनुयोग के जैन शास्त्र का स्वाध्याय करने से पूर्व यदि निम्न प्रश्नोत्तरो का मनन कर लिया जाय तो शास्त्रो का सही अर्थ समझने मे सुविधा रहेगी तथा ससार मार्ग से बचने का अवकाश रहेगा।
प्रश्न १-प्रत्येक वाक्य मे से चार बातें कौन-कौनसी निकालने से रहस्य स्पष्ट समझ मे पा सकता है ?
उत्तर-(१) जिन, जिनवर और जिनवरवृषभ क्या कहते है ? (२) जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो के कथन को सुनकर ज्ञानी क्या जानते हैं और क्या करते है ? (३) जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो के कथन को सुनकर सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि पात्र भव्य जीव क्या जानते हैं और क्या करते हैं ? (४) जिन-जिनवर और
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जिनवरवृपभो के कथन को सुनकर दीर्घ ससारी मिथ्यादृष्टि क्या जानते हैं और क्या करते हैं ?
प्रश्न २ - जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो ने पदार्थ का स्वरूप कैसा और क्या बताया है ? जिसके श्रद्धान से सर्व दुःख दूर हो जाता है ?
उत्तर- " अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी- अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती है, कोई किसी के आधीन नही है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नही होती।" जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो ने बताया है कि पदार्थों का ऐसा श्रद्धान करने से सर्वदुख दूर हो जाता है ।
प्रश्न ३ – जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो के ऐसे कथन को सुनकर ज्ञानी क्या जानते हैं और क्या करते हैं ?
उत्तर - केवली के समान पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान हो गया है, मात्र प्रत्यक्ष और परोक्ष का अन्तर रहता है । ज्ञानी अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव मे विशेष स्थिरता करके श्रेणी मांडकर सिद्धदशा की प्राप्ति कर लेते है ।
प्रश्न ४ – जिन-जिनवर प्रौर जिनवरवृषभो के कथन को सुनकर सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि पात्र भव्य जीव क्या जानते हैं और क्या करते हैं ?
उत्तर - अहो - अहो ! जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो का कथन महान उपकारी है तथा प्रत्येक पदार्थ की स्वतन्त्रता ध्यान मे आ जाती है । अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर ज्ञानी वनकर ज्ञानी की तरह निज- स्वभाव मे विशेष एकाग्रता करके श्रेणी मांडर सिद्धदशा की प्राप्ति कर लेते है ।
प्रश्न ५ - जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो के कथन को सुनकर दीर्घ संसारी मिथ्यादृष्टि क्या जानते हैं और क्या करते हैं ?
उत्तर – जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो के कथन का विरोध
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C
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(५) करते हैं तथा मिथ्यात्व की पुष्टि करके चारो गतियो मे घूमते हुए निगोद चले जाते हैं।
प्रश्न ६-प्रथम किन-किन पाच बातो का निर्णय करके शास्त्राभ्यास करे तो कल्याण का अवकाश है ?
उत्तर-(१) व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एक द्रव्य का उसकी पर्याय मे ही होता है, दो द्रव्यो मे व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध कभी भी नहीं होता हैं। (२) अज्ञानी का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध शुभाशुभ विकारीभावो के साथ कहो तो कहो, परन्तु पर द्रव्यो के साथ तथा द्रव्यकर्मों के साथ तो व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध किसी भी अपेक्षा नहीं है। (३) ज्ञानी का शुद्ध भावो के साथ व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। (४) मैं आत्मा व्यापक और शुद्धभाव मेरा व्याप्य है। ऐसे विकल्पो मे भी रहेगा तो धर्म की प्राप्ति नही होगी। (५) मैं अनादिअनन्त ज्ञायक एकरूप भगवान हूँ और मेरी पर्याय मे मेरी मूर्खता के कारण एक-एक समय का बहिरात्मपना चला आ रहा है ऐसा जाने-माने तो तुरन्त बहिरात्मपने का अभाव होकर अन्तरात्मा बन जाता है। इन पाँच बातो का निर्णय करके शास्त्राभ्यास करे तो कल्याण का अवकाश है ।
प्रश्न ७-आगम के प्रत्येक वाक्य का मर्म जानने के लिए क्याक्या जानकर स्वाध्याय करें?
उत्तर-चारो अनुयोगो के प्रत्येक वाक्य मे (१) शब्दार्थ, (२) नयार्थ, (३ मतार्थ, (४) आगमार्थ और (५) भावार्थ निकालकर स्वाध्याय करने से जैनधर्म के रहस्य का मर्मी बन जाता है । प्रश्न ८-शब्दार्थ क्या है ?
उत्तर-प्रकरण अनुसार वाक्य या शब्द का योग्य अर्थ समझना शब्दार्थ है।
प्रश्न ६-नयार्थ क्या है ?
उत्तर-किस नयका वाक्य है ? उसमे भेद-निमित्तादि का उपचार बताने वाले व्यवहारनय का कथन है या वस्तुस्वरूप बतलाने वाले
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निश्चयनय का कथन है-उसका निर्णय करके अर्थ करना वह नयार्थ है ।
प्रश्न १० - मतार्थ क्या है ?
उत्तर - वस्तुस्वरूप से विपरीत ऐसे किस मत का ( साख्यबौद्धादिक) का खण्डन करता है । और स्याद्वाद मत का मण्डन करता है - इस प्रकार शास्त्र का कथन समझना वह मतार्थ है ।
प्रश्न ११ - आगमार्थ क्या है ?
उत्तर - सिद्धान्त अनुसार जो अर्थ प्रसिद्ध हो तदनुसार अर्थ करना वह आगमार्थ है ।
प्रश्न १२- भावार्थ क्या है ?
उत्तर— शास्त्र कथन का तात्पर्य - साराश, हेय उपादेयरूप प्रयोजन क्या है ? उसे जो बतलाये वह भावार्थ है । जैसे- निरजन ज्ञानमयी निज परमात्म द्रव्य ही उपादेय है, इसके सिवाय निमित्त अथवा किसी भी प्रकार का राग उपादेय नही है । यह कथन का भावार्थ है ।
प्रश्न १३ – पदार्थों का स्वरूप सीदे-सादे शब्दों में क्या है, जिनके श्रद्धान- ज्ञान से सम्पूर्ण दुःख का प्रभाव हो जाता है ?
उत्तर- " जीव अनन्त, पुद्गल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म - आकाश एक-एक और लोक प्रमाण असँख्यात काल द्रव्य हैं । प्रत्येक द्रव्य मे अनन्त - अनन्त गुण हैं । प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक गुण मे एक ही समय मे एक पर्याय का व्यय, एक पर्याय का उत्पाद और गुण घ्रोव्य रहता है । ऐसा प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक गुण मे हो चुका है, हो रहा है और होता रहेगा ।" इसके श्रद्धान- ज्ञान से सम्पूर्ण दुख का अभाव जिनागम मे बताया है ।
प्रश्न १४ -- किसके समागम मे रहकर तत्त्व का अभ्यास करना Tarfe और किसके समागम में रहकर तत्त्व का अभ्यास कभी नहीं करना चाहिए ?
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(७) उत्तर-ज्ञानियो के समागम मे रहकर ही तत्त्व अभ्यास करना ' चाहिए और अज्ञानियो के समागम मे रहकर तत्त्व अभ्यास कभी भी ___ नही करना चाहिए।
'प्रश्न १५-मोक्ष मार्ग प्रकाशक में 'ज्ञानियो के समागम मे तत्व अभ्यास करना और प्रज्ञानियो के समागम मे रहकर तत्त्व अभ्यास नहीं करना" ऐसा कहीं लिखा है ?
उत्तर-प्रथम अध्याय पृष्ठ १७ मे लिखा है कि "विशेष गुणो के धारी वक्ता का सयोग मिले तो बहुत भला है ही और न मिले तो श्रद्धानादिक गुणो के धारी वक्ताओ के मुख से ही शास्त्र सुनना । इस प्रकार के गुणो के धारक मुनि अथवा श्रावक सम्यग्दृष्टि उनके मुख से तो शास्त्र सुनना योग्य है और पद्धति बुद्धि से अथवा शास्त्र सुनने के लोभ से श्रद्धानादि गुण रहित पापी पुरुषो के मुख से शास्त्र सुनना उचित नही है।"
प्रश्न १६-पाहुड दोहा में "किसका सहवास नहीं करना चाहिए" ऐसा कहा लिखा है ? . उत्तर-पाहुड दोहा बीस मे लिखा है कि "विष भला, विषधर 'सर्प भला, अग्नि या बनवास का सेवन भी भला, परन्तु जिनधर्म से विमुख ऐसे मिथ्यात्वियो का सहवास भला नही।"
प्रश्न १७-अपना भला चाहने वाले को कौन-कौन सी सात बातो का निर्णय करना चाहिये ?
उत्तर-(२) सम्यग्दर्शन से ही धर्म का प्रारम्भ होता है । (२) सम्यग्दर्शन प्राप्त किए बिना किसी भी जीव को सच्चे व्रत, सामायिक प्रतिक्रमण, तप, प्रत्याख्यानादि नही होते, क्योकि वह क्रिया प्रथम पाचवे गुणस्थान मे शुभभावरूप से होती है। (३) शुभभाव ज्ञानी
और अज्ञानी दोनो को होते हैं। किन्तु अज्ञानी उससे धर्म होगा, हित होगा ऐसा मानता है। ज्ञानी की दृष्टि मे हेय होने से वह उससे कदापि हितरूप धर्म का होना नहीं मानता है। (४) ऐसा नही
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समझना कि धर्मी को शुभभाव होता ही नही, किन्तु वह शुभभाव को धर्म अथवा उससे क्रमश धर्म होगा-ऐसा नही मानता, क्योकि अनन्त वीतराग देवो ने उसे बन्ध का कारण कहा है। (५) एक द्रव्य । दूसरे द्रव्य का कुछ कर नही सकता, उसे परिणमित नहीं कर सकता, प्रेरणा नही कर सकता, लाभ-हानि नही कर सकता, उस पर प्रभाव नही डाल सकता, उसकी सहायता या उपकार नही कर सकता, उसे । मार-जिला नही सकता, ऐसी प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्याय की सम्पूर्ण स्वतन्त्रता अनन्त ज्ञानियो ने पुकार-पुकार कर कही है। (६) जिनमत मे तो ऐसा परिपाटी है कि प्रथम सम्यक्त्व और फिर व्रतादि होते । है । वह सम्यक्त्व स्व-परका श्रद्धान होने पर होता है तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है । इसलिए प्रथम द्रव्यानुयोग ' के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि बनना चाहिए। (७) पहले गुणस्थान मे जिज्ञासु जीवो को शास्त्राभ्यास, अध्ययन-मनन, ज्ञानी पुरुषो का धर्मोपदेश-श्रवण, निरन्तर उनका समागम, देवदर्शन, पूजा, भक्तिदान आदि शुभभाव होते हैं । किन्तु पहले गुणस्थान मे सच्चे व्रत, तप आदि नही होते है।
प्रश्न १८-उभयाभासी के दोनों नयो का ग्रहण भी मिथ्याबतला दिया तो वह क्या करे ? (दोनो नयो को किस प्रकार समझे ?)
उत्तर-निश्चयनय से जो निरुपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना और व्यवहारनय से जो निरुपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना।
प्रश्न १६-व्यवहारनय का त्याग करके निश्चयनय को अगीकार करने का आदेश कहीं भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने दिया है ?
उत्तर-हा, दिया है । समयसार कलश १७३ मे आदेश दिया है कि "सर्व ही हिंसादि व अहिंसादि मे अध्यवसाय है सो समस्त ही छोडना-ऐसा जिनदेवो ने कहा है । अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि-" इसलिये मैं ऐसा मानता है कि जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही
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छुडाया है तो फिर सन्तपुरुष एक परम त्रिकाली ज्ञायक निश्चय ही को अगीकार करके शुद्धज्ञानघनरूप निज महिमा में स्थिति क्यो नही करते ? ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रकट किया है ।
प्रश्न २० -- निश्चयनय को अगोकार करने और व्यवहारनय के त्याग के विषय मे भगवान कुन्दकुन्द श्राचार्य ने मोक्षप्राभुत गाथा ३१ मे क्या कहा है ? उत्तर—जो व्यवहार की श्रद्धा छोड़ता है वह योगी अपने आत्म कार्य मे जागता है तथा जो व्यवहार मे जागता है वह अपने कार्य मे सोता है । इसलिए व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है । यही बात समाघितन्त्र गाथा ७८ मे भगवान पूज्यपाद आचार्य ने बताई है।
प्रश्न २१ - व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ?
उत्तर ---व्यवहारनय ( १ ) स्वद्रव्य, परद्रव्य को (२) तथा उनके भावो को (३) तथा कारण-कार्यादि को, किसी को किसी मे मिला कर निरूपण करता है । सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना चाहिए और निश्चयनय उन्ही का यथावत निरूपण करता है । तथा किसी को किसी मे नही मिलाता और ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है । इसलिये उसका श्रद्धान करना चाहिए ।
प्रश्न २२ -- आप कहते हो कि व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना और निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना । परन्तु जिनमार्ग मे नयों का ग्रहण करना कहा है। उसका क्या कारण है ?
उत्तर - जिनमार्ग मे कही तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो सत्यार्थ ऐसे ही है - ऐसा जानना तथा कही
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(१०) व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है। उसे “ऐसे है नही, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है"-ऐसा जानना । इस प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है।
प्रश्न २३-कुछ मनीषी ऐसा कहते हैं कि "ऐसे भी है और ऐसे भी है" इस प्रकार दोनो नयो का ग्रहण करना चाहिये; क्या उन महानुभावो का कहना गलत है ?
उत्तर-हा, विल्कुल गलत है, क्योकि उन्हे जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है तथा दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी है और ऐसे भी है" इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनो नयो का ग्रहण करना नही कहा है ।
प्रश्न २४-व्यवहारनय असत्यार्थ है। तो उसका उपदेश जिनमार्ग मे किसलिये दिया ? एक मात्र निश्चयनय ही का निरूपण करना था।
उत्तर-ऐसा ही तर्क समयसार मे किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है-जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने में कोई समर्थ नहीं है; उसी प्रकार व्यवहार के बिना (ससार मे ससारी भाषा विना) परमार्थ का उपदेश अशक्य है । इस लिये व्यवहार का उपदेश है। इस प्रकार निश्चय का ज्ञान कराने के लिये व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं। व्यवहारनय है, उसका विषय भी है, परन्तु वह अगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्न २५-व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नहीं होता है। इसके पहले प्रकार को समझाइए?
उत्तर-निश्चय से आत्मा पर द्रव्यो से भिन्न स्वभावो से अभिन्न स्वयसिद्ध वस्तु है। उसे जो नही पहचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नही पाये । इसलिये उनको व्यवहारनय से शरीरादिक पर द्रव्यो की सापेक्षता द्वारा नर-नारक
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( ११ ) पृथ्वीकायादिकरूप जीव के विशेष किये, तब मनुष्य जीव है, नारको जीव है । इत्यादि प्रकार सहित उन्हे जीव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार विना (शरीर के सयोग विना) निश्चय के (आत्मा के) उपदेश का न होना जानना ।
प्रश्न २६-प्रश्न २५ में व्यवहारनय से शरीरादिक सहित जीव की पहचान कराई तब ऐसे व्यवहारनय को कैसे अगीकार नहीं करना चाहिए? सो समझाइए।
उत्तर-व्यवहारनय से नर-नारक आदि पर्याय ही को जीव कहा सो पर्याय ही को जीव नही मान लेना । वर्तमान पर्याय तो जीवपुदगल के सयोगरूप है । वहा निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न है-उस ही को जीव मानना । जीव के सयोग से शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा सो कथनमात्र ही है । परमार्थ से शरीरादिक जीव होते नही, ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार व्यवहारनय (शरीरादि वाला जीव) अगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्न २७-व्यवहार बिना (भेद बिना) निश्चय का (अभेद आत्मा का) उपदेश कैसे नहीं होता? इस दूसरे प्रकार को समझाइये।
उत्तर-निश्चय से आत्मा अभेद वस्तु है। उसे जो नही पहचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तो वे समझ नही पाये। तब उनको अभेद वस्तु मे भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुण-पर्यायरूप जीव के विशेष किये। तव जानने वाला जीव है, देखने वाला जीव है। इत्यादि प्रकार सहित जीव की पहचान हुई । इस प्रकार भेद विना अभेद के उपदेश का न होना जानना ।
प्रश्न २८-प्रश्न २७ मे व्यवहारनय से ज्ञान-दर्शन भेद द्वारा जीव को पहचान कराई। तब ऐसे भेदरूप व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना चाहिये ? सो समझाइये।
उत्तर-अभेद आत्मा मे ज्ञान-दर्शनादि भेद किये सो उन्हें भेद ।
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( १२ )
रूप ही नही मान लेना क्योकि भेद तो समझाने के अर्थ किये है । निश्चय से आत्मा अभेद ही है । उस ही को जीववस्तु मानना । सज्ञासंख्या - लक्षण आदि से भेद कहे सो कथन मात्र ही है । परमार्थ से द्रव्यगुण भिन्न-भिन्न नही है, ऐसा ही श्रद्धान करना । इस प्रकार भेदरूप व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नही है ।
प्रश्न २६ - व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नही होता ? इसके तीसरे प्रकार को समझाइये |
उत्तर - निश्चय से वीतराग भाव मोक्षमार्ग है । उसे जो नही पहचानते उनको ऐसे ही कहते रहे तो वे समझ नही पाये । तब उनको तत्त्व श्रद्धान ज्ञानपूर्वक, परद्रव्य के निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा व्यवहारनय से व्रत - शील-सयमादि at aai भाव के विशेष बतलाये तब उन्हे वीतरागभाव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार बिना निश्चय मोक्ष मार्ग के उपदेश का न होना जानना ।
प्रश्न ३० - प्रश्न २६ मे व्यवहारनय से मोक्ष मार्ग की पहचान कराई । तब ऐसे व्यवहारनय को कैसे अगीकार नहीं करना चाहिये ? सो समझाइए ।
उत्तर -- परद्रव्य का निमित्त मिलने की अपेक्षा से व्रत-शीलसयमादिक को मोक्षमार्ग कहा । सो इन्ही को मोक्षमार्ग नही मान लेना, क्योकि ( १ ) परद्रव्य का ग्रहण - त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता हर्ता हो जावे । परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन नही है । ( २ ) इसलिए आत्मा अपने भाव जो रागादिक है, उन्हे छोडकर वीतरागी होता है । ( ३ ) इसलिए निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है । ( ४ ) वीतराग भावो के और व्रतादिक के कदाचित कार्य-कारणपना ( निमित्त न मित्तिकपना) है, इसलिए, व्रतादि को मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है । परमार्थ से बाह्यक्रिया
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( १३ )
मोक्षमार्ग नही है - ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नही है, ऐसा जानना ।
प्रश्न ३१ - जो जीव व्यवहारनय के कथन को ही सच्चा मान लेता है उसे जिनवाणी मे किन-किन नामो से सम्बोधन किया है ?
उत्तर- (१) पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा ६ मे कहा है कि "तस्य देशना नास्ति" । (२) समयसार कलश ५५ मे कहा है कि "अज्ञानमोह अन्धकार है उसका सुलटना दुर्निवार है" । (३) प्रवचनसार गाथा ५५ मे कहा है कि "वह पद-पद पर धोखा खाता है" । ( ४ ) आत्मावलोकन में कहा है कि "यह उसका हरामजादीपना है" । इत्यादि सब शास्त्रो में मूर्ख आदि नामो से सम्बोधन किया है ।
प्रश्न ३२ -- परमागम के अमूल्य ११ सिद्धान्त क्या-क्या हैं, जो मोक्षार्थी को सदा स्मरण रखना चाहिए और वे जिनवाणी से कहाँकहाँ बतलाये हैं ?
उत्तर - ( १ ) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को स्पर्श नही करता है । [ समयसार गाथा ३ ] ( २ ) प्रत्येक द्रव्य की प्रत्येक पर्याय क्रमबद्ध ही होती है । [ समयसार गाथा ३०८ से ३११ तक ] (३) उत्पाद, उत्पाद से है व्यय या ध्रुव से नही है । [ प्रवचनसार गाथा १०१ ] ( ४ ) प्रत्येक पर्याय अपने जन्मक्षण मे ही होती है । [ प्रवचनसार गाथा १०२] (५) उत्पाद अपने पटकारक के परिणमन से ही होता है [ पचास्तिकाय गाथा ६२ ] (६) पर्याय और ध्रुव के प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं [ समयसार गाथा १८१ से १८३ तक ] (७) भाव शक्ति के कारण पर्याय होती ही है, करनी पडती नही । [ समयसार ३३वी शक्ति ] (८) निज भूतार्थ स्वभाव के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है । [ समयसार गाथा ११ ] ( 2 ) चारो अनुयोगो का तात्पर्य मात्र वीतरागता है । [ पंचास्तिकाय गाथा १७२ ] ( १०) स्वद्रव्य मे भी द्रव्य गुण- पर्याय का भेद विचारना वह अन्यवशपणा है । [
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( १४ )
१४५] (११) ध्रुव का आलम्बन है वेदन नही है और पर्याय का वेदन है, परन्तु आलम्बन नही है ।
प्रश्न ३३ - पर्याय का सच्चा कारण कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर - पर्याय का कारण उस समय पर्याय की योग्यता है । वास्तव मे पर्याय की एक समय की सत्ता ही पर्याय का सच्चा कारण है । [ अ ] पर्याय का कारण पर तो हो ही नही सकता है, क्योकि परका तो द्रव्य क्षेत्र - काल-भाव पृथक-पृथक हैं । [आ] पर्याय का कारण त्रिकाली द्रव्य भी नही हो सकता है क्योकि पर्याय एक समय की है यदि त्रिकाली कारण हो तो पर्याय भी त्रिकाल होनी चाहिए सो है नही । [इ] पर्याय का कारण अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय भी नही हो सकती है क्योकि अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही हो सकती है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि पर्याय का सच्चा कारण उस समय पर्याय की योग्यता ही है ।
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प्रश्न ३४ – मुझ निज आत्मा का स्वद्रव्य-परद्रव्य क्या - क्या है, जिसके जानने-मानने से चारो गतियो का अभाव हो जावे ?
उत्तर- (१) स्वद्रव्य अर्थात निर्विकल्प मात्र वस्तु परद्रव्य अर्थात सविकल्प भेद कल्पना, (२) स्वक्षेत्र अर्थात आधार मात्र वस्तु का प्रदेश, पर क्षेत्र अर्थात प्रदेशो मे भेद पड़ना (३) स्वकाल अर्थात वस्तुमात्र की मूल अवस्था, परकाल अर्थात एक समय की पर्याय, (४) स्वभाव अर्थात वस्तु के मूल की सहज शक्ति, परभाव अर्थात गुणभेद करना । [ समयसार कलश २५२]
प्रश्न ३५ - किस कारण से सम्यक्त्व का अधिकारी बन सकता है और किस कारण से सम्यक्त्व का अधिकारी नहीं बन सकता ? उत्तर - देखो | तत्त्व विचार की महिमा तत्त्व विचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रो का अभ्यास करे, व्रतादि पाले, तत्पश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नही और
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( १५ )
तत्त्व विचार वाला इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २६० ]
प्रश्न ३६ - जीव का कर्तव्य क्या है ?
उत्तर - जीव का कर्तव्य तो तत्त्व निर्णय का अभ्यास ही है इसी से दर्शन मोह का उपशम तो स्वमेव होता है उसमे ( दर्शनमोह के उपशम मे) जीव का कर्त्तव्य कुछ नही है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ३१४]
प्रश्न ३७ - जिनधर्म की परिपाटी क्या है ?
उत्तर - जिनमत मे तो ऐसी परिपाटी है कि प्रथम सम्यक्त्व होता है फिर व्रतादि होते हैं । सम्यक्त्व तो स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है, तथा वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने से होता है । इसलिए प्रथम द्रव्य-गुण पर्याय का अभ्यास करके सम्यग्दृष्टि बनना प्रत्येक भव्य जीव का परम कर्तव्य है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २९३ ]
प्रश्न ३८ - किन-किन ग्रन्थों का अभ्यास करे तो एक भूतार्थ स्वभाव का आश्रय बन सके ?
उत्तर - मोक्षमार्ग प्रकाशक व जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के सात भागो का सूक्ष्मरीति से अभ्यास करे तो भूतार्थ स्वभाव का aa art at |
प्रश्न ३६ - मोक्ष मार्ग प्रकाशक व जैन सिद्धांत प्रवेश रत्नमाला मे क्या-क्या विषय बताया है ?
उत्तर- छह द्रव्य, सात तत्त्व, छह सामान्य गुण, चार अभाव, छह कारक, द्रव्य-गुण पर्याय की स्वतन्त्रता, उपादान - उपादेय, निमित्त नैमित्तिक योग्यता, निमित्त समयसार सौवी गाथा के चार बोल, अपशमकादि पाच भाव, त्यागने योग्य मिथ्यादर्शनादि का स्वरूप तथा प्रगट करने योग्य सम्यग्दर्शनादि का स्वरूप तथा एक निज के आश्रय से ही धर्म की प्राप्ति हो सकती है, आदि विषयो का
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( १६)
रीति से वर्णन किया है ताकि जीव निज स्वभाव का आश्रय लेकर मोक्ष का पथिक बने।
प्रश्न ४०-क्या जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के सातभाग आपने बनाये है ?
उत्तर-जन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के सात भाग तो आहार वर्गणा का कार्य है। व्यवहारनय से निरूपण किया जाता है कि मैंने बनाये है। अरे भाई। चारो अनुयोगो के ग्रन्थो मे से परमागम का मूल निकालकर थोडे मे संग्रह कर दिया है। ताकि पात्र भव्य जीव सुगमता से धर्म की प्राप्ति के योग्य हो सके । इन सात भागो का एक मात्र उद्देश्य मिथ्यात्वादि का अभाव करके सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रमश मोक्ष का पथिक बनना ही है। भवदीय
कैलाश चन्द्र जैन
बन्ध और मोक्ष के कारण परद्रव्य का चिन्तन ही बन्ध का कारण है और केवल विशुद्ध स्वद्रव्य का चिन्तन ही मोक्ष का कारण है।
[तत्वज्ञानतर गिणी १५-१६] |
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सम्यक्त्वी सर्वत्र सुखी सम्यग्दर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है, परन्तु सम्यग्दर्शन रहित जीव का स्वर्ग मे रहना भी शोभा नहीं देता; क्योंकि आत्मज्ञान बिना स्वर्ग में भी वह दुःखी है।। जहाँ आत्मज्ञान है वहीं सच्चा सुख है।
[सारसमुच्चय-३९]
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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला
द्वितीय भाग
णमो अरहताणं, णमो सिद्धाण, णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूण ॥ १ ॥
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दायें जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ २ ॥ आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् । परभावस्य कर्तात्मा, मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥ ३ ॥
अज्ञान तिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ ४ ॥
उपादान निज शक्ति है जिय को मूल स्वभाव । है निमित्त पर योग तें वन्यो अनादि बनाव ॥ ५ ॥
उपादान अरु निमित्त ये सब जीवन पै वीर । जो निज शक्ति सम्भाल ही सो पहुंचे भवतीर ॥ ६ ॥
देव गुरू दोनो खड़े किसके बलिहारी गुरुदेव की भगवान दियो
करुणानिधि गुरुदेव श्री दिया ज्ञानी माने परख कर, करे मूढ
लागू पांव | बताय ॥ ७ ॥
सत्य
उपदेश । संक्लेश ॥ ८ ॥
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छह कारक पहला अधिकार
प्रश्न १-छह कारक अधिकार मे "अधिकार" शब्द क्या बताता
उत्तर-अपने त्रिकाली स्वभाव पर अधिकार माने तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होकर क्रम से मोक्ष की प्राप्ति होती है। पर वस्तुओ मे या विकारी भावो मे अपना अधिकार माने तो निगोद की प्राप्ति होती है जो जीव परवस्तुओ मे या विकारी भावो मे अपना अधिकार मानता है उसे हजार वार धिक्कार यह “अधिकार" शब्द बताता है ।
प्रश्न २-कारक किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो क्रिया का जनक हो अर्थात क्रिया को उत्पन्न करने वाला हो उसे कारक कहते हैं।
प्रश्न ३-कारक कौन कहला सकता है ?
उत्तर-जो किसी-न-किसी रूप मे क्रिया,व्यापार के प्रति प्रयोजक होता है, कारक वही हो सकता है अन्य नही।
प्रश्न ४-क्रिया शब्द के पर्यायवाची नाम क्या-क्या हैं ?
उत्तर-क्रिया को कर्म, अवस्था, पर्याय, हालत, दशा, परिणाम, परिणति भी कहते हैं।
प्रश्न ५-ससार मे क्या देखा जाता है ? उत्तर-कार्य देखा जाता है । प्रश्न ६-कार्य पर से कितने प्रश्न उठते हैं ? उत्तर-छह ही प्रश्न उठते हैं कम ज्यादा नही उठते है। प्रश्न -कार्य पर से छह प्रश्न कौन-कौन से उठते हैं ?
उत्तर-(१) किसने किया ? कर्ता । (२) क्या किया ? कर्म (३) किस सधिन द्वारा किया ? करण । (४) किसके लिए किया ? सम्प्रदान । (५) किसमे से किया ? अपादान। (६) किसके आधार से किया ? अधिकरण । इस प्रकार कार्य पर से छह ही प्रश्न उठते है।
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( १६ ) प्रश्न ८-कारक कितने हैं और कौन-कौन से हैं ?
उत्तर-छह हैं-(१) कर्ता (२) कर्म (३) करण (४) सम्प्रदान (५) अपादान और (६) अधिकरण ।
प्रश्न :-विभक्ति कितनी हैं ? उत्तर-सम्बोधन सहित आठ हैं। प्रश्न १०-कारको मे से कौन-कौन सी विभक्ति निकाल दी ? उत्तर-छठी सम्बन्ध विभक्ति और सम्बोधन को निकाल दिया।
प्रश्न ११-छठी सम्बन्ध विभक्ति और सम्बोधन को क्यो निकाल दिया?
उत्तर-(१) छठी विभक्ति सम्बन्ध को बताती है जैसे -मेरा मकान, मेरा भगवान । कारक की परिभाषा मे, “जो क्रिया का जनक हो उसे कास्क कहते है" । छठी विभक्ति मे कार्यपना नही पाया जाता और ज्ञानी किसी के साथ सम्बन्ध नही मानते, इसलिए छठी विभक्ति को निकाल दिया। (२) सम्बोधन मे-हे राम, हे लक्ष्मणपना पाया जाता है, क्रियापना नहीं पाया जाता और ज्ञानी किसी को सम्बोधते नही, क्योकि प्रत्येक आत्मा ज्ञान का कन्द है इसलिए सम्बोधन को भी निकाल दिया।
प्रश्न १२-विभक्ति के कितने अर्थ हैं ?
उत्तर-दो हैं (१) वि=विशेष रूप से। भक्ति-लीनता करना अर्थात् आत्मा मे विशेष प्रकार लीनता करना यह निश्चय भक्ति अर्थात् विभक्ति का पहला अर्थ है। (२) वि अर्थात् विशेष प्रकार से, भक्त अर्थात् पृथक् होना, यह विभक्ति का दूसरा अर्थ, है ।
प्रश्न १३-दूसरा विभक्ति का अर्थ जो "विशेष प्रकार से पृथक् होना" किया है यह किस-फिस से पृथक् होना है ?
उत्तर-(१) अत्यन्त भिन्न परपदार्थों से पृथक् होना (२) आँख नाक-कान रूप औदारिक शरीर से पृथक् होना (३) तैजस कार्माणशरीर से पृथक् होना (४) शब्द और मन से पृथका होना
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( २० )
(५) शुभाशुभ विकारी भावो से पृथक होना (६) अपूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्यायो के पक्ष से पृथक होना (७) भेदनय के पक्ष से पृथक होना (८) अभेदनय के पक्ष से पृथक होना ( ९ ) भेदाभेदनय के पक्ष से पृथक् होना ।
प्रश्न १४- प्रथम विभक्ति का अर्थ है " आत्मा मे विशेष प्रकार से लीनता" उसकी प्राप्ति कैसे हो ?
उत्तर- नौ प्रकार के पक्षो से मेरी आत्मा का कोई सम्बन्ध नही है ऐसा जानकर अपनी आत्मा जो अनन्त गुणो का अभेद पिण्ड है उसकी ओर दृष्टि करे तो " आत्मा मे विशेष प्रकार से लीनता की प्राप्ति होवे" ।
प्रश्न १५ - अपने मे विशेष प्रकार से भक्ति करने से क्या क्या होता है ?
उत्तर - अनादिकाल से नौ प्रकार के पक्षो मे जो कर्ता-कर्मादि की बुद्धि है उसका अभाव हो जाता है और अपने भगवान का पता चल जाता है । क्रम से वृद्धि करते-करते, पूर्ण परमात्मापना पर्याय मे प्रगट हो जाता है ।
प्रश्न १६ - छह कारको के ज्ञान से क्या होना ?
उत्तर - अनादिकाल से यह जीव अपने को भूल कर पर मे, विकार मे या किसी पक्ष मे पडकर पागल हो रहा है । यदि यह छह कारको का ज्ञान करले, तो पागलपने का अभाब हो जावे ।
प्रश्न १७ - यह कारकों का ज्ञान करके हम ज्ञानी माने जावें और लोग हमारा आदर करें, हमें रुपयो-पैसो की प्राप्ति हो, ऐसा मानकर जो छह कारको का ज्ञान करे तो क्या होता है ?
उत्तर - ऐसा जीव अनन्त ससार का पात्र होता है क्योकि छह कारको के ज्ञान से तो अनन्तकाल की पर मे कर्ता-भोक्ता की खोटी बुद्धि का अभाव होता है, उसके बदले उसने सासारिक प्रयोजन साधे जो परम्परा से निगोद का कारण है ।
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(
२१ )
प्रश्न १८ - कारक का निरूपण कितने प्रकार से है ? उत्तर - दो प्रकार से है - निश्चयकारक, व्यवहारकारक । प्रश्न १६ - जो व्यवहार कारक है उन्हीं को सर्वथा सच्चा माने तो उसे शास्त्रो में क्या-क्या कहा है ?
उत्तर - ( १ ) पुरुषार्थ सिद्धिपाय मे 'तस्य देशना नास्ति' कहा है । ( २ ) समयसार कलश ५५ मे 'यह अहकाररूप मोह अज्ञान अन्धकार है, उसका सुलटना दुर्निवार है' ऐसा कहा है । (३) प्रवचनसार मे 'पद पद पर धोखा खाता है' ऐसा कहा है । ( ४ ) आत्मावलोकन मे 'हरामजादोपना' कहा है । (५) समयसार मे 'मिथ्यादृष्टि तथा उसका फल ससार है' ऐसा कहा है । (६) मोक्षमार्गप्रकाशक मे 'उसके सब धर्म के अग मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होते हैं तथा 'मिथ्यादर्शन' व अकार्यकारी तथा 'अनीति' आदि शब्दो से सम्वोधन किया है । इसलिए जो व्यवहार के कथन को सच्चा मानता है उससे मिथ्यात्व होता है और उसे कभी भी धर्म की प्राप्ति नही होती है ।
प्रश्न २० - व्यवहारकारक के विषय मे क्या समझना और क्या याद रखना चाहिए ?
उत्तर- "परमार्थत कोई द्रव्य किसी का कर्ता हर्ता नही हो । सकता", इसलिए यह व्यवहारकारक असत्य है । वे मात्र उपचरित असदभूत व्यवहारर्नय से कहे जाते हैं । निश्चय से किसी द्रव्य के साथ कारकपने का सम्बन्ध है ही नही ।
प्रश्न २१ - जहाँ शास्त्रो मे व्यवहारकारक और निश्चयकारक का कथन किया हो, वहाँ क्या जानना चाहिए ?
उत्तर - जहाँ व्यवहारकारक का निरुपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना और जहाँ निश्चयकारक का निरुपण किया हो उसे सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना, क्योकि 'समयसार कलश १७३ मे कहा है कि व्यवहारकारक मे जो अध्यवसाय है सो समस्त ही छोडना - ऐसा जिनदेवो ने कहा है । इसलिए सम
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( २२ )
व्यवहारकारक का श्रद्धान छोडकर निश्चयकारक को जानकर अपने ज्ञानधन रूप मे प्रवर्तना युक्त है ।
प्रश्न २२ - निश्चयकारक और व्यवहारकारक के विषय मे कुन्दकुन्द भगवान ने मोक्षपाहुड गाथा ३१ मे क्या कहा है ?
उत्तर - जो व्यवहारकारक की श्रद्धा छोड़ता है वह योगी अपने जाता है तथा जो व्यवहारकारको से लाभ मानता है - वह अपने आत्म कार्यं मे सोता है । इसलिए व्यवहारकारक का श्रद्धान छोडकर निश्चयकारक का श्रद्धान करना योग्य है ।
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प्रश्न २३ - व्यवहारकारक का श्रद्धान छोड़कर निश्चय कारक का श्रद्धान क्यो करना योग्य है ?
उत्तर - व्यवहारनय = निश्चयकारक और व्यवहारकारक को किसी को किसी मे मिलाकर निरुपण करता है सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है इसलिये उसका त्याग करना । तथा निश्चयनय = निश्चयकारक और व्यवहारकारक को यथावत् निरूपण करता है किसी को किसी मे नही मिलाता है, सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना ।
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प्रश्न २४ - आप कहते हो - व्यवहारकारक के श्रद्धान से मिथ्यात्व' होता है इसलिये उसका श्रद्धान छोडो और निश्चयकारक के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिये उसका श्रद्धान करो, परन्तु जिन मर्ग मे दोनो कारको का ग्रहण करना कहा है सो कैसे है ?
उत्तर - जिनमार्ग मे जहाँ निश्चयकारक की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो “सत्यार्थ ऐसे ही है" - ऐसा जानना । तथा जहाँ व्यवहारकारक की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे "ऐसे है नही, ' निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है ऐसा जानना " - इस प्रकार जानने का नाम ही निश्चयकारक और व्यवहारकारक का ग्रहण है । प्रश्न २५ – कोई-कोई विद्वान दोनो कारको के व्याख्यान को
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( २३ )
समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी हैं, ऐसे भी हैं" - इस प्रकार कहते हैं क्या उनका कहना गलत है ?
उत्तर - गलत है, क्योकि निश्चयकारक व्ययहारकारक दोनोकारको के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी हैं, ऐसे भी हैं" - इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनो कारको का ग्रहण करना ही कहा है ।
प्रश्न २६ -- यदि व्यवहारकारक असत्यार्थ है तो उसका उपदेश जिन मार्ग में किसलिये दिया ? एक निश्चय कारक का ही निरुपण
करना था।
उत्तर - व्यवहारकारक के विना निश्चयकारक का उपदेश अशक्य है, इसलिए व्यवहार कारक का उपदेश है । निश्चयकारक का ज्ञान कराने के लिये व्यवहारकारक द्वारा उपदेश देते हैं । व्यवहारकारक है, व्यवहारकारक का विषय है, जानने योग्य है, परन्तु अगीकार करने योग्य नही है |
प्रश्न २७ – कार्य के कारक कितने कहे जाते हैं ?
उत्तर - चार कहे जाते है - ( १ ) उस समय पर्याय की योग्यता, अनन्तरपूर्व क्षणवर्त्तीपर्याय, (३) त्रिकाली, (४) निमित्त, इस प्रकार कार्य के कारण चार कहे जाते है ।
प्रश्न २८ - शास्त्रो मे कहीं कार्य का कारण उस समय पर्याय की योग्यता को; कहीं अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय को; कहीं त्रिकाली को और कहीं निमित्त को क्यो कहा है।
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उत्तर --- (१) जहाँ शास्त्रो मे कार्य का कारक उस समय पर्याय की योग्यता को कहा हो, वहाँ यह ही सच्चा कारक है और अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय का कार्य सच्चा कारक नही है - ऐसा जानना । (२) जहाँ कही कार्य का कारक अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय को कहा हो, वहाँ भूत-भविष्य की पर्यायो से पृथक कराने की अपेक्षा कहा है - ऐसा जानना । (३) जहाँ कही कार्य का कारक त्रिकाली को कहा हो, वहाँ निमित्तकारक की दृष्टि छुडाने के लिए कहा है - ऐसा जानना ।
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( २४ )
प्रश्न २६ - स्वाश्रितो निश्चयकारक और पराधितो व्यवहारकारक की अपेक्षा किस-किस प्रकार हैं ?
उत्तर- (१) कार्य का कारक उस समय पर्याय की योग्यता स्वाश्रित निश्चयकारक कहा हो, उसकी अपेक्षा अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय को पराश्रित व्यवहारकारक कहा जाता है । (२) कार्य का कारक अनन्तर पूर्वक्षणवर्ती पर्याय को स्वाश्रित निश्चयकारक कहा हो, उसकी अपेक्षा त्रिकाली को पराश्रित व्यवहार कारक कहा जाता है । (३) कार्य का कारक त्रिकाली को स्वाश्रित निश्चयकारक कहा हो, उसकी अपेक्षा निमित्त को पराश्रित व्यवहारकारक कहा जाता है ।
प्रश्न ३० - जिन-जिनवर और जिनवरवृषभो ने चार कारको के विषय में क्या बतलाया है ?
उत्तर - कार्य का कारक उस समय पर्याय की योग्यता ही है । परन्तु जब-जब कार्य होता है वाकी के तीन कारक भी होते हैं क्योकि 'जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित वहिरग साधनो के सान्निध्य के सदभाव मे अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थायें करता है" - ऐसा जानना ।
[ प्रवचनसार गाथा ६५ की टीका से ] प्रश्न ३१ - कोई मात्र कार्य का कारक उस समय पर्याय की योग्यता को ही माने, बाकी कारको का सर्वया निषेध करे तो क्या वह ठीक है ?
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उत्तर- ठीक नही है क्योकि जब कार्य होता है बाकी के तीन कारक होते है ऐसा वस्तु स्वभाव है । उसको न मानने के कारण वह झूठा है ।
प्रश्न ३२ - इन चार कार्य के कारको मे क्या रहस्य है ? उत्तर- (१) कोई अकेले उस समय पर्याय की योग्यता कार्य के कारक को माने किन्तु अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कारक को, त्रिकाली कारक को और निमित्त कारक को न माने वह झूठा है । (२) कोई
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( २५ ) अकेले अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कारक को ही माने किन्तु त्रिकालो कारक, निमित्त कारक और उस समय पर्याय की योग्यता कारक को न माने वह झूठा है। (३) कोई मात्र त्रिकाली कारक को ही माने किन्तु उस समय पर्याय की योग्यता कारक को, अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कारक कोऔर निमित्त कारक को न माने वह झूठा है। (४) कोई अकेले कार्य का कारक निमित्त को ही माने किन्तु त्रिकाली कारक, अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कारक और उस समय पर्याय की योग्यता रूप कारक को न माने वह भी झूठा है, क्योकि जब-जव कार्य होता है वहाँ चारो कारक एक साथ होते है।
प्रश्न ३३-छह कारक द्रव्य हैं, गुण हैं, या पर्याय है ? उत्तर-छह कारक गुण है। प्रश्न ३४-छह कारक गुण हैं तो सामान्य हैं या विशेष हैं ?
उत्तर-छह कारक प्रत्येक द्रव्य मे पाये जाने वाले सामान्य और अनुजीवी गुण है।
प्रश्न ३५-छह कारक गुण हैं यह जिनवाणी मे कहाँ आया है ? उत्तर-श्री समयसार की ४७ शक्तियो मे आया है।
प्रश्न ३६-छह कारको का ज्ञान विद्या बढाने के लिए, लोगो को बताने के लिए, कि हम विद्वान हैं या और किसी कार्य के लिए है ?
उत्तर-(१) जो जीव छह कारको का ज्ञान मान-बडप्पन के लिए करता है वह अनन्त ससार का कारण है (२) वास्तव मे छह कारको के ज्ञान से पर मे करूं-करूँ की और भोक्ता-भोग्य की बुद्धि का अभाव हो जाता है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होकर क्रमश निर्वाण की ओर गमन हो जाता है (३) पाँच ससार के कारणो का अभाव । (४) पच परावर्तन का अभाव (५) चार गति के अभावरूप पचमगति की प्राप्ति (६) पचम पारिणामिक भाव का महत्व आ जाता है (७) पच परमेष्टियो मे उसकी गिनती होने लगती है।
प्रश्न ३७-पर्याय (कार्य) पर से किसका माप निकालना चाहिए? उत्तर-पर्याय पर से सच्चे कारक का माप निकालना चाहिए।
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प्रश्न ३८ - पर्याय पर से सच्चे कारक का माप क्यो निकालना - चाहिए ?
उत्तर - कार्य हुआ- इसमे तो सब एक मत हैं । परन्तु करने वाला कौन है ? इसमे भूल है । कारक का सही ज्ञान ना होने से ससार का पात्र बना हुआ है । कारक का सही ज्ञान हो जाये तो ससार का अभाव हो जावे, इसलिए पर्याय पर से सच्चे कारक का माप निकालना चाहिए |
कर्ताकारक का स्पष्टीकरण
प्रश्न ३६ - कर्ता किसे कहते है ?
उत्तर - जो स्वतन्त्रता से ( स्वाधीनता पूर्वक ) अपने परिणाम को करे वह कर्ता है ।
प्रश्न ४० - प्रत्येक द्रव्य किसका कर्ता है ?
उत्तर- प्रत्येक द्रव्य अपने मे स्वतन्त्र व्यापक होने से अपने ही परिणाम का स्वतन्त्रता से कर्ता है |
प्रश्न ४१ - प्रत्येक द्रव्य अपने ही परिणाम का कर्ता है दूसरे का नहीं, यह जिनवाणी मे कहाँ-कहाँ आया है ?
उत्तर- ( १ ) अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा लिए परिणाम है, कोई किसी का परिणमाया परिणमता नाही और किसी को परिणमाने का भाव अनन्त ससार का कारण मिथ्यात्व है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ५२] (२) सब पदार्थ अपने - अपने द्रव्य मे अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को (समूह को ) चुम्बन करते हैं स्पर्श करते हैं तथापि वे ( सब द्रव्य) परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नही करते । [ समयसार गा० ३ की टीका से ] (३) जो कुछ क्रिया है वह सब ही द्रव्य से भिन्न नही है । इससे विरुद्ध मानने वाला मिथ्यादृष्टिपने के कारण सर्वज्ञ मत से बाहर है । [ समयसार गा० ८५ की टीका से ]
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( २७ ) (४) सर्व द्रव्यो की प्रत्येक पर्याय मे छह कारक एक साथ वर्तते हैं । इसलिए आत्मा और पुदगल शुद्ध दशा मे या अशुद्ध दशा मे स्वय छहो कारक स्प परिणमन करते है और दूसरे कारको की (निमित्तकारणो की) अपेक्षा नहीं रखते। [पचास्तिकाय गा० ६२ से]
(५) निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकपने का सबब नही है कि जिससे सुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति के लिए सामग्री (वाह्य साधन) खोजने की व्यग्रता ने जीव (व्यर्थ ही) परतन्त्र होते है।
[प्रवचनसार गा० १६ की टीका से] (६) देखो, समयसार गा० १०३, ३७२, ४०६ ।। (७) समयसार कलग ५१, ५२, ५३, ५४ तथा कलश २०० ।।
प्रश्न ४२–प्रत्येक द्रव्य अपने ही परिणाम का कर्ता-भोक्ता हैं दूसरे का नहीं है । परन्तु जो लोग इस बात को नहीं मानते और कहते हैं कि हम शरीर-स्त्री-पुत्रादि के कर्ता हैं उसका क्या फल होगा?
उत्तर-(१) जैसे-सीता को रावण चुराकर ले गया और रावण ने बहुत प्रयत्न किया कि जैसे-सीता राम को प्यार करती है वैसा मुझे प्यार करे। उसका फल उसे तीसरे नरक जाना पड़ा, उसी प्रकार जो ससार के पदार्थों को अपने अनुमार परिणमाना चाहता है उसका फल उसे नरक मे जाना पडेगा। (२) एक बार बम्बई मे हगामा हो गया। लोगो ने पुकारा "बम्बई हमारा, बम्बई हमारा" तो सरकार तग आ गई । तव वडे जनरल को छोटे जनरल ने टेलीफोन किया, कि इसका एक मात्र उपाय यह है सुबह समाचार पत्र मे दे दो, जो अपने घर से बाहर निकलेगा, उसे गोली मार दी जावेगी। ऐसा ही सुबह समाचार पत्र मे आ गया । जब कोई अपने घर से बाहर निकला उसे तरन्त गोली मार दी गई, जो नही निकला वह ठीक रहा, उसी प्रकार जो अपने द्रव्य-गुण-पर्याय से बाहर निकलता है उसे चारो गति रूप गोली मार दी जाती है। इसलिए जो अपनी मर्यादा से बाहर निकलता है वह दुखी होता है। जो अपनी मर्यादा मे रहता है वह रम्यग्दर्शनादि
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( २८ )
को प्राप्ति कर क्रमश मोक्षरूपी लक्ष्मी का नाथ बन जाता है ।
प्रश्न ४३ – कर्ता की परिभाषा मे से "स्वतन्त्रता पूर्वक " शब्द 'निकाल दें, तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर – 'स्वतन्त्रता पूर्वक' शब्द निकालने से दूसरे को भी कर्तापने का प्रसंग उपस्थित होवेगा यह दोष आवेगा । (१) जैसे- रोटी आटे से बनी और वाई से भी बनने का प्रसंग उपस्थित होवेगा । (२) घडा मिट्टी से बने और कुम्हार से भी बने, ऐसा प्रसंग उपस्थित होवेगा । ( ३ ) शब्द भाषा वर्गणा करे और जीव भी करे ऐसा प्रसग उपस्थित होवेगा, इसलिए 'स्वतन्त्रतापूर्वक' शब्द नही निकाला जा
सकता ।
प्रश्न ४४ - कर्ता कितने कहलाते है ?
उत्तर - चार कहलाते हैं, उस समय पर्याय की योग्यता कर्ता, अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कर्ता, त्रिकाली कर्ता और निमित्त कर्ता ।
प्रश्न ४५ - इन चारो कर्ता मे से कार्य का सच्चा कर्ता कौन है ? उत्तर - वास्तव मे " उस समय पर्याय की योग्यता ही " कार्य का सच्चा कर्ता है |
प्रश्न ४६ - अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय, त्रिकाली कर्ता और निमित्त सच्चे कार्य के कर्ता क्यो नहीं हैं ?
उत्तर- ( १ ) अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती इसलिए अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कार्य का सच्चा कर्ता नही है । ( २ ) त्रिकाली कर्ता तो सदैव एकसा रहता है यदि त्रिकाली कार्य का सच्चा - कर्ता हो तो कार्य त्रिकाल रहना चाहिए । परन्तु कार्य एक समय का है । विचारो कार्य एक समय का हो और उसका कर्ता त्रिकाली सदैव रहने वाला बने ऐसा नही है । (३) कार्य का कर्ता निमित्त तो होने का प्रश्न ही नही, क्योकि उसका कार्य से द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव | पृथक है ।
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( २६ ) प्रश्न ४७-जहां आगम मे कार्य का एक कर्ता की बात हो, वहाँ पात्रजीव क्या जानते हैं ?
उत्तर-वह चारो का ग्रहण कर लेता है। जो चारो का ग्रहण नही करता है वह झूठा है । यहाँ पर ग्रहण का अर्थ ज्ञान है।
प्रश्न ४८-कुम्हार ने घडा बनाया-इसमें कर्ता कारक को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-मिट्टी स्वतन्त्रता से घडे को प्राप्त हुई तो कर्ता कारक को माना और कुम्हार घडे को प्राप्त हुआ तो कर्ताकारक को नही माना।
प्रश्न ४६-मिट्टी स्वतन्त्रता से घड़े रूप परिणमी, इसमे से 'स्वतन्त्रता' शब्द को निकाल दें तो क्या नुक्सान होगा?
उत्तर-मिट्टी से घडा बने और कुम्हार से भी घडा बनने का प्रसग उपस्थित होवेगा । इसलिए स्वतन्त्रता शब्द को नही निकाला जा सकता है।
प्रश्न ५०-मिट्टी स्वतन्त्रता से घड़े रूप परिणमी, ऐसे कर्ता कारक को जानने से किस-किस से दृष्टि हट गई ?
उत्तर-मुम्हार, चाक, कीली, डडा, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यो से दृष्टि हट गई।
प्रश्न ५१-मिट्टी स्वतन्त्रता से घड़े रूप परिणमी तो कतकिारक को माना इसको जानने से क्या लाभ रहा?
उत्तर-जैसे-मिट्टी स्वतन्त्रता से घडे रूप परिणमी; उसी प्रकार विश्व के प्रत्येक द्रव्य और गुण मे स्वतन्त्रता से परिणमन हो चुका है, हो रहा है और भविष्य मे ऐसा ही होता रहेगा-ऐसा उसको ज्ञान हो जाता है, पर मे कर्तापने की खोटी बुद्धि समाप्त होकर ज्ञाता बुद्धि प्रगट हो जाती है । वह केवली के समान ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है । मात्र प्रत्यक्ष-परोक्ष का ही अन्तर रहता है।
प्रश्न ५२~-दर्शनमोहनीय के अभाव से क्षायिक सम्यक्त्व हुआ, इसमे फर्ताकारक को कन माना और कब नही माना?
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( ३० )
उत्तर - आत्मा का श्रद्धा गुण स्वतन्त्रता से क्षायिक सम्यक्त्व रूप परिणमा तो कर्ता कारक को माना और दर्शन मोहनीय के अभाव से क्षायिक सम्यक्त्व हुआ तो कर्ता कारक को नही माना ।
प्रश्न ५३ - श्रद्धागुण स्वन्त्रता से क्षायिक सम्यक्त्व रूप परिणमा । इसमें से स्वतन्त्रता शब्द को निकाल दें, तो क्या नुक्सान होगा ?
उत्तर- श्रद्धा गुण से क्षायिक सम्यक्त्व होवे और दर्शन मोहनीय th अभाव मे से भी क्षायिकसम्यक्त्व होने का प्रसंग उपस्थित होवेगा । इसलिये 'स्वतन्त्रता' शब्द नही निकाला जा सकता है।
प्रश्न ५४ - आत्मा का श्रद्धा गुण क्षायिक सम्यक्त्व रूप परिणमा । ऐसे कर्ता कारक को जानने से किस-किस से दृष्टि हट गई ?
उत्तर - दर्शनमोहनीय के अभाव से, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र से, सात तत्वो की भेद रूप श्रद्धा से और आत्मा के श्रद्धा गुण को छोडकर बाकी गुणो से दृष्टि हट गई ।
प्रश्न ५५ - आत्मा का श्रद्धा गुण स्वतन्त्रता से क्षायिक सम्यक्त्व रूप परिणमा, तो कर्ता कारक को माना, इसको जानने से क्या लाभ रहा ?
उत्तर - जैसे- श्रद्धा गुण मे स्वतन्त्रता से क्षायिक सम्यक्त्व हुआ, उसी प्रकार विश्व के प्रत्येक द्रव्य और गुण मे स्वतन्त्रता से परिणमन हो चुका है, हो रहा है और भविष्य मे ऐसा ही होता रहेगा तो पर मे कर्तापने की बुद्धि समाप्त होकर ज्ञाता वृद्धि प्रगट होना यह कर्ता कारक को जानने का लाभ है ।
प्रश्न ५६ -- क्षायिक सम्यक्त्व हुआ इसमे चारो प्रकार के कारको -के नाम बताओ ?
उत्तर - ( १ ) क्षायिकसम्यक्त्व हुआ उस समय पर्याय की योग्यता सच्चा कारक, (२) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का अभाव अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय अभावरूप कारक, (३) श्रद्धा गुण त्रिकालीकारक, (४) दर्शनमोहनीय का अभाव निमित्तकारक |
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( ३१ ) प्रश्न ५७-केवलज्ञानावरणीय के क्षय से केवलज्ञान हुआ-इसमें कर्ता कारक लगाकर बताओ?
उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)। प्रश्न ५८-गुरू से ज्ञान हुआ—इसमे कर्ताकारक को लगाओ? उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)। प्रश्न ५६-बाई ने रोटी बनाई-इसमे कर्ताकारक को लगाओ? उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)।
प्रश्न ६०-केवलदर्शन होने से दर्शनावरणीय का क्षय हुआइसमें कर्ताकारक लगाकर बताओ?
उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)। प्रश्न ६१-मैंने बिस्तरा बिछाया-इसमे कर्ताकारक लगाओ? उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)।
प्रश्न ६२–महावीरभगवान की दिव्यध्वनि है-इसमे कर्ताकारक को लगाओ?
उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)।
प्रश्न ६३-बढई ने अलमारी बनाई-इसमे कर्ताकारक को लगाओ?
उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)। प्रश्न ६४-बैलो ने गाडी को चलाया-इसमे कर्ताकारक लगाओ? उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो) ।
प्रश्न ६५-इच्छा की तो मै आया-इसमे कर्ताकारक को बताओ?
उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)। प्रश्न ६६–मै जोर से बोलता हूं-इसमे कर्ताकारक लगाओ ? उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो) ।
प्रश्न ६७-कुन्द कुन्द भगवान ने समयसार बनाया- इसमे कर्ताकारक बताओ?
उत्तर-(प्रश्न ५२ से ५६ तक के अनुसार उत्तर दो)।
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( ३२ )
कर्मकारक का स्पष्टीकरण प्रश्न ६८-मकारक किसे कहते हैं ?
उत्तर-कर्ता जिस परिणाम को प्राप्त करता है वह परिणाम उसका कर्म है। कर्ता का इण्ट वह कर्म है।
प्रश्न ६६-८र्म के पर्यायवाची शब्द क्या-क्या है ?
उत्तर-कार्य, अवस्था, पर्याय, परिणाम, परिणति आदि कर्म के पर्यावाची शब्द है।
प्रश्न ७०-कार्य के कर्ता कितने कहलाते हैं ?
उत्तर-चार कहलाते हैं, उस समय पर्याय की योग्यता कर्ता; अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कर्ता, त्रिकाली कर्ता और निमित्त कर्ता।
प्रश्न ७१-कार्य का सच्चा कर्ता कौन है और कौन नहीं है ?
उत्तर--उस समय पर्याय की योग्यता ही प्रत्येक कार्य का सच्चा कर्ता है । अनन्तर पूर्व क्षणवर्तीय पर्याय, त्रिकाली और निमित्त, कार्य के सच्चे कर्ता नहीं है।
प्रश्न ७२-कार्य के अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय, त्रिकाली और निमित्त, सच्चे कर्ता क्यो नहीं है ?
उत्तर-(१) पर्याय मे से पर्याय नही आती इसलिए अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कार्य का सच्चा कर्ता नही है (२) कार्य एक समय का हो उसका कर्ता अनादिअनन्त रहने वाला हो यह भी ठीक नही (३) निमित्त को कर्ता कहने का प्रश्न ही नहीं उठता क्योकि दोनो का स्वचतुष्ट्य भिन्न-भिन्न है।
प्रश्न ७३-कार्य का कर्ता त्रिकाली को और कहीं अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय को क्यो कहा जाता है ?
उत्तर-(१) पर द्रव्यो से भिन्न करने के लिए कार्य का कर्ता त्रिकाली को कहा जाता है। (२) पूर्व की पर्याय का ज्ञान कराने के लिये अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय को कार्य का कर्ता कहा जाता है (३) इसलिए त्रिकाली कर्ता से और भूत-भविष्य की पर्यायो से और
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( ३३ ) निमित्त से दृष्टि उठाकर मात्र उस समय पर्याय की योग्यता ही कार्य का सच्चा कर्ता है, यह पता चले, तो कल्याण हो।
प्रश्न ७४ - कर्म कारक को समझने के लिए क्या-क्या याद रखना
चाहिए' (१) वास्तव में पानी का ही है, अन्यत रहती नहीं, यह
उतर-(१) वास्तव मे परिणाम ही निश्चय से कर्म है, (२) परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी का ही है, अन्य का नहीं (३) कर्म कर्ता विना होता नहीं (४) वस्तु की एकरूप स्थिति रहती नही, यह यह चार वोल कर्मकारक समझने के लिए पर्याप्त है [इसके लिए इसी शास्त्र का नोवा अधिकार देखियेगा]
[समयसार कलश २११] प्रश्न ७५ कर्मकारक को समझने से क्या लाभ है ?
उत्तर-जो-जो कार्य होता है वह सब अपनी-अपनी पर्याय की योग्यता से ही होता है। जब कार्य अपनी-अपनी पर्याय की योग्यता से होता है तो मै उस कार्य को करूं या कराऊँ, ऐसी बुद्धि का अभाव होकर दृष्टि अपने त्रिकाली भगवान पर आना औरशान्ति का अनुभव होना यही कर्मकारक को जानने का लाभ है।
प्रश्न ७६-कार्य से "उस समय पर्याय की योग्यता ही कारण है" यह शास्त्र मे कहीं आया है ?
उत्तर-वास्तव मे कोई भी कार्य होने मे या विगडने मे उसकी योग्यता ही साधक होती है।
[इष्टोपदेश गाथा ३५ की टीका बम्बई से प्रकागित] प्रश्न ७७~-(१)दूध गिर गया (२) बच्चा भागता-भागता गिर गया (३) मर गया (४) शरीर मे बीमारी हुई (५) रोटी जल गई (६) माल चोरी हो गया (७) चलते-चलते गिर गया (८) भाषा बोली (९) हाथ ऊँचा उठाया (१०) पुस्तक उठाई (११) अक्षर लिखे (१२) मकान बना, इक सव मे कर्म कारक को कवनाना और का नहीं माना?
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( ३४ )
उत्तर- (१) दूध गिर गयान्वयो गिग ? कर्म कारक को नही माना और दूध अपनी पर्याय की योग्यता में गिरा, तो कर्मकारक को माना । (२) बच्चा भागता - भागता गिर गया, क्यो गिरा ? कर्मकारक को नही माना और बच्चा अपनी पर्याय को योग्यता से गिरा, तो कर्मकारक को माना । ( ३ ) मर गया, क्यो मरा ? कर्मकारक को नहीं माना और अपनी पर्याय की योग्यता से मग, तो कर्मकारक को माना । (४) शरीर मे बीमारी हुई, क्यों हुई ? कर्मकारक को नही माना और बीमारी अपनी की योग्यता से हुई तो कर्मकारक को माना । (५) रोटी जल गजल गई ? कर्म कारक को नहीं माना और अपनी पर्याय को गोग्यता से जल गई, तो कर्म कारक को माना । (६) माल चोरी हो गया, क्यों हुआ? तो कर्मवार को नही माना और चोरी अपनी पर्याय की योग्यता में हुई, तो कर्मकारक को माना । (७) चलते-चलते गिर गया, क्यों गिरा ? तो कर्मकारक को नही माना और अपनी पर्याय की योग्यता से गिरा, तो कर्मकारक को माना । (८) भाषा जीव से निकली कर्मकारक को नहीं माना और भाषा अपनी पर्याय की योग्यता से भापावर्गणा मे से निकली तो कर्मकारक को माना ( 2 ) हाथ ऊँचा जीव ने उठाया तो कर्मकारक को नही माना और हाथ अपनी पर्याय की योग्यता से ऊँचा हुआ तो कर्मकारक को माना । (१०) पुस्तक मैंने उठाई तो कर्मकारक को नही माना और पुस्तक अपनी पर्याय की योग्यता से उठी तो कर्मकारक को माना । ( ११ ) अक्षर मैने लिखे तो कर्मकारक को नही माना और अक्षर अपनी पर्याय की योग्यता से लिखे गये तो कर्मकारक को माना । (१२) मकान मैंने बनाया तो कर्मकारक को नही माना और अपनी पर्याय की योग्यता से बना तो कर्मकारक को माना ।
प्रश्न ७८
- कार्य अपनी-अपनी उस समय पर्याय की योग्यता से ही होता है तो जीव क्यो पागल होता है उत्तर - कर्म कारक का रहस्य पता न होने से पागल होता है ।
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( ३५ )
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प्रश्न ७६ -- कर्मकारक का ज्ञान क्यो कराया जाता है उत्तर - ( १ ) शान्ति प्राप्त कराने के लिए और शान्ति प्राप्त करने के लिये । (२) वस्तुस्वरूप समझाने के लिये और समझने के लिये । (३) अनादिकाल की खोटी मान्यता नष्ट करने के लिये और कराने के लिये कर्मकारक का ज्ञान कराया जाता है ।
प्रश्न ८०- - कर्म कारक को किस-किस मान्यता वाले ने नहीं माना और उसका फल क्या हुआ
?
उत्तर- जैसे - रोटी बनी, उसमे ( रोटी बनने मे ) (१) वाई, चकला, वेलन कर्त्ता है (२) आटा कर्ता है । (३) लोई उसका कर्त्ता है आदि मान्यता वालो ने कर्मकारक को नही माना और उसका फल मिथ्यादर्शनादि की पुष्टि होकर निगोद की प्राप्ति होती है ।
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प्रश्न ८१ - कर्म कारक किसने माना और उसका फल क्या हुआ उत्तर - कार्य "उस समय पर्याय की योग्यता से ही " होता है, होता रहेगा ओर होता रहा है। इससे क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि हो गई और सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रमश निर्वाण की ओर गमन होना इसका फल है |
२
प्रश्न ८२ - कर्म कितने प्रकार का होता है। उत्तर- (१) द्रव्यकर्म, (२) नोकर्स, (३) भाककर्म, (४) कर्म अर्थात् कार्य और ( ५ ) कर्म नाम का कारक ।
प्रश्न ८३- इन पाँच प्रकार के कर्मों मे से सिद्ध भगवान मे कौनकौनसा कर्म है ?
उत्तर - चौथे और पाँचवे नम्बर का कर्म है |
प्रश्न ८४ - कर्म अर्थात् कार्य होता है उसमें कितने कारण कहलाते हैं और सच्चा कारण कौन है ?
उत्तर - चार कहलाते है - ( १ ) निमित्त कारण, (२) त्रिकाली कारण, (३) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण, (४) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण । इन चारो
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( ३६ )
कारणो मे से कर्म का सच्चा कारण उस समय पर्याय की योग्यता ही
है |
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प्रश्न ८५ - आसव तत्व का कर्त्ता कौन है उत्तर - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण है । प्रश्न ८६ - कर्म के कारण आस्रव माने तो क्या दोष आवेगा ? उत्तर- अजीव तत्व और आस्रव तत्व को एक माना कर्मकारक को नही माना ।
प्रश्न ८७ - जीव के कारण आलव माने तो क्या दोष आवेगा ? उत्तर - जीव और आस्रव तत्व को एक माना कर्मकारक को नही
माना ।
प्रश्न ८ - ओलव तत्व सम्बन्धी भूल कैसे मिटे ?
उत्तर - आस्रव का कर्त्ता उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही है द्रव्यकर्म और जीव नही । देखो, यह कर्मकारक को मानने से आस्रव तत्व सम्वन्धी भूल दूर हो गई ।
प्रश्न ८ - बंध तत्व का कर्त्ता कोन है
उत्तर - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण है। प्रश्न ६० - बंध तत्व का कर्त्ता द्रव्यकर्म को माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर- अजीव और वध तत्व को एक माना- कर्म कारक को नही
माना ।
प्रश्न ६१ - जीव के कारण बंध को माने तो क्या दोष आवेगा ? उत्तर - जीव और वध तत्व को एक माना- कर्म कारक को नही माना ।
'
प्रश्न ६२ - बंध तत्व सम्बन्धी भूल कैसे मिटे ?
उत्तर - भाव वध "उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही " है कर्म और जीव से नही है । देखो कर्म कारक को - मानने से वध तत्व सम्बन्धी भूल दूर हो गई ।
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( ३७ )
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प्रश्न ६३ - संवर तत्व का कर्त्ता कौन है उत्तर - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण है । प्रश्न ६४ - संवर तत्व का कर्त्ता कोई द्रव्यकर्म के रुकने को माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर - उसने सवर तत्व और अजीव तत्व को एक माना- कर्मकारक को नही माना ।
प्रश्न ६५ -- शुभ भाव से संवर माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर - उसने आस्रव, बध और सवर को एक माना- कर्मकारक को नही माना ।
प्रश्न ६६ - शुभभाव करने से सवर की प्राप्ति माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर - उसने आस्रव, वन्ध और सवर को एक माना- कर्मकारक को नही माना ।
प्रश्न ६७ -- देव- गुरु- शास्त्र से सम्यक्दर्शन माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर - उसने जीव, अजीवतत्व और सवर को एक माना -- कर्म कारक को नही माना ।
प्रश्न ६८ - अणुव्रतादि बाहरी क्रिया से श्रावकपना माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर - उसने अजीव और सवर को एक माना -- कर्म कारक को नही माना ।
प्रश्न ६६- शुभ भावरूप अणुव्रतादि से संवर माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर - उसने आस्रव, बन्ध तत्व और सवर को एक माना- कर्म कारक को नही माना ।
प्रश्न १०० - २८ मूलगुण बाहरी क्रिया से सुनिपना माने तो क्या दोष आवेगा ?
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( ३८ )
उत्तर -- उसने अजीव और सवर को एक माना - कर्मकारक को नही माना ।
प्रश्न १०१ – २८ सूलगुण पालने से मुनिपना माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर - उसने आस्रव, बन्ध और सवर को एक माना - कर्मकारक को नही माना ।
प्रश्न १०२ --सवर तत्व सम्वन्धी भूल कैसे मिटे ? उत्तर - कर्म कारक का रहस्य जानने से ।
प्रश्न १०३ - सवर तत्व सम्बन्धी भूल कर्मकारक को मानने से कैसे दूर हो ?
उत्तर-सवर तत्व " उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से" है । वह जीव से, अजीव से, आस्रव, बध से नही है । देखो, कर्मकारक को मानने से सवर तत्व सम्वन्धी भूल दूर हो गई ।
प्रश्न १०४ - भाव निर्जरा तत्व का कर्त्ता कौन है ?
उत्तर - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण भाव निर्जरा तत्व का सच्चा कर्ता है ।
प्रश्न १०५ - द्रव्यकर्म से भावनिर्जरा माने तो क्या दोष आता है
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उत्तर - अजीव और निर्जरा तत्व को एक माना — कर्मकारक को नही माना ।
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प्रश्न १०६ - जीव से निर्जरा माने तो क्या दोष आता है उत्तर - जीवतत्व और निर्जरातत्व को एक माना - कर्मकारक को नही माना ।
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प्रश्न - १०७ - पुण्य से निर्जरा माने तो क्या दोष आवेगा उत्तर—आस्रव तत्व और निर्जरा तत्व को एक माना - कर्मकारक को नही माना ।
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( ३६ ) प्रश्न १०८-भावबंध से भावनिर्जरा माने तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-वध और निर्जरा तत्व को एक माना-कर्म कारक को नही माना।
प्रश्न १०६-भाव सवर से भाव निर्जरा माने तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-सवर, निर्जरा तत्व को एक माना-कर्म कारक को नहीं माना।
प्रश्न ११०-रोटी न खाने से निर्जरा न माने तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-अजीव तत्व और निर्जरा तत्व को एक माना-कर्मकारक को नही माना।
प्रश्न १११-बाहरी तप और शुभ भावरूप १२ प्रकार के व्यवहार तप से निर्जरा माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर-अजीव, आस्रव, बध और निर्जरा को एक माना-कर्मकारक को नहीं माना।
प्रश्न ११२-भाव निर्जरा तत्व सम्बन्धो भूल कसे मिटे ?
उत्तर-कर्म कारक को मानने से भाव निर्जरा तत्व सम्बन्धी भूल मिटे ।
प्रश्न ११३-भाव निर्जरा तत्व सम्बन्धी भूल कर्म कारक को मानने से कैसे दूर हुई ?
उत्तर-भाव निर्जरा तत्व "उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से" है वह जीव से, अजीव से, आस्रव से, बन्ध से, नही है। देखो कर्म कारक को मानने से निर्जरा तत्व सम्बन्धी भूल मिट गई।
प्रश्न ११४-भाव मोक्ष का कर्ता कौन है ? उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण है।
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( ४० ) प्रश्न ११५-भाव मोक्ष का कर्ता द्रव्यकर्म के अभाव को माने तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-भाव मोक्ष और अजीव को एक माना-कर्मकारक को नही माना।
प्रश्न ११६--भाव मोक्ष का कर्ता वनवपमनाराच सहनन को माने, तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-उसने अजीव ओर मोक्ष को एक माना-कर्मकारक को नही माना।
प्रश्न ११७-जीव से मोक्ष माने तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-उसने जीवतत्व और मोक्ष तत्व को एक माना-कर्म कारक को नहीं माना।
प्रश्न ११८-आस्रव से मोक्ष माने तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर-उसने आस्रव ओर मोक्ष को एक माना-कर्म कारक को नही माना।
प्रश्न ११६-बध से मोक्ष माने तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-उसने बध और मोक्ष को एक माना-कर्म कारक को नहीं माना।
प्रश्न १२०--लवर से मोक्ष माने तो क्या दाष आवेगा?
उत्तर-सवर और मोक्ष को एक माना-कर्म कारक को नही माना।
प्रश्न १२१-निर्जरा से मोक्ष माने तो क्या दोष आनेगा ? उत्तर-निर्जरा और मोक्ष को एक माना-कर्मकारक को नही
माना।
प्रश्न १२२-१४३ गुणस्थान से मोक्ष माने, तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-आस्रव, सवर, निर्जरा और मोक्ष को एक माना-कर्मकारक को नहीं माना।
प्रश्न १२३-मोक्ष तत्व सम्वन्धी भूल कैसे दूर हो ?
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( ४१ ) उत्तर-कर्म कारक को माने तो मोक्ष तत्व सवधी भूल मिटे ।
प्रश्न १२४-कर्म कारक को मानने से मोक्ष तत्व सबंधी भूल कैसे मिटे ?
उत्तर-भाव मोक्ष का कर्ता "उस ममय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण" है। जीव, अजीव, आस्रव, वध, सवर, निर्जरा उसका कर्ता नहीं है । देखो, कर्म कारक को मानने से भाव मोक्ष तत्व सम्वन्धी भूल दूर हो गई।
प्रश्न १२५-वह हमारी तारीफ करते थे, आज निन्दा क्यों ? इस वाक्य मे कर्म कारक को कब नहीं साना ? और कब माना?
उत्तर-वह हमारी तारीफ करते थे, आज निन्दा क्यो ? ऐसी मान्यता वाले ने कर्मकारक को नहीं माना और निन्दा उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ले हुई तो कर्मकारक को माना।
प्रश्न १२६-वह पहिले लखपति था, आज भिकारी कैसे हो गया? कर्मकारक को कब नहीं माना और कब माना ?
उत्तर-प्रश्न १२५ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२७-वह आज सुबह ठीक था, अब कैसे मर गया ? कर्म कारक को कब नहीं माना और कब माना?
उत्तर-१२५ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२८-उसका स्वास्थ्य अभी ठीक था अब एकदम कैसे विगड गया । कर्म लारक को कब नहीं माना और कव माना ?
उत्तर--प्रश्न १२५ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२६-हम दिनरात तत्त्व का अभ्यास करते हैं सम्यग्दर्शन क्यो नहीं होता है ? कर्म कारक को कब नहीं माना और कब माना ?
उत्तर-प्रश्न १२५ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३०-अंजनचोर महापापी उमी भव से मोक्ष कैसे चला गया? फर्म कारक को कब नहीं माना और कब माना ?
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( ४२ )
उत्तर - प्रश्न १२५ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १३१ - गृहीत मिथ्यादृष्टि गौतम को एक ही साथ सम्यग्दर्शन, मुनि, गणधरपना चार ज्ञान का उघाड़ कैसे हो गया ? कर्म कारक को कब नहीं माना और कत्र माना ?
उत्तर - प्रश्न १२५ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १३२ - नित्यनिगोद से निकलकर आठ वर्ष को अवस्था में धर्म की प्राप्ति कैसे हो गयी ? कर्म कारक को कब नहीं माना और कव माना ?
उत्तर - प्रश्न १२५ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १३३ - प्रत्येक समय प्रत्येक द्रव्य मे कार्य होता ही रहता है यह कभी रुकता ही नहीं यह क्या सिद्ध करता है ?
उत्तर - कार्य (कर्म) को सिद्ध करता है और क्रमवद्ध पर्याय को सिद्ध करता है ।
प्रश्न १३४ - कर्म कारक को कब माना ?
उत्तर - दृष्टि अपने त्रिकाली भगवान पर आई तो कर्मकारक को
माना ।
करण कारक का स्पष्टीकरण
प्रश्न १३५ -- करण कारक किसे कहते हैं ?
उत्तर - उस परिणाम के ( कार्य का ) साधकतम अर्थात उत्कृष्ट साधन को करण कहते हैं ।
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प्रश्न १३६ - करण कारक मे " साधकतम " दया बताता है। उत्तर—“साधकतम” यह बताता है कि उत्कृष्ट साधन कर्ता से बाहर नही है ।
प्रश्न १३७ - कार्य का उत्कृष्ट साधन क्या बताता है ?
उत्तर - कार्य का मध्यम साधन, जघन्य साधन नही है, मात्र कार्य का उत्कृष्ट साधन ही कारण है अन्य नही है ।
प्रश्न १३८ - कार्य के साधन कितने कहे जाते हैं ?
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( ४३ ) उत्तर-चार कहे जाते है-उस समय पर्याय की योग्यता साधन, अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय साधन, त्रिकाली साधन और निमित्त साधन ।
प्रश्न १३६-कार्य का सच्चा साधन कौन है और कौन नहीं है ?
उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता ही कार्य का उत्कृष्ट साधन है । अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय साधन, त्रिकाली साधन और निमित्त साधन कार्य के सच्चे साधन नही हैं ।
प्रश्न १४०-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय, त्रिकाली और निमित्त कार्य के सच्चे साधन क्यो नहीं है ?
उत्तर--अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नहीं होती इसलिए अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय कार्य का साधन नहीं है । कार्य एक समय का हो उसका साधन ध्रुव हो यह भी नही बनता है। निमित्त को साधन कहने का प्रश्न ही नही है क्योकि दोनो का स्वचतुष्टय पृथकपृथक है। - प्रश्न १४१- केवलज्ञान का उत्कृष्ट साधन कौन है और कौन नहीं है ?
उत्तर-केवलज्ञान का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता ही है । अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय, त्रिकाली ज्ञानगुण और ज्ञानावरणीय का अभाव उत्कृष्ट साधन नही है।
प्रश्न १४२-अनन्तर पूर्व क्षगवर्ती पर्याय भावभ्रतज्ञान, आत्मा का ज्ञानगुण और ज्ञानावरणीय का अभाव कैसे साधन कहे जाते हैं ?
उत्तर-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय भावश्रुतज्ञान अभावरूप साधन, आत्मा का ज्ञानगुण त्रिकाली साधन और ज्ञानावरणीय का अभाव निमित्त साधन कहे जाते हैं।
प्रश्न १४३-क्या केवलज्ञान का उत्कृष्ट साधन वज्रवृषभनाराच सहनन है ? इसमे करण कारक को कब माना और कब नहीं माना।
उत्तर-केवलज्ञान का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता
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( ४४ )
केवलज्ञान है तब तो करण कारक माना और केवलज्ञान का साधन वज्रवृपभनाराच सह्नन कहे तो करण कारक को नहीं माना
प्रश्न १४४ - केवलज्ञान का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय कों योग्यता केवल ज्ञान ही है, अन्य नहीं हैं, तो अन्य साधनो मे क्या-क्या आया?
उत्तर- वज्रवृपभनाराच सहनन, चौथा काल, केवलज्ञानावरणीय का क्षय, आत्मा, आत्मा के अनन्त गुण, अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय भाव श्रुतज्ञान, आदि अन्य साधनों में आते है ।
प्रश्न १४५ - केवलज्ञान का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता केवलज्ञान ही है तब करण कारक को माना- इसको जानने से दया लाभ है ?
उत्तर -- जैसे केवलज्ञान का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता ही है, उसी प्रकार विश्व मे अनन्त द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य मे अनन्त अनन्त गुण है । प्रत्येक गुण मे जो-जो कार्य हो चुका है, हो रहा है, भविष्य में होगा उन सब का साधन मात्र उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही है। ऐसा मानते ही चारो गतियो के अभावरूप धर्म की प्राप्ति होना - यह करण कारक को जानने का लाभ है ।
प्रश्न १४६ - क्ण रोटी का उत्कृष्ट साधन चकला बेलन हैं ? इससे करण कारक को कर माना और कब नही माना । उत्तर - रोटी का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण रोटी है तो करण कारक को माना और रोटी का उत्कृष्ट साधन चकला - वेलन आदि है तो करण कारक को नही माना ।
प्रश्न १४७ - रोटी का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की
योग्यता है तब दूसरे साधनो को किस किस नाम ने
उत्तर - अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई को
?
कहा जाता है अभाव रूप साधन
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( ४५ )
कहा जाता है । आटे को त्रिकाली साधन कहा जाता है। वाई के राग को, चकला, वेलन, तवा, आग, धर्म, अधर्म - आकाश और काल को निमित्त साधन कहा जाता है ।
प्रश्न १४८ - रोटी का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता ही है ऐसा मानने से किस-किस साघन से दृष्टि हट गई
?
उत्तर - वार्ड का राग - चकला, बेलन, तवा, धर्म, अधर्म, आकाश काल आदि निमित्त से, त्रिकाली आटे से अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई से दृष्टि हट जाती है ।
,
प्रश्न १४६ -- रोटी का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय को योग्यता ही है तब करण कारक को माना तो इसको जानने से पात्र जीवों को क्या लाभ होना चाहिए
?
उत्तर -- जैसे- रोटी का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता रोटी ही है, उसी प्रकार विश्व मे जितने भी कार्य हैं उन सब कार्यो का उत्कृष्ट साधन उस समय पर्याय की योग्यता ही है-ऐसा जानतेमानते ही चारो गतियो के अभावरूप धर्म की प्राप्ति होना यह इसको जानने का लाभ है ।
प्रश्न १५० -- क्या सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट साधन देव-गुरु हैंइसमे करण कारक को लगाओ ?
उत्तर - प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १५१ - क्या मोक्ष का साधन शरीर है इसमे करणकारक लगाओ ?
उत्तर - प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १५२ -- क्या चरित्र का साधन पच महाव्रत है ? इसमें करण कारक को लगाओ ।
उत्तर - प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १५३ –– क्या घड़े का उत्कृष्ट साधन कुम्हार है ? करण कारक को लगाओ ।
इसमें
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( ४६ ) उत्तर-प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १५४-क्या सोने के हार का उत्कृष्ट साधन सुनार है ? इसमें करण कारक को लगाओ।
उत्तर-प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १५५–क्या मन्दिर बनने का उत्कृष्ट साधन कारीगर है ? इसमे करण कारक लगाकर बताओ।
उत्तर-प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १५६-क्या सुगन्ध का उत्कृष्ट साधन ज्ञान है ? इसमे करण कारक को लगाओ।
उत्तर-प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १५७-क्या दर्शनमोहनीय के क्षय का उत्कृष्ट साधन क्षायिक सम्यक्त्व है ? इसमे करण कारक लगाओ।
उत्तर-प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १५८-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय का उत्कृष्ट साधन केवलज्ञान है ? इसमे करणकारक लगाओ।
उत्तर--प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १५६-च्या ज्ञान बढाने का उत्कृष्ट साधन शास्त्र है ? इसमे करणकारक लगाओ।
उत्तर–प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६०-क्या रुपया मिला उसका उत्कृष्ट साधन जीव हैं ? इनमें करण कारक को लगाओ।
उत्तर-प्रश्न १४६ से १४६ तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १६१-करण कितने अर्थों में प्रयुक्त होता है ?
उत्तर-तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है-(१) करण = इन्द्रिय, (२) करण= परिणाम, (३) करण = साधन-करण कारक ।
सम्प्रदान कारक का स्पष्टीकरण प्रश्न १६२-सम्प्रदान कारक किसे कहते हैं ?
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( ४७ ) उत्तर-कर्म (परिणाम, कार्य) जिसे दिया अथवा जिसके लिये कर्म किया जाय उसे सम्प्रदान कहते हैं।
प्रश्न १६३-- "सम्प्रदान" शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर-सम् = सम्यक् प्रकार से । प्र=प्रकृष्ट रूप से विशेष रूप से । दान = शुद्धता का दान दिया जावे। अर्थात् सम्यक प्रकार से विशेप करके जो दान अपने को दिया जावे यह सम्प्रदान का अर्थ है।
प्रश्न १६४-सम्प्रदान का अर्थ स्पष्ट समझाइये?
उत्तर-(१) जैसे-लोभ का त्याग जो शुद्धि प्रगटी वह सम्प्रदान है। (२) मिथ्यात्व का अभाव सम्यग्दर्शन प्रगटा, वह सम्प्रदान है। (३) पाँचवें गुणस्थान मे जो शुद्धि प्रगटो वह सम्प्रदान है। (४) छठे गुणस्थान मे जो शुद्धि प्रगटी वह सम्प्रदान है।
प्रश्न १६५-सम्प्रदान कारक को कब माना ?
उत्तर-अपना दान अपने को देवे तव सम्प्रदान कारक को माना जिसका कार्य है, वह उसी को दिया जावे अथवा उसी के लिए किया जाय तो सम्प्रदान कारक को माना ।
प्रश्न १६६-क्या घडा पानी पीने वालों के लिए बना है ? इस वाक्य में सम्प्रदान कारक को कब माना और कब नहीं माना ?
उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता के लिए घडा बना तो सम्प्रदान कारक को माना और पानी पीने वालो के लिए बना तो सम्प्रदान कारक को नही माना।
प्रश्न १६७-सम्प्रदान कारक को जानने से क्या लाभ रहा?
उत्तर-विश्व मे जितने भी कार्य होते है वह सब उसकी उस समय पर्याय की योग्यता के लिए ही होते हैं दूसरो के लिए नही होते है ऐसा माने तो धर्म को प्राप्ति हो।
प्रश्न १६८-क्या रोटी खाने वालो के लिए बनी है ? इस वाक्य मे सम्प्रदान कारक को कब माना और कब नहीं माना ?
उत्तर-प्रश्न १६६ व १६७ के अनुसार उत्तर दो
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( ४८ ) प्रश्न १६६-क्या सोने का हार पहनने के लिए बना है ? इसमें सम्प्रदान कारक को कब माना और कब नही माना ?
उत्तर--प्रश्न १६६ व १६७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७०~-क्या सम्यग्दर्शन पदार्थों के शटान के लिए है ? इसमे सम्प्रदानकारक को कव माना और कब नहीं माना?
उत्तर--प्रश्न १६६ व १६७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७१-क्या केवलज्ञान पादर्थो के जानने के लिए है ? इस वाक्य मे सम्प्रदान कारक को कन माना और कब नही माना?
उत्तर-प्रश्न १६६ व १६७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७२-क्या कमरा लोगो के रहने के लिए है ? इस वाक्य मे सम्प्रदानकारक को कब माना और कब नही माना?
उत्तर-प्रश्न १६६ व १६७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७३-क्या अलमारी किताबें रखने के लिए है ? इस वाक्य मे सम्प्रदानकारक को कब माना और कब नही माना ?
उत्तर--प्रश्न १६६ व १६७ के अनुसार उत्तर दो।
अपादानकारक का स्पष्टीकरण प्रश्न १७४~-अपादान कारक किसे कहते हैं ?
उत्तर-जिसमे से कर्म (क्रिया) किया जाय उस ध्रुव वस्तु को अपादान कारक कहते हैं।
प्रश्न १७५-अपादान कारक क्या बताता है ?
उत्तर-- जो उत्पाद हुआ वह अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान के अभाव को और ध्रुव को बताता है ।
प्रश्न १७६--अपादान कारक में कितने उपादान कारण आते हैं ? उत्तर-तीनो उपादान कारण आ जाते है।
प्रश्न १७७-'केवलज्ञान' हुआ-इसमे तीनो उपादान कारक किस प्रकार आये ?
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( ४६ ) उत्तर-केवलज्ञान का उत्पाद उस समय पर्याय की योग्यतारूप क्षणिक उपादान कारण, भावश्रुतज्ञान का व्यय अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण, आत्मा का ज्ञान गुण त्रिकाली उपादान कारण, इस प्रकार तीनो उपादान कारण आ जाते हैं ।
प्रश्न १७८--(१) क्षायिक सम्यक्त्व, (२) क्षयोपशम सम्यक्त्व, (३) रोटी बनी (४) केवलदर्शन (५) बिस्तरा बिछा (६) अलमारी बनी, इनमे तीनो उपादान कारण किस प्रकार आते हैं ? ___उत्तर-(१) क्षायिक सम्यक्त्व का उत्पाद उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण, (२) क्षयोपशम सम्यक्त्व का व्यय अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण, (३) आत्मा का श्रद्धागुण त्रिकाली उपादान कारण, इस प्रकार तीनो उपादान कारण आ जाते हैं। इसी प्रकार बाकी के ५ वाक्यो मे लगाओ।
प्रश्न १७९-केवलज्ञानावरणीय के अभाव में से केवलज्ञान हुआ क्या अपादान कारक को माना ?
उत्तर-नही माना, क्योकि केवलज्ञान अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती - पर्याय क्षणिक उपादान कारण भाव श्रुतज्ञान का अभाव करके आत्मा
के ज्ञान गुण मे से आया, केवलज्ञानावरणीय कर्म के अभाव में से नही आया-ऐसा समझे तो अपादान कारक को माना।
प्रश्न १८०--कोई चतुर ऐसा कहे केवलज्ञानावरणीय के अभाव मे से ही केवलज्ञान आया--तो क्या दोष आवेगा?
उत्तर-अपादान कारक को उड़ा दिया। अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण श्रुतज्ञान के अभाव को और आत्मा के ज्ञान गुण को भी उडा दिया।
प्रश्न १८१-केवलज्ञान में से केवलज्ञानावरणीय कर्म का अभाव ' आया, क्या अपादान कारक को माना?
उत्तर-नही माना, क्योकि ज्ञानावरणीय का अभाव अनन्तरपूर्व
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( ५० ) क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण जानावरणीय के क्षयोपशम का अभाव करके कामीण वर्गणा में से आया, केवलज्ञान मे से नहीं आया-ऐसा समझे तो अपादान कारक को माना।
प्रश्न १५२-कोई चतुर ऐसा कहे केवलज्ञान मे से ही केवलज्ञानावरणीय कर्म का अभाव आया-तो क्या दोष आवेगा ।
उत्तर-~-अपादान कारक को उड़ा दिया। अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण ज्ञानावरणीय क्षयोपशम के अभाव को और कार्माण वर्गणा को भी उड़ा दिया। प्रश्न १८३-तीनो उपादान कारणो में कितना समय लगता है। उत्तर-तीनो का एक ही समय है।
प्रश्न १८४-वाई ने रोटी बनाई-इस वाक्य में अपादान कारक को कव माना और कव नहीं माना?
उत्तर-रोटी अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके त्रिकाली उपादान कारण आटे मे से वनी अपादान कारक को माना और वाई से रोटी बनी तो अपादान कारक को नहीं माना।
प्रश्न १८५-कुम्हार ने घड़ा बनाया-इस वाक्य मे अपादान कारक को कब माना और कब नहीं माना ?
उत्तर---प्रश्न १८४ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १८६-मैने विस्तरा बिछाया अपादान कारक को कब माना और कब नहीं माना ?
उत्तर-प्रश्न १८४ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १८७-सुनार ने जेवर बनाया-अपादान कारक को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-प्रश्न १८४ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न-१८५-मैंने बक्सा उठाया-अपादान कारक को कब माना ~ और कब नहीं माना?
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( ५१ )
उत्तर - प्रश्न १८४ के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १८६ - गुरु से ज्ञान हुआ -- अपादान कारक को कब माना और कब नहीं माना
?
उत्तर -- प्रश्न १८४ के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १६० - देव - गुरु से सम्यक्त्व हुआ -- अपादान कारक को कब माना और कब नहीं माना
?
उत्तर - प्रश्न १८४ के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न १६१ - ज्ञानावरणीय द्रव्यकर्म के क्षय मे से केवलज्ञान हुआ -- अपादान कारक को कब माना और कब नहीं माना उत्तर - प्रश्न १८४ के अनुसार उत्तर दो ।
?
प्रश्न १६२ - बाई ने रोटी बनाई, क्या अपादान कारक को
?
माना
उत्तर- नही माना, क्योकि रोटी अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई का अभाव करके ध्रुव आटे मे से आई बाई मे से नही, तब अपादान कारक को माना ।
प्रश्न १६३ - कोई चतुर कहे, बाई में से ही रोटी आई, ऐसा माने तो क्या दोष आता है ?
उत्तर—अपादान कारक को उडा दिया । अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई के अभाव को और प्रोव्य आटे को भी उड़ा दिया ।
प्रश्न १६४ -- अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का तो अभाव हो जाता है, उसमें से उत्पाद कैसे हो सकता है
उत्तर -- वास्तव मे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण के अभाव मे से उत्पाद नही होता है वह तो उस समय पर्याय की योग्यता मे से होता है, यह तो अभावरूप उपादान कारण की अपेक्षा ज्ञान कराया है ।
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( ५२ )
प्रश्न १६५ - त्रिकाली ध्रुव तो अनादिअनन्त है और कार्य एक समय का है उसमें से कार्य कैसे ? हुआ
उत्तर - निमित्त, पर द्रव्यों से अलग करने की अपेक्षा त्रिकाली उपादान को कार्य का कर्ता कहा है । वास्तव मे उत्पाद उस समय पर्याय की योग्यता से ही होता है ।
प्रश्न १६६ - केवलज्ञान उस समय पर्याय की योग्यता से हुआ, ऐसा मानने से किस-किस से दृष्टि हट गई ?
उत्तर- वज्रवृपभनाराचसहनन से (२) चोथे काल से ( ३ ) ज्ञानावरणीय कर्म के अभाव से ( ४ ) आत्मा से (५) ज्ञान गुण से (६) श्रुत ज्ञान से दृष्टि हट जाती है ।
प्रश्न १६७ - क्षायिक सम्यक्त्व उस समय पर्याय की योग्यता से होता है, ऐसा मानने से किस-किस से दृष्टि हट गई ?
उत्तर --- (१) देव - गुरु से (२) दर्शन मोहनीय के उपशमादि से (३) आत्मा से (४) श्रद्धा गुण से (५) क्षयोपशम सम्यक्त्व से दृष्टि हट गई । प्रश्न १६८ - क्या उस समय पर्याय की योग्यता से ही कार्य होता है ?
उत्तर - हाँ, उस समय पर्याय की योग्यता से ही कार्य होता है, ऐसा निर्णय होते ही दृष्टि अपने त्रिकाली स्वभाव पर आवे, निर्णय सच्चा है, अन्यथा झूठा है ।
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अधिकरण कारक का स्पष्टीकरण
प्रश्न १६६ -- अधिकरण कारक किसे कहते हैं ?
उत्तर - जिसमे अथवा जिसके आधार से कर्म (कार्य) किया जावे उसे अधिकरण कारक कहते है ।
प्रश्न २०० - अनादि से अज्ञानी ने कार्य के लिए किसका आधार माना है और उसका फल क्या रहा
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( ५३ ) उत्तर-अनादि से अज्ञानी जीव ने कार्य के लिए पर का आधार माना है। उसका फल चारो गतियो मे घूमकर निगोद रहा।
प्रश्न २०१-धर्म के लिए अज्ञानी ने किस-किस का आधार माना है?
उत्तर-(१) अपनी आत्मा को छोडकर तीर्थंकरो का, मुनियो का, अत्यन्त भिन्न पर पदार्थों का, आधार माना, (२) शरीर-इन्द्रियाँ ठीक रहे तो धर्म हो उसका आधार माना है, (३) कर्म के क्षय आदि हों तो धर्म हो उसका आधार माना है, (४) शुभ भाव हो तो धर्म हो उसका आधार माना है, (५) भेदनय के पक्ष का आधार माना है, (६) अभेदनय के पक्ष का आधार माना है, (७) भेदाभेद नय के पक्ष का आधार माना है और उसका फल अनन्त ससार है।
प्रश्न २०२–क्या एक वस्तु को दूसरी वस्तु का आधार नहीं है ?
उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि प्रत्येक वस्तु अपना-अपना कार्य अपने-अपने आधार से करती है, पर की अपेक्षा नही रखती है।
प्रश्न २०३-क्या शरीर को रोटी का आधार है ?
उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योकि शरीर का आधार आहारवर्गणा है, रोटी और जीव नही।
प्रश्न २०४-~-शरीर को रोटी का आधार है, इसमे अधिकरणकारक को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-शरीर को आहारवर्गणा का आधार है रोटी का नही अब अधिकरणकारक को माना । और रोटी ही शरीर का आधार है ऐसा मानें तो उसने अधिकरणकारक को नही माना।
प्रश्न २०५-~-क्या मोक्ष का आधार कर्म का अभाव है ।।
उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि मोक्ष का आधार आत्मा है, कर्म का अभाव नही है तव अधिकरण कारक को माना।
प्रश्न २०६-मोक्ष का आधार कर्म का अभाव ही है ऐसा कहें तो क्या दोष आता है?
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उत्तर-उसने अधिकरणकारक नही माना।
प्रश्न २०७-मोक्ष का आधार कर्म का अभाव कब माना जा सकता है ?
उत्तर-जवकि द्रव्यकर्म जीव हो जावे तो मोक्ष का आधार द्रव्य कर्म का अभाव माना जा सकता है। लेकिन ऐसा हो ही नही सकता।
प्रश्न २०८--मोक्ष का आधार कौन रहा ?
उत्तर-मोक्ष का आधार त्रिकाली आत्मा है और वास्तव मे मोक्ष का आधार उस समय पर्याय की योग्यता ही है।
प्रश्न २०६-अधिकरण कारक को कब माना कहा जा सकता है?
उत्तर-प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्याय का आधार कथन्चित् निरपेक्ष है ऐसा माने तब अधिकरण कारक को माना कहा जा सकता है।
प्रश्न २१०-क्या गुरु को शिष्य का आधार है?
उत्तर-विल्कुल नही, क्योकि गुरु को अपना ही आधार है, शिष्य का नही । तब अधिकरण कारक को माना।
प्रश्न २११-क्या गुरु को शिष्य का आधार है ? इसमें अधिकरण कारक को कब नही माना?
उत्तर-गुरु को शिष्य का आधार है ऐसा माने तो अधिकरण कारक को नहीं माना।
प्रश्न २१२-गुरु को शिष्य का आधार कब कहा जा सकता है ?
उत्तर-गुरु को अपनी आत्मा का आधार है इसके बदले शिष्य की आत्मा गुरु की आत्मा बन जावे तो गुरु को शिष्य का आधार कहा जा सकता है लेकिन ऐसा हो सकता नहीं।
प्रश्न २१३-क्या गुरु को शिष्य का आधार है ? इसमे सच्चा आधार कौन रहा?
उत्तर-गुरु को अपनी आत्मा का आधार है और वास्तव मे गुरु को "उस समय पर्याय की योग्यता का आधार" है।
प्रश्न २१४-क्या आत्मा को कर्म का आधार है ?
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( ५५ )
उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २१५ - क्या आत्मा को शरीर का आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २१६ – क्या लडकी को माँ-बाप का आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २१७ – क्या स्त्री को पति का आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २१८ - क्या क्षायिक सम्यग्दर्शन को दर्शनमोहनीय के क्षयका आधार है ?
उत्तर - प्रश्न २१० से २९३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २१६ - क्या मुनियो को २८ मूलगुणो का आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २२० - क्या श्रावको को १२ अणुव्रतो का आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २२१ -क्या केवलज्ञान को केवलज्ञानावरणीय कर्म के क्षय का आधार है
?
उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २२२ - क्या सुख के लिए लडका आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २२३ - क्या ज्ञान के लिए शास्त्र का आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २२४ – क्या चारित्र को शरीर की त्रिया आधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २२५ - क्या गुरु को शिष्य का भाधार है ? उत्तर - प्रश्न २१० से २१३ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २२६ - अनादि से लडकी ने किस-किस का आधार माना और उसका क्या फल रहा ?
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( ५६ ) उत्तर-(१) घर मे लडकी उत्पन्न हुई प्रथम माँ-बाप को आधार माना (२) फिर पति को आधार माना। (३) पति के बाद लड़के को आधार माना । (४) लडके ने भी जवाब दे दिया तो रुपये पैसो का आधार माना । (५) रुपया-पैसा न रहा तो दिवाल को आधार माना, इसका फल चारो गतियो मे घूमकर निगोद रहा।
प्रश्न २२७-लडकी किसका आधार ले तो शान्ति आवे?
उत्तर--एक मात्र अपनी आत्मा का आधार माने तो कल्याण हो । फिर परम्परा मोक्ष की प्राप्ति हो ।
प्रश्न २२८-पर्याय का आधार कौन है ?
उत्तर-वास्तव मे 'उस समय पर्याय को योग्यता ही" पर्याय का , आधार है।
प्रश्न २२६-जब प्रत्येक द्रव्य की पर्याय का आधार वह पर्याय ही है दूसरा नही है। तब दृष्टि में मेरा आधार मै ही हूँ ऐसा माननेजानने से क्या लाभ होता है ?
उत्तर-(१) अनादिकाल से पर मे अपने आधार की कल्पना का अभाव हो जाता है, (२) 'स्वयभू' कहलाता है, (३) चारो गतियो का अभाव होकर पचमगति का मालिक बन जाता है, (४) . पचपरमेष्टियो मे उसकी गिनती होने लगती है (५) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग का अभाव हो जाता है, (६) पच परावर्तन का अभाव हो जाता है, (७) पचम पारिणामिक भाव का महत्व आ जाता है, (८) आठ कर्मों का अभाव हो जाता है, (६) गुणस्थानमार्गणा जीवस्थान से दृष्टि हट जाती है।
प्रश्न २३०-द्रव्य कर्म कितने हैं ?
उत्तर-आठ है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ।
प्रश्न २३१-कर्म आठ ही है कम-ज्यादा क्यो नहीं, शास्त्रो के "
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( ५७ )
अलावा और कोई आधार है; जिस पर से आठ कर्म हैं यह सिद्ध हो सके ?
उत्तर - कर्म आठ हैं शास्त्रो मे तो है ही परन्तु देखो कार्य के ऊपर से कारण का अनुमान लगाया जाता है ।
वेदनीय कर्म - ( १ ) एक जीव रोगी है, एक निरोगी है। (२) एक एक के पास लाखो करोड़ो रुपया है, एक के पास फूटी कोडी भी नही, इससे वेदनीय कर्म की सिद्धि होती है ।
नामकर्म - ( १ ) एक तो जहाँ जाता है मान मिलता है, एक जहाँ जाता है अपमान मिलता है। (२) एक रूपवान है, एक कुरूपवान है । इससे नामकर्म की सिद्धि होती है ।
आयु कर्म - ( १ ) एक की सौ वर्ष की उम्र है, एक की पचास वर्ष की उम्र है । (१) कोई गर्भ मे मर जाता है, एक तीन वर्ष मे ही चल देता है इस से आयु कर्म की सिद्धि होती है ।
एक को ऊचेपने से इससे गोत्र कर्म की बनता है यदि और
गोत्र कर्म - ( १ ) एक जैन है, एक शूद्र है। (२) देखा जाता है, एक को नीचेपने देखा जाता है। सिद्धि होती है । देखो, सयोग चार प्रकार का ही कोई सयोग देखने मे आता है तो बताओ। इसलिए चार प्रकार के सयोग के अलावा और बनता ही नहीं, इससे चार अधाति कर्मों की सिद्धि होती है ।
ज्ञानावरणीय कर्म - ( १ ) एक के ज्ञान का उघाड ऐसा है एक ही वार मे सब बाते याद हो जाती हैं, (२) एक के ज्ञान का उघाड ऐसा है ५० वार सुनने पर भी याद नही होता । इससे ज्ञानावरणीय कर्म की सिद्धि होती है ।
दर्शनावरणीय कर्म – जहाँ विशेष ज्ञान होता है वहाँ पर सामान्य दर्शन होता ही है इसमे दर्शनावरणीय कर्म की सिद्धि होती है ।
मोहनीय कर्म -- ( १ ) एक को विशेष राग दिखाई देता है, एक को
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( ५८ ) कम राग दिखाई देता है (२) एक मिथ्यात्वी है, एक सम्यक्त्वी है इससे मोहनीय कर्म की सिद्धि होती है । ___अन्तराय कर्म-(१) कोई तीव्र पुरुषार्थ करता है और कोई मन्द पुरुषार्थ करता है इससे अन्तराय कर्म की सिद्धि होती है।
इस प्रकार धाति कर्म चार हैं यह सब पाप रूप हैं। अघानि मे पुण्य-पाप का अन्तर पडता है, इस प्रकार तर्क से ८ कर्म की सिद्धि होती है और जिनवाणी मे भी आठ कर्म बतलाये हैं।
प्रश्न २३२-कर्म की कितनो दशा हैं ?
उत्तर-चार है-(१) उदय (२) क्षय (३) क्षयोपशम (४) उपशम।
प्रश्न २३३-आठ कर्मों में से उदय कितने कर्मों में होता है ? उत्तर-आठ कर्मों मे उदय होता है। प्रश्न २३४-आठो कर्मों में से क्षय कितने कर्मों मे होता है ? उत्तर-आठो कर्मों में क्षय होता है। प्रश्न २३५-आठो कर्मो मे से क्षयोपशम कितने कर्मों में होता
उत्तर-चार घातिया कर्मो मे क्षयोपशम होता है। प्रश्न २३६-आठ कर्मों मे से उपशम कितने कर्मों मे होता है ? उत्तर-एक मात्र मोहनीय कर्म मे ही उपशम होता है। प्रश्न २३७-आठ कर्मों में उदय आदि कुल कितने भेद हुए ?
उत्तर-(१) उदय के आठ भेद, (२) क्षय के आठ भेद, (३) क्षयोपशम के चार भेद, (४) उपशम का एक भेद, इस प्रकार कुल २१ भेद हुए।
प्रश्न २३८-ज्ञानावरणीय कर्म में कितनी दशा होती है ? उत्तर-तीन होती है-उदय, क्षय, क्षयोपशम । प्रश्न २३६-दर्शनावरणीय कर्म मे कितनी वशा होती हैं ? उत्तर-तीन होती है-उदय, क्षय, क्षयोपशम ।
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प्रश्न २४०-अन्तराय कर्म में कितनी दशा होती हैं ? उत्तर-तीन होती हैं-उदय, क्षय, क्षयोपशम ।। प्रश्न २४१-मोहनीय कर्म मे कितनी दशा होती हैं ? उत्तर-चार होती हैं-उदय, क्षय, क्षयोपशम, उपशम । प्रश्न २४२-अघाति कर्मों में कितनी दशा होती हैं ? उत्तर-दो होती हैं-उदय और क्षय ।। प्रश्न २४३-इस प्रकार उदय आदि कितने भेद हुए?
उत्तर-(१) ज्ञानावरणीय के तीन भेद, (२) दर्शनावरणीय के तीन भेद, (३) अन्तराय कर्म के तीन भेद, (४) मोहनीय कर्म के चार भेद; (५) आयु के दो भेद, (६) नाम के दो भेद, (७) गोत्र के दो भेद, (८) वेदनीय के दो भेद, इस प्रकार कुल २१ भेद हुए।
प्रश्न २४४--आठ कर्मों में उदय आदि के २१ भेदों से क्या लाभ
रहा?
उत्तर---यह २१ भेद हैं, यह कार्य है और प्रत्येक कार्य मे छह कारक एक साथ वर्तते हैं। इस प्रकार २१४६=१२६ भेद हुए।
प्रश्न २४५-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय-पर छह कारक कैसे लगते हैं?
उत्तर–ज्ञानावरणीय कर्म का उदय यह कार्य है। कार्य पर से छह प्रश्न उठते है । (१) ज्ञानावरणीय कर्म का उदय किसने किया? कार्माणवर्गणा ने किया । अत काणिवर्गणा कर्ता हुई, (२) कार्माणवर्गणा ने क्या किया ? ज्ञानावरणीय कर्म का उदय । अत ज्ञानावरणीय कर्म का उदय कर्म हुआ, (३) ज्ञानावरणीय कर्म का उदय किस साधन के द्वारा हुआ ? काणिवर्गणा के साधन द्वारा । अत कार्माणवर्गणा करण हुई, (४) ज्ञानावरणीय कर्म का उदय किस के लिए किया ? कार्माणवर्गणा के लिए किया। अत कार्माणवर्गणा सम्प्रदान हुई । (५) ज्ञानावरणीय कर्म का उदय किस मे से किया ? पहली पर्याय का अभाव करले काणिवर्गणा मे से किया। अत.
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( ६० )
कार्माणवर्गणा अपादान हुई । (६) ज्ञानावरणीय कर्म का उदय किसके आधार से हुआ ? कार्माणवर्गणा के आधार से हुआ । अत. कार्माणवर्गणा अधिकरण हुई ।
प्रश्न २४६ - आपने जैसे प्रश्न २४५ में ज्ञानावरणीय कर्म के उदय पर छह कारक लगाये हैं क्या उसी प्रकार बाकी २० भेवों पर भी लगेंगे ?
"
उत्तर - हाँ, ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के समान छहो कारक २० भेदो पर भी लगेंगे ।
प्रश्न २४७–२१×६= १२६ भेवो से क्या सिद्धि हुई ? उत्तर - ( १ ) प्रत्येक कार्य की स्वतन्त्रता की सिद्धि हुई ( २ ) जीव के कारण द्रव्यकर्म मे उदय, क्षय आदि अवस्था होती हैं और द्रव्यकर्म के कारण जीव मे औपशमिक, क्षायिक, क्षयोपशम आदि भाव होते है । ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो गया ।
प्रश्न २४८ - आपने कर्मों की स्वतन्त्रता की सिद्धि की और समझ में भी आया कि कर्म के उदय आदि का कर्ता कार्माणवर्गणा का कार्य
जीव का नहीं । परन्तु 'गौमट्टसार' आदि शास्त्री में लिखा है कि (१) कर्म चक्कर कटाता है । (२) ज्ञानावरणीय के अभाव से केवलज्ञात होता है । (३) क्षायिक सम्यक्त्व दर्शनमोहनीय के क्षय से होता है; आदि कथन शास्त्रो में किया है। क्या वह झूठ लिखा है
?
उत्तर- (१) अरे भाई, वह सब व्यवहार कथन है और व्यवहार कथन का अर्थ "ऐसा है नही, निमित्तादि की अपेक्षा कथन किया है", ऐसा जानना चाहिए । ( २ ) जो व्यवहार के कथन को सच्चा ही मानता है वह जिनवाणी सुनने के अयोग्य है और व्यवहार के कथन को सच्चा मानने से मिथ्यात्व की पुष्टि होती है ।
?
प्रश्न २४६ - जीव में औदयिक भाव, क्षयोपशम भाव, क्षायिक भाव, औपशमिक भाव भी क्या कर्म की अपेक्षा बिना होते हैं उत्तर - हाँ, जीव मे भी औदयिकादि भावरूप से परिणमित होने
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( ६१ )
की क्रिया मे वास्तव मे जीव स्वय ही छह कारक रूप से वर्तता है । इसलिए उसे अन्य कारको की अपेक्षा नही है ।
प्रश्न २५०- ( १ ) शरीर, मन, वाणी के कार्य, (२) द्रव्यकर्म; (३) जीव के विकारी भाव, (४) अविकारी भाव; क्या निरपेक्ष होते हैं, इसके लिए कोई शास्त्राधार है ?
उत्तर- (१) देखो, पचास्तिकाय गा० ६२ टीका सहित मे लिखा है कि "सर्व द्रव्यो की प्रत्येक पर्याय से यह छह कारक एक साथ वर्तते हैं, इसलिए आत्मा और पुद्गल शुद्ध दशा मे या अशुद्ध दशा मे स्वय छहो कारक रूप परिणमन करते हैं और दूसरे कारको की अपेक्षा नही रखते ।” (२) जयघवल न० ७ पृष्ठ १७७ मे लिखा है कि "वज्झ कारण निरपेक्खो वथ्यु परिणामों" वस्तु का परिणाम बाह्य कारणो से निरपेक्ष होता है । (३) समयसार कलश न० ५१, ५२, ५३, ५४, ६१ मे तथा कलश २०० मे 'नास्ति सर्वोऽपि सम्वन्ध " ऐसा कहा है । (४) आप्तमीमासा मे कहा है "धर्मी धर्म को निरपेक्ष मानो" ।
प्रश्न २५१ - क्या एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नहीं कर सकता है ?
उत्तर - कुछ भी नही कर सकता है । विचारिये केवली भगवान को अनन्त चतुष्ट्य की प्राप्ति अरहतदशा मे हुई है । वह उसी समय ओदारिक शरीर का और चार अघाति कर्मों का अभाव नही कर सकते और छद्मस्थ को जरा सा ज्ञान का उघाड हुआ और वह कहे, मैं पर का कर सकता हूँ, आश्चर्य है ।
प्रश्न २५२ - संसार में कितने प्रकार की दृष्टि है ? उत्तर - दो हैं । (१) द्रव्यदृष्टि (२) पर्याय दृष्टि ।
प्रश्न २५३ - इन दोनों दृष्टियों का क्या फल है ?
उत्तर- द्रव्यदृष्टि का फल - मोक्ष है और पर्यायदृष्टि का फल - निगोद है ।
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( ६२ )
प्रश्न २५४ - " बाई ने रोटी बनाई "- इस पर व्यवहार कारक किस प्रकार घटित होते हैं
?
उत्तर - देखो, 'रोटी बनी' यह कार्य है और कार्य पर से छह प्रश्न उठते हैं । (१) रोटी किसने बनाई ? बाई ने । अत वाई कर्ता हुई (२) बाई ने क्या किया ? रोटी बनाई । अत रोटी कर्म हुआ (३) रोटी किस साधन के द्वारा बनी ? चकला बेलन के द्वारा वनी । अत' चकला बेलन करण हुआ । (४) रोटी किसके लिए बनी ? खाने वाले के लिए बनी । अत 'खाने वाला सम्प्रदान हुआ । (५) रोटी किसमे से बनी । ? थाली मे से बनी । अत 'थाली अपादान हुआ । (६) रोटी किसके आधार से बनी ? चूल्हा, तवे के आधार से बनी । चूल्हा, तवा अधिकरण हुआ ।
अत
देखो, इसमे बाई कर्ता, रोटी कर्म, चकला - बेलन करण, खाने वाले सम्प्रदान, थाली अपादान और चूल्हा तवा अधिकरण- इसमे सभी कारक भिन्न-भिन्न हैं । यह व्यवहार कारक असत्य हैं । यह मात्र उपचरित असदभूत व्यवहारनय से कहे जा सकते हैं ।
?
प्रश्न २५५ -- व्यवहार कारक को ही सत्य माने तो क्या होगा उत्तर – यह महा अहकाररूप अज्ञान अधकार है उसका सुलटना दुर्निवार है और उसे कभी धर्म की प्राप्ति नही होगी ।
प्रश्न २५६ - "बाई ने रोटी बनाई" इसमे त्रिकाली को अपेक्षा निश्चय कारक को लगाओ ?
छह
उत्तर - रोटी बनी - यह कार्य है । कार्य पर से छह प्रश्न उठते है । (१) रोटी किसने बनाई ? आटे ने बनाई । अत आटा कर्ता हुआ, (२) आटे ने क्या किया ? रोटी बनाई । अत. रोटी कर्म हुआ, (३) रोटी किस साधन से बनी ? आटे के साधन द्वारा । अत आटा करण हुआ, (४) रोटी किसके लिए बनी ? आटे के लिए । अत आटा सम्प्रदान हुआ; (५) रोटी किस मे से बनी ? अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई का अभाव करके आटे मे से बनी । अत आटा
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अपादान हुआ, (६) रोटी किसके आधार से बनी। आटे के आधार से बनी । अत आटा अधिकरण हुआ।
प्रश्न २५७-रोटी का कर्ता आपने आटे को कहा। परन्तु आटा तो कनस्तर में पड़ा है, अव रोटी क्यो नहीं बनती ? तो कहना पड़ेगा बाई, चकला, बेलन आवे तो रोटी बने, क्या यह बात ठीक नहीं है ?
उत्तर-नही भाई, हमने आटे को कर्ता कहा, वह तो मात्र पर द्रव्यो से दृष्टि हटाने के लिए कहा। रोटी का कर्ता तो उसकी अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई क्षणिक उपादान कारण है।
प्रश्न २५८-रोटी का कर्ता अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई क्षणिक उपादान कारण और रोटी कर्म, तो इसको जानने से क्या लाभ रहा?
उत्तर--(१) भूत-भविष्य की पर्यायो से दृष्टि हट गई (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय की अपेक्षा आटा व्यवहार कारण हो गया। (३) अव रोटी के लिये अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई की ओर देखना रहा।
प्रश्न २५६-रोटी बनी-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई को अपेक्षा छह कारक लगाकर दिखाओ।
उत्तर-रोटी बनी-यह कार्य है, कार्य पर से छह प्रश्न उठते हैं। (१) रोटी किसने बनाई ? अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई ने । अत लोई कर्ता हुई, (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादन कारण लोई ने क्या किया ? रोटी बनाई । अत रोटी कर्म हुई, (३) रोटी किस साधन द्वारा बनी ? अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई के साधन द्वारा । अत लोई करण हुई (४) किसके लिए रोटी बनाई ? अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई के लिए। अत लोई सम्प्रदान हुई, (५) रोटी किसमे से बनाई ? अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान लोई मे से। अत लोई अपादान हुई, (६) रोटी किसके
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( ६४ )
वनी ? अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोर्ड के आधार से । अत लोई अधिकरण हुई ।
प्रश्न २६० - कोई चतुर प्रश्न करता है कि जैन शास्त्रो में आता है कि पर्याय मे से पर्याय नहीं आती है, अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है । तव फिर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई कर्ता और रोटी कर्म यह कैसे हो सकता है ।
उत्तर - अरे भाई । तुम्हारी वात ठीक है । पर्याय मे से पर्याय नही आती, अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है । परन्तु हमने तो, रोटी बनने से पूर्व कौनसी पर्याय का अभाव करके होती है, उसकी अपेक्षा अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण लोई को कर्ता कहा । परन्तु यह भी रोटी का सच्चा कर्ता नही है ।
प्रश्न २६१ - यदि लोई भी रोटी का सच्चा कर्त्ता नहीं है तो फिर रोटी का सच्चा कर्त्ता कौन है
।
उत्तर - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही रोटी का सच्चा कर्ता है और रोटी बनी वह कर्म है, क्योकि जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है ।
प्रश्न २६२ -- उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादन कारण रोटी कर्ता और रोटी बनी यह कर्म, इस पर छह कारक किस प्रकार लगेंगे ?
उत्तर- 'रोटी बनी' यह कर्म है, कार्य पर से छह प्रश्न उठते है । (१) रोटी किसने बनाई ? उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण रोटी ने । अत रोटी कर्ता हुई, (२) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण रोटी ने क्या किया ? रोटी बनाई । अत रोटी कर्म हुई । ( ३ ) रोटी किस साधन के द्वारा बनाई ? उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण रोटी के साधन द्वारा । अत रोटी करण हुई, (४) रोटी किसके लिए बनाई ? उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण रोटी के लिए । अत रोटी
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( ६५ ) सम्प्रदान हुई, (५) रोटी किसमे से बनी ? उस समय पर्याय की उपादान कारण रोटी मे से बनी। अत रोटी अपादान हुई, (६) रोटी किसके आधार से बनी ? उस समय पर्याय की योग्यता क्षक्षिण उपादान कारण रोटी के आधार से। अत रोटी अधिकरण हुई। देखो रोटी का वास्तविक मच्चाकारण-कार्य उस समय पर्याय की योग्यता ही है ।
प्रश्न २६३–उस समय पर्याय की योग्यता से ही रोटी बनी और से नहीं, इसको जानने से क्या लाभ रहा ।
उत्तर-ससार मे जो-जो कार्य होता है। वह अपनी-अपनी उस समय पर्याय की योग्यता से हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। ऐसा निर्णय होते ही दृष्टि अपने स्वभाव पर आ जाती है। तव वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता को माना।
प्रश्न २६४-केवल ज्ञानावरणीय कर्म के अभाव से केवलज्ञान की प्राप्ति हुई इसमे (१) त्रिकालो उपादान कारण (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण (३) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण (४) निमित्त कारण-चारो प्रकार के छह कारक लगाकर बताओ?
उत्तर-स्वय प्रश्न उत्तर २५४ से २६३ तक के अनुसार दो।
प्रश्न २६५-बढई ने रथ बनाया; इसमे चारो प्रकार के छह कारक लगाओ?
उत्तर–स्वय प्रश्न उत्तर २५४ से २६३ तक के अनुसार दो। '
प्रश्न २६६-मैने दही मे से घी निकाला; चारो प्रकार के छह कारक लगाओ?
उत्तर-स्वय प्रश्न उत्तर २५४ से २६३ तक के अनुसार हो।
प्रश्न २६७-क्या औपशमिक सम्यक्त्व होने से दर्शन पाहती। उपशम हुआ?
उत्तर-स्वय प्रश्न उत्तर २५४ से २६३ चक्र के अनुसारको
..
सीटी
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( ६६ )
प्रश्न २६८ -- क्या ज्ञान का क्षयोपशम होने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हुआ ?
उत्तर – स्वय प्रश्न उत्तर २५४ से २६३ तक के अनुसार दो । प्रश्न २६ -- क्या मैंने कपड़े बिछाये ?
उत्तर - प्रश्न २५४ से २६३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २७० --- क्या मै जोर से बोलता हूँ ? उत्तर - प्रश्न २५४ से २६३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २७१ - क्या निमित्त से उपादान में कार्य होता है ? उत्तर - प्रश्न २५४ से २६३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २७२ ~ - क्या मैने रुपया कमाया ? उत्तर - प्रश्न २५४ से २६३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २७३ - क्या कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार बनाया ? उत्तर - प्रश्न २५४ से २६३ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न २७४ - जब "कार्य उस समय पर्याय की योग्यता" से होता है तब ( १ ) निमित्त की अपेक्षा; (२) त्रिकाली उपादान की अपेक्षा; (३) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण की अपेक्षा; क्यो कथन किया है ?
उत्तर- (१) द्रव्य उचित वहिरंग साधनो की सनिधि के सद्भाव रता है । (प्रवचनसार गा० ६५ 'व्य त्रिस्वभाव स्पर्शी ( उत्पाद1) होता है और कार्य के उत्पाद उपस्थिति होती है। (प्रवचनयह सिद्ध होता है कि उत्पाद, समय एक हो होता है, ऐसा उत्पत्ति के समय उचित निमित्त है वहाँ पूर्व पर्याय का अभाव, योग्यता से निमित्त भी स्वय कथन है ।
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( ६७ )
प्रश्न २७५ - जब-जब कार्य होता है तब अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके ही त्रिकाली उपादान कारण में से होता है, तब निमित्त होता ही है। ऐसा आप कहना चाहते हैं ?
उत्तर - हाँ, भाई बात तो ऐसी ही है । परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए । (१) कोई मात्र उत्पाद को माने, व्यय को न माने, त्रिकाली को न माने और निमित्त को न माने तो झूठा है । (२) कोई मात्र व्यय को माने बाकी को न माने तो झूठा है । (३) कोई मात्र त्रिकाली को माने, बाकी को न माने तो झूठा है । (४) मात्र निमित्त को माने बाकी को न माने तो झूठा है (५) चारो की सत्ता है, लेकिन अपनीअपनी है। एक दूसरे मे से नही होते । (६) परन्तु जहाँ उत्पाद होगा, वहाँ व्यय का अभाव और त्रिकाली होगा और निमित्त भी होगा (७) जहाँ व्यय होगा वहाँ उत्पाद और त्रिकाली भी होगा । (८) चारो का एक ही समय है । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य एक ही मे होता है निमित्त पर होता है; क्योकि कहा है-उपादान निजगुण जहाँ तहाँ निमित्त पर होय । भेदज्ञान परमाण विधि बिरला वृझे कोय |
प्रश्न २७६ - क्या विकारी भावों में भी छह कारक घटते हैं ? उत्तर - हाँ घटते हैं, क्योकि विकारी भाव भी निरपेक्ष हैं । प्रश्न २७७ - विकारी भावो को शास्त्रो में निरपेक्ष क्यों कहा है ?
उत्तर- ( १ ) विकारी भाव एक समय की पर्याय है यह अपने अपराध से ही है । यह अपने षट् कारक से स्वय होता है ( २ ) विकारी भावो के समय कर्म का निमित्त होता है, परन्तु विकार कर्म ने नही कराया । विकार कर्म के उदय की अपेक्षा के बिना होता है ( ३ ) अपना एक समय का दोष जानकर, स्वभाव त्रिकाल दोष रहित है उसका आश्रय लेकर अभाव करे । इसलिए शास्त्रो मे विकारी भावो को निरपेक्ष कहा है ।
प्रश्न २७८ - विकारी भावों को शास्त्रों में (१) अशुद्ध निश्चयनय
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( ६८ )
से जीव का कहा है (२) व्यवहार से जीव का कहा है। (३) पर्यायार्थिकनय से जीव का कहा है । ( ४ ) अशुद्ध पारिणामिक भाव कहा है। (५) औदयिकभाव कहा है; वहाँ ऐसा कहने का तात्पर्य क्या-क्या है ?
उत्तर - ( १ ) विकारी भाव जीव की पर्याय मे होते है इस अपेक्षा निश्चय कहा और अशुद्ध है इसलिए अशुद्ध कहा । अशुद्ध निश्चयनय से विकारीभाव जीव के कहे, ताकि जीव शुद्ध निश्चयनय का आश्रय लेकर विकारी भावो का अभाव करे (२) विकारी भाव पराश्रित होने से व्यवहार कहा, निश्चय स्वाश्रित होता है इसलिए निश्चय का आश्रय लेकर विकारी भाव जो पराश्रित है उनका अभाव करे (३) विकारी भाव पर्याय मे है द्रव्य-गुण मे नही है । द्रव्य-गुण अभेद का आश्रय लेकर पर्याय मे से विकार का अभाव करे (४) धवल मे विकारी भावो को अशुद्ध पारिणामिकभाव कहा है ताकि पात्रजीव शुद्ध पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर विकारी भावो का अभाव करे (५) विकारी भावो को औदयिक भाव कहा है ताकि पात्र जीव पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर औदयिक भाव का अभाव करे । यह न्यारी-न्यारी अपेक्षा कहने का तात्पर्य है ।
प्रश्न २७६- 'आत्मा-प्रज्ञा द्वारा भेदज्ञान करता है'। इस वाक्य पर से कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर -- तीन- आत्मा-कर्ता, प्रज्ञा द्वारा-करण, भेद ज्ञान करता है-कर्म |
प्रश्न २८० -- 'आत्मा ने ज्ञान दिया। इसमें कितने कारक सिद्ध होते है ?
उत्तर- दो । आत्मा - कर्ता, ज्ञान दिया -कर्म |
प्रश्न २८१ - आत्मा ने, ज्ञान द्वारा, ज्ञान दिया । इसमे कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर--आत्मा ने-कर्ता, ज्ञान द्वार
, ज्ञान दिया कर्म ।
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( ६६ )
प्रश्न २८२ - 'आत्मा ने, ज्ञान द्वारा, ज्ञान के लिए, ज्ञान दिया । इसमे कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर - आत्मा ने कर्ता, ज्ञान द्वारा - करण, ज्ञान के लिए सम्प्रदान; ज्ञान दिया-कर्म |
प्रश्न २८३ - " अहंत भगवान ने केवलज्ञान प्रगट किया ।" कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर - अर्हत भगवान - कर्ता, केवलज्ञान-कर्म ।
प्रश्न २८४ - आत्मा ने, ज्ञान द्वारा, ज्ञान के लिए, ज्ञान में से, ज्ञान दिया । इसमें कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर - आत्मा-कर्ता, ज्ञान द्वारा-करण, ज्ञान के लिए सम्प्रदान; ज्ञान मे से - अपादान, ज्ञान दिया कर्म ।
प्रश्न २८५ - आत्मा में से, शुद्धता आती है । इसमे कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर—आत्मा मे से- अपादान, शुद्धता - कर्म |
प्रश्न २८६ - निश्चय रत्नत्रय का कारण शुद्ध आत्मा है । इसमें कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर - निश्चय रत्नत्रय - कर्म, कारण-करण, शुद्ध आत्मा - कर्ता । प्रश्न २८७ में, अपने हित के लिए, अभ्यास करता हूँ । इसमें कितने कारक सिद्ध होते हैं ?
उत्तर - मैं - कर्ता, अपने हितके लिए सम्प्रदान, अभ्यास करता हूँ-कर्म ।
प्रश्न २८८ - ऊँचे निमित्तो द्वारा, जीव ऊँचा चढ़ता है। इसमें कितने कारको मे भूल हैं ।
उत्तर--करण, कर्ता, कर्म, तीन कारको की भूल है ।
प्रश्न २८६ - महापुरुष अपने में से दूसरो को देते हैं। इसमे कितने कारको की भूल साबित होती ?
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(
( ७० )
उत्तर - कर्ता, अपादान, कर्म, तीन कारको की भूल साबित होती
है ।
प्रश्न २६० - छह कारकों की स्वतन्त्रता से क्या सिद्ध होता है ? उत्तर - जीव अनन्त, पुद्गल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म-आकाश एकएक और लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं । प्रत्येक द्रव्य में अनन्तअनन्त गुण है । प्रत्येक गुण मे एक ही समय मे एक पर्याय का व्यय, दूसरी का उत्पाद और गुण ध्रौव्य रहता है । ऐसा प्रत्येक द्रव्य के गुण मे हो चुका है, हो रहा है और भविष्य मे होता रहेगा ।
प्रश्न २६१- प्रश्न २६० के अनुसार जानने वाले को क्या-क्या लाभ होता है ?
उत्तर- (१) केवली के समान ज्ञाता-दृष्टा बुद्धि प्रगट हो जाती है । ( २ ) प्रत्येक वस्तु कैसी है और क्या करती है ऐसा सच्चा ज्ञान हो जाता है । (३) अनादि निधन मन्त्र का रहस्य अपना अनुभव हुए बिना समझ मे नही आ सकता है । ज्ञानी इस मन्त्र का रहस्य जानते हैं और सदैव सुखी रहते हैं । ( ४ ) अज्ञानी अनादि से व्यवहार षटकारक के अवलम्बन मे पागल था । वह मिटकर शुद्धात्म अनुभूति प्रगट हो जाती है । (५) ज्ञानी जानता है मेरी आत्मा अनादिअनन्त किसी मे गयी नही, मिली नही है, उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य किसी मे गया नही, कभी जावेगा नही । ( ६ ) यह मन्त्र सारे आगम का सार है यह वीतराग विज्ञानता का भेदज्ञान है ।
वस्तु विचारत ध्यायतं, मन पावै विश्राम । रस स्वावत सुख उपजै, अनुभव याको नाम ॥
जय महावीर - जय महावीर
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( ७१ ) उपादान-उपादेय दूसरा अधिकार
प्रश्न १-कारण किसे कहते हैं ? उत्तर–कार्य की उत्पादक सामग्री को कारण कहते है। प्रश्न २-उत्पादक सामग्री के कितने भेद हैं ? उत्तर-दो भेद हैं-उपादान और निमित्त । प्रश्न ३-उपादान के सामने क्या है ? उत्तर-उपादान के सामने निमित्त है। प्रश्न ४-निज शक्ति के सामने क्या है ? उत्तर-निजशक्ति के सामने परयोग है। प्रश्न ५-निश्चय के सामने क्या है? उत्तर-निश्चय के सामने व्यवहार है। प्रश्न ६-उपादान कारण कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर- तीन प्रकार के हैं । (१) त्रिकाली उपादान कारण, (२) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण, (३) उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादान कारण।
प्रश्न ७–त्रिकालो उपादान कारण किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो द्रव्य स्वय कार्य रूप परिणमित हो उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे कि-घडे की उत्पत्ति मे मिट्टी उसका त्रिकाली उपादान कारण है।
प्रश्न ८-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण किसे कहते हैं ?
उत्तर-अनादिकाल से द्रव्य मे जो पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण और अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय कार्य है। जैसे-मिट्टी का घडा होने मे मिट्टी का पिण्ड वह घडे की अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक
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( ७२ ) उपादान कारण और घडा रूप कार्य वह पिण्ड की अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय है । (यह पर्यायाथिक नय से है)
प्रश्न :-(१) 'अनन्तर पूर्व' शब्द क्या बताता है (२) और अनन्तर शब्द ना लगावे तो नुकसान है ?
उत्तर-(१) जो कार्य हुआ। उससे तत्काल पहिले की पर्याय को बताता है। जैसे दस नम्बर पर घडा बना तो नौ नम्बर की पर्याय को बताता है (२) और यदि अनन्तर गब्द ना लगाया जावे तो जो कार्य हुआ-उससे पहिले की सब पर्यायो का ग्रहण हो जावेगा। जो ठीक नहीं है।
प्रश्न १०-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण किसे कहते हैं ?
उत्तर-जो कार्य हुआ-- वह उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण और वही पर्याय कार्य है। यही सच्चा कारण है ।
प्रश्न ११-उपादान का शाब्दिक अर्थ क्या है ?
उत्तर---उप समीप । आ=मर्यादा पूर्वक । दान-दान देना । द्रव्य के समीप मे से कौन-सी, जैसी पर्याय की योग्यता है । उस पर्याय को प्राप्त होना । यह उपादान का शाब्दिक अर्थ है ।
प्रश्न १२-इन तीनो उपादान कारणो मे से कार्य का सच्चा कौन है और कौन नहीं है । । उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही वास्तव मे कार्य का सच्चा कारण है। त्रिकाली उपादान कारण, अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय क्षणिक उपादान कारण और निमित्त कारण सच्चा कारण नही है। । प्रश्न १३-~-कार्य का त्रिकाली उत्पादन कारण सच्चा कारण क्यों नहीं है ?
उत्तर-कार्य एक समय का है उसका (काय का) कारण यदि अनादि अनन्त त्रिकाली हो तो कार्य भी अनादिअनन्त होना चाहिए ।
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( ७३ )
इसलिये कार्य का सच्चाकारण उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही है त्रिकाली उपादान कारण नही है ।
प्रश्न १४ - कार्य का अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण सच्चा कारण क्यो नहीं है ?
उत्तर -- कार्य स्वय एक समय का सत् है । वह अनन्तर पूर्व पर्याय मे से आवे ऐसा नही है, क्योकि अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती । इसलिए कार्य का सच्चा कारण उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उहादान कारण ही है । अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय क्षणिक उपादान कारण सच्चा कारण नही है। याद रहे अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय क्षणिक उपादान कारण को कार्य का अभावरूप कारण कहा जाता है ।
?
प्रश्न १५ – कार्य को उपादान कारण की अपेक्षा क्यो कहते हैं उत्तर - उपादेय कहते हैं ।
?
प्रश्न १६ -- उपादान - उपादेय सम्बन्ध किसमें होता है उत्तर---उपादान- उपादेय सम्बन्ध एक ही पदार्थ मे लागू होता है । प्रश्न १७ - 'उपादेय' शब्द कहाँ-कहाँ प्रयोग होता है ? उत्तर -- (१) कार्य होने मे उपादान के कार्य को उपादेय कहते हैं । (२) त्रिकाली स्वभाव जो अनादिअनन्त है उसे आश्रय करने योग्य उपादेय कहते हैं । ( ३ ) मोक्षमार्ग को एकदेश प्रकट करने योग्य उपादेय कहते हैं । (४) मोक्ष को पूर्ण प्रकट करने योग्य उपादेय कहते हैं । उपादान - उपादेय प्रकरण मे जो कार्य होता है उसे यहाँ उपादेय कहना है । इसलिए यहाँ पर कार्य को उपादेय कहेगे । याद रखनाव्यवहारनय को उपादेय कहा सो उपादेय का अर्थ 'जानना' समझना ।
"कुम्हार ने चाक, कीली, डडा, हाथ आदि से घडा बनाया ।" इस वाक्य में 'घडा' कार्य पर उपादान - उपादेय का २५ प्रश्नोत्तरो द्वारा स्पष्टीकरण
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( ७४ ) प्रश्न १८-कुम्हार चाक, कोली, रंडा, हाथ आदि उपादानकारम और घड़ा उपादेय । क्या यह उपादान-उपादेय का ज्ञान ठीक है?
उत्तर-बिल्कुल ठीक नहीं है, क्योकि यहां पर मिट्टी त्रिकाली उपादानकारण और घड़ा उपादेय है।
प्रश्न १६-यदि कोई चतुर कुम्हार, चाक, कोली, रडा, हाय आदि उपादान कारण और घड़ा उपादेय-ऐसा ही माने तो क्या दोष आता है?
उसर-कुम्हार, चाक, कीली, डडा हाथ आदि नष्ट होकर मिट्टी बन जावे तो ऐसा माना जा सकता है कि कुम्हार, चाक, कीली, डडा हाथ आदि उपादानकारण और घड़ा उपादेय । लेकिन ऐसा नहीं हो सकता, क्योकि उपादन-उपादेय तत्स्वरुप मे ही (अभिन्न सत्ता वाले पदार्थों मे ही) होता है, जिनकी सत्ता-सत्त्व भिन्न-भिन्न हैं ऐसे दो पदार्थों मे उपादान-उपादेय नहा होता है।
प्रश्न २०-~-जो कुम्हार, चाक, कीलो, डा, हाथ आदि निमित्त कारणो को ही घड़े का (कार्य का) सच्चा कारण मानते हैं। उन्हें जिनवाणी मे किन-किन नामो से सम्बोधन किया है।
उत्तर-(१) जो निमित्त कारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते है, उन्हे समयसारकलश ५५ मे कहा है कि "उनका सुलटना दुर्निवार है और यह उनका अज्ञान मोह अधकार है।" (२) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते है, उन्हे प्रवचनसार गाथा ५५ मे कहा है कि "वह पद-पद पर धोखा खाता है।" (३) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते है, उन्हे पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा ६ मे कहा है कि "तस्य देशना नास्ति अर्थात् वह भगवान की वाणी सुनने लायक नही है।" (४) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उनका हरामजादीपना है।"
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( ७५ )
प्रश्न २१ - मिट्टी त्रिकाली उपादान कारण और घड़ा उपावेय । इसको समझने से क्या लाभ हुआ
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उत्तर - (१) कुम्हार, चाक, कीली, डडा, हाथ आदि निमित्त कारणो से घड़ा बना - ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है । (२) आहारवर्गणा के स्वध मिट्टी को छोड़कर दूसरी वर्गणाओ से दृष्टि हट जाती है । ( ३ ) अब यहाँ पर घडा बनने के लिए मात्र त्रिकाली उपादानकारण मिट्टी की तरफ देखना रहा । इतना लाभ हुआ ।
प्रश्न २२ - कोई चतुर प्रश्न करता है कि यदि कुम्हार, चाक, कीली, डडा, हाथ आदि निमित्तकारण हो तो घड़ा बने । श्राप कहते हो घड़े का (कार्य का ) निमित्तकारणो से कोई सम्बन्ध नहीं है । तो मिट्टी उपादान कारण और घड़ा उपादेय । यह आपकी बात झूठी सावित होती है ?
उत्तर - अरे भाई- हमने मिट्टी को घडे का उपादानकारण कहा है । वह तो कुम्हार, चाक, कीला डडा, हाथ आदि निमित्त कारणो से पृथक् करने की अपेक्षा से कहा है । वास्तव मे मिट्टी भी घडे का सच्चा उपादान कारण नही है ।
प्रश्न २३ – मिट्टी भी घड़े का सच्चा उपादानकारण नहीं है । तो यहाँ पर घड़े का सच्चा उपादानकारण कौन है ?
उत्तर - मिट्टी मे अनादिकाल से पर्यायों का प्रवाह चला आ रहा है । मानो दस नम्बर पर घडा बना, तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारक घडे का यहाँ पर सच्चा उआदान कारण है ।
प्रश्न २४ – मिट्टी मे अनादिकाल से प्रर्यायो का प्रवाह क्यों चला आ रहा है । उत्तर - प्रत्येक द्रव्य-गुण अनादिअनन्त ध्रौव्य रहता हुआ एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय में स्वय
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स्वत अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, करता है और भविष्य मे करता रहेगा। ऐसा वस्तुस्वरूप है। इसी कारण अनादि काल से मिट्टी मे पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है।
प्रश्न २५--अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण और घडा उपादेय । इसको मानने से क्या लाभ हुआ?
उत्तर--(१) भूत-भविष्यत् की पर्यायो से दृष्टि हट गई। (२) मिट्टी त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी व्यवहार कारण हो गया। (३) अव यहां पर घडा बनने के लिए मात्र अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना रहा।
प्रश्न २६-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है और पर्याय में से पर्याय नहीं आती है। ऐसा जिनवाणी में कहा है। फिर यह मानना कि अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण और घड़ा उपादेय है। यह आपकी बात झूठी सावित होती है ?
उत्तर-अरे भाई-अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती है। यह बात जिनवाणी की बिल्कुल ठीक है । परन्तु हमने तो कार्य से पहिले कौनसी पर्याय होती है। उसकी अपेक्षा अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड को घडे का क्षणिक उपादान कारण कहा है । परन्तु अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड भी धडे का सच्चा कारण नही है।
प्रश्न २७---अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड घड़े का सच्चा उपादानकारण नहीं है । तो कैसा कारण है और कैसा कारण
से भाव यह बात मर्याय होतो
उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड घडे का अभावरूप कारण है वह काल सूचक है। परन्तु कार्य का जनक नही है।
प्रश्न २८-अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान
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( ७७ )
कारण भी घड़े का सच्चा उपादानकारण नहीं है । तो वास्तव में घड़े का सच्चा उपादानकारण कौन है ?
उत्तर - वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही घडे का सच्चा उपादान कारण है |
प्रश्न २६ - वास्तव में उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादानकारण ही घड़े का सच्चा उपादानकारण है । ऐसा मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर- ( १ ) अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण की तरफ घडे के लिए देखना नही रहा । (२) अब एकमात्र घडे के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण की तरफ ही देखना रहा । यह लाभ हुआ ।
प्रश्न ३० - ( १ ) मिट्टी त्रिकाली उपादान कारण और घड़ा उपादेय । (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय पिण्ड क्षणिक उपादानकारण और घड़ा उपादेय। (३) उस समय पर्याय की योग्यता घड़ा क्षणिक उपादानकारण और घड़ा उपादेय । ऐसा शास्त्रो मे बताया | परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगड़ा करने से क्या लाभ या ? कह देते कि कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हीं होता है ।
उत्तर- ( १ ) निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से मिटटी त्रिकाली उपादन कारण को बताना आवश्यक था । (२) भूत ओय भविष्यत् पर्यायो से पृथक् करने की अपेक्षा से और अभावरूप कारण का ज्ञान कराने के लिए पिण्ड अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक था । (३) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादानकारण से पृथक् करने की अपेक्षा से ओर कार्य के सच्चा कारण का ज्ञान कराने के लिए उस समय पर्याय योग्यता क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक थी ।
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{
( ७८ )
तीनों कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिए शास्त्रो मे इतना लम्बालम्बा करके समझाया है ।
प्रश्न ३१ - घड़ा उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से बना है। इसको मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर - जैसे -- घडा उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से बना है । वैसे ही विश्व मे जितने भी कार्य हैं वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होते रहेंगे । ऐसा केवली के समान सच्चाज्ञान हो जाता है ।
प्रश्न ३२ - विश्व मे जितने भी कार्य हैं। वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य मे होते रहेंगे। ऐसा केवली के समान सच्चाज्ञान होते हो क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने में आता है ?
उत्तर- ( १ ) अनादिकाल की पर मे करूँ-घरू की खोटी मान्यता का अभाव होना । (२) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना । (३) सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि होकर मोक्ष लक्ष्मी का नाथ होना । (४) मिथ्यात्वादि ससार के पाच कारणों का अभाव होना । (५) द्रव्य क्षेत्र काल - भव- भावरूप पच परावर्तन का अभाव होकर पंच परमेष्टियो मे गिनती होना ।
प्रश्न ३३ – विश्व में प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय की योग्यता छणिक उपादानकारण से ही होता है। तब कौन-कौन सी चार बातें एक साथ एक ही समय में नियम से होती हैं ।
उत्तर- (१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण ( उत्पाद) (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय क्षणिक उपादान कारण (व्यय) (३) त्रिकाली उपादानकारण ( ध्रौव्य ) (४) निमित्तकारण | ये चार बाते प्रत्येक कार्य मे एक ही साथ एक ही काल मे नियम से होती है । ( प्रवचनसार गाथा ९५ )
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( ७६ )
प्रश्न ३४ -- उस समय पर्याय की योग्यता छणिक उपादान कारण से हीं कार्य की उत्पत्ति होती है। क्या यह निरपेक्ष है।
उत्तर - हाँ कार्य स्वय पर की अपेक्षा नही रखता है इसलिए निरपेक्ष है, और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिए सापेक्ष है । पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिए। फिर जो कार्य हुआ, उसका अभावरूप कारण कौन है, त्रिकालीकारक कौन है और निमित्तकारण कोन है। इन बातो का ज्ञान करना चाहिए, क्योकि कार्य के समय चारो बाते नियम से होती है ।
प्रश्न ३५ - घड़ा ( कार्य ) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से हुआ है । ऐसा मानने से किस-किस कारण पर वृष्टि नहीं जाती है ?
उत्तर -- (१) कुम्हार, चाक, कीली, डडा, हाथ । (२) मिटटी (३) अनन्तर पूर्ण क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण आदि पर दृष्टि नही जाती है ।
प्रश्न ३६- दया कुम्हार कारण और घड़ा कार्य । कारणानु विधायीति कार्याणि को कब माना जौर कब नहीं माना ।
उत्तर -- आहारवर्गणा के स्कध मिट्टी मे से अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से घडा बना है । कुम्हार से नही बना है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना । और कुम्हार से घडा बना है ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना ।
प्रश्न ३७ - चाक कारण और घड़ा कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना ?
उत्तर -- प्रश्न ३६ के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ३८ - कीली कारण और घड़ा कार्य कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ?
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2
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कार्याणि को कमिटीकारण और उत्तर दी।
( ८० ) उत्तर–प्रश्न ३६ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ३६-डंडा कारण और घड़ा कार्य कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-प्रश्न ३६ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ४०-हाथ कारण और घड़ा कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नही माना?
उत्तर–प्रश्न ३६ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ४१-मिट्टींकारण और घड़ा कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से घडा (कार्य) हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना । और मिट्टी से घड़ा बना है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नहीं माना।
प्रश्न ४२-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादान कारण और घड़ा कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नही माना।
उत्तर-घडा-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से बना है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय पिण्ड क्षणिक उपादानकारण से बना है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नहीं माना।
प्रश्न ४३-बाई ने चकला, वेलन, तवा, हाथ आदि से रोटी बनाई-इस वाक्य मे से रोटी पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ४४–मै मुंह से बोला । इस वाक्य मे "बोला" पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उतर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
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( ८१ ) प्रश्न ४५-पलंग पर सोया। इस वाक्य मे से "सोया" पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के सनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ४६-मैंने मेज पर से किताब उठाई। इस वाक्य में से "किताब उठाई" पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ४७-मैंने चाबी द्वारा दुकान खोली । इस वाक्य में से "दुकान खोली" पर उपादान-उपादेय समजाइये ?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ४८-मैंने चारपाई पर बिस्तरा विछाया। इस वाक्य में से "बिस्तरा बिछाया" पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ४६-मैने शरीर पर से कपड़े उतारे। इस वाक्य में से "कपड़े उतारे" पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ५०-मैने हाथो की मेहनत से रुपया कमाया। इस वाक्य में से "रुपया कमाया" पर उपादान-उपादेय समझाईये ?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ५१-मैंने आंख द्वारा ज्ञान किया। इस वाक्य में से "ज्ञान किया" पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ५२-मुझे दिव्यध्वनि से ज्ञान हुआ है। इस वाक्य में से "ज्ञान हुआ" पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर–प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ५३-मैने मुगदर के द्वारा कसरत की। इस वाक्य मे से "कसरत की" पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो।
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( ८२ )
प्रश्न ५४ - मेरे हाथ में लकवा हो गया है। इस वाक्य में से "हाथ मे लकवा हो गया" पर उपादान उपादेय समझाइये ?
उत्तर - प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ५५ - मैंने औजारो से सिमेन्ट द्वारा मकान बनाया। इस वाक्य मे से " मकान बनाया" पर उपादान - उपादेय समझाइये ? उत्तर - प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो । प्रश्न ५६ – मैने हाथो से झाडू लगाई। लगाई" पर उपादान - उपादेय समझाइये ? उत्तर - प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो ।
इस वाक्य मे से “झाडू
प्रश्न ५७ - मैंने मुँह द्वारा गाली दी । इस वाक्य में से "गाली दी" पर उपादान - उपादेय समझाइये ?
उत्तर - प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ५८ - मैंने मुँह के द्वारा मिठाई खाई। इस वाक्य में से "मिठाई खाई" पर उपादान- उपादेय समझाइये ?
उत्तर -- प्रश्न १८ से ४२ तक के अनुसार उत्तर दो ।
"कुम्हार ने चाक, कोली, डंडा, हाथ आदि से घड़ा बनायाइस वाक्य मे से 'चाक, कोली, ठडा, हाथ आदि कार्य पर उपादान का २२ प्रश्नोत्तरों के द्वारा स्पष्टीकरण"
प्रश्न ५६ – कुम्हार, घडा उपादानकारण और चाक, कीली, डंडा हाथ आदि कार्य उपादेय । क्या यह उपादान- उपादेय का ज्ञान ठीक है ?
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उत्तर - बिल्कुल ठीक नही है । क्योकि यहाँ पर चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कध त्रिकाली उपादान कारण और चाक कीली, इडा, हाथ आदि कार्य उपादेय है ।
1
प्रश्न ६० - यदि कोई चतुर कुम्हार, घड़ा उपादानकारण और चाक, किली, डंडा, हाथ आदि कार्य उपादेय । ऐसा ही माने तो क्या दोष आता है ?
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उत्तर-कुम्हार, घड़ा नष्ट होकर चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्काध वन जावे तो ऐसा माना जा सकता है कि कुम्हार, घडा उपादान कारण और चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य उपादेय । लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है क्योकि उपादान-उपादेय तत्स्वरूप मे ही (अभिन्न सत्ता वाले पदार्थों मे ही) होता है। जिनकी सत्ता-सत्त्व भिन्न-भिन्न है। ऐसे दो पदार्थो मे उपादान-उपादेय नहीं होता है।
प्रश्न ६१-जो कुम्हार, घडा आदि निमित्तकारणो को ही चाक, कोली, उडा, हाथ आदि कार्य का सच्चा कारण मानते हैं । उन्हे जिनवाणी मे किन-किन नामो से सम्बोधन किया है ?
उत्तर-(१) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे समयसारकलश ५५ मे कहा है कि "उनका सुलटना दुनिवार है और यह उनका अज्ञानमोह अधकार है।" (२) जो निमित्त कारणों से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे प्रवचनसार गाथा ५५ मे कहा है कि "वह पद-पद पर धोखा खाता है।" (३) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे पुरुपार्थ सिद्धयुपाय गाथा ६ मे कहा है कि "तस्य देशना नास्ति अर्थात् वह भगवान की वाणी सुनने लायक नही है।" (४) जो निमित्त कारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते है उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उनका हरामजादीपना है।"
प्रश्न ६२–चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कंध त्रिकाली उपादानकारण और चाक, कोली, डडा, हाथ आदि कार्य उपादेय। इसको समझने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर-(१) कुम्हार, घडा आदि निमित्तकारणो से चाक, कीली डडा, हाथ आदि कार्य हुआ-ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है। (२) चाक, कीली, डडा, हाय आदि आहारवर्गणा के स्कध को छोडकर दूसरी वर्गणाओ से दृष्टि हट जाती है। (३) अब यहाँ पर चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य के लिए मात्र त्रिकाली उपादान
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( ८४ ) कारण चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कधो की तरफ देखना रहा । इतना लाभ हुआ।
प्रश्न ६३--कोई चतुर प्रश्न करता है कि कुम्हार, घडा आदि निमित्तकारण हो तो चाक, कोली, डंडा, हाथ आदि कार्य बने। आप कहते हो चाक कीली, डंडा, हाथ आदि कार्य का निमित्त कारणो से कोई सम्बन्ध नहीं है तो चाक, कोली, उंडा, हाय आदि आहार वर्गणा के स्कंध उपादानकारण और चाक, कीली, डडा, हाथ, आदि कार्य उपादेय। यह आपकी बात झूठी साबित होती है ?
उत्तर-अरे भाई, हमने चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कध को चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य का उपादानकारण कहा है। वह तो कुम्हार, घडा आदि निमित्त कारणो से पृथक् करने की अपेक्षा से कहा है। वास्तव मे चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कध भी चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य का सच्चा उपादान कारण नही है।
प्रश्न ६४-चाफ, कोली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कघ भी चाक, कीली, डंडा हाथ आदि कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो यहाँ पर चाक, कोली, डंडा, हाथ आदि कार्य का सच्चा उपादानकारण कौन है ?
उत्तर-चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्वाधो मे अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है । मानो दस नम्बर पर चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य हुआ। तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य का यहां पर सच्चा उपादान कारण है।
प्रश्न ६५-चाक, कोली, डंडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कंधो में अनादिकाल से पर्यायो का प्रभाव क्यो चला आ रहा है ?
उत्तर–प्रत्येक द्रव्य-गुण अनादिअनन्त ध्रौव्य रहता हुआ, एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय मे स्वय
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( ८५ )
स्वत अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, करता है और भविष्य मे करता रहेगा । ऐसा वस्तु स्वरूप है । इसी कारण अनादि काल से चाक, कोली, ढडा हाथ आदि आहारवर्गणा के स्वधो मे पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है ।
प्रश्न ६६ - अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और चाक, कोली, डडा, हाथ आदि कार्य उपादेय। इसको मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर - (१) भूत-भविष्यत् की पर्यायों से दृष्टि हट गई । (२) चाक, कीली, ढडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कध जो पहले त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी अब व्यवहार कारण हो गया । (३) चाक कीली, डडा, हाथ आदि कार्य के लिए अब यहाँ पर मात्र अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण की तरफ देखना रहा । यह लाभ हुआ ।
प्रश्न ६७ - कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि - अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है और पर्याय मे से पर्याय नहीं आती - ऐसा जिनवाणी में कहा है। फिर यह मानना कि अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण और चाक, फीली डंडा, हाथ आदि कार्य उपादेय । यह आपको बात झूठी साबित होती है ? उत्तर -- अरे भाई - अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती है । यह बात जिन वाणी मे विल्कुल ठीक है । परन्तु हमने तो कार्य से पहिले कौन सी पर्याय होती है उस की अपेक्षा अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर को चाक, कोली, 'डा, हाथ आदि कार्य का उपादान कारण कहा । परन्तु अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी चाक, कीली, डडा हाथ आदि कार्य का सच्चा कारण नही है |
प्रश्न ६८- अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर चाक, कोली,
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( ८६ ) डडा, हाथ आदि कार्य का सच्चा उपादानकारण नहीं है तो कसा 'कारण है और कैसा कारण नहीं है ?
उत्तर--अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य का अभाव रूप कारण है व कालसूचक है परन्तु कार्य का जनक नही है।
प्रश्न ६६~-अनन्तरपूर्व क्षणवर्तीपर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण भी चाक, कीली, डंडा, हाथ आदि कार्य का सच्चा उपादानकारण नहीं है तो वास्तव मे चाक, कोली, डडा, हाथ आदि कार्य का सच्चा उपादानकारण कौन है ? - उत्तर-वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य का सच्चा उपादान कारण है।
प्रश्न ७०-वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण ही चाक, कीली, डंडा, हाथ आदि कार्य सच्चा उपादानकारण है। ऐसा मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर-(१) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य के लिए देखना नहीं रहा । (२) एक मात्र चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण की तरफ देखना रहा । यह लाभ हुआ।
प्रश्न ७१–(१) वाक, कोली, उडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्क त्रिकाली उपादानकारण और चाक, कीली, डंडा, हाथ आदि कार्य उपादेय। (२) अन्ततरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण और चाक, कोली, डडा, हाथ आदि कार्य उपादेय। (३) उस समय पर्याय की योग्यता चाक कोली डंडा, हाथ आदि कार्य क्षणिक उपादानकारण और चाक, कीली, डडा हाथ आदि कार्य -उपादेय । ऐसा शास्त्रो मे बताया। परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगडा
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रणो से पृथक् करका त्रिकाली पर्यायों से
( ८७ ) करने से क्या लाभ था ? कह देते कि कार्य उस समय पर्याय की योग्यताक्षणिक उपादानकारण से ही होता है।
उत्तर-(१) निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से चाक, कीली, डॅडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कघ त्रिकाली उपादान कारण को बताना आवश्यक था। (२) भूत-भविष्यत् की पर्यायो से पृथक करने की अपेक्षा से और अभाव रूप कारण का ज्ञान कराने के लिए नौ नम्बर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण को वताना आवश्यक था। (३) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से पृथक् करने की अपेक्षा से और कार्य के सच्चा कारण का ज्ञान कराने के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक था। इसलिए तीनो कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिये शास्त्रो मे इतना लम्बा-लम्बा करके समझाया है।
प्रश्न ७२-चाक, कोली, डडा, हाथ आदि कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से हुआ है। इसको मानने से क्या लाभ हुआ?
उत्तर-जैसे-चाक, कीली, डडा हाथ आदि कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है। वैसे ही विश्व मे जितने भी कार्य हैं वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं हो रहे है और भविष्य मे होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान हो जाता है।
प्रश्न ७३--विश्व मे जितने भी कार्य हैं। वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान होते ही क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने में आता है ?
उत्तर-(१) अनादिकाल की पर मे करूं कहें की खोटी मान्यता का अभाव होना (२) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना। (~
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f
3
(55)
सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि होकर मोक्ष लक्ष्मी का नाथ होना । ( ४ ) मिथ्यात्वादि ससार के पाँच कारणों का अभाव होना । (५) द्रव्य-क्षेत्र काल-भव भावरूपी पचपरावर्तन का अभाव होकर पचपरमेष्टियो मे उनकी गिनती होना ।
प्रश्न ७४ - विश्व मे प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादानकारण से हो होता है। तब कौन-कौन सी चार बातें एक साथ एक ही समय मे नियम से होती हैं ?
उत्तर- (१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ( उत्पाद ) (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण (व्यय) (३) त्रिकाली उपादान कारण (धीव्य ) (४) निमित्तकारण | ये चार बाते प्रत्येक कार्य मे एक साथ एक ही काल मे नियम से होती है । [ प्रवचनसार गाथा ६५ ]
प्रश्न ७५ -- उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही कार्य की उत्पत्ति हुई। क्या यह निरपेक्ष है
?
उत्तर - हाँ, कार्य स्वय परकी अपेक्षा नही रखता इसलिए निरपेक्ष है और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिए सापेक्ष है । पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिए । फिर जो कार्य हुआ उसका अभावरूप कारण कौन है, त्रिकालीकारण कौन है और निमित्त कारण कौन है । इन वातो का ज्ञान करना चाहिए क्योकि कार्य के समय चारो वाते नियम से होती हैं ।
प्रश्न ७६ - चाक, कोली, डडा, हाथ आदि कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकरण से हुआ है । ऐसा मानने के किसकिस कारण पर दृष्टि नही जाती है ?
उत्तर --- (१) कुम्हार, घडा । (२) चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कध । ( ३ ) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण आदि पर दृष्टि नही जाती है ।
प्रश्न ७७ - क्या कुम्हार कारण और चाक, कोली, डंडा हाथ
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( ८६ ) आदि कार्य। कारणानुविधायीनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना।
उत्तर-चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कघ मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य हुआ है कुम्हार से नहीं बना है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना। और कुम्हार से हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना।
प्रश्न-७८-घड़ा कारण और चाफ, कोली, डंडा, हाथ आदि कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना? 3 उत्तर-(प्रश्न ७७ के अनुसार उत्तर दो)
प्रश्न ७६-चाक, कोली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कंष कारण और चाक, कोली, डडा, हाथ आदि आर्य। कारणानुविषायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से चाक, कीली, डडा, हाथ आदि कार्य हुआ है चाक, कीली, डडा, हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कयो से नही हुआ है तो कारणातुविधायीनि कार्याणि को माना । और चाक, कीली, डडा हाथ आदि आहारवर्गणा के स्कयो से हुआ है तो कारणानुविधायीनि 'कार्याणि को नहीं माना।
प्रश्न ८०-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और चाक, कोली, उंडा, हाथ आदि कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ?
उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से चाक, कोली, डडा हाथ आदि कार्य हुआ है अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय
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( ६० ) नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से नही हुआ है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना। और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से चाक, कोली, डडा, हाथ आदि कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना।
प्रश्न ८१-चाई ने चकला, वेलन, तवा, हाथ आदि से रोटी बनाई इस वाक्य में से चकला वेलन, तवा, हाथ आदि कार्य पर उपादानउपादेय समझाइये?
उत्तर प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ८२-मैं मुंह से बोला। इस वाक्य मे से 'मुंह' कार्य पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ८३--मैं पलग पर सोया। इस वाक्य मे से 'पलग' कार्य पर उपादान उपादेय समझाइये?
उत्तर- प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ८४-~मैंने मेज पर से किताब उठाई। इस वाक्य मे से 'मेज' कार्य पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ८५-मैंने चाबी द्वारा दुकान खोली। इस वाक्य मे से 'चाबी द्वारा कार्य पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर–प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ८६-मैंने चारपाई पर बिस्तरा बिछाया। इस वाक्य मे से 'चारपाई' कार्य पर उपादन-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ८७-मेने शरीर पर से कपड़े उतारे। इस वाक्य मे से 'शरीर' कार्य पर उपादन-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो।
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( १ )
प्रश्न ८ मैंने हाथो की मेहनत से रुपया कमाया । इस वाक्य में से 'हाथो की मेहनत ' कार्य पर उपादान - उपादेय समझाइये ? उत्तर - प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ८६ - मैने प्राँख द्वारा ज्ञान किया है । इस वाक्य मे से 'आँख ' कार्य पर उपादान- उपादेय समझाइये ?
उत्तर - प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ६० - मुझे दिव्यध्वनि से ज्ञान किया है इस वाक्य में से 'दिव्यध्वनि' कार्य पर उपादान- उपादेय समझाइये ?
उत्तर - प्रश्न ५१ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ६१- मैंने मुगदर के द्वारा कसरत को । इस वाक्य मे से 'मुगदर' के कार्य पर उपादान - उपादेय समझाइये ?
उत्तर - प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ६२ - मेरे हाथ में लकवा हो गया है । इस वाक्य मे से 'हाथ' कार्य पर उपादान- उपादेय समझाइये |
उत्तर - प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न ६३ - मैने औजारो से सिनेन्ट द्वारा मकान बनाया। इस वाक्य मे से 'औजारो व सिमेन्ट' कार्य पर उपादान - उपादेय समझाइये ?
उत्तर - ( प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो)
प्रश्न ६४ - मैने हाथो से झाडू लगाई। इस वाक्य मे से 'हायो" कार्य पर उपादान - उपादेय समझाईये '
उत्तर- ( प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो)
प्रश्न ६५ - मैने मुँह द्वारा गाली दी । इस वाक्य मे से 'मुँह द्वारा' कार्य पर उपादा उपादेय समझाइये ?
उत्तर -- ( प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो)
प्रश्न ६६ - मैने मुँह के द्वारा मिठाई खाई । इस वाक्य मे से 'मँह के द्वारा' कार्य पर उपादान- उपादेय समझाइये ?
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( २ )
उत्तर- ( प्रश्न ५६ से ८० तक के अनुसार उत्तर दो)
कुम्हार ने चाक, कीलो, उडा, हाथ आदि से घड़ा बनाया । "इस वाक्य मे से "अज्ञानी कुम्हार" पर उपादान - उपादेय के २५ प्रश्नोत्तरो के द्वारा स्पष्टीकरण
प्रश्न ६७-घडा, चाक, कोली, डंडा, हाथ आदि उपादानकारण और राग उपादेय | क्या यह उपादान- उपादेय का ज्ञान ठीक है? उत्तर - बिल्कुल ठीक नही है । क्योकि यहाँ पर चारित्र गुण 'त्रिकाली उपादानकारण और राग उपादेय है ।
प्रश्न ६८- यदि कोई चतुर घडा, चाक, कोली, डडा, हाथ आदि उपदान कारण और राग उपादेय, ऐसा हो माने तो क्या दोष आता है ?
उत्तर- घडा, चाक, कीली, उडा, हाथ आदि नष्ट होकर चारित्र गुण बन जावे तो ऐसा माना जा सकता है कि घडा, चाक, कीली, डडा, हाथ आदि उपादान कारण और राग उपादेय । लेकिन ऐसा नही हो सकता । क्योकि उपादान- उपादेय तत्स्वरूप मे ही ( अभिन्न सत्ता वाले पदार्थो मे ही) होता है। जिनकी सत्ता-सत्व भिन्न-भिन्न हैं ऐसे दो पदार्थों में उपादान - उपादेय नही होता है ।
प्रश्न ६६-- जो घडा, चाक, कोली, डडा, हाथ आदि निमित्त कारणो को ही राय का सच्चा कारण मानते है । उन्हे जिनवाणी में किन-किन नामो से सम्बोधन किया है ?
उत्तर- ( १ ) जो निमित्त कारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हें समयसार कलश ५५ मे कहा है कि "उनका सुलटना दुर्निवार है और यह उनका अज्ञान मोह अन्धकार है ।" (२) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते है उन्हे प्रवचनसार गाथा ५५ मे कहा है कि "वह पद-पद पर धोखा खाता है ।" ( ३ ) जो निमित्त कारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते है । उन्हे पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा ६ मे
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( ६३ ) कहा है कि "तस्य देशना नास्ति अर्थात् वह भगवान की वाणी सुनने लायक नहीं है।" (४) जो निमित्त कारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उनका हरामजादीपना
प्रश्न १००-चारित्रगुण त्रिकाला उपादानकारण और राग उपादेय । इसका समझने से क्या लाभ हमा?
उत्तर-(१) घडा, चाक, कोली, डडा, हाथ आदि निमित्त कारणो से राग हुआ ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है। (२) आत्मा में अनन्त गुण है। उनमे से चारित्रगुण को छोडकर दूसरे गुणो से दृष्टि हट जाती है। (३) अब यहाँ पर राग के लिए मात्र त्रिकाली उपादान कारण चारित्र गुण की तरफ देखना रहा । इतना लाभ हुमा।
प्रश्न १०१-कोई चतुर प्रश्न करता है कि चारित्रगुण राग का कारण हो तो सिद्धो को भी राग होना चाहिये। घड़ा, चाक, कोली, डंडा, हाय आदि निमित्तकारण हो तो राग हो। आप कहते हो राग का (कार्य का) निमित्तकारणों से कोई सम्बन्ध नहीं है, तो चारित्रगुण उपादानकारण और राग उपादेय। यह आपकी बात झूठी साबित होती है ?
उत्तर-अरे भाई हमने चारित्र गुण को राग का उपादान कारण कहा है। वह तो घडा, चाक, कीली, डडा, हाथ आदि निमित्त कारणो से पृथक् करने की अपेक्षा से कहा है। वास्तव मे चारित्र गुण भी राग का सच्चा उपादान कारण नही है।।
प्रश्न १०२-चारित्रगुण भी राग का सच्चा उपादानकारण नहीं है तो राग का सच्चा उपादानकारण कौन है ?
उत्तर-चारित्रगुण मे अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। मानो दस नम्बर पर राग हुआ तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण राग का यहाँ पर सच्चा उपादान कारण है।
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( ९४ )
प्रश्न १०३ - चारित्रगुण में अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह क्यों चला आ रहा है
?
उत्तर- प्रत्येक द्रव्य व गुण अनादिअनन्त धौव्य रहता हुआ एक पर्याय का व्यय, दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय मे स्वय स्वत अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, कर रहा है और भविष्य में करता रहेगा - ऐसा वस्तुस्वरूप है । इसी कारण अनादिकाल से चारित्र गुण मे पर्यायों का प्रवाह चला आ रहा है।
प्रश्न १०४ - अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नश्वर क्षणिक उपादानकारण और राग उपादेय । इसको मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर- ( १ ) भूत-भविष्यत् की पर्यायों से दृष्टि हट गई। (२) चारित्र गुण त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी अब व्यवहार कारण हो गया । (३) अब यहाँ पर राग के लिए मात्र अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना रहा । यह -लाभ हुआ ।
प्रश्न १०५ – कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है और पर्याय में से पर्याय नहीं आती है । ऐसा जिनवाणी में कहा है। फिर यह मानना कि अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और राग उपादेय है यह आपकी बात झूठी साबित होती है ?
उत्तर - अरे भाई---अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती है यह बात जिनवाणी को बिल्कुल ठीक है । परन्तु हमने तो कार्य से पहिले कौनसी पर्याय होती है । उसकी अपेक्षा राग का अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर को क्षणिक उपादान कारण कहा है परन्तु अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नो नम्बर भी राग का सच्चा उपादान कारण नही है ।
प्रश्न १०६ - अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर राग का
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( ६५ )
सच्चा उपादानकारण नहीं है तो कैसा कारण है और कैसा पा नहीं है ।
उत्तर - अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर राग का अभाव 'कारण है व काल सूचक है । किन्तु कार्य का जनक नही है ।
प्रश्न १०७ - अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण भी राग का सच्चा उपादानकारण नहीं है तो वास्तव मे राग का सच्चा उपादानकारण कौन है ?
उत्तर - वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही राग का सच्चा उपादान करण है ।
१०८ - वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण ही राग का सच्चा उपादानकारण है । ऐसा मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर - ( १ ) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ भी देखना नही रहा । (२) अव एक मात्र राग के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण की तरफ ही देखना रहा । यह लाभ हुआ ।
प्रश्न १०६-- ( १ ) चारित्रगुण त्रिकाली उपादानकारण और राग उपादेय । (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण और राग उपादेय । (६) उप समय पर्याय की योग्यता राग क्षणिक उपादानकारण और राग उपादेय । ऐमा शास्त्रों में बताया । परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगडा करने से क्या लाभ था ? कह देते कि कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है।
?
उत्तर- ( १ ) निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से चारित्र गुण त्रिकाली उपादान कारण को बताना आवश्यक था । ( २ ) भविष्यत् की पर्यायो से पृथक् करने की अपेक्षा से और अभाव कारण का ज्ञान कराने के लिए अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नो
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क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक था। (३) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर क्षणिक उपादान कारण से पृथक करने की [अपेक्षा से और कार्य के सच्चा कारण का ज्ञान कराने के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक था । इसलिए तीनो कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिए शास्त्रो मे इतना लम्वा-लम्बा करके समझाया है।
प्रश्न ११०-~-राग- उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान करण से हुआ है इसको मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर-जैसे-राग-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपा. दान कारण से हुआ है। वैसे ही विश्व मे जितने भी कार्य हैं वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही हो चुके है, हो रहे हैं और भविष्य मे होते रहेगे । ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान हो जाता है।
प्रश्न १११-विश्व मे जितने भी कार्य हैं वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चाज्ञान होते ही क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने मे आता है ?
उत्तर--(१) अनादिकाल की पर मे करूं-धरूं की खोटी बुद्धि का अभाव होना। (२) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना। (३) सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि करके मोक्ष लक्ष्मी का नाथ होना। (४) मिथ्यात्वादि ससार के पाँच कारणो का अभाव होना। (५) द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावरूप पचपरावर्तन का अभाव होकर पच परमेष्टियो मे उनकी गिनती होना।
प्रश्न ११२-विश्व में प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही होता है। तन कौन-कौन सी चार बातें एक साथ एक ही समय में नियम से होती है ?
उत्तर-(१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण
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( उत्पाद) (२) अनन्तरपूर्वं क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण (व्यय) (३) त्रिकाली उपादान कारण ( धौव्य ) ( ४ ) निमित्त कारण । यह चार बातें प्रत्येक कार्य मे एक ही साथ एक ही काल मे नियम से होती हैं । [ प्रवचनसार गाथा ६५ ]
प्रश्न ११३ - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही कार्य को उत्पत्ति होती है। क्या यह निरपेक्ष है ?
उत्तर - हॉ, कार्य स्वय पर की अपेक्षा नही रखता है इसलिए निरपेक्ष है और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिए सापेक्ष है । पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिए । फिर जो कार्य हुआ — उसका अभाव रूप कारण कौन है । त्रिकाली कारण कोन है । और निमित्त कारण कौन है। इन बातो का ज्ञान करना चाहिए क्योकि कार्य के समय चारो वाते नियम से होती हैं ।
प्रश्न ११४ - राग — उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से हुआ है। ऐसा मानने से किस-किस कारण पर दृष्टि नहीं जातीं है ?
उत्तर- (१) घडा, चाक, कीली, डडा, हाथ आदि । (२) चारित्र गुण । (३) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण आदि पर दृष्टि नही जाती है ।
प्रश्न ११५ – क्या घडा कारण और राग कार्य । कारणानुविधायी कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ।
उत्तर - आत्मा के चारित्र गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से राग हुआ है घडे के कारण नही तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना । और घड़े के कारण राग हुआ है तो - कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना ।
प्रश्न ११६ - चाक कारण और राग कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ?
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( १८ ) उत्तर–प्रश्न ११५ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ११७-कोली कारण और राग कार्य । कारणानुविधायीनि कार्याणि को कब माना और कव नहीं माना ?
उत्तर-प्रश्न ११५ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ११८-डडा कारण और राग कार्य। कारणानुविधिायीनि कार्याणि को कव माना और कब नही माना?
उत्तर–प्रश्न ११५ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न ११६-हाथ कारण और राग कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ?
उत्तर-प्रश्न ११५ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२०-चारित्रगुण कारण और राग कार्य । कारणानुविधायीनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं काना? ।
उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण नौ नम्बर का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से राग हुआ है। चारित्रगुण के कारण नही तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना। और चारित्रगुण के कारण राग हुआ तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना।।
प्रश्न १२१-~-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण और राग कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना।।
उत्तर-राग उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से नही तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर के कारण राग हुआ तो करणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना।
प्रश्न १२२- बाई ने चकला, बेलन से रोटी बनाई-इस वाक्य में से 'बाई के राग' पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
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( ६६ ) उत्तर–प्रश्न १७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२३-मैं मुंह से बोला । इस वाक्य मे से 'मैं के राग पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२४-मै पलग पर सोया। इस वाक्य मे से 'मैं के राग पर' उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२५-मैने मेज पर से किताब उठाई। इस वाक्य में से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर–प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२६-मैंने औजारो से अलमारी बनाई। इस वाक्य से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२७-मैंने चाबी द्वारा दुकान खोली। इस वाक्य मे से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२८-मैं ने चारपाई पर बिस्तरा बिछाया। इस वाक्य मे से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १२६–मैंने शरीर पर कपड़े पहिने। इस वाक्य मे से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३०-मैंने हाथो से रुपया कमाया। इस वाक्य मे से मेरे राग पर अपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।। प्रश्न १३१–मुझे आँख द्वारा ज्ञान हुआ। इस वाक्य मे से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये ?
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( १०० ) उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३२-मुझे दिव्यध्यान से ज्ञान हुआ। इस वाक्य मे से 'मेरे राग पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर--प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३३-मैंने मुगदर के द्वारा कसरत की। इस वाक्य में से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३४-मुझे लकवा हो गया है इस वाक्य में से मेरे राग पर उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न ९७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३५-मैने औजारो से सिमेन्ट द्वारा मकान बनाया। इस वाक्य मे से "मेरे राग पर" उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३६-मैंने हाथो से झाडू लगाई। इस वाक्य मे से 'मेरे राग पर' उपपदान-उादेय समझाइये? ।
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३७-मैंने मुंह द्वारा गाली दी। इस वाक्य में से 'मेरे राग पर' उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १३८-मैंने मुंह के द्वारा मिठाई खाई। इस वाक्य मे से 'मेरे राग पर' उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न ६७ से १२१ तक के अनुसार उत्तर दो।
कुम्हार ने चाक, कीली, डडा, हाथ आदि से चड़ा बनाया-इस वाक्य में से ज्ञानी कुम्हार के ज्ञान पर उपादान-उपादेय का २५ प्रश्नोत्तरो के द्वारा स्पष्टीकरण
प्रश्न १३६-घड़ा, चाक, कीली, डंडा हाथ, राग उपादानकारण और ज्ञान उपादेय। क्या यह उपादान-उपादेय का ज्ञान ठीक है ?
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( १०१ )
उत्तर - बिल्कुल ठीक नही है क्योकि यहाँ पर आत्मा का ज्ञान त्रिकाली उपादानकारण और ज्ञान उपादेय है ।
गुण
प्रश्न १४० -- यदि कोई चतुर घडा, चाक, कीलो, डंडा, हाथ, राग उपादानकारण और ज्ञान उपादेय। ऐसा ही माने तो क्या दोष आता है ?
उत्तर- घडा, चाक, कीली, डडा, हाथ, राग नष्ट होकर आत्मा का ज्ञानगुण वन जावे तो ऐसा माना जा सकता है कि घडा, चाक, कीली, डडा, हाथ, राग उपादानकारण और ज्ञान उपादेय । लेकिन ऐसा नही हो सकता । क्योकि उपादान - उपादेय तत्स्वरूप मे ही ( अभिन्न सत्ता वाले पदार्थ मे ही ) होता है । जिनकी सत्ता सत्त्व भिन्न-भिन्न हैं ऐसे दो पदार्थों मे उपादान - उपादेय नही होता है । प्रश्न १४१ - घड़ा, चाक, कीली, डडा, हाय, राग आदि निमित्त कारणो को ही ज्ञान का सच्चा कारण मानते हैं उन्हे जिनवाणी में किन-किन नामो से सम्बोधन किया है ?
उत्तर - ( १ ) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हें समयसार कलश ५५ मे कहा है कि "उनका सुलटना दुर्निवार है और यह उनका अज्ञान मोह अन्धकार है ।" (२) जो निमित्त कारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे प्रवचनसार गाथा ५५ मे कहा है कि "वह पद-पद पर घोखा खाता है ।" (३) जो निमित्त कारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा ६ मे कहा है कि " तस्य देशना नास्ति अर्थात वह भगवान की वाणी सुनने लायक नही है । " ( ४ ) जो निमित्तकारणो से ही कार्य की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उनका हरामजादीपना है ।"
२
प्रश्न १४२ - आत्मा का ज्ञानगुण त्रिकाली उपादानकारण और ज्ञान उपादेय इसको समझने से क्या लाभ हुआ उत्तर- (१) घडा, चाक, कीली, डडा, हाथ, राग आदि निमित्त
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( १०२ ) कारणो से ज्ञान हुआ, ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है। (२) आत्मा मे अनन्तगुण है । सो ज्ञान गुण को छोडकर बाकी गुणो से दृष्टि हट जाती है । (३) अब यहाँ पर ज्ञान के लिए मात्र त्रिकाली उपादानकारण ज्ञान गुण की तरफ देखना रहा। इतना लाभ हुआ।
प्रश्न १४३-कोई चतुर प्रश्न करता है कि-घड़ा, चाक, कीली, डंडा, हाथ, राग आदि निमित्तकारण हों तो इस सम्बन्धी ज्ञान होवे। आप कहते हो ज्ञान का निमित्त कारणों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। तो आत्मा का ज्ञानगुण त्रिकाली उपादानकारण और ज्ञान उपादेय । यह आपकी वात झूठी साबित होती है ?
उत्तर-अरे भाई, हमने आत्मा के ज्ञानगुण को ज्ञान का उपादान कारण कहा है। वह तो घडा, चाक, कीली, डडा, हाथ, राग आदि निमित्तकारणो से पृथक् करने की अपेक्षा से कहा है। वास्तव मे आत्मा का ज्ञान गुण भी ज्ञान का सच्चा उपादान कारण नहीं है।
प्रश्न १४४-आत्मा का ज्ञान गुण भी ज्ञान का सच्चा अपादान कारण नहीं है तोशान का सच्चा उपादानकरण कौन है ?
उत्तर-आत्या के ज्ञान गुण मे अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। मानो दस नम्बर पर इस सम्बन्धी ज्ञान हुआ तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण यहाँ पर ज्ञान का सच्चा उपादान कारण है।
प्रश्न १४५-- ज्ञानगुण में अनादिकाल से पर्यायों का प्रभाव क्यों चला आ रहा है ?
उत्तर-प्रत्येक द्रव्य व गुण अनादिअनन्त ध्रौव्य रहता हुआ, एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय मे स्वय स्वत अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, करता है और भविष्य मे करता रहेगा। ऐसा वस्तु स्वरूप है। इसी कारण अनादिकाल से ज्ञान गुण मे पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है ।
प्रश्न १४६-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक
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1
( १०३ )
उपादानकरण और ज्ञान उपादेय । इसको मानने से क्या लाभ हुआ ?
उत्तर- ( १ ) भूत-भविष्यत् की पर्यायो की दृष्टि हट गई । (२) ज्ञान गुण जो त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी अब व्यवहार कारण हो गया । (३) अब यहाँ पर ज्ञान के लिए मात्र अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान की तरफ देखना रहा ।
प्रश्न १४७ - कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती हैं और पर्याय मे से पर्याय नहीं आती है ऐसा जिनवाणी में कहा है । फिर यह मानना की अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय तौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण और ज्ञान उपादेय है, यह आपकी बात झूठी साबित है ?
उत्तर - अरे भाई अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती है यह बात जिनवाणी की बिल्कुल ठीक है । परन्तु हमने तो कार्यं से पहिले कौन सी पर्याय होती है उसकी अपेक्षा से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर को ज्ञान का क्षणिक उपादान कारण कहा है । परन्तु अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी ज्ञान का सच्चा कारण नही है ।
प्रश्न १४८ -- अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर ज्ञान होने का सच्चा उहादानकारण नहीं है तो कैसा कारण है और कैसा कारण नहीं है
?
उत्तर - अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर ज्ञान का अभाव - रूप कारण है व काल सूचक है परन्तु कार्य का जनक नही है ।
प्रश्न १४६ - अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण भी ज्ञान का सच्चा कारण नही है तो वास्तव मे ज्ञान का सच्चा उपादानकारण कौन है ?
उत्तर - वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही ज्ञान का सच्चा उपादान कारण है ।
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( १०४ ) प्रश्न १५०-वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण कारण ही ज्ञान का सच्चा उपादानकारण है। ऐसा मानने से क्या लाभ हुआ?
उत्तर-(१) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ ज्ञान के लिए देखना नही रहा । (२) अब एकमात्र ज्ञान के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण की तरफ ही देखना रहा । यह लाभ हुआ।
प्रश्न १५१--(१) आत्मा का ज्ञानगुण त्रिकाली उपादानकारण और ज्ञान उपादेय। (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण और ज्ञान उपादेय। (३) उस समय पर्याय की योग्यता ज्ञान क्षणिक उपादानकारण और ज्ञान उपादेय । ऐसा शास्त्रों मे वताया। परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगडा करने से क्या लाभ था? कह देते कि कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही होता है ?
उत्तर-(१) निमित्त कारणों से पृथक करने की अपेक्षा से त्रिकाली उपादान कारण ज्ञान गुण को बताना आवश्यक था। (२) भूत-भविष्यत् पर्यायो से पृथक करने की अपेक्षा से और अभाव रूप कारण का ज्ञान कराने के लिए अनन्तरपूर्वक्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण नौ नम्बर को बताना आवश्यक था। (३) अनन्तरपूर्व क्षणवती पर्याय क्षणिक उपादानकारण से पृथक करने की अपेक्षा से कार्य के सच्चे कारण का ज्ञान कराने के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ज्ञान को बताना आवश्यक था। इसलिए तीनो कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिए शास्त्रो मे इतना लम्बालम्बा करके समझाया है।
प्रश्न १५२-ज्ञान उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपा. दानकारण से हुआ है। इसको मानने से क्या लाभ हुआ? ,
उत्तर-जैसे-ज्ञान-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान
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( १०५ ) कारण से हुआ है। वैसे ही विश्व मे जितने भी कार्य हैं वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही हो चुके है, हो रहे हैं और भविष्य मे होते रहेगे । ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान
हो जाता भविष्य मे होणक उपादानमा
प्रश्न १५३--विश्व में जितने भी कार्य हैं वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं
और भविष्य मे होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान होते ही क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने में आता है ?
उत्तर-(१) अनादिकाल की पर मे करूं-धरू' की खोटी मान्यता का अभाव होना । (२) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना। (३) सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि होकर मोक्ष लक्ष्मी का नाथ होना। (४) मिथ्यात्वादि ससार के पाच कारणो का अभाव होना । (५) द्रव्य क्षेत्र-काल-भव-भावरूप पचपरावर्तन का अभाव होकर पचपरमेष्टियो मे उनकी गिनती होना।
१५४--विश्व मे प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही होता है। तब कौन-कौनसी चार बातें एक साथ एक ही समय में नियम से होती हैं ?
उत्तर-(१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण (उत्पाद) (२) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण (व्यय) (३) त्रिकाली उपादानकारण (ध्रौव्य) (४) निमित्तकारण। ये चार बातें प्रत्येक कार्य में एक ही साथ एक ही काल मे नियम से होती हैं । (प्रवचनसार गाथा ६५)
प्रश्न १५५-उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है। क्या यह निरपेक्ष है ?
उत्तर-हाँ कार्य स्वय पर की अपेक्षा नहीं रखता है इसलिए निरपेक्ष है, और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिए सापेक्ष है । पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिए। फिर जो कार्य हुआ,
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( १०६ ) उसका अभावरूप कारण कौन है, त्रिकालीकारण कौन है और निमित्त कारण कौन है। इन बातो का ज्ञान करना चाहिए, क्योकि कार्य के समय चारो बातें नियम से होती है।
प्रश्न १५६-ज्ञान-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से हुआ है ऐसा मानने से किस-किस कारण पर दृष्टि नहीं जाती है ?
उत्तर--(१) घडा, चाक, कोली, डडा, हाथ, राग। (२) ज्ञान गुण। (३) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण नौ नम्बर आदि कारणो पर दृष्टि नही जाती है।
प्रश्न १५७-घडा कारण और ज्ञान कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर--आत्मा के ज्ञानगुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण नौ नम्बर का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता से ज्ञान हुआ है घडे के कारण नही तो कारणानुविधायीनी कार्याणि को माना और ज्ञान घडे के कारण हुआ तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना।
प्रश्न १५८-चाक कारण और ज्ञान कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-प्रश्न १५७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १५६-कीली कारण और ज्ञान कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-प्रश्न १५७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६०-डंडा कारण और ज्ञान कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-प्रश्न १५७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६१-राग कारण और ज्ञान कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना ?
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( १०७ ) उत्तर–प्रश्न १५७ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६२-ज्ञानगुण कारण और ज्ञान कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण नौ नम्बर का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ज्ञान हुआ है ज्ञान गुण के कारण नही तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना और ज्ञानगुण से ज्ञान हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना।
प्रश्न १६३–अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण और जानकार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को कव माना और कन नहीं माना ?
उत्तर-ज्ञान-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण नौ नम्बर से नही तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण नौ नम्बर से ज्ञान हुआ तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना।
प्रश्न १६४-बाई ने चकले बेलन से रोटी बनाई। इस वाक्य मे से 'बाई के ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर–प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६५--मैने मुह से बोला । इस वाक्य मे से 'ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर–प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६६-मैं पलग पर सोया इस वाक्य मे से 'ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६७-मैंने मेज पर से किताब उठाई। इस वाक्य में से 'ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
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( १०८ ) उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६८-मैंने औजारो से अलमारी बनाई। इस वाक्य में से 'ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये ?
उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १६६-~मेने चाबी द्वारा दुकान खोली। इस वाक्य मे से "ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये ? ।
उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७०-मैंने चारपाई पर बिस्तरा बिछाया। इस वाक्य मे से "ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७१-मैंने शरीर पर कपड़े पहरे। इस वाक्य में से 'ज्ञान 'पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७२~-मैंने हाथो से रुपया माया। इस वाक्य में से 'ज्ञान 'पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न १७३-मैने मुगदर के द्वारा कसरत की। इस वाक्य मे से 'ज्ञान पर' उपादान-उपादेय समझाइये?
उत्तर-प्रश्न १३६ से १६३ तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १७४-कार्य किस प्रकार होता है? उत्तर--कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है।
प्रश्न १७५-~कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है, ऐसा कहाँ कहा है ?
उत्तर-(१) "कारणानुविधायित्वादेव कार्याणा" अर्थात कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है। (२) कारण-अनुविधायित्वात् कार्याणा अर्थात् कारण जैसे कार्य होते हैं। [समयसार गा० १३०१३१ की टीका मे] (३) "कारणानुविधायीनि कर्याणि" कारण जैसा
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( १०६ ) ही कार्य होता है। [समयसार गा०६८ की टीका मे] (४) "तेहि पुणो पज्जाया" द्रव्य और गुणो से पर्याये होती हैं। [प्रवचनसार गा०६३] (५) गुणो के विशेष कार्य (परिणमन) को पर्याय कहते हैं।
प्रश्न १७६-कार्य के पर्यायवाची शब्द क्या-क्या हैं ?
उत्तर-कार्य को कर्म, अवस्था, पर्याय, हालत, दशा, परिणाम, परिणति, व्याप्य, उपादेय, नैमित्तिक आदि कहा जाता है।
प्रश्न १७७-कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है। इसमें अनेकान्त किस प्रकार घटित होता है ?
उत्तर–कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है पर से नही यह अनेकान्त है।
प्रश्न १७८-कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है पर से नहीं, इसमे कौन से कारण की बात है ?
उत्तर-वास्तव मे "उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण" की बात है।
प्रश्न १७६-"कारण का अनुसरण करके ही कार्य होता है पर से नहीं", "पर मे" कौन-कौन से कारण आते हैं ?
उत्तर-(१) निमित्तकारण, (२) त्रिकाली उपादानकारण, (३) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण । यह सब पर मे आते हैं।
(गुरु से ज्ञान हुआ-इस वाक्य पर-(१) ज्ञान (२) पढाना, (३) राग, (४) गुरु के ज्ञान पर १८-१८ प्रश्न उपादान-उपादेय के लगाकर वहाँ से शुरू करो)
प्रश्न १८०-क्या गुरु कारण और ज्ञान कार्य, कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना?
उत्तर-बिल्कुल नही माना, क्योकि आत्मा के ज्ञान गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके
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( ११० ) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ज्ञान हुआ है गुरु से नही, तव "कारणानुविधायिनी कार्याणि" को माना।
प्रश्न १८१-क्या ज्ञान कार्य और इन्द्रियाँ कारण, कारणान विधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर-नहीं माना, क्योकि आत्ना के ज्ञान गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ज्ञान हुआ है इन्द्रियो से नही, तब कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना।
प्रश्न १८२-क्या ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम कारण और ज्ञान कार्य, कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर-नही माना, क्योकि आत्मा के ज्ञान गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकार का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ज्ञान हुआ है ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के कारण नही, तब कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना।
प्रश्न १८३-क्या शुभभाव कारण और ज्ञान कार्य, कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर-नही माना, क्योकि आत्मा के ज्ञान गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ज्ञान हुआ शुभभाव के कारण नहीकारणानुविधायीनि कार्याणि को माना ।
प्रश्न १८४–क्या श्रद्धा गुण कारण और ज्ञान कार्य, कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर-नही माना, क्योकि आत्मा के ज्ञान गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ज्ञान हुआ श्रद्धा गुण के कारण नहीं-तब कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना ।
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•
( १११ )
प्रश्न १८५ - क्या आत्मा कारण और ज्ञान कार्य, कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर- नही माना, क्योकि आत्मा मे तो अनन्त गुण हैं इसलिए ज्ञान मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ज्ञान हुआ आत्मा से नही - तव कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना । प्रश्न १८६ - क्या ज्ञान गुण कारण और ज्ञान कार्य, कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना
?
उत्तर- नही माना, क्योकि ज्ञान गुण तो त्रिकाल है - ज्ञानरूप कार्य एक समय का है । इसलिए अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ज्ञान हुआ त्रिकाल ज्ञान गुण के कारण नही - तव कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना ।
प्रश्न १८७ - क्या अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण और ज्ञान कार्य, कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर- नही माना, क्योकि कभी अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है । इसलिए उस समय पर्याय की योग्यता ज्ञान क्षणिक उपादान कारण और ज्ञान कार्य, तब कारणानुविधायीनि कार्याणि को
माना ।
प्रश्न १८८ - ज्ञान उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ, ऐसा मानने से किस-किस से दृष्टि हट गई ?
उत्तर - (१) अत्यन्त भिन्न देव, गुरु, शास्त्र से, (२) आँख नाक आदि इन्द्रियो से, (३) ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमादि से, (४) शुभ भावो से (५) श्रद्धा चारित्र - आनन्द आदि अनन्त गुणो से, (६) अभेद द्रव्य से, (७) ज्ञान गुण से, (८) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण से, आदि सबसे दृष्टि हट गई ।
प्रश्न १८६ - अब वर्तमान ज्ञान के लिए कहाँ देखना रहा
?
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( ११२ ) उत्तर-वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही ज्ञान होने का सच्चा कारण है उसकी ओर देखना रहा ।
(दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से क्षयोपशम सम्यक्त्व हुआ-इस वाक्य में से (१) क्षयोपशमसम्यक्त्व (२) दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम पर १८-१८ प्रश्न उपावान-उपादेय के लगाकर यहां से शुरू करो)
प्रश्न १९०-क्षयोपशमिक सम्यक्त्व हुआ, उसका सच्चा कारण कौन है ?
उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण ही क्षयोपशमिक सम्यक्त्व का सच्चा कारण है।
प्रश्न १६१-क्षयोपशमिक सम्यक्त्व का सच्चा कारण उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही है। ऐसा जानने से फिस-किस से दृष्टि हट गई तथा प्रत्येक पर कारणान विधायोनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना। लगाकर समझाइये?
उत्तर-(१) अत्यन्त भिन्न देव, गुरु, शास्त्र से, (२) दर्शन मोहनीय के क्षयोपशमादि से, (३) आत्मा से (४) ज्ञान-चारित्र आदि अनत गुणो से, (५) शुभभावो से, (६) श्रद्धागुण जो त्रिकाली उपादान कारण है उससे, (७) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण औपशमिक सम्यक्त्व से, दृष्टि हट गई।
प्रश्न १६२-क्षयोपशमिक सम्यक्त्व का द्रव्य, गुण और अभावरूप पर्याय का नाम बताओ?
उत्तर-(१) आत्मा द्रव्य है, (२) श्रद्धा गुण है, (३) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण औपशमिक सम्यक्त्व अभाव रूप पर्याय है।
(केवलज्ञानावरणी के अभाव से केवलज्ञान हुआ-इस वाक्य मे से (१) फेवलज्ञान (२) केवलज्ञानावरणी के अभाव पर १८-१८ प्रश्न उपादान-उपादेय के लगाकर यहाँ से शुरू करो)
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( ११३ )
प्रश्न १६३ - केवलज्ञान का सच्चा कारण कौन है? उत्तर - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही केवलज्ञान का सच्चा कारण है ।
प्रश्न १९४ - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही केवलज्ञान का सच्चा कारण है तो केवलज्ञान का सच्चा कारण कौन-कौन नहीं है । तथा प्रत्येक पर ' कारणानुविधायोनि कार्याणि' को कब माना और कब नहीं माना -लगाकर समझाइये ? उत्तर - (१) चौथा काल (२) केवलज्ञानावरणी कर्म का अभाव (३) वज्रवृषभनाराच सहनन ( ४ ) आत्मा ( ५ ) ज्ञान गुण को छोडकर वाकी अनन्त गुण (६) ज्ञान गुण (७) शुक्ललेश्या आदि मन्द कषाय का शुभभाव ( ८ ) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण भाव श्रुतज्ञान यह सब केवलज्ञान के सच्चे कारण नही हैं ।
प्रश्न १६५ - केवलज्ञान का त्रिकाली उपादान कारण, अभावरूप उपादान कारण कौन है
?
उत्तर - आत्मा का ज्ञानगुण त्रिकाली उपादान कारण है और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण भावश्रुतज्ञान अभावरूप कारण है और केवलज्ञान कार्य है ।
( कुम्हार ने घडा बनाया - इस वाक्य मे से (१) घडा (२) कुम्हार का राग पर १८-१८ प्रश्न उपादान - उपादेय के लगाकर यहा से शुरू करो )
प्रश्न १६६ - कुम्हार ने घडा बनाया- इसमे कुम्हार कारण और घडा बना कार्य, 'कारणान विधायीनि कार्याणि' को कब माना ? उत्तर— नही माना, क्योकि आहारवर्गणा रूप मिट्टी मे से अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण पिण्ड का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से घडा वना, कुम्हार आदि से नही तव कारणानुविधायीनी कार्याणि को माना ।
प्रश्न १६७ - घड़ा उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपा
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( ११४ ) दान कारण है और जो घड़ा बना वह कार्य है। वह १६६वें प्रश्न के उत्तर मे बताया 'कुम्हार आदि से नहीं । कुम्हार आदि' मे कौनकौन हैं । जिनसे घडा नहीं बना तथा प्रत्येक पर 'कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना । लगाकर समझाइये?
उत्तर-(१) कुम्हार का राग, (२) हाथ-कीली-चाक-इन्डा, (३) अहारवर्गणा को छोडकर वाकी वर्गणाओ, (४) मिट्टी (५) पिण्ड यह सव कुम्हार आदि मे आते हैं इनसे बडा नहो वना। एकमात्र उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से घडा बना।
(आठो कर्मो के अभाव से मोक्ष हुआ-इस वाक्य मे से (१) मोक्ष (२) आठो कर्मों के अभाव पर १८-१८प्रश्न उपादान उपादेय के लगाकर यहां से शुरू करो)
प्रश्न १६८-'ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्ष.' इसमे ऐसा लगता है कि आत्मा का ज्ञान और शरीर की क्रिया उपादान कारण और मोक्ष कार्य, 'कारणानुविधायोनि कार्याणि' को माना?
उत्तर-"कारणानुविधायीनि कार्याणि" को विल्कुल नहीं माना क्योकि उस समय पर्याय की योग्यता मोक्ष क्षणिक उपादान कारण और मोक्ष कार्य है।
प्रश्न १९६-मोक्ष का त्रिकालीउत्पादन कारण और अभाव रूप उपादान कारण कौन है ?
उत्तर-आत्मा त्रिकाली उपादान कारण है और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादा कारण १४वाँ गुणस्थान अभावरूप कारण है।
प्रश्न २००-मोक्ष का कारण कौन-कौन नहीं है तथा प्रत्येक पर 'कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना। लगाकर समझाइये ?
उत्तर-(१) औदारिकशरीर। (२) द्रव्यकर्म का अभाव । (३) वजवृषभनाराच महनन । (४) चौथा काल । (५) आत्मा। (६) अनन्तर
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( ११५ )
पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण १४वाँ गुणस्थान । ( ७ ) आत्मा का ज्ञान और शरीर की क्रिया इनमे कोई भी मोक्ष का कारण नही है । एक मात्र उस समय पर्याय की योग्यता मोक्ष क्षणिक उपादान कारण और मोक्ष हुआ यह कार्य ।
प्रश्न २०१ - तो 'ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्षः' ऐसा क्यों कहा जाता है ?
उत्तर - यहाँ पर ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान और क्रिया अर्थात सम्यक चारित्र दोनो मिलकर मोक्ष जानो । शरीर आश्रित उपदेश, उपवासादिक क्रिया और शुभरागरूप व्यवहार को मोक्षमार्ग ना जानो यह बात बताई । और जो "ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्ष " का अर्थ ज्ञान और शरीर की क्रिया मोक्ष है ऐसा अर्थ करते है वह अर्थ झूठा है।
प्रश्न २०२ - आत्मा का ज्ञान और शरीर की क्रिया उपादान कारण और मोक्ष कार्य, यह इस सूत्र का अर्थ गलत क्यो है
?
उत्तर - 'ज्ञान क्रियाभ्याम् मोक्ष' का जो अर्थ शरीर की क्रिया और आत्मा का ज्ञान । ऐसा करते हैं उन्हें व्याकरण का भी ज्ञान नही है, क्योकि ज्ञान एक और शरीर की क्रिया यह अनन्त पुद्गल परमा
ओ की क्रिया हैं । "क्रियाभ्याम् द्विवचन है, यदि यहाँ पर 'भ्याम् ' के बदले मे तीसरी वहुवचन शब्द होता तो ठीक होता, परन्तु यहाँ पर 'भ्याम् ' है यह दो को बताता है । इसलिए जो ज्ञान और शरीर की क्रिया यह मोक्ष है ऐसा अर्थ करते है वह झूठे है । इसलिए पात्र जीवो को यहाँ पर ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान और क्रिया का अर्थ सम्यक् चारित्र है तथा इन दोनो को मिलाकर मोक्ष जानो और शरीर की क्रिया को मोक्षमार्ग ना जानो, ऐसा ज्ञानियो का आदेश है ।
( दर्शनमोहनीय के अभाव से क्षायिक सम्यक्त्व हुआ इस वाक्य मे से ( १ ) क्षायिक सम्यक्त्व (२) दर्शनमोहनीय के अभाव
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( ११६ )
पर १८-१८ प्रश्न उपादान- उपादेय के लगाकर फिर यहाँ से शुरू करो 1 )
प्रश्न - २०३ - 'दर्शन मोहनीय कर्म का अभाव कारण और क्षायिक सम्यक्त्व कार्य' कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना ? उत्तर- नही माना, क्योकि त्रिकाली उपादानकारण श्रद्धा गुण है और क्षायिक सम्यक्त्व कार्य है ।
प्रश्न २०४ - कोई चतुर दर्शन मोहनीय कर्म का अभाव कारण और क्षायिक सम्यक्त्व कार्य ऐसा कहे तो क्या दोष आता है ? उत्तर - दर्शन मोहनीय के अभाव को जीव का श्रद्धा गुण वनने का प्रसंग उपस्थित होवेगा, यह दोप आता है ।
प्रश्न २०५ - क्षायिक सम्यक्त्व का सच्चा कारण कौन कौन नहीं रहा
?
उत्तर - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही सच्चा कारण है, क्योकि पर तो कारण है ही नही । श्रद्धा गुण और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण क्षयोपशम सम्यक्त्व भी सच्चा कारण नही है ।
रहा और
प्रश्न २०६ - क्षायिक सम्यक्त्व का सच्चा कारण 'उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही है ऐसा जानने से किन-किन कारणों से वृष्टि हट गई तथा प्रत्येक पर 'कारणातुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना । लगाकर समझाइये ?
उत्तर- (१) देव-गुरु । (२) दर्शन मोहनीय का अभाव । (३) श्रद्धा गुण, (४) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण क्षयोपशम सम्यक्त्व, इन सब से दृष्टि हट गई ।
प्रश्न २०७ - क्या गुरु कारण और ज्ञान कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर -- प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
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( ११७ )
प्रश्न २०८ - क्या बाई कारण और रोटी कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २०६ -- क्या पैसा कारण और सुख कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २१० - क्या कर्मों का अभाव कारण और मोक्ष कार्यं । कारणातुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २११ – क्या गाली कारण और क्रोध कार्य । कारणानुविघायोनि कार्याणि को मानां ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २१२ -- क्या केवलदर्शन कारण और केवल दर्शनावरणी कर्म का अभाव कार्य । कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २१३ - क्या पैसा ना होना कारण और दुःख कार्य । कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २१४- क्या कर्म का उदय कारण और विकार कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर -- प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २१५ – क्या ज्ञेय वस्तु कारण और ज्ञान कार्य । कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २१६ -- क्या विकारी भाव कारण और कर्म बंधन कार्य 'कारणानुविधायी नि कार्याणि को माना ?
उत्तर - प्रश्न २०३ से २०६ तक के अनुसार उत्तर दो ।
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( ११८ ) प्रश्न २१७-यया शरीर रीफ रहे कारण और धर्म कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना?
उत्तर--प्रश्न २०३ ने २०६ तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न २१८-भूतार्थ कारण और सम्यग्दर्शन कार्य, इसमे भूतार्थ फोन है ?
उत्तर-एकमात्र अनादिअनन्त अमूर्त नायक स्वभाव ही भूतार्थ
प्रश्न २१६-सम्यग्दर्शन कार्य के लिए अमृतार्थ कौन-कौन है तपा प्रत्येक पर कारणानुविधायोनि कार्याणि फो फद माना और केव नहीं माना, लगातार समझाइये?
उत्तर--(१) देव, गुरु, शास्त्र अभूतार्थ हैं, (२) दर्शन मोनीय का उपशमादि अभूतार्थ है, (३) शरीर, इन्द्रियां, नोकर्म अभूतार्थ हैं, (३) शुभ भाव अभूतार्थ, (५) एक समय की अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्याय अभूतार्थ है।
प्रश्न २२० मोक्ष कार्य के लिए भूतार्थ कौन है ? उत्तर-एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव ही भूतार्थ है।
प्रश्न २२१-मोक्ष कार्य के लिए अभूतार्थ कारण क्या-क्या है तथा प्रत्येक पर कारणानुविधायोनि कार्याणि को कर माना और कब नहीं माना। लगाकर समझाइये ?
उत्तर-(१) वज्रवृपभ नाराच सहनन अभूतार्थ है। (२) कमो का अभाव अभूतार्थ है। (३) शुभ भाव अभूतार्थ है। (४) चौथा काल अभूतार्थ है।
प्रश्न २२२-कार्य होने में कारण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-वास्तव मे कार्य होने मे उपादान कारण से तात्पर्य है, निमित्त कारण से तात्पर्य नही है।
प्रश्न २२३-शास्त्रो में फिर निमित्त कारणो की बात क्यो की है जब कि का कार्य सच्चा कारण उपादानकारण ही है ?
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( ११६ )
उत्तर—जब-जब उपादान मे कार्य होता है उस समय निमित्त होता ही है, ऐसी वस्तु स्थिति है । इसलिए कार्य के समय कौन निमित्त कारण है उसका ज्ञान कराने के लिए शास्त्रो मे निमित्त की 'वात' समभाई है ।
प्रश्न २२४ -- जब-जब कार्य होता है तब-तव निमित्त होता ही है - ऐसा शास्त्रो मे कहाँ लिखा है ?
7
उत्तर- ( १ ) " उपादान निज गुण जहाँ तहाँ निमित्त पर होय । भेद ज्ञान परमान विधि, विरला वृझे कोय ॥" [बनारसी विलास ] (२) प्रति समय के उत्पाद ( कार्य ) के समय उचित बहिरंग साधनो की (निमित्तो की ) सनिधि ( उपस्थिति) होती ही है "जो उचित वहिग साधनो की सनिधि के सदभाव मे अनेक प्रकार की अनेक अवस्थाए करता है ।" [ प्रवचनसार गा० ६५ की टीका से ] (३) उस वस्तु मे विद्यमान परिणमनरूप जो योग्यता वह अन्तरग निमित्त ( उपादान कारण ) है और उस परिणमन का निश्चय काल (काल द्रव्य) वाह्य निमित्त है, ऐसा तत्वदर्शियों ने निश्चय किया है । [गौमट्टसार जीवकाण्ड गा० ५८० की टीका तथा श्लोक ]
प्रश्न २२५- तीनों कारणो मे से कौनसा कारण हो, तब कार्य की उत्पत्ति नियम से होती है ?
उत्तर- वास्तव मे कार्य की उत्पत्ति उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण के समय नियम से होती है । वहाँ पर वाकी के दोनो उपादान कारण और निमित्तकारण होते ही है किसी को किसी की इन्तजार नही करनी पडती है ।
प्रश्न २२६ - पहले कारण है या कार्य है ?
उत्तर - कारण और कार्य का एक ही समय है, फिर यह प्रश्न पहले कारण या कार्य झूठा है।
प्रश्न २२७ - जब सब कार्य " उस समय पर्याय की योग्यता
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( १२० )
क्षणिक उपादान कारण" से ही होते हैं तो लोग दूसरे कारणों की चर्चा क्यों करते हैं ?
उत्तर - जैसे -- किमी का माल चोरी करने से डढे पडते है, जेल जाना पडता है, वैसे ही जो कार्य मे दूसरे कारणो की बात में पागल हो रहे है उन्हे चारो गतियो मे घूम कर निगोद में जाना अच्छा लगता है । इसलिए दूसरे कारणो की चर्चा करते है ।
प्रश्न २२८ - जो व्यवहार कारणो को सच्चाकारण मानते हैं उन जीवो को भगवान ने किन-किन नामो से शास्त्री मे सम्वोधन किया है ?
उत्तर - ( १ ) जो व्यवहार कारणो को सच्चा कारण मानते हैं "उनका सुलटना दुनिवार हे ओर यह उनका मोह-अज्ञान- अधकार है। [ समयसार कला ५५ ] ( २ ) वह पद-पद पर धोखा खाता है। [ प्रवचनसार गा० ५५ ] ( ३ ) वह भगवान की वाणी सुनने लायक नही है । [ पुरुषार्थ सिद्धउपाय गा० ६ ] ( ४ ) वह मिथ्यादृष्टि है । [समयसार ३२४ से ३२७ के हेडिंग मे ] ( ५ ) उसका फल ससार है [ समयसार गा० ११ के भावार्थ मे ] (६) एक नय का अवलम्बन लेने वाला उपदेश के योग्य नही । [ नियमसार गा० १६ की टीका से ] (७) उसके सब धर्म के अग मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होते हैं और अकार्यकारी अर्थात् अनर्थकारी कहा है । [ मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २१३] (८) हरामजादीपना कहा है [ आत्मवलोकन पृष्ट १४३ ]
प्रश्न २२६ - उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान से कार्य की उत्पत्ति होती है क्या यह निरपेक्ष है ?
उत्तर - हॉ, वस्तु स्वय पर की अपेक्षा नही रखती इसलिए निरपेक्ष है और अपनी अपेक्षा रखती है इसलिए सापेक्ष है। इसलिए सबसे प्रथम पात्र जीवो को निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिये। की बात आती है ।
फिर सापेक्षता
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( १२१ )
प्रश्न २३० - क्या निरपेक्षता सिद्ध किये बिना सापेक्षता नहीं होती है ?
उत्तर- नही होती है, क्योकि - (१) निरपेक्षता के बिना सापेक्षता का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (२) अभेद के बिना भेद का यथार्थ ज्ञान नहा होता है, (३) निश्चय के बिना व्यवहार का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (४) उपादान के बिना निमित्त का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (५) भूतार्थ के विना अभूतार्थ का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (६) यथार्थ के बिना उपचार का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (७) स्व के बिना पर का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (८) स्वाश्रित के विना पराश्रित का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (६) मुख्य के विना गौण का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (१०) द्रव्यार्थिक के बिना पर्यायार्थिक का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (११) अहेतुक के बिना सहेतुक का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (१२) नित्य के बिना अनित्य का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (१३) तत् के बिना अतत् का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (१४) अस्ति के विना नास्ति का यथार्थ ज्ञान नही होता है, (१५) एक के बिना अनेक का यथार्थ ज्ञान नही होता है । (१६) स्वद्रव्य-क्ष ेत्र काल-भाव के विना परद्रव्य-क्षेत्र काल-भाव का यथार्थ ज्ञान नही होता है ।
प्रश्न २३१ - क्षायिक सम्यग्दर्शन हुआ तीनो प्रकार के उपादानउपादेय बताओ ?
उत्तर - ( १ ) जीव का श्रद्धा गुण त्रिकाली उपादान कारण, क्षायिक सम्यक्त्व हुआ उपादेय, (२) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अनन्तरपूक्षणवती पर्याय क्षणिक उपादान कारण, क्षायिक सम्यक्त्व उपादेय, (३) क्षायिक सम्यक्त्व उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण, क्षायिक सम्यक्त्व उपादेय ।
प्रश्न २३२ - केवलदर्शन हुआ, तीनों प्रकार के उपादान - उपादेय बताओ ?
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( १२२ )
उत्तर - ( १ ) आत्मा का दर्शनगुण त्रिकाली उपादान कारण, केवलदर्शन उपादेय, (२) अचक्षु दर्शन अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण, केवलदर्शन अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय उपादेय, (३) केवलदर्शन उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण, केवलदर्शन उपादेय ।
प्रश्न २३३ --- अन्तराय कर्म का अभाव में तीनों प्रकार के उपादानउपादेय बताओ ?
उत्तर -- (१) कार्माण वर्गणा त्रिकाली उपादान कारण, अन्तराय द्रव्य कर्म का अभाव उपादेय, (२) अन्तराय कर्म का क्षयोपशम अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण, अन्तराय कर्म का अभाव अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय उपादेय, (३) अन्तराय कर्म का अभाव उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण, अन्तराय कर्म का अभाव उपादेय ।
प्रश्न २३४ - यथाख्यात चारित्र में तीनो प्रकार के उपादानउपादेय लगाओ ?
उत्तर - (१) जीव का चारित्र गुण त्रिकाली उपादानकारण, यथाख्यात चारित्र उपादेय, (२) सकल चारित्र अनन्तरपूर्वं क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण, यथाख्यातचारित्र अनन्तर उत्तर क्षणवर्ती पर्याय उपादेय, (३) यथाख्यात चारित्र उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण, यथाख्यातचारित्र उपादेय ।
प्रश्न २३५ - ओपशमिक सम्यक्त्व में तीनो उपादान- उपादेय बताओ ?
1
उत्तर - प्रश्न २३४ के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २३६ - केवलज्ञान मे तीनो उपादान - उपादेय बताओ ? उत्तर - प्रश्न २३४ के अनुसार उत्तर दो ।
प्रश्न २३७ -- दिव्यध्वनि में तीनो उपादान - उपादेय बताओ ? उत्तर - २३४ के अनुसार उत्तर दो ।
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( १२३ ) प्रश्न २३८-मोहनीय कर्म के क्षय मे तीनो उपादान-उपादेय बताओ?
उत्तर-प्रश्न २३३ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न २३६-जब उत्पाद होता है, वहां पर उत्पाद के अलावा तीन बातें कौन-कौन सी होती हैं ?
उत्तर-(१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण (उत्पाद) (२) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादानकारण (व्यय) (३) त्रिकाली उहादानकरण (ध्रौव्य) (४) अनुकूल निमित्त।
प्रश्न २४०-धर्मद्रव्य ने जीव को चलाना। इसमे 'जीव चला' पर चार बातें कौन-कौन सी होती हैं ?
उत्तर-प्रश्न २३६ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न २४१-मैंने किताब बनाई। इसमें चार बातें कौन-कौन सी होती हैं ?
उत्तर-प्रश्न २३६ के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न २४२-जीव ने विकार किया तो कर्मबंध हुआ। इसमे चार बातें कौन-कौन सी होती हैं ? |
उत्तर-प्रश्न २३६ के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न २४३–क्षायिक सम्यक्त्व में चार बातें कौन-कौन सी होती
उत्तर- प्रश्न २३६ के अनुसार उत्तर दो।
जय महावीर–जय महावीर
- ० --
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( १२४ )
योग्यता का तीसरा अधिकार
प्रश्न १ - योग्यता किसे कहते हैं ? उत्तर - समर्थ उपादान शक्ति का नाम ही योग्यता है । प्रश्न २ - योग्यता के पर्यायवाची शब्द क्या है ?
उत्तर – समर्थ उपादान शक्ति कहो, भवितव्यता कहो, योग्यता कहो, एक ही बात है ।
?
प्रश्न ३ - भवितव्यता अर्थात् योग्यता का व्युत्पत्ति अर्थ क्या है उत्तर- " भवितु योग्य भवितव्यम् तस्य भाव भवितव्यता" जो होने योग्य हो उसे भवितव्य कहते हैं और उसका भाव भवितव्यता कहलाती है। जिसे हम योग्यता कहते है उसी का दूसरा नाम भवितव्यता है ।
प्रश्न ४ – योग्यता को जानने से क्या-क्या लाभ हैं ?
-
उत्तर- (१) प्रत्येक द्रव्य मे जो-जो परिणमन होता है । वह " उस समय पर्याय की योग्यता" के अनुसार ही हुआ है, हो रहा है, होता रहेगा । उसमे किसी दूसरे का जरा भी हस्तक्षप नही है । ( २ ) ऐसा जानने से परका मै कुछ करू या पर मेरा कुछ करे- ऐसा प्रश्न उपस्थित नही होता है । ( ३ ) क्रमबद्ध पर्याय की सिद्धि होती है । ( ४ ) करू करूँ की खोटी बुद्धि का अभाव होते ही सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
ט
प्रश्न ५ - 'कार्य योग्यतानुसार ही होता है' इसके लिए कुछ शास्त्र के प्रमाण दीजिये ?
उत्तर - (१) वैभाविक परिणमन निमित्त सापेक्ष होकर भी वह अपनी उस काल मे प्रगट होने वाली योग्यतानुसार ही है । अपनी योग्यतानुसार जीव ससारी है और अपनी योग्यतानुसार ही मुक्त होता है, (२) परिणमन का साधारण कारण काल द्रव्य होते हुए भी द्रव्य अपने उत्पाद-व्यय स्वभाव के कारण ही परिणमन करता है । काल
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( १२५ }
उसका कुछ प्रेरक नही है, (३) तत्वत प्रत्येक अपनी योग्यतानुसार ही परिणमन होता है । ( पचाध्यायी गा० ६१ से ७० तक पृष्ठ १६३ प० फूलचन्द्र जी) (४) वस्तु की एकरूप स्थिति नही रहती है, क्योकि यह पर्याय का स्वभाव है। ( समयसार कलश २११) (५) एक द्रव्य मे अतीत (भूत) अनागत (भविष्य ) और गाथा मे आए हुए " अपि " शब्द से वर्तमान पर्यायरूप जितनी अर्थ पर्याय और व्यजन पर्याय हैं, 'तत्प्रमाण' वह द्रव्य होता है । ( घवल पु० १ पृष्ठ ३८६ ) ( ६ ) तीन काल के जितने समय है, उतनी उतनी प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक- प्रत्येक गुण मे उतनी ही पर्याये होती हैं । उसे जरा भी इधर-उधर करने को जिनेन्द्र भगवान भी समर्थ नही हैं । ( ७ ) प्रत्येक पर्याय पूर्व पर्याय का अभाव करके आई इस अपेक्षा 'विकार्य' कहा है, नई उत्पन्न हुई इस अपेक्षा 'निर्वर्त्य' कहा है, थी तो आई इस अपेक्षा प्राप्य' कहा है । ( समयसार गा० ७६ से ७८ तक ) यह योग्यता के लिए शास्त्र के प्रमाण हैं ।
प्रश्न ६ - जब आप लोगों पर कोई उत्तर नहीं बनता है, तो आप कह देते हो कि यह 'उस समय पर्याय की योग्यता से' है तो क्या 'योग्यता' कहकर आप घोखा नहीं देते- ऐसा प्रश्नकार का प्रश्न है ?
उत्तर- (१) दो परमाणु है, एक परमाणु की वर्ण गुण की पर्याय सौ फीसदी सफेद है और दूसरे परमाणु की हजार गुणा सफेद है । तो आप बतलाइये, उसका क्या कारण है ? प्रश्नकार चक्कर मे पड गया और सोचने लगा परमाणु तो शुद्ध है उसमे दूसरा कारण नही कहा जा सकता है । तब उत्तर दिया कि उसका कारण उस समय पर्याय की योग्यता ही है (२) आपके सामने सव पुद्गल स्कध हैं, किसी की रग गुण की पर्याय काली है, हरी है पीली है, नीली है । तो प्रश्न होता है ऐसा क्यो है ? तो आपको कहना पडेगा "उस समय पर्याय की योग्यता" ही कारण है । (३) विश्व मे जीव अनन्त हैं, सबके भाव अलग-अलग क्यो हैं ? आपको कहना पडेगा - उस समय पर्याय की
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( १२६ )
योग्यता ही कारण है । (४) मास्टर ५० लडको को पढाता है सबको एकसा ज्ञान क्यो नही होता है ? तो आपको कहना पडेगा, "उस समय पर्याय की योग्यता" ही कारण है । (५) सामने लोकालोक है । लोकालोक का ज्ञान केवली को होता है, आपको क्यो नही होता है ? तो कहना पडेगा, "उस समय पर्याय की योग्यता" ही कारण है । (६) भगवान की दिव्यध्वनि खिरती है, क्या सबको एकसा ज्ञान होता है ? आप कहेगे नही । तो हम कहते हैं ऐसा क्यो है ? आप कहोगे "उस समय पर्याय की योग्यता" ही कारण है ।
याद रक्खो - वास्तव मे कोई भी कार्य होने में या बिगडने मे "उस समय पर्याय की योग्यता ही " साक्षात् साधक है ।
प्रश्न ७ -- आचार्यों ने घवल १६० मे योग्यता के विषय में क्या बताया है
?
उत्तर- (१) द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य मे तीनो काल की पर्यायो रूप अपने-अपने समय में परिणमन करने की योग्यता है । (२) पर्यायाथिकनय से द्रव्य मे जो वर्तमान पर्याय होती है वह उसी रूप से परि
मन की योग्यता रखती है ( ३ ) इससे यह सिद्ध हुआ वर्तमान पर्याय भूत या भविष्य मे परिणमे ऐसा कभी भी नही होता है । भूतकाल की कोई भी पर्याय मे आगे-पीछे काल मे होने की योग्यता नही रखती है । भविष्य की पर्याय उससे पहले हो जावे या पीछे हो जावे, ऐसी योग्यता नही रखती है । इसलिए किसी भी द्रव्य की किसी भी पर्याय को अनिश्चित मानना जिनमत से बाहर है । ( ४ ) यह जीव इतना काल बीतने पर मोक्ष जायेगा, ऐसी नोध केवलज्ञान मे है । (समयसार कलश टीका कलज्ञ न० ४ पृष्ठ ५) (५) केवलज्ञान एक ही समय मे सर्व आत्म प्रदेशो से समस्त द्रव्य-क्ष ेत्र - काल भाव को जानता है । ( प्रवचनसार गा० ४७ का रहस्य )
प्रश्न ८ - योग्यता से क्या सिद्ध हुआ
?
उत्तर - (१) बम पडना ( २ ) बहुत से मनुष्यों का एक साथ
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( १२७ ) मरना । (३) एक शरीर मे रहने वाले निगोदिया जीवो का सवका एक साथ मरण होना। (४) हवाई जहाज का टूटना। (५) राकेट ऊपर जाना । (६) नदी का प्रवाह वदलना । (७) बांध का बनाना। (८) कच्चे फल को जल्दी पकाना । (६) पक्के फल को लम्वे काल तक कायम रखना । (१०) अकाल मरण । (११) कर्म का सक्रमण, उदीरणा, उत्कर्षण, स्थितिकाण्ड, अनुभागकाण्ड आदि सव काम अपने-अपने कार्य काल मे ही होते है, क्योकि प्रत्येक द्रव्य मे जितने जितने गुण हैं उस-उस प्रत्येक गुण मे तीन काल के जितने समय हैं उतनी-उतनी पर्याय है । वह निश्चित और क्रमवद्ध है। जरा भी आगे-पीछे नही हो सकती है ऐसी बात 'योग्यता' से सिद्ध होती है।
प्रश्न :-योग्यता क्या है ?
उत्तर-भवितव्यता अथवा नियति 'उस समय पर्याय की योग्यता है' वह क्षणिक-उपादान कारण है।
प्रश्न १०-द्रव्य की योग्यता क्या है ?
उत्तर-प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने द्रव्यरूप ही रहता है, कभी दूसरे द्रव्यरूप नही होता, इसलिये द्रव्यरूप योग्यता द्रव्य रूप रहती है।
प्रश्न ११ ---गुण को योग्यता क्या है ?
उत्तर-प्रत्येक गुण अपने-अपने रूप ही रहता है। जैसे-ज्ञान गुण ज्ञानगुण रूप ही रहता है, श्रद्धा चारित्र रूप नही होता है। और पुद्गल मे रसगुण, रसगुण रूप ही रहता है गध-वर्ण-स्पर्शरूप नहीं होता है। यह गुणरूप योग्यता है।
प्रश्न १२-पर्याय रूप योग्यता क्या है ?
उत्तर-प्रत्येक द्रव्य मे अनन्त-अनन्त गुण है। एक-एक गुण मे जिस समय जिस पर्याय की योग्यता है, वही होगी। एक समय भी आगे-पीछे नही हो सकती है। किसी भी तरह से उस योग्यता को टालने के लिए देव, इन्द्र, जिनेन्द्र भगवान भी समर्थ नही है। पर्याय की योग्यता एक समयमात्र की ही होती है।
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( १२८ ) प्रश्न १३-उपादान-उपादेय अधिकार में किस योग्यता को बात चलती है ?
उत्तर-पर्यायरूप योग्यता की वात चलती है। यह योग्यतारूप पर्याय जानने योग्य है, आश्रय करने योग्य नहीं है।
प्रश्न १४-योग्यता रूप पर्याय के जानने से क्या-क्या लाभ हैं ?
उत्तर-(१) सव मे योग्यतारूप पर्याय जो होनी है वही होगी आगे-पीछे नही। (२) पर मे करने-कराने की बुद्धि का अभाव हो जाता है। (३) दृष्टि अपने स्वभाव पर आ जाती है और जैन दर्शन के रहस्य का मर्मी वन जाता है। (४) क्रम से मोक्ष का पथिक बन जाता है।
प्रश्न १५-(१) पर्यायरूप योग्यता और द्रव्यरूप योग्यता के विषय मे क्या-क्या जानना चाहिये ?
उत्तर-(१) पर्यायरूप योग्यता ज्ञायक का ज्ञेय है, जानने योग्य है। (२) निज द्रव्यरूप योग्यता आश्रय करने योग्य है, क्योकि इसके आश्रय से ही धर्म की शुरुआत वृद्धि और पूर्णता होती है।
प्रश्न १६-पर्यायरूप योग्यता को विशेष रूप से समझाओ ? -
उत्तर-(१) जैसे-आम है, जब उसकी पकने योग्य अवस्था होती है तभी होगी, आगे-पीछे नही। किसी ने पाल मे देकर पहले पका दिया ऐसा नहीं है । (२) आम खट्टा था मीठा हो गया, जब उसकी मीठा होने योग्य अवस्था थी, तभी हुई, आगे-पीछे नही और किसी के कारण से भी नहीं। (३) शरीर मे बालकपन, युवावस्था, वृद्धावस्था होने योग्य होवे, तभी होती है। किसी बाह्य साधन से या किसी भी प्रकार से हेर-फेर नही हो सकता है। (४) महावीर भगवान को ३० वर्ष की आयु मे दीक्षा का भाव आया। आदिनाथ भगवान को ८३ लाख वर्ष पूर्व आयु के बाद दीक्षा का भाव आया। यह उनकी योग्यता ही ऐसी थी। (५) महावीर भगवान को दीक्षा के १२ वर्ष बाद केवलज्ञान हुआ और आदिनाथ भगवान को दीक्षा के एक हजार वर्ष बाद
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( १२६ )
केवलज्ञान हुआ । मल्लिनाथ भगवान को दीक्षा लेते ही केवलज्ञान हुआ । यह सब उस समय पर्याय की योग्यता की बात है, किसी का कुछ भी हस्तक्षेप नही है । ( ६ ) सव द्रव्यो मे जो-जो पर्याय होती हैं, वहवह उस उस समय की योग्यता के कारण ही होती हैं । इस बात को स्वीकार करते ही दृष्टि अपने भगवान पर आती है तभी वास्तव मे योग्यता को माना और जाना ।
प्रश्न १७ - जीव- पुद्गल द्रव्यो मे योग्यता की बात है या सव द्रव्यों के विषय मे योग्यता की बात है ?
उत्तर- ( १ ) जीव अनन्त, पुद्गल अनन्तानन्त, धर्म-अधर्म - आकाश एक-एक और लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य है । इन सब द्रव्यो मे प्रत्येक प्रत्येक मे अनन्त - अनन्त गुण है । प्रत्येक गुण मे पर्यायो की योग्यता जितने तीन काल के समय है उतनी ही पर्यायो की योग्यता हैं । ( २ ) वह योग्यता क्रमबद्ध और क्रमनियमित है । उसे जरा भी कोई भी हेर-फेर नही कर सकता है ।
प्रश्न १८ – सब द्रव्यो की पर्यायो को योग्यता क्रमबद्ध और निश्चित है, इसको कौन जानता है
उत्तर - चौथे गुणस्थान से लेकर सिद्धदशा तक सब जानते हैं । जानने में जरा भी हेर-फेर नही है मात्र प्रत्यक्ष-परोक्ष का भेद है ।
प्रश्न १६ - योग्यता, योग्यता की बातें करे और आत्मा का आश्रय ना लेवे, तो क्या दोष आवेगा ?
उत्तर- वह स्वछन्दता का सेवन करने वाला चारो गतियो मे घूमकर निगोद चला जावेगा । क्योकि योग्यता को जानने और मानने का फल अपने स्वभाव का आश्रय लेकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति करके क्रम से निर्वाण की प्राप्ति है ।
प्रश्न २० - योग्यता से क्या-क्या सिद्ध होता है
?
उत्तर- (१) जिस समय जोनसी पर्याय उत्पन्न होने की योग्यता हो, वही नियम से होती है । ( २ ) पर्याय होती है वह अपने स्वकाल
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से होती है । (३) हर पर्याय अपने जन्म-क्षण में हो उत्पन्न होती है । (४) जिस समय जिस पर्याय का उत्पाद होगा उसी समय वही ही होगी । (५) श्रमवद्ध पर्याय की सिद्धि आदि बानों का निर्णय योग्यता के मानने से होता है।
प्रश्न २१ - योग्यता मानने वाले को क्या-क्या प्रश्न उपस्थित नहीं होते हैं ?
उत्तर- (१) उनने यह हुआ । (२) यह हो, यह ना हो । ( ३ ) ऐसा वयं आदि प्रश्न उपस्थित नही होते हैं ।
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जय महावीर जय महावीर
-:0:
निमित्तकारण चोथा अधिकार
प्रश्न १- निमित्तकारण किसे कहते हैं
?
उत्तर -- जो पदार्थ स्वयं स्वत. कार्यरूप परिणमित ना हो परन्तु कार्य की उत्पत्ति मे अनुकूल होने का जिस पर आरोप आ सके उस * पदार्थ को निमित्त कारण कहते हैं । जैसे-घडे की उत्पत्ति मे कुम्भकार, ts, चक्र आदि निमित्त कारण हैं ।
प्रश्न २ - क्या निमित्त सच्चा कारण है ?
उत्तर - निमित्त सच्चा कारण नही है । वह अकारणवत्-अहेतुवत्
है, क्योकि वह उपचार मात्र अथवा व्यवहार कारण है ।
प्रश्न ३ - निमित्त के पर्यायवाची नाम बताओ ?
उत्तर - निमित्तमात्र, असर, प्रभाव, वलाधान, प्रेरक, सहायक इन सब शब्दो का अर्थ निमित्तमात्र है ।
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प्रश्न ४-~आपने जो निमित्त के पर्यायवाची नाम बताये, यह किस शास्त्र मे आये हैं ?
उत्तर-श्री तत्वार्थसार तीसरा अधिकार।
प्रश्न ५-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भाग दो पृष्ठ ६१० मे निमित्त के पर्यायवाची शब्द क्या-क्या बताये हैं ?
उत्तर-कारण, प्रत्यय, हेतु, साधन, सहकारी, उपकारी, उपग्राहक, आश्रय, आलम्बन, अनुग्राहक, उत्पादक, कर्ता, हेतुकर्ता, प्रेरक ; हेतुमत, अभिव्यजक, ये सब निमित्त के पर्यायवाची शब्द हैं।
प्रश्न ६-निमित्त कारणो के कितने भेद हैं ? उत्तर-दो भेद हैं (१) प्रेरक निमित्त (२) उदासीन निमित्त । प्रश्न ७-प्रेरक निमित्त किसे कहते हैं ?
उत्तर-(१) गमन क्रिया वाले (मात्र क्षेत्र से क्षेत्रान्तर ही लेना है) जीव, पुद्गल, (२) इच्छादि (क्रोध, मान, माया, लोभ) वाला जीव प्रेरक निमित्त कहलाते है।
प्रश्न ८-प्रेरक का अर्थ क्या है ? उत्तर--अपने मे प्रकृष्टरूप से इरण और प्रेरणा करे वह प्रेरक है।
प्रश्न :-इच्छा आदि वाले जीव और गमन क्रिया वाले जीवो से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-(१) मुनि है । किसी धर्म लोभी जीव को उपदेश देने का विकल्प आवे, तो वह (मुनि) इच्छादिवाले निमित्त कहलाये (२) अहंत भगवान इच्छादिवाले निमित्त नहीं है, परन्तु अहंत भगवान गमन क्रिया वाले निमित्त है।
प्रश्न १०-सिद्ध भगवान को इच्छा नहीं है और गमन भी नहीं है तब सिद्ध भगवान कौन से निमित्त कहलावेंगे?
उत्तर-सिद्ध भगवान उदासीन निमित्त कहलाये जावेंगे। प्रश्न ११-क्या प्रेरक निमित्त उपादान मे कुछ करता है ? उत्तर-बिल्कुल नही, प्रेरक निमित्त जबरन उपादान मे कार्य कर
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देते हैं या प्रभाव आदि डाल सकते हैं ऐसा नही समझना, क्योकि दोनो पदार्थों का ( उपादान - निमित्त का) एक-दूसरे मे अभाव है। प्रेरक निमित्त उपादान को प्रेरणा नही करता ।
प्रश्न १२ – उदासीन निमित्त किसे कहते हैं ?
उत्तर- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और कालादि निष्क्रिय ( गमन क्रिया रहित ) या राग रहित द्रव्यो को उदासीन निमित्त कहते है ।
?
प्रश्न १३ - जब निमित्त उपादान में कुछ करता ही नही है । तब प्रेरक निमित्त और उदासीन निमित्त ऐसा भेद क्यों डाला है। उत्तर--निमित्तो के उपभेद बताने के लिए किन्ही निमित्तो को प्रेरक और किन्ही को उदासीन कहा जाता है । किन्तु सर्व प्रकार के निमित्त उपादान के लिए तो “धर्मास्तिकायवत उदासीन ही हैं ।" निमित्त के भिन्न-भिन्न प्रकारो का ज्ञान कराने के लिए ही उसके यह दो भेद किये गये हैं ।
प्रश्न १४ – निमित्त के दूसरे प्रकार से कितने भेव हैं ?
?
उत्तर - दो भेद है । सद्भावरूप निमित्त और अभावरूप निमित्त । प्रश्न १५ - चारो प्रकार के निमित्तो मे क्या अन्तर है उत्तर - प्रेरक और उदासीन निमित्त सद्भावरूप व अभावरूप दोनों प्रकार के निमित्त होते हैं ।
प्रश्न १६ – सद्भावरूप निमित्त और अभावरूप निमित्त से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर – सद्भावरूप निमित्त अस्तिरूप है और अभावरूप निमित्त नास्तिरूप है ।
प्रश्न १७ - सर्व प्रकार के निमित्त धर्मास्तिकायवत् ही हैं ऐसा fe शास्त्र में कहाँ आया है
?
उत्तर- " नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमात्र मन्यस्तु गते धर्मास्तिकायवत्" ॥३५॥
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( १३३ ) अर्थ :-अज्ञानी विशेष प्रकार के ज्ञानभाव को प्राप्त नही करता और विशेष ज्ञानी अज्ञानपने को प्राप्त नहीं करता। गति को जिस प्रकार धर्मास्तिकाय निमित्त है, उसी प्रकार अन्य तो निमित्तमात्र है। [इष्टोपदेश श्लोक ३५](२) चैतन्य स्वभाव के कारण जानने और देखने की क्रिया का जीव ही कर्ता है। जहाँ जीव है वहां चार अरूपी अचेतन द्रव्य भी हैं तथापि वे जिस प्रकार जानने और देखने की क्रिया के कर्ता नही है उसी प्रकार जीव के सम्बन्ध मे रहे हुए कर्म, नो कर्म रूप पुद्गल भी उस क्रिया के कर्ता नही है। [पचास्तिकाय गा० १२२ की टीका से]
प्रश्न १५–'कुम्हार ने घड़ा बनाया' इस पर निमित्त की परिभाषा लगाओ? ____ उत्तर-कुम्हार स्वय स्वत घडे रूप परिणमित ना हो। परन्तु घडे की उत्पत्ति मे अनुकूल होने का जिस पर (कुम्हार पर) आरोप आ सके उस पदार्थ को (कुम्हार को) निमित्त कारण कहते हैं।
प्रश्न १६-जीव ने कर्म बांधा, इस पर निमित्त की परिभाषा लगाओ?
उत्तर-जीव स्वय स्वत कर्म बध रूप ना परिणमे। परन्तु कर्म बध की अवस्था मे अनुकूल होने का जिस पर (अज्ञानी जीव पर) आरोप आ सके उस पदार्थ को (अज्ञानी जीव को) निमित्तकारण
क उस पदार्थ हान का जिसवारणमे। परन्त ।
कहते हैं।
प्रश्न २०-(१) स्त्री ने रोटी बनाई। (२) दर्शनमोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व हआ; (३) केवलज्ञान से केवलज्ञानावरणीय का अभाव हुआ; (४) मैने बिस्तरा उठाया, (५) दर्जी ने कपड़े बनाये; (६) दिव्यध्वनि सुनने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हुई; (७) ज्ञेय से ज्ञान होता है; (८) मैंने मकान बनाया; (९) धर्म द्रव्य मुझे चलाता है, (१०) मुझे आकाश जगह देता है। (११) मैंने किताब उठाई; (१२) कालद्रव्य ने मुझे परिणमाया, (१३) ज्ञानावरणीय
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( १३४ ) कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान का उघाड़ होता है। (१४) मै हंसा; (१५) मै बोला, (१६) मै चला, (१७) मैंने कपड़े पहिने; (१८) मैंने पलग बनाया; (१६) मैंने हलवा बनाया; (२०) मैं उठा, आदि वाक्यो में निमित्त की परिभाषा लगाकर बताओ? __उत्तर-(१) स्त्री स्वय स्वत. रोटी रूप परिणमित ना हो । परन्तु रोटी की उत्पत्ति मे अनुकूल होने का जिस पर (स्त्री पर) आरोप आ सके । उस पदार्थ को (स्त्री को) निमित्त कारण कहते है। इसी प्रकार बाकी के १६ वाक्यो पर प्रश्न १८ के अनुसार लगाकर बताओ। प्रश्न २१-"गुरु उपदेश निमित्त बिन, उपादान बल हान ।
ज्यो नर दूजे पॉव बिन, चलवे को आधीन ॥" अर्थ-गुरु के उपदेश रूप निमित्त बिना उपादान (शिष्यादि) बलहीन है, (क्योकि) दूसरे पॉव के विना मनुष्य चल नही सकता है ? [यह मान्यता बरावर नही है ? ऐसा शिष्य का प्रश्न है।]
उत्तर--यह मान्यता बराबर नही है-ऐसा बतलाने के लिये श्री गुरु दोहे से उत्तर देते है कि
"ज्ञान नैन किरिया चरन, दोऊ शिव मग धार ।
उपादान निहचै जहाँ, तहाँ निमित्त व्योहार ॥" अर्थ-सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूप नेत्र और स्थिरता रूप चरण (लीनता रूप क्रिया) यह दोनो मिलकर मोक्षमार्ग जानो। जहाँ उपादानरूप निश्चयकारण होता है वहाँ निमित्तरूप व्यवहार कारण होता ही है।
भावार्थ-उपादान तो निश्चय अर्थात सच्चा कारण है, निमित्त तो मात्र व्यवहार अर्थात् उपचार कारण है, सच्चा कारण नहीं है, इसीलिये तो उसे अकारणवत (अहेतुवत) कहा है उसे उपचार (आरोपित) कारण इसलिये कहा है कि वह उपादान का कुछ कार्य करता-कराता नही है, तथापि कार्य के समय उस पर अनुक लता का आरोप आता है, इस कारण उसे उपचार मात्र कहा है। सम्यग्ज्ञान और चारित्र रूप लीनता को मोक्षमार्ग जानो-ऐसा कहा, उसमे
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शरीराश्रित उपदेश, उपवासादिक क्रिया और शुभरागरूप व्यवहार को मोक्षमार्ग न जानो यह बात आ जाती है ।)
"उपादान निज गुण जहाँ तहाँ निमित्त पर होय । भेदज्ञान परमान विधि, बिरला बूके कोय ॥" अर्थ -- जहाँ निज शक्ति रूप उपादान हो वहाँ पर निमित्त होता ही है । उसके द्वारा भेदज्ञान प्रमाण की विधि ( व्यवस्था ) हैं । यह सिद्धान्त कोई विरले ही समझते हैं ।
भावार्थ - जहाँ उपादान की योग्यता हो वहाँ नियम से निमित्त होता ही है । निमित्त की प्रतीक्षा करनी पडे ऐसा नही होता, और निमित्त को हम जुटा सकते हैं- ऐसा भी नही होता । निमित्त की प्रतीक्षा करनी पडती है या उसे मैं ला सकता हूँ - ऐसी मान्यता पर पदार्थ मे अभेद बुद्धि अर्थात् अज्ञान सूचक है । उपादान और निमित्त दोनो असहायरूप स्वतन्त्र है यह उनकी मर्यादा है ।
"उपादान बल जहँ तहाँ नह निमित्त को दाव । एक चक्र सौ रथ चले, रवि को यहि स्वभाव ॥" अर्थ-जहाँ देखो वहाँ उपादान का ही बल है, ( निमित्त होता है ) परन्तु निमित्त का (कार्य करने मे ) कोई भी दाव (बल) नही है । एक चक्र से रवि का ( सूर्य का ) रथ चलता है वह उसका स्वभाव है । ( उसी प्रकार प्रत्येक कार्य उपादान की योग्यता से ( सामर्थ्य से ) ही होता है ।)
प्रश्न २२ -- " हौ जाने था एक ही उपादान सो काज । सहाई पौन बिन, पानी माँहि जहाज ॥
अर्थ -- अकेले उपादान से कार्य होता हो तो पवन की सहायता के बिना जहाज पानी मे क्यो नही चलता
?
उत्तर- " सर्व वस्तु असहाय जहँ तहँ निमित्त है कौन । ज्यो जहाज परवाह मे, तिरै सहज विन पौन ॥"
अर्थ - जहाँ प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र रूप से अपनी अवस्था को ( कार्य
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( १३६ ) को प्राप्त करता है वहाँ निमित्त कौन है ? जिस प्रकार जहाज प्रवाह मे सहज ही बिना पवन के तैरता है। __भावार्थ-जीव और पुद्गल द्रव्य शुद्ध या अशुद्ध अवस्था मे स्वतन्त्र रूप से ही अपने मे परिणमन करते हैं। अज्ञानी जीव भी स्वतन्त्र रूप से निमित्ताधीन होकर परिणमन करता है, कोई निमित्त उसे आधीन नही कर सकता।
"उपादान विधि निर्वचन, हैं निमित्त उपदेश
बसे जु जैसे देश में कर सु तैसे भेष ॥" अर्थ-उपादान का कथन निर्वचन है, (अर्थात एक 'योग्यता द्वारा ही होता है) उपादान अपनी योग्यता से अनेक प्रकार से परिणमन करता है, तब उपस्थित निमित्त पर भिन्न-भिन्न कारणपने का आरोप (भेष) आता है, उपादान की विधि निर्वचन होने से निमित्त द्वारा यह कार्य हुआ ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। ___ भावार्थ-उपादान जब जैसा कार्य करता है तब वैसे कारणपने का आरोप (भेष) निमित्त पर आता है। जैसे कि कोई वनकायवान मनुष्य सातवें नरकगति के योग्य मलीन भाव धारण करता है, तो वज्रकाय पर नरक के कारणपने का आरोप आता है, और यदि जीव मोक्ष के योग्य निर्मल भाव करता है तो उस वज्रकाय पर मोक्ष के कारणपने का आरोप आता है। इस प्रकार उपादान के कार्य अनुसार निमित्त मे कारणपने का भिन्न-भिन्न आरोप किया जाता है। इससे ऐसा सिद्ध होता है कि निमित्त से कार्य नही होता परन्तु कथन होता है, इसलिए उपादान सच्चा कारण है और निमित्त आरोपित कारण है। वास्तव मे तो निमित्त ऐसा प्रसिद्ध करता है कि-नैमित्तिक स्वतन्त्र अपने कारण से परिणमन कर रहा है, तो उपस्थित दूसरी अनुकूल वस्तु को निमित्त कहा जाता है।
प्रश्न २३-हम निमित्त मिलावें या नहीं ?
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( १३७ ) उत्तर-कोई किसी भी द्रव्य को मिला नहीं सकता, क्योकि सब द्रव्य पृथक्-पृथक् है । निमित्त मिलाने की बुद्धि मिथ्यादृष्टियो की है।
प्रश्न २४-हम निमित्त क्यो नहीं मिला सकते हैं ?
उत्तर-(१) निमित्त और उपादान के कार्य का एक ही समय है (२) निमित्त-नैमित्तिक दो स्वतन्त्र द्रव्यो के एक समय की पर्यायो मे ही होता है। (३) छद्मस्थ एक समय की पर्याय पकड नही सकता है। (४) एक द्रव्य की पर्याय दूसरे द्रव्य की पर्याय मे अकिंचित्कर है। (५) किस समय किस का परिणमन नही होता ? सबका ही होता है। इसलिए निमित्त मिलाने की बुद्धि अनन्त ससार का कारण है।
प्रश्न २५-निमित्त का ज्ञान क्यो कराते हैं ?
उत्तर--(१) मिथ्याष्टियो ने अनादि से एक-एक समय करके निमित्त का आश्रय माना है। (२) निमित्त पर द्रव्य है उससे तेरा सम्बन्ध नही है। ऐसा ज्ञान कराकर स्वभाव का आश्रय ले, तो तेरा भला हो। (३) निमित्त का आश्रय छुडाने के लिए निमित्त का ज्ञान कराया है। (४) जहाँ उपादान होता है वहाँ निमित्त होता ही है इसलिए निमित्त का ज्ञान कराया है।
प्रश्न २६-निमित्त और उपादान के विषय मे क्या-क्या बातें याद रखनी चाहिये ? __उत्तर-(१) जब योग्यतावाला क्षणिक उपादानकारण होता है वहाँ पर नियम से त्रिकाली उपादानकारण, अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण और निमित्तकारण नियम से होता है। कोई ना होवे, ऐसा होता ही नही है । (२) उपादान का कार्य उपादान से ही होता है, निमित्त से नहीं। (३) जितने भी प्रकार के निमित्त हैं, वे सब उपादान के लिए मात्र धर्म द्रव्य के समान ही हैं। (४) जब उपादान होता है तब निमित्त होता ही है ऐसी वस्तु स्थिति है। (५) निमित्त कारण उपादान के प्रति निश्चय से (वास्तव मे) अकिंचित्कर (कुछ करने वाला) है, इसीलिए उसे निमित्त मात्र, बलाधान मात्र,
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( १३८ )
सहाय मात्र, अहेतुवत् आदि शब्दो द्वारा सम्बोधित किया जाता है । (६) किसी भी समय उपादान मे निमित्त कुछ भी नही कर सकता है, निमित्त उपादान मे कुछ करता है ऐसी बुद्धि निगोद का कारण है । (७) उपादान के अनुकूल ही उचित निमित्तकारण होता है । ( ८ ) निमित्त कारण आये तभी उपादान मे कार्य होता है ऐसी मान्यता झूठी है । (६) उपादान - निमित्त दोनो एक साथ अपने-अपने कारण से होते हैं । (१०) कार्य उपादान से ही होता है निमित्त की अपेक्षा कथन होता है ऐसा पात्र जीव जानता है ।
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प्रश्न २७ - अज्ञानी क्या देखते हैं
?
उत्तर - विशेष को ही देखते है सामान्य को नही देखते हैं । प्रश्न २८ --- मात्र विशेष को देखने से सामान्य को ना देखने से क्या होता है ?
उत्तर - आस्रव वध करता हुआ चारो गतियो मे घूमता हुआ निगोद मे चला जाता है ।
प्रश्न २६ -- ज्ञानी क्या देखते हैं ?
उत्तर - सामान्य को देखते है ।
प्रश्न ३० - सामान्य को देखने से क्या होता है ?
उत्तर --सवर - निर्जरा की प्राप्ति करके क्रम से मोक्ष की प्राप्ति करता है ।
प्रश्न ३१ - निमित्त क्या बताता है ?
उत्तर - निमित्त उपादान की प्रसिद्धि करता है । जैसे - पानी का लोटा यह बतलाता है कि लोटा तो पीतल का है पानी का नही होता; उसी प्रकार निमित्त कहता है जैसा में कहता हूँ उसे झूठा मानना और उपादान जो कहता है उसे सत्य मानना, क्योंकि मैं किसी को किसी मे मिलाकर कथन करता हूँ मेरे श्रद्धान से मिध्यात्व होगा और उपादान किसी को किसी मे मिलाकर निस्पण नही करता, उसके श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है । ओर जहाँ मेरी अपेक्षा ( निमित्त की
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उसका अर्थ "ऐसा है नही, निमित्तादि की ऐसा जानना । ऐसा पात्र जीव को निमित्त
अपेक्षा) कथन किया हो, अपेक्षा कथन किया है"
ज्ञान कराता है ।
प्रश्न ३२ - उपादान क्या बताता है
?
उत्तर - उपादान कहता है जो मैं कहता हूँ उसे सत्य मानना, निमित्त की बात झूठ मानना, क्योकि मै किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण नही करता, मेरे श्रद्धान से सम्यक्त्वादि की प्राप्ति होकर क्रम से मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करेगा और निमित्त किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है उसके श्रद्धान से चारो गतियो मे घूमकर निगोद को प्राप्त होगा । और जहाँ मेरी अपेक्षा ( उपादान की अपेक्षा ) कथन किया हो उसे " ऐसा ही है" ऐसा श्रद्धान करना । ऐसा पात्र जीव को उपादान ज्ञान कराता है ।
प्रश्न ३३ – अज्ञानी कहते हैं कि ज्ञानी निमित्त को नहीं मानते, क्योंकि वह निमित्त से उपादान मे कुछ होना नहीं मानते हैं ?
उत्तर— जैसे—अन्य मतावलम्बी कहते हैं कि जैनी ईश्वर को नही मानते है, क्योकि वह ईश्वर को उत्पन्न करने वाला, रक्षा करने वाला, पापियो को नष्ट करने वाला नही मानते है, उसी प्रकार वर्तमान मे दिगम्बरधर्मी नाम घराके कहते हैं, कि ज्ञानी निमित्त को नही मानते है ।
प्रश्न ३४ -- क्या वास्तव में ज्ञानी निमित्त को नहीं मानते हैं ?
उत्तर - वास्तव मे ज्ञानी ही निमित्त को मानते हैं, क्योकि ज्ञानी कहते है कि निमित्त अपना कार्य सौ फीसदी अपने मे करता है । उपादान सौ फीसदी अपना कार्य अपने मे करता है ऐसा स्वतंत्र निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । परन्तु खोटी दृष्टि से शास्त्र पढने वाले अज्ञानी कहते हैं कि निमित्त उपादान मे कुछ करे तो हम तुम्हारा निमित्त होना माने ।
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( १४० ) प्रश्न ३५-निमित्त उपादान में कुछ करे। ऐसा माना जावे तो क्या दोष आता है ?
उत्तर-उसने निमित्त को निमित्त न मानकर उपादान माना। प्रश्न ३६-यह जीव संसार मे क्यो भ्रमण कर रहा है ।
उत्तर-निमित्त को निमित्त न मानकर परन्तु निमित्त को उपादान मानकर ससार मे भ्रमण कर रहा है ।
प्रश्न ३७--क्या निमित्त नहीं है ?
उत्तर--(१) निमित्त हैं। (२) निमित्त जानने योग्य है। (३) आश्रय करने योग्य नही है।
प्रश्न ३८-निमित्त का प्रभाव पड़ता है यह मान्यता किसकी है ? उत्तर-अज्ञानी मिथ्यादृष्टियो की है।
प्रश्त ३६-आजकल के पडित नाम धराने वाले अपने को दिगम्बर धर्म के ठेकेदार मानने वाले कहते हैं कि निमित्त बिना काम नहीं होता। गुरु बिना ज्ञान नहीं होता। कर्म का अभाव हुए बिना मोक्ष नहीं होता है। शुभ भाव करे तो धर्म की प्राप्ति हो। क्या यह उनका कहना गलत है ?
उत्तर-बिल्कुल गलत है, क्योकि निमित्त बिना काम नही होता आदि मान्यता अन्य मतो की है। दिगम्बर धर्म की आड मे अन्य मत की पुष्टि करने वाले चारो गतियो मे घूमकर निगोद के पात्र हैं।
प्रश्न ४०-उपादान और निमित्त किस नय का कथन है ?
उत्तर-उपादान निश्चय नय का कथन है और निमित्त व्यवहार नय का कथन है।
प्रश्न ४१-याद रखने योग्य बातें क्या-क्या हैं ?
उत्तर-(१) अनन्तरपूर्व पर्याय का व्यय होकर जो उत्पाद रूप पर्याय होती है, वह द्रव्य मे होने योग्य होवे, वह ही होती है अन्य नही होती है। (२) जो स्वय स्वत कार्य करने में असमर्थ है उसका पर
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( १४१ ) कुछ भी नही कर सकता है और जो स्वत अपना कार्य करने मे समर्थ है उसका भी पर कुछ नही कर सकता है।
प्रश्न ४२-मुक्त दशा होने पर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का क्या नाम है ? और क्या वह नियम से होता है ?
उत्तर-उसका नाम अयोगी केवली चौदहवाँ गुणस्थान है और वह नियम से होता है।
प्रश्न ४३-कोई मात्र सामान्य अंश को ही उपादान कहे, तो क्या दोष आता है ?
उत्तर-वह उपादान का स्वरूप न जानने वाला वेदान्त मत 'वाला है।
प्रश्न ४४-कोई मात्र विशेष अश को ही उपादान कहे, तो क्या दोष आता है ? . उत्तर-वह उपादान का स्वरूप न जानने वाला बौद्धमत वाला
प्रश्न ४५--उपादान और निमित्त कारण हैं या कार्य हैं ? उत्तर-दोनो कारण हैं कार्य नही है। प्रश्न ४६-निमित्त और नैमित्तिक कारण हैं या कार्य है ? उत्तर-निमित्त कारण है और नैमित्तिक कार्य है। प्रश्न ४७-पर्याय नियत है या अनियत है ? उत्तर--पर्याय स्वय से नियत है। प्रश्न ४५-पर्याय नियत है यह जरा स्पष्ट करो ?
उत्तर-तीन काल के जितने समय हैं, उतनी ही एक-एक गुण मे पर्याय होती हैं। उसे जरा भी आगे-पीछे नही किया जा सकता है क्योकि एक पर्याय को आगे-पीछे करना माने तो गुण-द्रव्य के नाश का प्रसग उपस्थित होवेगा।
प्रश्न ४६-प्रत्येक कार्य क्रमबद्ध और निश्चित है तो हम मिलाने की बात कहाँ से आई ?
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( १४२ ) उत्तर-(१) जब निश्चय कारण उपादान के कार्य रूप परिणमित होने का काल होता है तव निमित्त की उपस्थिति स्वयमेव होती है ऐसा वस्तु का स्वभाव है (२) जो जीव निमित्त मिलाने के प्रयत्न मे लगे रहते हैं उन्हे धर्म की प्राप्ति नही होगी, क्योकि निमित्त मिलाना पडता नही है, परन्तु होता है। (३) निमित्त मिलाने की बात निगोद से आई है, क्योकि प्रत्येक कार्य एक समय जितना होने से उसका (कार्य का) निमित्त के साथ एक समय का सम्बन्ध है। कार्य होने से पहले निमित्त किसे कहना और मिलाना कैसे ?
प्रश्न ५०-उपादान और निमित्त को जानने से क्या फल आना चाहिये ?
उत्तर-(१) व्यवहार से मोह छोडना। (२) व्यवहारनय मे अविरोध रूप से मध्यस्थ रहना । (३) त्रिकाली उपादान के द्वारा मोह का अभाव करना । (४) मैं पर का नही हूँ, पर मेरे नहीं है ऐसा स्वपर का परस्पर स्व-स्वामी सम्वन्ध को त्याग देना। (५) मैं एक आत्मा ही हूँ अनात्मा नही हूँ। (६) अपने मे अपने को एकाग्र करना । (७) ध्रौव्य के लिए शुद्ध आत्मा ही उपलब्ध करने योग्य है। (८) अध्रुव शरीरादि उपलब्ध करने योग्य नहीं है। [श्री प्रवचनसार गा० १६० से १६३ तक के शब्दो मे]
प्रश्न ५१-कौनसा उपादानकारण हो, तब कार्य की उत्पत्ति नियम से होती है ?
उत्तर-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण हो, तब नियम से कार्य की उत्पत्ति होती ही है।
प्रश्न ५२~-पहले कारण या कार्य ?
उत्तर- वास्तव मे सच्चे कारण-कार्य का एक ही समय होता है। फिर पहले कारण और फिर कार्य-ऐसा प्रश्न ही नही है।
प्रश्न ५३-उपादान के कार्य के लिए और निमित्त के कार्य के लिए आचार्यों ने क्या शब्द बताया है ?
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( १४३ )
उत्तर - उपादान के कार्य को "अनुरूप" और निमित्त के कार्य को "अनुकूल" शब्द बताया है ।
प्रश्न ५४ - पर्याय का कारण पर तो है नहीं, परन्तु द्रव्य भी कारण नहीं और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय भी कारण नहीं है । मात्र उस समय पर्याय की योग्यता ही कारण है। इसकी सिद्धि कैसे हो ?
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उत्तर - देखो दरी, लड्डू, चश्मा, पुस्तक यह चारो पुद्गल हैं । इन सब मे वर्ण गुण है सब की अलग-अलग पर्याय क्यो है ? वर्ण गुण तो सब मे है । इसलिए मानना पडेगा मात्र उस समय पर्याय की योग्यता ही कारण है ।
प्रश्न ५५ -- उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण को जानने से क्या लाभ है ?
उत्तर- (१) जगत मे जो-जो कार्य होता है वह उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण से ही होता है । (२) पर तो उसका कारण है ही नही । ( ३ ) द्रव्य भी उसका कारण नही है । (४) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण भी सच्चा कारण नही है । (५) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही सच्चा कारण और कार्य है । ऐसा जानने से अनादिकाल से पर मे कर्ता-भोक्ता की खोटी वृद्धि का अभाव होकर धर्म की प्राप्ति होती है ।
प्रश्न ५६ – क्या निमित्त उपादान से कुछ करता है ?
उत्तर - बिल्कुल नही करता है, क्योकि दोनो का स्वचतुष्ट्य पृथक्-पृथक् है ।
प्रश्न ५७ - सोनगढ़ मे निश्चय की बात तो ठीक है, परन्तु व्यवहार की बात ठीक नहीं है, क्या यह बात सत्य है
?
उत्तर - एक सेठ के एक लडका था । उसे जवानी मे वेश्या सेवन का व्यसन पड गया । जब सेठ ने लडके से लडका कहने लगा, मैं शादी नही कराऊँगा
।
शादी की बात कही तो
परन्तु सेठ ने सोचा, यह
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( १४४ ) कैसे हो सकता है। सेठ ने खानदान की एक सुन्दर लडकी से उसकी सगाई कर दी। लडका कहता है कि मुझे शादी नही करनी है, क्योकि मैं उसका मुह देखूगा, तो अन्धा हो जाऊँगा। तब सेठ ने लडकी वालो को बुलाकर कहा कि हमारे यहाँ लडके की आँख पर पट्टी वाँध कर फेरे होते है ऐसा रिवाज है। ___लडकी वाला राजी हो गया और शादी हो गई। लडका घर मे आँखो पर पट्टी बाँधकर आवे, तुरन्त चला जावे। लडकी होशियार थी उसे पता चल गया, मेरा पति वेश्या-गामी है तथा वेश्या ने उसे कहा है तू उसका मुह देखेगा तो अन्धा हो जावेगा। एक दिन लडकी ने अपने पति का हाथ पकडकर कहा, आपको मालूम है कि आप मुझे देखे तो अन्धे हो जावोगे। आप मेरे कहे से एक आँख पर पट्टी बँधी रहने दो और एक आँख से मुझे देख लो। तो उसने ऐसा ही किया, तो देखा आँख तो फूटी नही। तब उसने कहा अब दूसरी पर पट्टी बाँध लो और अब दूसरी आँख से मुझे देखो तव वह भी नही फूटी, तब उसने कहा अब दोनो आँखो से मुझे देखो, तो उसने जब दोनो पट्टियो को उठाकर देखा तो आँखे फूटी नही, और तब वेश्या पर से दृष्टि उठ गई, उसी प्रकार सोनगढ का निश्चय तो ठोक है तो भाई वहाँ जाकर देख, कसा व्यवहार सोनगढ मे है लाखो रुपयो का दान होता है, नाम कोई लिखाता नहीं । दो वार प्रवचन, पूजा भक्ति होती है वह देख । कन्दमूल कोई खाता नही, रात्रि को पानी पीते नही । ज्यादातर पति-पत्नि ब्रह्मचर्य से रहते है। ६० के करीब बहिने आजन्म ब्रह्मचर्य से रहती है। इसलिए हे भाई । निश्चय तो सोनगढ से सीखना पडेगा, परन्तु व्यवहार भी सोनगढ से सीखना पडेगा । जहाँ पर व्यवहार को हेय कहा जाता है । देखो, वहाँ का व्यवहार कैसा है। इसलिए सोनगढ की निश्चय की बात ठीक है और व्यवहार की बात ठीक नही है यह बात बिल्कुल झूठ है ।
प्रश्न'५८-निमित्त कर्ता से क्या तात्पर्य है ?
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( १४५ ) उत्तर-इसने ऐसा किया तो ऐसा हुआ। ऐसी मान्यता होना यह निमित्तकर्ता से तात्पर्य है।
प्रश्न ५६-निमित्त कर्ता के प्रश्न उठाकर समझाइये?
उत्तर-(१) मैंने शुभभाव किया तो जीव वच गया। (२) मैंने अशुभभाव किया तो जीव मर गया। (३) मैंने गाली दो तो उसे क्रोध आया। (४) जीव ने विकार किया तो कर्म वध हआ। मैने भाव किये तो ऐसे-ऐसे कार्य हुए आदि निमित्तकर्ता के उदाहरण हैं।
प्रश्न ६०-निमित्तकर्ता मानने का क्या फल है ?
उत्तर-चारो गतियो मे घूमकर निगोद निमित्तकर्ता मानने का फल है।
जय महावीर-जय महावीर
निमित्त-नमित्तिक पांचवॉ अधिकार
प्रश्न १-निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर-जब उपादान स्वय स्वत कार्यरूप परिणमिन होता है। तब भावरूप (अस्तिरूप) या अभावरूप (नास्ति रूप) किस उचित (योग्य) निमित्तकारण का उसके साथ सम्बन्ध है। यह बतलाने के लिए उस कार्य को नैमित्तिक कहते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न पदार्थों के स्वतन्त्र सम्बन्ध को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते है।
प्रश्न २-निमित्त-नैमित्तिक संबंध किसमें होता है ?
उत्तर-निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध दो स्वतन्त्र पर्यायो के बीच में होता है।
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( १४६ )
प्रश्न ३ - क्या निमित्त नैमित्तिक संबंध परतंत्रता का सूचक है ? उत्तर - बिल्कुल नही, क्योकि निमित्त - नैमित्तिक सवध परस्पर स्वतन्त्रता का सूचक है । परतन्त्रता का सूचक नही है । परन्तु नैमित्तिक के साथ कौन निमित्त रूप पदार्थ है उसका वह ज्ञान कराता है । प्रश्न ४ - कार्य को निमित्त की अपेक्षा क्या कहते हैं ? उत्तर - नैमित्तिक कहते है ।
प्रश्न ५ – कार्य को उपादान की अपेक्षा क्या कहते हैं ? उत्तर - उपादेय कहते है ।
प्रश्न ६ - निमित्त नैमित्तिक का द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव एक ही है या पृथक-पृथक है ?
उत्तर - निमित्तनैमित्तिक का द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव भिन्न-भिन्न
है ।
--
प्रश्न ७ - क्या निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध एक द्रव्य मे उसको पर्याय के साथ होता है ?
}
उत्तर - बिल्कुल नही, निमित्त नैमित्तिक सबध दो पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र पर्यायो के बीच मे होता है । एक द्रव्य मे उसकी पर्याय के साथ नही होता है ।
प्रश्न ८-
-अनेक निमित्त कारणो मे कौन-कौन से भेद पडते हैं ? उत्तर - अनेक निमित्त कारणो मे जो मुख्य निमित्त हो उसे अन्तरग ( निमित्त ) कारण कहा जाता है । और गौण निमित्त हो उसे वहिरग निमित्त कारण कहा जाता है ।
प्रश्न -जीव ने विकार किया तो कर्मबध हुआ । इसने निमित्तनैमित्तिक बताओ ?
उत्तर - कर्मवध हुआ नैमित्तिक और जीव का विकार निमित्त । प्रश्न १० - 'कर्मबध हुआ' इसमें कर्म को कितने प्रकार की दशा
होती है ?
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( १४७ )
उत्तर - प्रकृति- प्रदेश- स्थिति और अनुभाग चार प्रकार की होती
है ।
प्रश्न ११- प्रकृति, प्रदेश हुआ इसमे निमित्त नैमित्तिक कौन है ? उत्तर - प्रकृति - प्रदेश नैमित्तिक, ओर योग गुण की विकारी पर्याय निमित्त ।
प्रश्न १२ - स्थिति, अनुभाग हुआ इसमे निमित्त - नैमित्तिक कौन है ?
उत्तर --- स्थिति अनुभाग हुआ नैमित्तिक और कपायभाव निमित्त । प्रश्न १३ - कर्मवन्ध हुआ, इसमे पृथक-पृथक निमित्तनैमित्तिक किस प्रकार हुए जरा स्पष्ट समझाइये
उत्तर- (१) प्रकृति- प्रदेश का वध हुआ नैमित्तिक और योग गुण की विकारी पर्याय निमित्त, (२) स्थिति - अनुभाग हुआ नैमित्तिक और कषायभाव निमित्त । कर्मवधन के लिए आत्मा के योगगुण के विकारी परिणमन को बहिरग निमित्त कारण कहा और कर्मबंधन के लिए जीव के कषायभाव को अन्तरंग निमित्त कारण कहा । परन्तु कर्मबंधन के लिए दोनो निमित्त धर्म द्रव्य के समान है । परन्तु निमित्तो की पहिचान के लिए स्पष्ट किया है ।
प्रश्न १४ - कर्मबन्ध मे योग की विकारी पर्याय और कषायभाव कैसे निमित्त हैं ?
उत्तर - वास्तव मे दोनो वहिरंग निमित्त है ।
प्रश्न १५ – कर्मबन्धन के लिए आपने योग के विकारी परिणमन को बहिरग निमित्त और कषाय को अन्तरग निमित्त क्यो कहा है ? उत्तर - (१) कपाय की मुख्यता बताने के लिए कपाय को अतरग निमित्त कारण कहा है और योगगुण के विकारी परिणमन की गोणता बताने के लिए वहिरंग निमित्त कारण कहा है।
प्रश्न १६ – कर्मबन्धन के लिए अन्तरग और बहिरंग निमित्त कारण बताने के पीछे क्या रहस्य है
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________________ ( 148 ) उत्तर-(१) प्रकृति-प्रदेश का नैमित्तिकपना अपने उपादान से हुआ, योग गुण के विकारी परिणमन के कारण नही। योग गुण मे विकारी परिणमन के कारण प्रकृति-प्रदेश का कार्य हुआ ऐसी श्रद्धा छोडनी है / (2) स्थिति-अनुभाग का नैमित्तकपना अपने उपादान से हुआ, कपाय के कारण नही। कषाय का परिणमन होने के कारण, कार्माणवर्गणा मे स्थिति अनुभाग हुआ, ऐसी श्रद्धा छोडनी / प्रश्न १७-दर्शन मोहनीय के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, इसमे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बताओ? उत्तर-औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति नैमित्तिक और दर्शन मोहनीय का उपशम निमित्त / प्रश्न १८-औपशमिक सम्यक्त्व मे दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम निमित्त बताया है। इसके अलावा दूसरा कोई निमित्त है ? उत्तर-सच्चा गुरु दूसरा निमित्त है। प्रश्न १६-दर्शनमोहनीय का उपशम और गुरु, यह दो औपशमिक सम्यक्त्व में निमित्त हुए, इन दोनो निमित्तों को क्या कहा जाता है ? उत्तर-दर्शन मोहनीय का उपशम अतरग निमित्त और गुरु बाह्य निमित्त। प्रश्न २०-गुरु जो निमित्त है उसमें भी कोई भेद है ? उत्तर-हाँ है, ज्ञानी गुरु का अभिप्राय अन्तरग निमित्त और वाणी बहिरग निमित्त। प्रश्न २१–अन्तरंग निमित्त, बहिरंग निमित्त यह निमित्तो के भेद क्यो किये ? उत्तर-(१) निमित्तो के उपभेद बताने के लिए भेद किए है। (2) सम्यग्दर्शन अपने श्रद्धा गुण के परिणमन के कारण हुआ है, निमित्तो के कारण नही, (3) जितने भी निमित्त हैं। चाहे अन्तरग हो या बहिरग हो वह सब निमित्त धर्म द्रव्य के समान ही हैं।
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________________ ( 146 ) प्रश्न २२-बाई ने रोटी बनाई, इसमें निमित्त-नैमित्तिक क्या है? उत्तर-रोटी बनी नैमित्तिक और बाई का राग निमित्त / प्रश्न २३-कर्म के कारण राग हुआ, इसमे निमित्त नैमित्तिक बताओ? उत्तर-राग हुआ नैमित्तिक और चारित्र मोहनीय कर्म का उदय निमित्त। प्रश्न २४-धोबी ने कपडा धोया, इसमे निमित्त-नैमित्तिक बताओ? उत्तर-कपडा धोया नैमित्तिक और धोबी का राग निमित्त / प्रश्न २५-धर्म द्रव्य जीव को चलाता है इसमे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-जीव चला नैमित्तिक और धर्म द्रव्य निमित्त / प्रश्न 26-(1) बढ़ई रथ बनाता है। (2) मैं रोटी खाता हूँ। (3) कर्मों के अभाव से जीव मोक्ष जाता है। (4) देह से सुख होता है। (5) मैंने विस्तरा बिछाया। (6) ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से ज्ञान का उघाड होता है। (7) केवलज्ञान लोकालोक को जानता है। (8) दर्शनमोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। (8) मैंने किताव बनाई। (10) मैंने मेज उठाई। इन सब मे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध लगाओ? उत्तर-(१) रथ बना नैमित्तिक और बढई का राग निमित्त / इसी प्रकार वाकी के ह वाक्यो के उत्तर दो। प्रश्न २७-सकल चारित्र को प्राप्ति हई, इसमे निमित्त-नमित्तिक क्या है ? उत्तर-सकल चारित्र नैमित्तिक और अनन्तानुबन्धी आदि तीन चौकडी रूप द्रव्य कर्म का अभाव निमित्त /
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________________ ( 150 ) प्रश्न २८-औपामिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, इसमे निमित्त नमित्तिक क्या है? उत्तर-औपगमिक सम्यक्त्व नैमित्तिक और दर्शन मोहनीय का उपनम और अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ द्रव्यकर्म का क्षयोपगमादि निमित्त / प्रश्न २६-मिथ्यात्व दशा हुई इसमें निमित्त-नमित्तिक क्या है ? उत्तर-मिथ्यात्व दद्या नेमित्तिक और दर्शन मोहनीय कर्म का उदय निमित्त। प्रश्न ३०-बारहवें गुणस्थान में अल्पज्ञ दशा है इसमे निमित्तनैमित्तिक क्या है ? उत्तर-१२वे गुणस्थान मे क्षयोपगम दगा नैमित्तिक और ज्ञानावरणीय, दर्गनावरणीय, अन्तराय कर्म का क्षयोपगम निमित्त / प्रश्न ३१-केवलज्ञान मे निमित्त-नैमित्तिक कौन है ? उत्तर-केवलज्ञान नमित्तिक आर केवलजानावरणीय कर्म का अभाव निमित्त / प्रश्न ३२-अर्हत दशा में सिद्धपद नहीं है, इसमे निमित्त-नमित्तिक कौन है ? उत्तर-अर्हत को सिद्ध पद नहीं नैमित्तिक और चार अघाति कर्म का उदय निमित्त हे। प्रश्न ३३-सच्चे श्रावकपते मे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-सच्चा श्रावकपना नैमित्तिक और दर्गनमोहनीय सहित अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यान चारित्र मोहनीय कर्म का अभाव निमित्त। प्रश्न ३४-जीव की विभावव्यंजन पर्याय मे, निमित्त नैमित्तिक कौन है ? उत्तर-जीव की विभावव्यजन पर्याय नैमित्तिक, शरीर और नाम कर्म का सद्भाव निमित्त /
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________________ ( 151 ) प्रश्न ३५-जीव को स्वभावव्यंजन पर्याय में निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-जीव की स्वभावव्यजन पर्याय नैमित्तिक, शरीर और नाम कर्म का अभाव निमित्त / प्रश्न ३६-शुक्ललेश्या में निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-शुक्ललेश्या का भाव नैमित्तिक और चारित्र मोहनीय कर्म का मद उदय निमित्त / प्रश्न ३७-नो कषाय मे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? / उत्तर-नो कषाय का भाव नैमित्तिक और चारित्र मोहनीय कर्म का उदय निमित्त / प्रश्न ३८-अकषाय भाव मे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-अकषाय भाव नैमित्तिक और गुणस्थान प्रमाण चारित्र मोहनीय कर्म का अभाव निमित्त / प्रश्न ३६-शुक्लध्यान मे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-शुक्लध्यान नैमित्तिक और सज्वलन चारित्र मोहनीय कर्म का गुणस्थान अनुसार अभाव निमित्त / प्रश्न ४०-अव्याबाध प्रतिजीवी गुण शुद्ध हुआ, इसमे निमित्तनैमित्तिक क्या है ? उत्तर-अव्यावाध प्रतिजीवी गुण की शुद्ध पर्याय नैमित्तिक और वेदनीय कर्म का अभाव निमित्त / प्रश्न ४१-अवगाहन प्रतिजीवी गुण शुद्ध हुआ, इसमे निमित्तनैमित्तिकपना क्या है? उत्तर-अवगाहन प्रतिजीवी गुण की शुद्ध पर्याय नैमित्तिक और आयुकर्म का अभाव निमित्त / / प्रश्न ४२-अगुरुलघुत्व प्रतिजीवी गुण शुद्ध प्रगटा, तो नैमित्तिक क्या है ?
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________________ ( 152 ) उत्तर-अगुरुलघुत्व प्रतिजीवी गुण की शुद्ध पर्याय नैमित्तिक और गोत्रकर्म का अभाव निमित्त / / प्रश्न ४३-सूक्ष्मत्व प्रतिजीवी गुण की शुद्ध पर्याय प्रगटी, तो निमित्त-नैमित्तिक कौन है ? उत्तर--सूक्ष्मत्व प्रतिजीवी गुण की शुद्ध पर्याय नैमित्तिक और नाम कर्म का अभाव निमित्त। प्रश्न ४४---परम ज्ञायक स्वभाव मे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-परम ज्ञायक स्वभाव निरपेक्ष स्वभाव है। इसमे निमित्तनैमित्तिक नही होता है। क्योकि निमित्त-नैमित्तिक दो स्वतन्त्र पर्यायो के बोच मे होता है। प्रश्न ४५--क्या द्रव्य कर्म है, इसलिये दोष है ? उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि दोनो द्रव्यो के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पृथक्-पृथक् है। इसलिए द्रव्य कर्म है तो जीव मे दोष हुआ-- ऐसा नहीं है। प्रश्न ४६-क्या दोष है इसलिये द्रव्य कर्म है ? उत्तर--विल्कुल नही, क्योकि दोनो पृथक्-पृथक् पदार्थ हैं / प्रश्न ४७-ऐसा कौनसा द्रव्य है जिसकी पर्याय में निमित्त-नैमित्तिकपना न हो? उत्तर-ऐसी कोई भी द्रव्य की पर्याय नहीं है। क्योकि पर्याय मे निमित्त-नैमित्तिकपने का स्वभाव है और स्वभाव का कभी अभाव होता नही है। प्रश्न ४जीव की अशुद्ध दशा मे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध क्या है ? उत्तर---जीव की अशुद्ध दशा नैमित्तिक और द्रव्यकर्म का उदय निमित्त / प्रश्न ४६-जीव पुद्गल गति करे तो निमित्त-नैमित्तिक क्या है ?
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________________ ( 153 ) उत्तर-जीव-युद्गल का गमन होना नैमित्तिक और धर्म द्रव्य निमित्त / प्रश्न ५०-जीव-पुद्गल स्थिति करे तो निमित्त-नैमित्तिक क्या" उत्तर-जीव-पुद्गल की स्थिति होना नैमित्तिक और अधर्म द्रव्य निमित्त। प्रश्न ५१-छहो द्रव्यो को अवकाश देने मे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-छहो द्रव्य का अपने-अपने स्थान (क्षेत्र) मे रहना नैमित्तिक और आकाश द्रव्य निमित्त / प्रश्न ५२-छहो द्रव्यो के परिणमन मे निमित्त-नैमित्तिक क्या" उत्तर-छहो द्रव्यो का परिणमन नैमित्तिक और काल द्रव्य निमित्त / प्रश्न ५३-क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति मे निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर क्षायिक सम्यग्दर्शन नैमित्तिक और सातो कर्म प्रकृतियो का अभाव अन्तरग निमित्त / प्रश्न ५४-रागादि का होना, इसमे निमित्त-नैमित्तिक कौन है ? उत्तर-रागादि का होना नैमित्तिक और चारित्र मोहनीय का उदय और नोकर्म निमित्त / प्रश्न ५५-छठे गुणस्थान मे निमित्त-नैमित्तिकपना क्या है ? उत्तर-(अ) शुद्ध परिणति नैमित्तिक और तीन चोकडी कर्म का अभाव निमिन तथा (आ) शुभ भाव नैमित्तिक और सज्वलन क्रोधादि. का तीव्र उदय निमित्त / / प्रश्न ५६-सातवें गुणस्थान में निमित्त-नैमित्तिक क्या है ? उत्तर-(अ) राग का अव्यक्त रूप से सदभाव नैमित्तिक और
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________________ ( 154 ) सज्वलन-क्रोधादि का मद उदय निमित्त तथा (आ) शुद्धोपयोग दशा नैमित्तिक और तीन चौकडी तथा सज्वलन के तीन उदय का अभाव निमित्त / प्रश्न ५७-जीव का स्वभाव द्रव्य कर्म के अभावरूप कब होता उत्तर-जीब के स्वभाव मे द्रव्यकर्म के अभाव का और सद्भाव का कोई सम्बन्ध नही है क्योकि स्वभाव त्रिकाल एक रूप रहता है। प्रश्न ५८-मोक्षमार्ग में प्रकाश किसका है ? उत्तर--सवर-निर्जरारूप निश्चय रत्नत्रयरूप जनधर्म का प्रकाश प्रश्न ५९-क्या उपामश्रेणी और क्षपकश्रेणी का कारण द्रव्य'कर्म है ? उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योकि श्रेणी का कारण उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण है / प्रश्न ६०-एक जीव अनन्त काल पहले मोक्ष गया और एक अब जा रहा है और अन्य आगे जावेंगे / उसका क्या कारण है ? उत्तर-'उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण' प्रश्न ६१-क्या जीव को अशुद्धता मे उपादान कारण द्रव्य कर्म उत्तर-विल्कुल नही, क्योकि उस समय पर्याय की योग्यता 'क्षणिक उपादान कारण सच्चा उपादान कारण है, द्रव्यकर्म कारण 'नही है। प्रश्न ६२-निमित्त-नैमित्तिक जानने से कौन सी खोटी मान्यता दूर हो जानी चाहिये ? उत्तर-एक-दूसरे मे करने-कराने की और भोक्ता-भोग्य की बुद्धि नष्ट हो जानी चाहिए।
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________________ ( 155 ) प्रश्न ६३-क्या केवलज्ञानियो को ही पारमार्थिक सुख है ? उत्तर-हाँ, केवलज्ञानियो को ही पारमार्थिक सुख है ऐसा ज्ञानी जानते है। प्रश्न ६४-फेवलज्ञानियों को ही पारमाथिक सुख है, ऐसा कहीं प्रवचनसार मे आया है ? उत्तर-गाथा 62 मे आया है कि --- सूणी घातिकर्म विहीन को सुख, वह सुख उत्कृष्ट है। श्रद्धे न वह अभव्य है अरु भव्य वह सम्मत करे // अर्थ-जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये है। उनका मुख (सर्व) सुखो मे उत्कृष्ट है। यह सुनकर जो श्रद्धा नही करते, वे अभव्य हैं। और भव्य उसे स्वीकार करते हैं-उसकी श्रद्धा करते हैं / प्रश्न ६५-पारमार्थिक सुख की शुरुआत कौन से गुणस्थान से होती है ? उत्तर-चौथे गुणस्थान से पारमार्थिक सुख की शुरुआत होती है जिनको पारमार्थिक सुख की शुरुआत होती है। वह अल्पकाल मे ही मोक्ष को प्राप्त करते है। प्रश्न ६६-ज्ञानियो को सुख है और ज्ञान भी है। ऐसा कौन कहते हैं ? ___ उत्तर-जिन-जिनवर और जिनवरवृषभ कहते है। प्रश्न ६७-ज्ञा नियो को पारमार्थिक सुख है और ज्ञान भी है। ऐसा जानकर ज्ञानो क्या करते हैं ? उत्तर---अपने जायक स्वभाव मे विशेप स्थिरता करके अल्पकाल मे ही मोक्ष को प्राप्त करते है। प्रश्न ६८-ज्ञानियों को पारमार्थिक सुख है और ज्ञान भी है। अज्ञानियो को ना मुख है और ना ही ज्ञान है। ऐसा सम्यक्त्व के सन्मुख पात्र अज्ञानी सुनकर क्या करता है ?
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________________ ( 156 ) उत्तर-सम्यक्त्व के सन्मुख पात्र अज्ञानी अपने शायक स्वभाव की श्रद्धा करके क्रम से ज्ञानियो की तरह मोक्ष को प्राप्त करते है। प्रश्न ६६-ज्ञानियो को ही पारमार्थिक सुख है और ज्ञान भी है अज्ञानियो को ना सुख है और ना ही ज्ञान है। ऐसा अपात्र अज्ञानी सुनकर क्या करता है ? उत्तर-भगवान की वाणी का विरोध करके चारो गतियो मे घूमता हुआ निगोद चला जाता है। प्रश्न ७०-ज्ञानियो को पारमार्थिक सुख और ज्ञान क्यो है ? उत्तर-ज्ञानियो को अपना श्रद्धान ज्ञान-आचरण होने से तथा वस्तुस्वरूप का ज्ञान होने से पारमार्थिक सुख और ज्ञान दोनो वर्तते है। प्रश्न ७१--अज्ञानियो को पारमार्थिक सुख और ज्ञान क्यो नहीं उत्तर-अज्ञानियो को अपना श्रद्धान-जान-आचरण ना होने से तथा वस्तुस्वरूप का ज्ञान ना होने से पारमार्थिक सुख और ज्ञान नही है। प्रश्न ७२-वस्तुस्वरूप कैसा है ? उत्तर-"अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं, कोई किसी के आधीन नही है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नही होती'' ऐसा वस्तुस्वरूप है। प्रश्न ७३–"मैं सुबह उठकर यहाँ आया" इस वाक्य मे वस्तुस्वरूप (निमित्त-नैमित्तिक) किस प्रकार है ? उत्तर-(अ) मैं आत्मा अनादिअनन्त ज्ञायक स्वरूप अनन्त गुणों का धारी अमूर्तिक प्रदेशो का पुंज हूँ। मुझ आत्मा का अपनी क्रियावती शक्ति के कारण गमनरूप परिणमन हुआ-फिर स्थिररूप परिणमन हुआ। गमनरूप परिणमन मे धर्म द्रव्य निमित्त है और स्थिररूप परिणमन मे अधर्म द्रव्य निमित्त है। मुझ आत्मा अपने असख्यात
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________________ ( 157 ) प्रदेशो मे रहा / इसमे निमित्त आकाश द्रव्य है। मुझ आत्मा के अनन्त गुणो मे निरन्तर परिणमन उसकी योग्यता से होता है / उसमे निमित्त कालद्रव्य है। (आ) औदारिकगरीर, तैजसशरीर, कार्माणशरीर, भाषा और मन का मुझ आत्मा के साथ मात्र एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध है तथा व्यवहारनय से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है। वास्तव मे तो ज्ञान पर्याय ज्ञेय और मुझ आत्मा ज्ञायक है। परन्तु यह भी भेद है और भेद के लक्ष्य से रागी जीव को राग की उत्पत्ति होती है। अत मुझ आत्मा ज्ञायक सो ज्ञायक ही है। इस प्रकार अभेद के लक्ष्य से जीव का कल्याण होता है। अत मुझ आत्म ज्ञायक-ज्ञायक / (इ) औदारिक शरीर, तेजसशरीर, कार्माणशरीर, भाषा और मन मे अनन्त पुदगल परमाणु हैं। प्रत्येक परमाणु अपनी-अपनी क्रियावती शक्ति के कारण गमन करता है जिसमे धर्मद्रव्य निमित्त है और गमन करके स्थिर होता है उसमे अधर्मद्रव्य निमित्त है और औदारिकशरीर आदि मे अनन्त पुद्गल परमाणु अपने-अपने प्रदेश मे अवगाहन करते हैं। उसमे निमित्त आकाशद्रव्य है। औदारिकशरीर आदि मे अनन्त पुद्गल परमाणु है और प्रत्येक परमाणु मे अनन्न-अनन्त गुण हैं। वे सब अपनी-अपनी योग्यता से परिणमन करते हैं उसमे कालद्रव्य निमित्त है। यह सब मूर्तिक द्रव्यो का पिण्ड, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो से रहित, जिनका नवीन सयोग हुआ है ऐसा औदारिक आदि शरीर (पुद्गल) पर हैं / ऐसी वस्तुस्थिति है। ऐसा वस्तुस्वरूप (निमित्त-नैमित्तिक) जानने-मानने से पात्र जीवो की पर मे से कर्तृत्वबुद्धि छूट जाती है। वे उन सबका ज्ञाता-दृष्टा ही रहते है / अत सुख और ज्ञान भी हर समय रहता है और क्रम मोक्षरूपी लक्ष्मी के नाथ बन जाते हैं। प्रश्न ७४-प्रश्न 73 के अनुसार वस्तुस्वरूप का ज्ञान अर्थात् निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का सच्चा ज्ञान और श्रद्धान का फल भगवान ने क्या बताया है ? उत्तर-"भव बन्धन तड्-तड़ टूट पडे, खिल जावे अन्तर की
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________________ ( 158 ) कलियॉ" अर्थात् अनादि का भव बन्धन समाप्त होकर ऋम से मोक्ष की प्राप्ति इसका फल बताया है। प्रश्न ७५---'मै सुबह उठकर यहाँ आया' अज्ञानी इसमे कैसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध मानता है ? उत्तर--अज्ञानी की मान्यता मे मै आत्मा था तो शरीर उठकर आया" या शरीर था तो मैं आत्मा आया।" इस प्रकार अनन्त पर द्रव्यो मे अपनेपने की-ममकारपने की, पर को अपने रूप करने की अपने को पररूप करने की खोटी वृद्धि पाई जाती है जिसका फल निगोद है अर्थात उल्टा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध मानने का फल निगोद है। प्रश्न ७६-अज्ञानी का अज्ञान दूर करने का उपाय भगवान ने क्या बताया है ? उत्तर-जिस प्रकार कोई मोहित होकर मुद को जीवित माने या जिलाना चाहे तो आप ही दुखी होता है तथा उसे मुर्दा मानना और यह जिलाने से जियेगा नहीं। ऐसा मानना सो ही दुख दूर होने का है उपाय / उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि पदार्थों को अन्यथा माने अन्यथा परिणमित कराना चाहे तो आप ही दुखी होता है तथा उन्हे यथार्थ मानना और यह परिणमित कराने से अन्यथा परिणमित नहीं होगे। ऐसा मानना सो ही उस दुख के दूर होने का उपाय है। भ्रम जनित दुख का उपाय भ्रम दूर करना ही है। सो भ्रम दूर होने से सम्यक् श्रद्धान होता है / यही सत्य उपाय भगवान ने बताया है। प्रश्न ७७-क्या अज्ञानी सुबह से शाम तक पुद्गल के दिखने वाले कार्यों का निमित्तकर्ता भी नहीं है ? उत्तर-वास्तव मे सुबह से शाम तक जितने रूपी पदार्थों के कार्य होते हैं उनका कर्ता पुद्गल ही हैं। अज्ञानी जीव मे भी पुद्गल के कार्यों का निमित्तकर्ता नही है। परन्तु अज्ञानी अज्ञानवश यह मानता है कि मैंने रोटी बनाई, मैंने व्यापार किया, मैं हसा, मैं सोया आदि
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________________ ( 159 ) विपरीत मान्यताओ मे पागल बना रहता है। जिसका फल परम्परा निगोद है। प्रश्न ७८–अज्ञानी दुःखी क्यो है ? उत्तर-जड की क्रिया अपनी मानने के कारण ही दुखी है। प्रश्न ७६-ज्ञानी सुखी क्यो है ? उत्तर-जड की क्रिया अपनी न मानने के कारण ही सुखी है। अपनी जान किया है ऐसी श्रद्धा-ज्ञान होने से ही ज्ञानी सुखी है। प्रश्न ८०-जितना जड का कार्य है। क्या उसका कर्ता-कर्म और भोक्ता-भोग्य सर्वथा जड ही है ? उत्तर-हाँ, भाई जड का कता-कर्म, भोक्ता-भोग्य सर्वथा जड ही हैं जीव नही है। प्रश्न ८१-क्या अज्ञानी जड के कार्य में निमित्त भी नहीं है ? उत्तर-अज्ञानी जड के कार्य मे निमित्त भी नही है। परन्तु जड के कार्य में करता हूँ ऐसी मान्यता होने से दुखी है। प्रश्न ८२-क्या जड के कार्य मे ज्ञानी का निमित्त-नैमित्तिकपना नहीं है ? उत्तर-नही है। किन्तु मात्र नेय-ज्ञायकपना व्यवहार से है। अर्थात् ज्ञान की पर्याय नैमित्तिक और जड पदार्थ की पर्याय निमित्त है। प्रश्न ८३-'मै बक्से को उठाकर लाया' इस वाक्य मे उत्तर- प्रश्न 73 से 82 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न ८४–'मैं कपडे पहनता हूँ इस वाक्य मे उत्तर-प्रश्न 73 से 82 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न =५-'मैंने कपडा खरीदा' इस वाक्य मे उत्तर--प्रश्न 73 से 82 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न ८६-मोक्षमार्ग प्रकाशक के तीसरे अधिकार में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध के विषय मे क्या बताया है ?
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________________ ( 160 ) उत्तर-मोह के आवेश से उन इन्द्रियो के द्वारा विषय ग्रहण करने की इच्छा होती है। और उन विषयो का ग्रहण होने पर, उस इच्छा के मिटने से, निराकुल होता है तब आनन्द मानता है। जैसे--कुत्ता हड्डी चबाता है उससे अपना लोहू निकले, उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह हडिडयो का स्वाद है। उसी प्रकार यह जीव विषयो को जानता है उससे अपना ज्ञान प्रवर्तता है, उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह विषय का स्वाद है। सो विषय मे तो स्वाद है नही। स्वय ही इच्छा की थी, उसे स्वय ही जानकर, स्वय ही आनन्द मान "लिया, परन्तु मैं अनादि-अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ-ऐसा नि केवलज्ञान का (पर से भिन्न अपनी आत्मा का) तो अनुभवन है नही / प्रश्न ८७-~~'मैं सुबह उठा' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये? प्रश्न ८८-'मैं बोला' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये? प्रश्न ८६-'मैंने रोटी खाई इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये ? प्रश्न ६०-'मैंने रुपया कमाया' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये? प्रश्न ६१-'मैने जीवो की रक्षा की' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये ? प्रश्न ६२–'मै बीमार हूँ' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये ? प्रश्न ६३--'मैं शास्त्र प्रवचन करता हूँ' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये ? प्रश्न ९४-'मैं कपड़े घोता हूँ' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये?
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________________ ( 161 ) प्रश्न ६५–'मैने सिनेमा देखा' इस वाक्य को प्रश्न 86 के उत्तर अनुसार समझाइये? जय महावीर-जय महावीर व्याप्यव्यापक छठा अधिकार प्रश्न १-व्याप्यव्यापक किसे कहते हैं ? उत्तर-(१) जो सर्व अवस्थाओ मे रहे वह व्यापक है और एक अवस्था विशेष (उस व्यापक का) व्याप्य है। प्रश्न २-व्याप्यव्यापक के पर्यायवाची शब्द क्या-क्या हैं ? उत्तर-व्यापक-व्याप्य कहो, कर्ता-कर्म कहो, परिणामी परिणाम कहो, त्रिकाली उपादान-उपादेय कहो एक ही बात है। प्रश्न ३-द्रव्य-गुण-पर्याय में व्याप्य-व्यापक किसमें है ? उत्तर-द्रव्य और गुण व्यापक है और पर्याय व्याप्य है। प्रश्न ४-क्या व्याप्य-व्यापकपना भिन्न-भिन्न पदार्थों में होता उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि व्याप्य-व्यापकपना तत्स्वरूप मे ही (अभिन्न सत्तावान पदार्थो मे ही) होता है। अतस्वरूप मे (जिनकी सत्ता भिन्न-भिन्न है ऐसे पदार्थों मे) नही ही होता है। प्रश्न ५-व्याप्य-व्यापक जानने से क्या लाभ हैं ? उत्तर-सामान्य मे से विशेप आता है अर्थात् व्यापक मे से व्याप्य आता है, पर से नहीं। ऐसा जानने से ज्ञानी हो जाता है और अनादि
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________________ ( 162 ) से पर पदार्थो मे जो कर्ता-कर्म माना था उसका अभाव हो जाता है। जगत का ज्ञाता दृष्टा साक्षीभूत वन जाता है। प्रश्न ६–सम्यग्दर्शन का व्याप्य-व्यापक कौन है और कौन नहीं उत्तर-आत्मा का श्रद्धा गुण व्यापक और सम्यग्दर्शन व्याप्य है। और देव-गुरु-शास्त्र, दर्शन मोहनीय के उपशमादि व्यापक नहीं है। प्रश्न ७-केवलज्ञान हुआ इसमें व्याप्य-व्यापक कौन है और कौन नहीं है ? उत्तर-आत्मा का ज्ञान गुण व्यापक है और केवलज्ञान व्याप्य है और वज्रवृषभनाराच सहनन, ज्ञानावरणीय का अभाव, चौथा काल और शुभभाव व्यापक नही है। प्रश्न ८-क्या रोटी व्याप्य और बाई व्यापक ठीक है? उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि आटा व्यापक और रोटी व्याप्य है। प्रश्न :-यदि बाई को व्यापक कहे तो क्या होगा? उत्तर-बाई के नाश होने का प्रसग उपस्थित होवेगा और बाई आटा बन जावे तो ऐसा कहा जा सकता है। लेकिन व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एक ही द्रव्य का उसकी पर्याय मे होता है दो द्रव्यो में नहा होता है। प्रश्न १०-क्या जीव के विकारी परिणाम व्यापक और पुद्गल के विकारी परिणाम व्याप्य, ठीक है ? उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि पुदगल के विकारी परिणाम व्याप्य और कार्माण वर्गणा व्यापक है। प्रश्न ११-कोई कहे, हम तो जीव के विकारी परिणाम व्यापक, और पुद्गल कम व्याप्य ऐसा ही मानेंगे, तो क्या दोष आवेगा' उत्तर-जीव के नाश का प्रसग उपस्थित होवेगा और जाप होकर काणिवर्गणा बन जावे तो ऐसा कहा जा सकता है।
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________________ ( 163 ) व्याप्य व्यापक सवध एक द्रव्य का उसकी पर्याय मे ही होता है भिन्नभिन्न पदार्थों मे नही होता है / प्रश्न १२-क्या द्रव्यकर्म का उदय व्यापक और ससार अवस्था व्याप्य ठीक है ? उत्तर-बिल्कुल नहीं, क्योकि ससार अवस्था व्याप्य और जीव व्यापक है। प्रश्न १३-कोई कहे, हम तो कर्म के उदय को व्यापक और संसार अवस्था व्याप्य, ऐसा ही मानेंगे तो क्या दोष आवेगा ? उत्तर–जीव के नाश का प्रसग उपस्थित होवेगा और कर्म के उदय को जीव बन जाने का प्रसग उपस्थित होवेगा। लेकिन व्याप्यव्यापक सम्वन्ध एक ही द्रव्य का उसकी पर्याय मे होता है भिन्न-भिन्न द्रव्यो मे नही होता है। प्रश्न १४-क्या द्रव्य कर्म का अभाव व्यापक और संसार का अभाव व्याप्य, ठीक है? उत्तर-बिलकुल नहीं, क्योकि ससार का अभाव व्याप्य और जीव व्यापक है। प्रश्न १५--कोई कहे फर्म का अभाव व्यापक और संसार का अभाव व्याप्य ऐसा ही माने तो क्या दोष आवेगा? उत्तर-जीव के अभाव का प्रसग उपस्थित होवेगा और कर्म के जीव बन जाने का प्रसग उपस्थित होवेगा। लेकिन व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एक द्रव्य का उसकी पर्याय मे ही होता है अलग-अलग द्रव्यो मे नही होता है। प्रश्न १६-क्या वायु का चलना व्यापक और समुद्र में लहर उठी व्याप्य, ठीक है? उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि समुद्र मे लहर उठी व्याप्य और समुद्र व्यापक है।
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________________ ( 164 ) प्रश्न १७-कोई कहे, वायु का चलना व्यापक और समुद्र मे लहर उठी व्याप्य, तो क्या दोष आवेगा? उत्तर-समुद्र के नष्ट होने का प्रसग उपस्थित होवेगा और वायु का चलना नष्ट होकर समुद्र बन जाने का प्रसग उपस्थित होवेगा। क्योकि व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एक द्रव्य का उसकी पर्याय मे होता है भिन्न-भिन्न द्रव्यो की पर्यायो मे नही होता है / प्रश्न १५-क्या वायु का न चलना व्यापक और तरंग न उठी व्याप्य, ठीक है? उत्तर-बिल्कुल नही, क्योकि समुद्र मे लहर न उठी व्याप्य और समुद्र व्यापक है। प्रश्न १६-कोई कहे, हवा ना चली व्यापक और तरंग ना उठी व्याप्य, तो क्या दोष आवेगा? उत्तर--समुद्र के नष्ट होने का प्रसग उपस्थित होवेगा और वायु का नाश होकर समुद्र बन जाने का प्रसग उपस्थित होवेगा, लेकिन व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एक द्रव्य का उसकी पर्याय मे होता है भिन्नभिन्न द्रव्यो की पर्यायो मे नही होता है / प्रश्न २०-विकारी भाव अहेतुक है या सहेतुक है ? उत्तर-वास्तव मे विकारी भाव अहेतुक है, क्योकि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतत्र है / और विकारी पर्याय के समय निमित्त होता है इस अपेक्षा सहेतुक है। प्रश्न २१-विकारी भाव अहेतुक है या सहेतुक, इसमें कोई दूसरी और भी अपेक्षा है ? उत्तर-(१) विकारी भाव आत्मा स्वतन्त्र रूप से करता है वह अपना हेतु है इस अपेक्षा सहेतुक है। और कर्म सच्चा हेतु नही है इस अपेक्षा अहेतुक है। प्रश्न २२-तुम विकारी भाव को आत्मा का स्वभाव कहते हो
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________________ और स्वभाव का कभी अभाव होता नहीं। इसलिये विकार को कर्मकृत मानना चाहिए। क्या यह ठीक है? उत्तर-(१) विकारी भाव व्याप्य और द्रव्यकर्म व्यापक, ऐसा माने तो व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध नही बनेगा, क्योकि व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एक द्रव्य का उसकी पर्याय मे ही होता है भिन्न-भिन्न द्रव्यो में नही होता है / इसलिए आत्मा व्यापक और विकारी भाव व्याप्य ऐसा मानने योग्य है। (2) हम विकार को एक समय का विकारी स्वभाव कहते है त्रिकाली स्वभाव नही कहते हैं। (3) यदि जीव विकार को एक समय का स्वय का अपराध माने, तो त्रिकाली स्वभाव के आश्रय से विकार का अभाव कर सकता है। (4) यदि विकार को कर्मकृत माना जावे तो जीव कभी निगोद से भी नहीं निकले, जहाँ जो पडा हो वही पड़ा रहेगा। प्रश्न २३-शुद्धनय की दृष्टि से रागादिक का व्याप्य-व्यापक कौन है ? उत्तर-रागादिभाव व्याप्य और पुद्गल व्यापक है। प्रश्न २४-अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक का व्याप्य-व्यापक कौन है ? उत्तर--रागादि भाव व्याप्य और अज्ञानी जीव का चारित्र गुण व्यापक है। प्रश्न २५-द्रव्य-गुण और पर्याय में व्याप्य-व्यापक कौन है ? उत्तर-द्रव्य-गुण व्यापक है और पर्याय व्याप्य है। प्रश्न २६-व्याप्य-व्यापक के पर्यायवाची शब्द क्या-क्या हैं ? उत्तर-व्याप्य-व्यापक कहो, कर्ता-कर्म भाव कहो एक ही बात है। क्योकि व्याप्य-व्यापक भाव के बिना कर्ता-कर्म की स्थिति नही हो सकती है। प्रश्न २७-कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार बनाया-इसमे व्याप्य व्यापक बताओ?
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________________ ( 166 ) उत्तर-जवानी उत्तर दो। प्रश्न २८-मैं हँसा-इसमें व्याप्य-व्यापक क्या है ? उत्तर-जबानी उत्तर दो। प्रश्न २६-मै बोला-इसमें व्याप्य-व्यापक क्या है ? उत्तर-जबानी उत्तर दो। प्रश्न ३०–मै उठा-इसमें व्याप्य-व्यापक क्या है ? उत्तर-मौखिक उत्तर दो। प्रश्न ३१-मैंने किताब उठाई-इसमे व्याप्य-व्यापक क्या है ? उत्तर-मौखिक उत्तर दो। प्रश्न ३२-~-मैंने दुकान बनाई-इसमे व्याप्य-व्यापक क्या है ? उत्तर--मौखिक उत्तर दो। जय महावीर जय महावीर सातवाँ अधिकार समयसार गाथा सौ के चार बोलो का स्पष्टीकरण प्रश्न १-पूर्वक का क्या अर्थ है दृष्टान्त देकर समझाइये ? उत्तर--'पूर्वक' का अर्थ अभाव है ? जैसे --(1) ससारपूर्व (अभाव करके) मोक्ष होता है। (2) श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक (अभा करके) होता है / (3) शुभभाव पूर्वक (अभाव करके) शुद्धभाव हो
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________________ ( 167 ) है। (4) मिथ्यात्वपूर्वक (अभाव करके) सम्यग्दर्शन होता है। (5) श्रुतज्ञानपूर्वक (अभाव करके) केवलज्ञान होता है। प्रश्न २-श्री समयसार गाथा 100 के चार बोल क्या-क्या हैं ? उत्तर-(१) यदि आत्मा व्याप्य-व्यापक भाव से पर द्रव्य का कर्ता बने, तो तन्मयपने का प्रसग उपस्थित होवेगा अर्थात् अभिप्राय मे आत्मा के नाश का प्रसग उपस्थित होवेगा, (पररूपपना)(२) यदि आत्मा निमित्त-नैमित्तिक भाव से पर द्रव्य का कर्ता बने, तो नित्य कतृत्व का प्रसग उपस्थित होवेगा अर्थात उसका ससार तीनो काल कायम रहेगा। (त्रिकाल ससारपना) (3) अज्ञानी का योग और उपयोग पर द्रव्य की पर्याय का निमित्त-नैमित्तिक भाव से कर्ता बनता है, (अज्ञानीपना) (4) ज्ञानी का योग और उपयोग पर द्रव्य को पर्याय का निमित्त-नैमित्तिक भाव से कर्ता नही, मात्र ज्ञाता है। (ज्ञानीपना) प्रश्न ३-कुम्हार ने घडा बनाया। क्या कुम्हार व्यापक और घड़ा व्याप्य ठीक है? उत्तर-बिल्कुल ठीक नही, क्योकि मिट्टी व्यापक और घडा व्याप्य है। प्रश्न ४-कोई चतुर कहे, कुम्हार ध्यापक और घड़ा व्याप्य, तो क्या होगा? उत्तर-कुम्हार नष्ट होकर यदि मिट्टी बन जावे तो ऐसा कहा जा सकता है। परन्तु व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध तत्स्वरूप में ही होता है अतत्स्वरूप मे नही होता है। प्रश्न ५-व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध तो एक द्रव्य का उसकी पर्याय में होता है यह बात आपको ठीक है। लेकिन घड़ा बना नैमित्तिक और कुम्हार निमित्त तो है ना? उत्तर-(१) कुम्हार निमित्त नहीं है। यदि कुम्हार घडे का निमित्त-नैमित्तिक भाव से कर्ता वने, तो कुम्हार को नित्य कर्तृत्वपने
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________________ का प्रसग उपस्थित होवेगा अर्थात् उसका ससार तीनो काल कायम रहेगा, (2) निमित्त-नैमित्तिक दो द्रव्यो की स्वतन्त्र पर्यायो के बीच मे होता है। द्रव्य-गुण के बीच मे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध नही होता है। दूसरा वोल द्रव्य की अपेक्षा से है। इसलिए कुम्हार निमित्त नही प्रश्न ६-हम द्रव्य-गुण में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं मानते हैं। इसलिये आपको वात ठीक है। परन्तु घड़ा बना नैमित्तिक और कुम्हार का उस समय राग निमित्त तो है ना ? उत्तर--(१) निमित्त तो है, परन्तु अज्ञानी निमित्त कता मानता है / निमित्त कर्ता मानने से जब-जव घडा बने तो कुम्हार को उपस्थित रहना पडेगा। वह कभी अपने बाल-बच्चो को भी ना खिला सकेगा, स्वर्ग-मोक्ष मे भी ना जा सकेगा। उसका ससार तीनो काल कायम रहेगा। (2) जैसे गाय का माँस निकला हो तो कौव्वा वही पर बैठता है, उसी प्रकार अज्ञानी की दृष्टि निमित्तकर्ता पर ही रहती है, (3) वास्तव मे अज्ञानी पर्याय मे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध शास्त्र के आधार से कहता है उसकी बुद्धि मे कर्ता-कर्म वैठा है। इसलिए कहता है कि एक समय का निमित्त तो है ना। प्रश्न ७-हमारी दृष्टि मे कुछ बैठा हो हम तो यह पूछते हैं कि घड़ा बना नैमित्तिक और कुम्हार का उस समय का राग निमित्त है ना? उत्तर-जैसे-घडा बना 10 नम्बर पर, कुम्हार का राग भी 10 नम्बर पर, हाथ आदि क्रिया भी 10 नम्बर पर, यह तीनो अलगअलग द्रव्यो की स्वतन्त्र क्रियाये है। अज्ञानी को इनकी स्वतत्रता का पता नहीं हैं। (1) यहाँ पर कुम्हार के ज्ञान का कषायो के साथ जुडना -~-उसे उपयोग कहा / (2) और हाथ आदि की क्रिया का मन-वचनकाय के निमित्त से आत्म प्रदेशो का चलन-वह योग है। (3) घडा /
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________________ ( 166 ) वना—यह पर द्रव्य की क्रिया है। अज्ञानी का योग और उपयोग पर द्रव्य की पर्याय का निमित्त-नैमित्तिक भाव से कर्ता बनता है। है नही। चार्ट को देखो त्रिकाली उपादान कुम्हार का | आहारवर्गणा | मिट्टी चारित्र गुण | के स्कध - our Mur 9 16 m
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________________ ( 170 ) भाव से कर्ता बनता है। तो क्या ज्ञानी कुम्हार हो वह स्वतंत्र पर्यायो का निमित्त-नैमित्तिक भाव से फर्ता नहीं है ? उत्तर - वास्तव मे जानी तो न०१० अस्थिरता के राग का। 10 नम्बर हाथ आदि क्रिया का। 10 नम्बर पर घडा वना। उन सब का चार्ट को ध्यान से देखो त्रिकाली उपादान कम्हार काकाहार का हाय मादि / ज्ञान गुण चारित्र गुण आहारवर्गणा मिट्टी के स्कन्ध ow KWU.. January mprr rmro 595 91 G - 3D अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण / 0 उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण / अस्थिरता ! हाथ आदि / घडा (कार्य) उपादेय ज्ञान हुआ | का राग | की क्रिया | बना मात्र व्ययहार से ज्ञाता है। क्योकि ज्ञानी जानता है सब द्रव्य अपने
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________________ ( 171 ) अपने स्वरूप से परिणमते हैं कोई किसी का परिणमाया परिणमता नाही। प्रश्न :-क्या ज्ञानी कुम्हार का घडा बनने मे निमित्त-नैमित्तिकपना नहीं है ? उत्तर-ज्ञातापना है, ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी व्यवहार से है, क्योकि ज्ञानी कुम्हार तो योग हाथ आदि क्रिया का, अस्थिरता के राग का, घडा बनने की क्रिया का, निमित्त-नैमित्तिक भाव से कर्ता नही है मात्र ज्ञाता है। प्रश्न १०-क्या ज्ञानो कुम्हार ज्ञायक और अस्थिरता का राग, हाथ आदि की क्रिया; घड़ा बना, यह सब ज्ञेय है ? उत्तर-हाँ, यह सव व्यवहार से ज्ञान का जेय है। वास्तव मे ज्ञानी ने अपनी ज्ञान पर्याय का ज्ञान किया है। प्रश्न ११-क्या आत्मा ज्ञायक और ज्ञान की पर्याय ज्ञेय / यह तो ठीक है? उत्तर-यह भी व्यवहार कथन है वस ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। प्रश्न १२-समयसार की १००वीं गाथा के चार बोलो से क्या तात्पर्य है ? उत्तर-(१) द्रव्यदृष्टि से तो कोई द्रव्य अन्य किसी द्रव्य का कर्ता नही है। (2) परन्तु पर्यायदृष्टि से किसी द्रव्य की पर्याय किसी समय किसी अन्य द्रव्य की पर्याय को निमित्त होती है। इसलिए इस अपेक्षा से एक द्रव्य के परिणाम अन्य के परिणाम के निमित्त कर्ता कहलाते हैं / (3) परमार्थत प्रत्येक द्रव्य अपने ही परिणामो का कर्ता है, अन्य के परिणामो का अन्य द्रव्य कर्ता नहीं है। प्रश्न १३-१००वी गाथा के चार बोल समझने से क्या-क्या लाभ हैं ? उत्तर-(१) पर मे कर्ता-भोक्ता वुद्धि का अभाव होकर धर्म की प्राप्ति होना / (2) पच परावर्तन का अभाव होना। (3) मिथ्या HALA
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________________ ( 172 ) त्वादि ससार के पाँच कारणो का अभाव होना। (4) पचम पारिणामिक भाव का महत्व आना। (5) पच परमेष्टियो मे गिनती होने लगती है। प्रश्न १४-मैं मुंह से वोलता हूँ-इस वाक्य मे सौवीं गाथा के चार बोल लगाकर बताओ? उत्तर-प्रश्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १५-बढई ने औजारो से अलमारी बनाई-इस वाक्य में सौवी गाथा के चार बोल लगाकर बताओ? उत्तर-प्रश्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो।। प्रश्न १६-मैंने हाथों से पुस्तक बनाई- इस वाक्य मे सौवीं गाया के चार बोल लगाकर बताओ? उत्तर प्रश्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १७-मैंने झाडू से फर्श साफ किया-इस वाक्य में सौवीं गाथा के चार बोल लगाकर बताओ? उत्तर-प्रश्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १८-मैंने औजारो से मकान बनाया-इस वाक्य मे सौवों गाया के चार बोल लगाकर बताओ? उत्तर प्रश्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न १६-मैं मुंह से बोला-इस वाक्य में सौवों गाथा के चार बोल लगाकर बताओ? उत्तर-प्रग्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न २०-मैं धर्मद्रव्य के द्वारा टांगो से चला-इस वाक्य में सोवों गाथा के चार बोल उतारकर बताओ? उत्तर-प्रश्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो। प्रश्न २१-मै बिस्तरे से प्रात काल उठता हूँ-इस वाक्य में सौवीं गाथा के चार बोल उतारकर बताओ? उत्तर-प्रग्न 3 से 13 तक के अनुसार उत्तर दो।
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________________ मैंने मुंह से शब्द बोला का चार्ट ध्यान से देखो महरूप भाषावर्गणा त्रिकाली उपादान ज्ञान गुण चारित्र गुण आहारवर्गणा कारण स्कध | marm mr m>>3095 | warm surya 079 अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण 10 / (कार्य) उपादेय नैमित्तिक जान हुआ | राग हुआ मुह हिला | शब्द हुआ - - - प्रत्यक्ष परोक्ष का ही भेद है इतना विशेष जानना चाहिए कि केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्म स्वरूप ही है और श्रु तज्ञानी भी शुद्धनय के अवलम्बन से आत्मा को | ऐसा ही अनुभव करते हैं / प्रत्यक्ष और परोक्ष का ही भेद है। [ समयसार (गाथा 320 के भावार्थ से) ] -
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________________ ( 174 ) प्रदेशो का चलन, (2) उपयोग अर्थात् ज्ञान का कपायो के साथ उपयुक्त होना-जुडना। प्रश्न ३१-योग और उपयोग तो घटादिक व द्रव्य कर्म का निमित्तकर्ता कहा जाता है किन्तु आत्मा को उनका कर्ता क्यों नहीं कहा जाता है ? उत्तर--(१) त्रिकाली आत्मा उसका कर्ता नही है / (2) जिसको स्वभाव की दृष्टि हुई है वह ज्ञानी आत्मा योग-उपयोग और घटादिक, द्रव्यकर्म का निमित्त-नैमित्तिक भाव से भी कर्ता नही है, मात्र ज्ञाता है। इसलिए आत्मा को उनका कर्ता नहीं कहा जाता है। (3) मात्मा को ससार दगा मे अज्ञान से मात्र योग उपयोग का कर्ता कहा जा सकता है। परन्तु किसी भी आत्मा को घटादिक और द्रव्यकर्म का कर्ता तो किसी भी अपेक्षा से नहीं कहा जा सकता है। प्रश्न ३२-मैने पैरो से साइकिल चलाई, इस वाक्य में सौवीं गाथा के चार बोल समझाइये? उत्तर-प्रश्न से 13 तक के अनुसार उत्तर दो। जय महावीर जय महावीर सौ प्रश्नोत्तरो का आठवॉ अधिकार A. प्रश्न-मैं मुंह से बोला। B. प्रश्न-मुझ आत्मा और बोलने से मुंह खुला। C. प्रश्न-बोलने और मुंह खुलने से राग हुआ। . D. प्रश्न-राग, बोलना और मुंह खुलने से ज्ञान हुआ।
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________________ मैंने मुंह से शब्द बोला का चार्ट ध्यान से देखो महरूप भाषावर्गणा त्रिकाली उपादान | ज्ञान गुण चारित्र गुणोआहारवर्गणा कारण | स्कध | omar msur 9 Porrmusur 9 ] anormy owaisi w अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक 10 उपादान कारण 10 / 10 / (कार्य) उपादेय नैमित्तिक ज्ञान हुआ | राग हुआ | मुह हिला शब्द हुआ प्रत्यक्ष परोक्ष का ही भेद है इतना विशेष जानना चाहिए कि केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्म स्वरूप ही है और श्रुतज्ञानी भी शुद्धनय के अवलम्बन से आत्मा को ऐसा ही अनुभव करते हैं / प्रत्यक्ष और परोक्ष का ही भेद है। [ समयसार (गाथा 320 के भावार्थ से) ]
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________________ ( 176 ) - नमित्तिक, कार्य उपादेय निमित्त कारण (1) जव बोलने को नैमित्तिक कहेगे | तव ज्ञान-राग मुंह निमित्त कारण (2) , मुंह हिलन, " ज्ञान-राग बोलना / / (3) राग काय, , , ज्ञान-बोलना मुह , , (4) , ज्ञान काय, , , , रागवालना मुह , , नोट-मुझ आत्मा या में बोलने मे आवे तब वहा पर ज्ञान-राग यह दो कार्यों को गिनना। - A. प्रश्न-में मुंह से बोला-इस वाक्य पर निमित्त की परिभाषा लगाकर वतामो? उत्तर-आत्मा का ज्ञान, राग, मह स्वय स्वत वोलने रूप परिणमित ना हो, परन्तु बोलने की उत्पत्ति मे अनुकूल होने का जिस पर आरोप मा सके / उस आत्मा का ज्ञान, राग और मुंह को निमित्त कारण कहते है। B प्रश्न १-आत्मा का ज्ञान, राग और बोलने के कारण मुंह खला-इस वाक्य पर निमित्त की परिभाषा लगाकर बताओ? उत्तर-आत्मा का ज्ञान, राग और बोलना स्वय स्वत मुंह खुलने रूप परिणमित ना हो, परन्तु मुंह खुलने की उत्पत्ति मे अनुकूल होने का जिस पर आरोप आ सके / उस आत्मा का ज्ञान, राग और बोलने को निमित्त कारण कहते है। C. प्रश्न १-ज्ञान, बोलने और मुंह खुलने के कारण राग हुआइस वाक्य पर निमित्त की परिभाषा लगाकर बताओ? उत्तर-ज्ञान, बोलना और मुंह खुलना स्वय स्वत राग रूप परिगमित न हो, परन्तु राग की उत्पत्ति मे अनुकूल होने का जिस पर
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________________ ( 177 ) आरोप आ सके / उस ज्ञान, बोलने और मुंह खुलने को निमित्त कारण कहते हैं। D. प्रश्न १-राग, बोलना, मुंह खुलने के कारण ज्ञान हुआ-इस वाक्य पर निमित्त की परिभाषा लगाकर बताओ? __ उत्तर-राग, बोलना, मुंह खुलना स्वय स्वत ज्ञानरूप परिणमित ना हो, परन्तु ज्ञान की उत्पत्ति मे अनुकूल होने का जिस पर आरोप आ सके / उस राग, बोलना, मुंह खुलने को निमित्त कारण कहते हैं। A. प्रश्न २-मैं मुंह से बोला-इस वाक्य पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की परिभाषा लगाकर बताओ? उत्तर-जब भाषा वर्गणा स्वय स्वत बोलने रूप परिणमित होता है तब जान, राग और मुंह भावरूप किस उचित निमित्त कारण का बोलने के साथ सम्बन्ध है। यह बतलाने के लिए बोलने के कार्य को नैमित्तिक कहते हैं / इस प्रकार ज्ञान, राग, मुंह और बोलने के भिन्नभिन्न पदार्थों के स्वतन्त्र सम्बन्ध को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं। ____B. प्रश्न २-ज्ञान, राग और बोलने के कारण मुंह खुला-इस वाक्य पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की परिभाषा लगाकर बताओ? उत्तर-जब मुंहरूप आहार वर्गणा स्वय स्वत मुंह खुलने रूप परिणमित होता है। तव ज्ञान, राग और बोलने के भावरूप किस उचित निमित्त कारण का मुह खुलने के साथ सम्बन्ध है / यह बतलाने के लिए मुह खुलने रूप, कार्य को नैमित्तिक कहते है। इस प्रकार ज्ञान, राग, बोलना, मुह खुलना रूप भिन्न-भिन्न पदार्थों के स्वतन्त्र सम्बन्ध को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं। C. प्रश्न २-~-ज्ञान, बोलने और मुंह खुलने के कारण राम हुमा
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________________ ( 178 ) इस वाक्य पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की परिभाषा लगाकर बताओ? उत्तर- जव आत्मा का चारित्र गुण स्वयं स्वत रागरूप परिणमित होता है तब ज्ञान, बोलना, मह सलने भावरूप किस उचित निमित्त चारणा का राग के साथ सम्बन्ध है। यह बतलाने के लिए रागस्प कार्य को नैमित्तिक कहते हैं। इस प्रकार ज्ञान, बोलना, मुह खुलना और राग के भिन्न-भिन्न पदार्थों के स्वतत्र सम्बन्ध को निमित्त नमित्तिक राग्बन्ध कहते हैं। D. प्रश्न २-राग, बोलना, मुंह खुलने के कारण ज्ञान हुआइस वाक्य पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की परिभाषा लगाकर समझाओ? उत्तर-जव आत्मा का ज्ञान, गुण स्वय स्वत ज्ञानरूप परिणमित होता है तव राग बोलना, मह खुलने भावरूप किस उचित निमित्त कारण'का ज्ञान के साथ सम्बन्ध है। यह बतलाने के लिये ज्ञानस्प कार्य' को नैमित्तिक कहते हैं। इस प्रकार राग, बोलना, मुह खुलना मोर ज्ञानरूप कार्य के भिन्न-भिन्न पदार्थों के स्वतन्य सम्बन्ध को निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं। . प्रश्न ३--मुझ आत्मा और मुंहरूप आहार वर्गणा उपादान कारण और बोलना उपादेय-क्या यह उपादान-उपादेय का ज्ञान ठीक है? * उत्तर-बिल्कुल ठीक नहीं है, क्योकि यहाँ पर भाषा वर्गणा त्रिकाली उपादानं कारण और वोलना कार्य उपादेय है। प्रश्न ३-मुझ आत्मा और बोलने रूप भाषा वर्गणा उपादान कारण और मुंह खुला उपादेय। क्या यह उपादान-उपादेय का जान ठीक है?
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________________ ( 176 ) उत्तर-बिल्कुल ठीक नहीं है, क्योकि यहाँ पर मुहरूप आहारवर्गणा त्रिकाली उपादान कारण और मुह खुला उपादेय है। C. प्रश्न ३-बोलने रूप भाषा वर्गणा और मुंह रूप आहारवर्गणा उपादान कारण और राग उपादेय / क्या यह उपादान-उपादेय का ज्ञान ठीक है? उत्तर-बिल्कुल ठीक नहीं है, क्योकि यहाँ पर आत्मा का चारित्र गुण त्रिकाली उपादान कारण और राग उपादेय है। ____D. प्रश्न ३-~-रागरूप चारित्र गुण, बोलने रूप भाषा वर्गणा, मुंहरूप आहार वर्गणा उपादान कारण और ज्ञान उपादेय। क्या यह उपादान-उपादेय का ज्ञान ठीक है? उत्तर-बिल्कुल ठीक नहीं हैं, क्योकि यहाँ पर आत्मा का ज्ञान गुण त्रिकाली उपादान कारण और ज्ञान उपादेय है। A. प्रश्न ४-यदि कोई चतुर मुझ आत्मा, मुंहरूप आहार वर्गणा उपादान कारण और बोलने रूप कार्य उपादेय। ऐसा ही माने तो क्या दोष माता है ? उत्तर-मुझ आत्मा, मुंहरूप आहार वर्गणा नष्ट होकर भाषा वर्गणा बन जावे तो ऐसा माना जा सकता है कि मुझ आत्मा, मुंहरूप आहारवर्गणा उपादान कारण और बोलने रूप कार्य उपादेय / लेकिन ऐसा नही हो सकता है, क्योकि उपादान-उपादेय अभिन्न सत्ता वाले पदार्थो मे ही होता है / आत्मा, मुंह-बोलना जिनकी सत्ता-सत्त्व भिन्नभिन्न है, ऐसे पदार्थों मे उपादान-उपादेय नही होता है। ____B. प्रश्न ४--यदि कोई चतुर मुझ आत्मा, बोलने रूप भाषा वर्गणा उपादान कारण और मुंह खुला उपादेय। ऐसा ही माने तो क्या दोष आता है? उत्तर-मुझ आत्मा, बोलने रूप भाषा वर्गणा नष्ट होकर मुंहरूप
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________________ ( 180 ) आहारवर्गणा बन जाये तो ऐसा माना जा सकता है कि मुझ आत्मा, बोलने रूप भाषावर्गणा, उपादान कारण और मुंह खुला उपादेय / लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है क्योकि उपादान-उपादेय अभिन्न सत्ता वाले पदार्थों में ही होता है। आत्मा, बोलना, मुंह खुला जिनकी सत्ता-सत्त्व भिन्न-भिन्न है, ऐसे पदार्थों मे उपादान-उपादेय नही होता है। _____C. प्रश्न ४-यदि कोई चतुर बोलने रूप भाषा वर्गणा, मुंह खुलने रूप आहारवर्गणा उपादान कारण और राग उपादेय। ऐसा ही माने क्या दोष आता है ? उत्तर-बोलने रूप भाषावर्गणा, मुंहरूप आहारवर्गणा नष्ट होकर आत्मा का चारित्र गुण वन जाये तो ऐसा माना जा सकता है कि बोलने रूप भाषावर्गणा, मुंहरूप आहारवर्गणा उपादान कारण और राग उपादेय / लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है, क्योकि उपादान-उपादेय अभिन्न सत्ता वाले पदार्थों मे ही होता है। बोलना, मुंह खुलना राग जिनकी सत्ता-सत्त्व भिन्न-भिन्न है। ऐसे पदार्थों मे उपादान-उपादेय नही होता है। ___D प्रश्न 4 यदि कोई चतुर रागल्प चारित्रगुण, बोलने रूप भाषावर्गणा, मुंहरूप आहार वर्गणा उपादान कारण और ज्ञान उपादेय। ऐसा ही माने तो क्या दोष आता है ? उत्तर-रागरूप चारित्र गुण, बोलने रूप भाषावर्गणा, मुंह रूप आहारवर्गणा नष्ट होकर आत्मा का ज्ञान गुण बन जावे तो ऐसा माना जा सकता है कि रागरूप चारित्रगुण, बोलने रूप भाषावर्गणा, महरूप आहार वर्गणा उपादान कारण और ज्ञान उपादेय। लेकिन ऐसा नही हो सकता है, क्योकि उपादान-उपादेय अभिन्न सत्ता वाले पदार्थो मे ही होता है। राग, बोलना, मुंह खुला, ज्ञान जिनकी सत्तासत्त्व भिन्न-भिन्न है। ऐसे पदार्थो मे उपादान-उपादेय नहा होता हैं।
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________________ ( 181 ) ___4 प्रश्न ५-जो आत्मा, मुह आदि निमित्त कारणो से ही बोलने आदि की उत्पत्ति मानते हैं। जिन्हें जिनवाणी मे किन-किन नामों से सम्बोधन किया है। उत्तर-जो आत्मा, मुंह आदि निमित्त कारणो से ही बोलने को उत्पत्ति मानते है। (1) उन्हे समयसार कलश 55 मे कहा है कि उनका सुलटना दुनिवार है और यह उनका अज्ञान मोह अन्धकार है। (2) उन्हे प्रवचनसार गाथा 55 मे कहा है कि वह पद-पद पर धोखा खाता है। (3) उन्हे पुरुषार्थ सिद्धियुपाय गाथा 6 मे कहा है कि "तस्य देशना नास्ति / " (4) उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि यह उनका 'हरामजादीपना' है। __B प्रश्न ५-जो आत्मा बोलने आदि निमित्त कारणों से ही मुंह खुलने रूप कार्य को उत्पत्ति मानते हैं। उन्हें जिनवाणो मे किन-किन नाम से सम्बोधन किया है ? उत्तर-जो आत्मा, बोलना आदि निमित कारणो से ही मुंह खुले रूप कार्य की उत्पत्ति मानते हैं। (1) उन्हे समयसार कलश 55 मे कहा है कि उनका सुलटना दुनिवार है और यह उनका अज्ञान मोह अन्धकार है / (2) उन्हे प्रवचनसार गाथा 55 मे कहा है कि वह पदपद पर धोखा खाता है। (3) उन्हे पुरुषार्थ सिद्धियुपाय गाथा 6 मे कहा है कि "तस्य देशना नास्ति / " (4) उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उनका हरामजादीपना है।" ___C. प्रश्न ५-जो बोलना, मह खुलना आदि निमित्त कारणों से ही “राग की उत्पत्ति मानते हैं। उन्हें जिनवाणी में किन-किन नामों से सम्बोधन किया है। उत्तर-जो बोलना, मुंह खुला आदि निमित्त कारणो से ही राग
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________________ ( 182 ) की उत्पत्ति मानते है / (1) उन्हे समयसार कलश 55 मे कहा है कि उनका सुलटना दुनिवार है और यह उनका अज्ञान मोह अन्धकार है। (2) उन्हे प्रवचनसार गाथा 55 मे कहा है कि वह पद-पद पर धोखा खाता है। (3) उन्हे पुरुषार्थ सिद्धियुपाय गाथा 6 मे कहा कि "तस्य देशना नास्ति।" (4) उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उनका हरामजादीपना है।" ____D. प्रश्न ५-जो राग, बोलना, मुंह खुलना आदि निमित्त कारणों से ही जान की उत्पत्ति मानते हैं उन्हे जिनवाणी में किन-किन नामों से सम्बोधन किया है ? उत्तर~जो राग, बोलना, मुह खुलना आदि निमित्त कारणो से ही ज्ञान की उत्पत्ति मानते है। (1) उन्हे समयसार कलश 55 मे कहा है कि उनका सुलटना दुनिवार है और यह उनका अज्ञान मोह अन्धकार है। (2) उन्हे प्रवचनसार गाथा 55 मे कहा है कि वह पदपद पर धोखा खाता है / (3) उन्हे पुरुषार्थ सिद्धियुपाय गाथा 6 मे कहा है कि "तस्य देशना नास्ति।" (4) उन्हे आत्मावलोकन मे कहा है कि यह उनका हरामजादीपना है। A. प्रश्न ६-भाषा वर्गणा त्रिकाली उपादान कारण और बोलने रूप कार्य उपादेय / इसको समभने से क्या-क्या लाभ हुआ ? .. उत्तर-आत्मा, मुंह आदि निमित्त कारणो से बोलने रूप कार्य हुआ-ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है / (2) बोलने रूप भाषा वर्गणा को छोडकर दूसरी वर्गणाओ से दृष्टि हट जाती है / (3) अब यहां पर बोलने रूप कार्य के लिए एक मात्र बोलने रूप भाषा वर्गणा की तरफ देखना रहा। B. प्रश्न ६-मुंह रूप आहार वर्गणा त्रिकाली उपादान कारण और मुंह खुला उपादेय / इसको समझने से क्या-क्या लाभ हुआ?
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________________ ( 183 ) उत्तर-(१) आत्मा, वोलना आदि निमित्त कारणो से मुंह खुला -ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है। (2) मुंह खुलने रूप आहार वर्गणा को छोडकर दूसरी वर्गणाओ से दृष्टि हट जाती है। (3) अब यहाँ पर मुंह खुलने रूप कार्य के लिए एक मात्र मुह खुनने रूप आहार वर्गणा की तरफ ही देखना रहा। C प्रश्न 6 -आत्मा का चारित्र गुण त्रिकाली उपादान फारम और राग उपादेय / इसको समझने से क्या-क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) बोलना, मुंह खुलना आदि निमित्त कारणो से राग हुआ-ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है। (2) आत्मा मे अनन्त गुण हैं। उनमे से चारित्र गुण को छोडकर बाकी गुणो से दृष्टि हट जाती है। (3) अब यहाँ पर राग के लिए एक मात्र आत्मा के चारित्र गुण की तरफ ही देखना रहा। D. प्रश्न ६-आत्मा का ज्ञान गुण त्रिकाली उपादान कारण और ज्ञान उपादेय। इसको समझने से क्या-क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) राग, बोलना, मुंह खुला आदि निमित्त कारणो से ज्ञान हुआ। ऐसी खोटी मान्यता का अभाव हो जाता है / (2) आत्मा मे अनन्त गुण है। उनमे से एक ज्ञान गुण को छोडकर बाकी दूसरे गुणो से दृष्टि हट जाती है। (3) अब यहाँ पर ज्ञान के लिए एकमात्र आत्मा के ज्ञान गुण की तरफ ही देखना रहा। 7 A. प्रश्न ७-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि आप कहते हो बोलने रूप कार्य का आत्मा, मुंह खुला आदि निमित्त कारणो से सर्वथा सम्बन्ध नहीं है तो विश्व मे भाषावर्गणा तो भरी पड़ी है, अब बोलने रूप कार्य क्यो नहीं होता है ? अत आपका ऐसा कहना कि भाषा वर्गणा उपादान कारण और बोलने रूप कार्य उपादेय-यह बात झूठी साबित होती है।
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________________ ( 184 ) उत्तर-अरे भाई हमने भाषा वर्गणा को बोलने रूप कार्य का उपादान कारण कहा है। वह तो आत्मा, मुंह खुला आदि निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से कहा है। वास्तव मे भाषा वर्गणा भी बोलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नही है। ___B. प्रश्न ७-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि आप कहते हो मुंह खुलने रूप कार्य का, आत्मा, बोलने आदि निमित्त कारणो से सर्वथा सम्बन्ध नहीं है तो विश्व मे आहार वर्गणा तो पहले से ही भरी पड़ी है। तब उन सब मे मुंह खुलने रूप कार्य क्यों नहीं होता है ? अतः आपका ऐसा कहना कि मुंह रूप आहार वर्गणा उपादान कारण ओर मुंह खुला उपादेय-यह आपकी बात झूठी सावित होती है। उत्तर--अरे भाई हमने मुह रूप आहार वर्गणा को मुंह खुलने रूप कार्य का उपादान कारण कहा है। वह तो आत्मा, वोलना आदि निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से कहा है। वास्तव मे मुंह रूप आहार वर्गणा भी मुंह खुलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। ____C. प्रश्न ७-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि आप कहते हो राग-रूप कार्य का, बोलना, मुंह खुला आदि निमित्त कारणो से सर्वथा सम्बन्ध नहीं है तो चारित्र गुण तो सिद्ध भगवान, अहंत भगवान आदि मे भी है / उनमे राग उत्पन्न क्यो नहीं होता है ? अत. आपको ऐसा कहना कि आत्मा का चारित्र गुण उपादान कारण और रागल्प कार्य उपादेय-यह आपकी बात झूठी साबित होती है ? उत्तर-अरे भाई हमने आत्मा के चारित्र गुण को राग रूप कार्य का उपादान कारण कहा है, वह तो बोलना मुंह खुला आदि निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से कहा है। वास्तव मे चारित्र गुण भी रागरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। D प्रश्न ७-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि आप कहते हो
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________________ ( 185) ज्ञानरूप कायं का राग, बोलना, मुंह खुला आदि निमित्त कारणो से सर्वया सम्बन्ध नहीं है। ज्ञानगुण तो सब आत्माओं के पास है। तो उन सबको, राग, बोलना, मुह खुला सम्बन्धी आदि का ज्ञान क्यों नहीं होता है। अतः आपका ऐसा कहना कि ज्ञानगुण उपादान कारण और राग, बोलना, मुंह खुलादि सम्बन्धी का ज्ञान उपादेय-यह आपकी बात झूठी साबित होती है ? उत्तर-अरे भाई हमने आत्मा के ज्ञानगुण को राग, बोलना, मुंह खुला आदि सम्बन्धी ज्ञानरूप कार्य का उपादान कारण कहा है। वह तो राग, बोलना, मुंह खुला आदि निमित्तकारणो से पृथक् करने की अपेक्षा से कहा है। वास्तव में आत्मा का ज्ञानगुण भी राग, बोलना,'मुह खुला आदि सम्बन्धी ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। A. प्रश्न ८-भाषा वर्गणा भी बोलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो यहां पर बोलने रूप कार्य का सच्चा उपावान कारण कौन है ? . ..उत्तर-भाषा वर्गणा मे अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। मानो दस नम्बर पर बोलने रूप कार्य बना तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण बोलने / रूप कार्य का यहाँ पर सच्चा उपादान कारण है। B. प्रश्न ५-मुह रूप आहार वर्गणा भी मुह खुलने रूप कार्य का . सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो यहां पर मुह खुलने रूप कार्य का ... सच्चा उपादान कारण कौन है ? . . उत्तर-मुंह रूप आहार वर्गणा में अनादिकाल पर्यायो का प्रवाह . / चला आ रहा है। मानो दस नम्बर पर मुंह खुलने रूप कार्य हुआ।
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________________ ( 186 ) तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण मुंह खुलने रूप कार्य का यहां पर सच्चा उपादान कारण है। C. प्रश्न -आत्मा का चारित्रगुण भी रागरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो यहाँ पर रागल्प कार्य का सच्चा उपादान कारण कौन है ? उत्तर-आत्मा के चारित्रगुण मे अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। मानो दस नम्बर पर रागरूप कार्य हुआ, तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण रागरूप कार्य का यहाँ पर सच्चा उपादान कारण है। D. प्रश्न ८-आत्मा का ज्ञानगुण भी ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो यहां पर ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण कौन है ? उत्तर-आत्मा के ज्ञान गुण मे अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। मानो दस नम्बर पर ज्ञानरूप कार्य हुआ तो उसमे अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नो नम्बर क्षणिक उपादान कारण ज्ञानरूप कार्य का यहाँ पर सच्चा उपादान कारण है। ___A प्रश्न ६-भाषा वर्गणा मे अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह क्यो चला आ रहा है ? उत्तर प्रत्येक द्रव्य-गुण अनादि अनन्त ध्रौव्य रहता हुआ एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय मे स्वय स्वत अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, करता है और भविष्य मे करता रहेगा-ऐसा वस्तु स्वरूप है। इसी कारण अनादिकाल से भाषा वर्गणा मे पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। B प्रश्न :-मुहरूप आहार वर्गणा में पर्यायो का प्रवाह क्यों चला आ रहा है?
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________________ ( 187 ) उत्तर-प्रत्येक द्रव्य-गुण अनादि अनन्त ध्रौव्य रहता हुआ एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय मे स्वय स्वतः अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, करता है और भविष्य मे करता रहेना-ऐसा वस्तु स्वरूप है। इसी कारण अनादिकाल से मुंह रूप आहार वर्गणा मे पर्यायो.का प्रवाह चला आ रहा ____C. प्रश्न -आत्मा के चारित्रगुण में अनादिकाल से पर्यायो का प्रवाह क्यो चला आ रहा है ? उत्तर–प्रत्येक द्रव्य-गुण अनादि अनन्त धौव्य रहता हुआ एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय मे स्वय स्वत अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, करता है और भविष्य मे करता रहेगा-ऐसा वस्तु स्वरूप है। इसी कारण अनादिकाल से आत्मा के चारित्र गुण मे पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। D. प्रश्न -आत्मा के ज्ञानगुण मे अनादिकाल से पर्यायों का प्रवाह क्यो चला आ रहा है ? उत्तर-प्रत्येक द्रव्य-गुण अनादि अनन्त धौव्य रहता हुआ एक पर्याय का व्यय और दूसरी पर्याय का उत्पाद एक ही समय मे स्वय स्वत अपने परिणमन स्वभाव के कारण करता रहा है, करता है और भविष्य मे करता रहेगा-ऐसा वस्तु स्वरूप है। इसी कारण अनादिकाल से आत्मा के ज्ञानगुण मे पर्यायो का प्रवाह चला आ रहा है। 10 A. प्रश्न १०-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और पोला उपादेय-इसको जानने-मानने से क्या-क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) भूत-भविष्य की पर्यायो से दृष्टि हट जाती है। (2) भाषावर्गणा जो त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी व्यवहार
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________________ ( 188 ) कारण हो गया। (3) अब यहाँ पर बोलने रूप कार्य के लिए मात्र अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना रहा। B. प्रश्न १०-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और मुह.खुला उपादेय। इसको जानने-मानने से क्या क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) भूत-भविष्य को पर्यायो से दृष्टि हट जाती है। (2) मुंहरूप अ हार वर्गणा जो त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी व्यवहार कारण हो गया। (3) अव यहाँ पर मुंह खुलारूप कार्य के लिए मात्र अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादानकारण की तरफ देखना रहा। C. प्रश्न १०-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और राग उपादेय। इसको जानने मानने से क्या-क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) भूत-भविष्य की पर्यायो से दृष्टि हट जाती है। (2) आत्मा का चारित्रगुण जो त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी व्यवहार कारण हो गया। (3) अब यहा पर राग के लिए मात्र अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना रहा। _D. प्रश्न १०-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उशदान कारण और ज्ञान उपादेय। इसको जानने-मानने से क्या-क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) भूत-भविष्य को पर्यायो से दृष्टि हट जाती है। (2) आत्मा का ज्ञानगुण जो त्रिकाली उपादान कारण था, वह भी व्यवहार कारण हो गया। (3) अब यहाँ पर ज्ञानरूप कार्य के लिए मात्र अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना रहा।
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________________ ( 186) 11 A. प्रश्न ११-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है और पर्याय में से पर्याय नहीं आती हैऐसा जिनवाणी में कहा है। फिर यह मानना कि-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और बोलने रूप कार्य उपादेय / यह आपको बात झूठी साबित होती है। उत्तर-अरे भाई ! अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती है-यह बात जिनवाणी की विल्कुल ठीक है। परन्तु हमने तो कार्य से पहिले कौनसी पर्याय होती है। उसकी अपेक्षा अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नो नम्बर को बोलने रूप कार्य का क्षणिक उपादान कारण कहा है। परन्तु अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी बोलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नही है। ____B. प्रश्न ११-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है और पर्याय में से पर्याय नहीं आती है। ऐसा जिनवाणों में कहा है / फिर यह मानना कि अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और मुंह खुला उपादेय / यह आपनी बात झूठी साबित होती है ? उत्तर-अरे भाई / अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती है-यह बात जिनवाणी की विल्कुल ठीक है। परन्तु हमने तो कार्य मे पहिले कौनसी पर्याय होती है। उसकी अपेक्षा अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर को मुंह खुलने रूप कार्य का क्षणिक उपादान कारण कहा है। परन्तु अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी मुंह खुलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है।
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________________ ठीक है। परन्त पर्याय नहीं गाव मे से भाव क ( 190 ) C. प्रश्न ११-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है और पर्याय मे से पर्याय नहीं आती है। ऐसा जिनवाणी में कहा है। फिर यह मानना कि अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और रागरूप कार्य उपादेय। यह आपकी बात झूठी साबित होती है ? उत्तर-अरे भाई | अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय में से पर्याय नही आती है यह बात जिनवाणी की बिल्कुल ठोक है। परन्तु मने तो कार्य से पहिले कौनसी पर्याय होती है। उसकी अपेक्षा अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर को रागरूप कार्य का क्षणिक उपादान कारण कहा है / परन्तु अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी रागरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। ____D प्रश्न ११-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है और पर्याय में से पर्याय नहीं आती है-ऐसा जिनवाणी मे कहा है। फिर यह मानना कि अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और ज्ञानरूप कार्य उपादेय / यह आपकी बात झूठी साबित होती है ? उत्तर-अरे भाई / अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नही होती है और पर्याय मे से पर्याय नही आती है-यह बात जिनवाणी की बिल्कुल ठीक है। परन्तु हमने तो कार्य से पहिले कौनसी पर्याय होती है। उसकी अपेक्षा अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर को ज्ञानरूप कार्य का क्षणिक उपादान कारण कहा है / परन्तु अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नही है। 12 A. प्रश्न १२-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी बोलने
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________________ ( 191 ) रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो कैसा कारण है और कैसा कारण नहीं है ? उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर बोलने रूप कार्य का अभावरूप कारण है। कालसूचक है परन्तु कार्य का जनक नही है। ___B. प्रश्न १२-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी मुंह खुलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो कैसा कारण है और कैसा कारण नहीं है ? उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर मुंह खुलने रूप कार्य का अभावरूप कारण है। कालसूचक है परन्तु कार्य का जनक नही है। ___C. प्रश्न १२--अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी रागरूप कार्य का सच्चा उपावान कारण नहीं है तो कैसा कारण है और कैसा कारण नहीं है ? उत्तर--अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्वर रागरूप कार्य का अभावरूप कारण है। काल सूचक है परन्तु कार्य का जनक नही है। D. प्रश्न १२--अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर भी ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है तो कैसा कारण है और कैसा कारण नहीं है ? उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर ज्ञान रूप कार्य का अभावरूप कारण है / काल सूचक है परन्तु कार्य का जनक नही 13 A. प्रश्न १३-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण भी बोलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं
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________________ ( 192 ) है तो वास्तव में बोलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण कौन है ? उत्तर-वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही बोलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है। ___B. प्रश्न १३-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण भी मुंह खुलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो वास्तव में मुंह खुलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण कौन है ? उत्तर-वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही मुंह खुलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है / C. प्रश्न १३-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण भी रागरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो वास्तव में रागरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण कौन है ? उत्तर-वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही रागरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है। D. प्रश्न १३--अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण भी ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण नहीं है। तो वास्तव में ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण कौन है ? उत्तर-वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है। 14 A. प्रश्न १४-वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही बोलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है। ऐसा जानने-मानने से क्या-क्या लाभ हुमा ? उत्तर-(१) बोलने स्प कार्य के लिए अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना नही रहा /
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________________ ( 163 ) (2) अव एकमात्र बोलने रूप कार्य के लिए उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादान कारण को तरफ देखना रहा। B. प्रश्न १४-वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही मुंह खुलने रूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है। ऐसा जानने-मानने से क्या-क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) मुंह खुलने रूप कार्य के लिए अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्वर की तरफ देखना नही रहा / (2) अब एक मात्र मुंह खुलने रूप कार्य के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण की तरफ ही देखना रहा / C. प्रश्न १४-वास्तव मे उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही रागरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है। ऐसा जानने-मानने से क्या-क्या लाभ हुआ? उत्तर-(१) रागरूप कार्य के लिए अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना नही रहा / (2) अब एकमात्र रागरूप कार्य के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण की तरफ ही देखना रहा। D. प्रश्न १४–वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही ज्ञानरूप कार्य का सच्चा उपादान कारण है। ऐसा जानने-मानने से क्या-क्या लाभ हुआ ? उत्तर-(१) ज्ञान रूप कार्य के लिए अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण की तरफ देखना नही रहा / (2) अव एकमात्र ज्ञान रूप कार्य के लिए उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण की तरफ ही देखना रहा। 15 A. प्रश्न 15--(1) भाषा वर्गणात्रिकाली उपादान कारण और बोला उपादेय। (2) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक
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________________ -- ( 194 ) उपादान कारण और बोला उपादेय। (3) बोला-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण और बोला उपादेय-ऐसा जिनवाणी मे आया है। परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगडा करने से क्या लाभ था। कह देते कि-बोला कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है ? / उत्तर-(१) निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से भाषावर्गणा त्रिकाली उपादान कारण को बताना आवश्यक था / (2) भूतभविष्य की पर्यायो से पृथक करने की अपेक्षा से और अभाव रूप कारण का ज्ञान कराने के लिए नौ नम्बर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण को वताना आवश्यक था। (3) नी नम्बर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण स पृथक् करने की अपेक्षा से और सच्चे कारण-कार्य का ज्ञान कराने के लिए बोलाउस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण का ज्ञान कराना आवश्यक था। इसलिये तीनो कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिये जिनवाणी मे इतना लम्वा-लम्वा करके समझाया है। ___B. प्रश्न १५-मुंहरूप आहार वर्गणा त्रिकाली उपादान कारण और मुंह खुला उपादेय / (2) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और मह खुला उपादेय / (3) मुंह खुला उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण और मुंह खुला उपादेय। ऐसा जिनवाणी में आया है। परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगडा करने से क्या-क्या लाभ या। कह देते कि मुंह खुला कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है ? उत्तर-(१) निमित्त कारणो से पृथक् करने की अपेक्षा से मुह रूप आहार वर्गणा त्रिकाली उपादान कारण को बताना आवश्यक था। (2) भूत-भविष्य की पर्यायो से पृथक करने की अपेक्षा से और अभाव रूप कारण का जान कराने के लिए नौ नम्बर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती 'पर्याय क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक था। (3) अनन्तर
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________________ ( 195 ) पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से पृथक करने की अपेक्षा से और सच्चे कारण-कार्य का ज्ञान कराने के लिये मुह खुला उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण का बताना आवश्यक था। इसलिये तीनो कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिये जिनवाणी मे इतना लम्बा-लम्बा करके समझाया है। C. प्रश्न 15-(1) आत्मा का चारित्र गुण त्रिकाली उपादान कारण और राग उपादेय। (2) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और राग उपादेय। (3) राग उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण और राग उपादेय-- ऐसा जिनवाणी में आया है। परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगडा करने से क्या लाभ था? कह देते कि राग कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है ? उत्तर-(१) निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से आत्मा का चारित्र गुण त्रिकाली उपादान कारण को बताना आवश्यक था। (2) भूत-भविष्य की पर्यायो से पृथक करने की अपेक्षा से और अभाव रूप कारण का ज्ञान कराने के लिए नौ नम्बर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण का बताना आवश्यक था। (3) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से पृथक् करने की अपेक्षा से और सच्चे कारण-कार्य का ज्ञान कराने के लिए राग उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण को वताना आवश्यक था। इसलिए तीनो कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिए जिनवाणी मे इतना लम्बा-लम्बा करके समझाया है। D. प्रश्न 15-(1) आत्मा का ज्ञान गुण त्रिकाली उपादान कारण और ज्ञान उपादेय। (2) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण और ज्ञान उपादेय। (3) ज्ञान उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादान कारण और ज्ञान उपादेयऐसा जिनवाणो मे आया है। परन्तु इतना लम्बा-लस्वा झगड़ा करने 44
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________________ ( 196 ) से क्या लाभ था ? कह देते कि ज्ञान कार्य-उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है ? उत्तर-(१) निमित्त कारणो से पृथक करने की अपेक्षा से आत्मा का ज्ञान गुण त्रिकाली उपादान कारण को वताना आवश्यक था। (2) भूत-भविष्य की पर्यायो से पृथक करने की अपेक्षा से और अभाव रूप कारण का ज्ञान कराने के लिए नौ नम्बर अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक था। (3) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर क्षणिक उपादान कारण से पृथक करने की अपेक्षा से और सच्चे कारण-कार्य का ज्ञान कराने के लिए ज्ञानउस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण को बताना आवश्यक था। इसलिए तीनो कारणो का सच्चा ज्ञान कराने के लिए जिनवाणी मे इतना लम्बा-लम्वा करके समझाया है। 16 A. प्रश्न १६-बोलने रूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है-इसको जानने-मानने से क्या लाभ हुआ? उत्तर-जैसे-बोलने रूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है, वैसे ही विश्व मे जितने भी कार्य है। वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके है, हो रहे है और भविष्य मे होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान हो जाता है। ___B. प्रश्न १६-मुह खुला-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है-इसको जानने-मानने से क्या लाभ हुआ? उत्तर- जैसे मुह खुला-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है, वैसे ही विश्व मे जितने भी कार्य हैं / वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके क्षणिक उस समय और भवि
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________________ ( 197 ) हैं हो रहे हैं और भविष्य मे होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान हो जाता है। C. प्रश्न १६-राग-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है-इसको जानने-मानने से क्या लाभ हुआ? उत्तर-जैसे राग-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है, वैसे ही विश्व मे जितने भी कार्य है / वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य मे होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान हो जाता है। ____D. प्रश्न १६-जान रूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है-इसको जानने-मानने से क्या लाभ हुआ ? उत्तर-जैसे ज्ञानरूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है, वैसे ही विश्व में जितने भी कार्य हैं। वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे है और भविष्य मे होते रहेगे। ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान हो जाता है। 17 ___A प्रश्न १७–बोलने रूप कार्य के समान विश्व मे जितने भी कार्य हैं वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य मे होते रहेगे-ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान होते ही क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने में आता है ? उत्तर-बोलने रूप कार्य के समान सब कार्य अपनी-अपनी योग्यता से ही होते है-ऐसा मानते ही (1) अनादिकाल की पर मे करूं-धरूं को खोटी मान्यता का अभाव होना / (2) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना / (3) सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि होकर
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________________ ( 168 ) मोक्ष लक्ष्मी का नाथ बनना। (4) मिथ्यात्वादि ससार के पाँच कारणो का अभाव होना। (5) द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावरूप पच परावर्तन का अभाव होना / (6) पच परमेष्टियो मे गिनती होना। ___B. प्रश्न १७-मुंह खुलने रूप कार्य के समान विश्व मे जितने भी कार्य हैं। वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होते रहेगे-ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान होते ही क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने में आता है ? उत्तर-मुंह खुलने रूप कार्य के समान विश्व के सर्व कार्य अपनीअपनी योग्यता से ही होते हैं-~-ऐसा मानते हो (1) अनादिकाल की पर मे करूँ-धरूँ की खोटी मान्यता का अभाव होना / (2) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना। (3) सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि होकर मोक्ष लक्ष्मी का नाथ होना। (4) मिथ्यात्वादि ससार के पाँच कारणो का अभाव होना। (5) द्रव्य-क्षेत्र-काल भव-भावरूप पचपरावर्तन का अभाव होना। (6) पच परमेष्टियो मे गिनती होना। ___C. प्रश्न १७-रागरूप कार्य के समान विश्व में जितने भी कार्य है। वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होते रहेगे-ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान होते ही क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने में आता है ? उत्तर-रागरूप कार्य के समान विश्व के सर्व कार्य अपनी-अपनी योग्यता से ही होते है। ऐसा मानते ही (1) अनादिकाल की पर मे करूँ-धरूँ की खोटी मान्यता का अभाव होना / (2) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना / (3) सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि होकर मोक्ष लक्ष्मी का नाथ होना। (4) मिथ्यात्वादि ससार के पाँच कारणो का अभाव होना। (5) द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावरूप पच परावर्तन का अभाव होना / (६)पच परमेष्टियो मे गिनती होना।
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________________ ( 166 ) D. प्रश्न १७-ज्ञान रूप कार्य के समान विश्व मे जितने भी कार्य हैं। वे सब उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हो चुके हैं, हो रहे हैं और भविष्य में होते रहेगे-ऐसा केवली के समान सच्चा ज्ञान होते हो क्या-क्या कार्य देखने में आता है ? उत्तर-ज्ञानरूप कार्य के समान विश्व के सर्व कार्य अपनी-अपनी योग्यता से ही होते हैं--ऐसा मानते ही-(१) अनादिकाल की पर मे करूं-करूँ की खोटी मान्यता का अभाव होना। (2) दृष्टि अपने ज्ञायक स्वभाव पर आना / (3) सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि होकर मोक्ष लक्ष्मी का नाथ होना। (4) मिथ्यात्वादि समार के पाँच कारणो का अभाव होना। (5) द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भावरूप पच परावर्तन का अभाव होना। (6) पच परमेष्टियो मे गिनती होना। 18 A प्रश्न १८-बोलने रूप कार्य के समान विश्व मे प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है। तब कौन-कौन सी चार बातें एक ही साथ एक ही समय मे नियम से होती हैं ? उत्तर-(१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण बोलने रूप कार्य (उत्पाद) (2) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण बोलने रूप कार्य से अनन्तर पूर्व पर्याय (व्यय) (3) त्रिकाली उपादान कारण भाषा वर्गणा (ध्रौव्य) (4) ज्ञान, राग, मुंह (निमित्त कारण)। जैसे बोलने रूप काय मे चार वाते एक साथ एक ही समय मे होती हैं उसी प्रकार य चार वाते-प्रत्येक कार्य मे एक ही साथ एक ही काल मे नियम से होती है। [प्रवचनसार गाथा टीका 65) B. प्रश्न १८-मुह खुलने कार्य के समान विश्व मे प्रत्येक
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________________ ( 200 ) उसमय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है। तब कौन-कौन सी चार वातें एक ही साथ एक ही समय मे नियम से होती हैं? उत्तर-(१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण मुंह खुलनेम्प कार्य (उत्पाद) (2) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण मुंह खुलनेस्प कार्य से अनन्तरपूर्व पर्याय (व्यय) (3) त्रिकाली उपादान कारण मुंहरूप आहार वर्गणा (ध्रौव्य) (4) जान, राग-बोलना (निमित्तकारण)। जैसे मुंह खुलनेरूप कार्य मे चार वाते एक साथ एक ही समय में होती हैं, उसी प्रकार ये चार बाते प्रत्येक कार्य में एक ही साय, एक ही काल में नियम से होती है। [प्रवचनसार गाथा टीका 65] C. प्रश्न १८~रागस्प कार्य के समान विश्व में प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय की योग्यताक्षणिक उपादान कारण से ही होता है / तब कौन-कौन सी चार बातें एक ही साथ एक ही समय में नियम से होती हैं? उत्तर-(१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण रागरूप कार्य (उत्पाद) (2) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण रागरूप कार्य से अनन्तरपूर्व पर्याय (व्यय) (3) त्रिकाली उपादानकारण आत्मा का चारित्र गुण / (ध्रौव्य) (4) बोलना, मुंह खुला, ज्ञान, निमित्तकारण / जैसे रागरूप कार्य मे चार बाते एक साथ एक ही काल मे होती है, उसी प्रकार ये चारो वाते प्रत्येक कार्य मे एक ही साथ एक ही काल मे नियम से होती हैं। [प्रवचनसार गाथा टीका 65] D प्रश्न १८-ज्ञान रूप कार्य के समान विश्व में प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है। तब कौन-कौन सी चार बातें एक ही साथ एक ही समय में नियम से होती है ?
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________________ ( 201 ) उत्तर-(१) उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादानकारण ज्ञानरूप कार्य (उत्पाद) (2) अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय क्षणिक उपादान कारण रागरूप कार्य से अनन्तरपूर्व पर्याय का (व्यय) (3) त्रिकाली उपादान कारण आत्मा का ज्ञान गुण (ध्रौव्य) (4) राग-मुंह-बोलना (निमित्तकारण)। जैसे ज्ञानरूप कार्य मे चार वाते एक ही साथ एक ही समय मे होती हैं, उसी प्रकार ये चारो वातें प्रत्येक कार्य मे एक ही साथ एक ही काल मे नियम से होती हैं। [प्रवचनसार गाथा टीका 65] 19 A. प्रश्न १६-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही बोलने रूप कार्य की उत्पत्ति होती है। क्या यह निरपेक्ष है ? उत्तर-हाँ, बोलने रूप कार्य स्वय पर की अपेक्षा नही रखता है इसलिये निरपेक्ष है। और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिये सापेक्ष है। पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिए। फिर जो कार्य हुआ-उसका अभावरूप कारण कौन है, त्रिकाली कारण कौन है और निमित्तकारण कौन है। इन बातो का ज्ञान करना चाहिए। क्योकि प्रत्येक कार्य के समय चारो बातें नियम से होती है। B. प्रश्न १६-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही मुंह खोलने रूप कार्य की उत्पत्ति होती है। क्या यह निरपेक्ष है ? उत्तर-हाँ, मुंहरूप कार्य स्वय पर की अपेक्षा नही रखता है इसलिये निरपेक्ष है और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिये सापेक्ष है। पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिए। फिर जो कार्य हुआ-उसका अभावरूप कारण कौन है, त्रिकाली कारण कौन / और निमित्त कारण कौन है। इन बातो का ज्ञान करना चाहिए। क्योकि प्रत्येक कार्य के समय चारो बाते नियम से होती है।
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________________ ( 202 ) C. प्रश्न १६-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही रागस्प कार्य की उत्पत्ति होती है। क्या यह निरपेक्ष है ? उत्तर-हाँ, रागत्प कार्य स्वय पर की अपेक्षा नहीं रखता है इसलिए निरपेक्ष है और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिए सापेक्ष है। पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष मिद्धि करनी चाहिए फिर जो कार्य हुआ-उसका अभावस्प कारण कौन है, त्रिकाली कारण कौन है और निमित्त कारण कीन है। इन बातो का ज्ञान करना चाहिए क्योकि प्रत्येक कार्य के समय चारो वाते नियम में होती है। D प्रश्न १६-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही ज्ञानरुप कार्य को उत्पत्ति होती है। क्या यह निरपेक्ष है। उत्तर- हाँ, ज्ञानम्प कार्य स्वय पर की अपेक्षा नही रखता है इसलिये निरपेक्ष है और अपनी अपेक्षा रखता है इसलिये सापेक्ष है। पात्र भव्य जीवो को प्रथम निरपेक्ष सिद्धि करनी चाहिए। फिर जो कार्य हुआ-उसका अभावरूप कारण कीन है, त्रिकाली कारण कौन है और निमित्त कारण कोन है। इन वातो का ज्ञान करना चाहिए, क्योकि प्रत्येक कार्य के समय चारो वाते नियम से होती है। 20 A. प्रश्न २०-बोलनेरूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही हुआ है। ऐसा जानने-मानने से बोलने रूप कार्य के लिए किस-किस कारण पर दृष्टि नहीं जाती है ? उत्तर-(१) आत्मा का ज्ञान, राग, मुंहखुला। (2) भाषा वर्गणा / (3) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर क्षणिक उपादान कारण। ___B प्रश्न २०-मुंह खुलने रूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही हुआ है। ऐसा जानने-मानने से मुह / खुलनेरूप कार्य के लिए किस-किस कारण पर दृष्टि नहीं जाती है ?
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________________ ( 203 ) उत्तर-(१) आत्मा का ज्ञान, राग, बोलना। (2) मुंहरूप र वर्गणा / (3) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक दान कारण। C. प्रश्न २०-रागरूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता णिक उपादान कारण से ही हुआ है। ऐसा जानने-मानने से रागरूप कार्य के लिए किस किस कारण पर दृष्टि नहीं जाती है ? उत्तर-(१) आत्मा का ज्ञान, बोलना, मुंह खुला। (2) आत्मा का चारित्र गुण / (3) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण। D. प्रश्न २०-ज्ञानरूप कार्य-उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही हुआ है। ऐसा जानने-मानने से ज्ञानरूप कार्य के लिए किस-किस कारण पर दृष्टि नहीं जाती है ? उत्तर-(१) राग, मुह खुलना, बोलना। (2) आत्मा का ज्ञानगुण। (3) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण। PAP 21 FP " A. प्रश्न २१-आत्मा का ज्ञान कारण और बोलना कार्य / "कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ? मा उत्तर-भाषा वर्गणा मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से बोलनेरूप कार्य हआ है आत्मा के ज्ञान से 26 नहा हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और बोलनेरूप कार्य आत्मा के ज्ञान से हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। B..प्रश्न २१-आत्मा का ज्ञान कारण और मुह खुला कार्य / कारणानुविधायीनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ?
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________________ ( 204 ) उत्तर-मुहस्प आहार वर्गणा मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय ना नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से मुंह खुला है आत्मा के ज्ञान से नही खुला है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना / और आत्मा के ज्ञान के कारण मुंह खुला है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को नहीं माना। _____C. प्रश्न २१-आत्मा का ज्ञान कारण और राग कार्य / कारणानु'विधायोनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना ? उत्तर-आत्मा के चारित्रगुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से राग हुआ है, आत्मा के ज्ञान के कारण राग नही हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना / और आत्मा के ज्ञान के कारण राग हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। D. प्रश्न २१-राग कारण और ज्ञान कार्य कारणानुविधायीनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना? उत्तर-आत्मा के ज्ञानगुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय का योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ज्ञान हा है राग के कारण ज्ञान नही हुआ है तो कारणानुविधायिनी कार्याणि को माना। और राग के कारण ज्ञान हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नहीं माना। 22 A. प्रश्न २२-राग कारण और बोलना कार्य / कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना? उत्तर-भापा वर्गणा मे से अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नी नम्बर
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________________ ( 205 ) क्षणिक उपादान कारण को अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से वोलने रूप कार्य हुआ है राग के कारण नही हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना और राग के कारण बोलनेरूप कार्य हुआ ऐसी मान्यता वाले कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। B. प्रश्न २२-राग कारण और मुह खुला कार्य / कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर-मुंहरूप आहारवर्गणा मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से मुंह खुलने रूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना / और राग के कारण मुह खुला है तो ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। C. प्रश्न २२-बोलना कारण और राग कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर-आत्मा के चारित्र गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर का अभाव करके उस समय पर्याय को योग्यता क्षणिक उपादान कारण से रागरूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना / और बोलने के कारण रागरूप कार्य हुआ है ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। D प्रश्न २२-मुंह खुला कारण और ज्ञान कार्य। कारणातुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नही माना ? उत्तर-आत्मा के ज्ञान गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ज्ञान रूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और मुंह खुलने के कारण ज्ञान हुआ है-ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणिको नही माना।
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________________ ( 206 ) 23 A. प्रश्न २३-मुह खुला कारण और बोलना कार्य / कारणानुविधायीनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना? उत्तर-भापा वर्गणा मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से बोलने रूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और मुंह खुलने के कारण बोलनेरूप कार्य हुआ है-ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायोनि कार्याणि को नही माना। ____B प्रश्न २३--बोलना कारण और मुंह खुला कार्य / कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना? उत्तर--मुंहरूप आहार वर्गणा मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से मुंह खुलने रूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना। और बोलने रूप कार्य के कारण मुह खुला है तो ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नहीं माना। प्रश्न २३-मुह खुला कारण और राग कार्य / कारणानुविधायोनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना? उत्तर-आत्मा के चारित्र गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से रागरूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना है। और मुंह खुलने के कारण रागरूप कार्य हुआ है ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नहीं माना है। D प्रश्न २३-बोलना कारण और ज्ञान कार्य / कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ?
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________________ ( 207 ) उत्तर-आत्मा के ज्ञान गुण मे से अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ज्ञान हुआ है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना। और बोलने रूप कार्य के कारण ज्ञान रूप कार्य हुआ है ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना है। 24 A प्रश्न २४-भाषा वर्गणा कारण और बोलना कार्य / कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से वोलने रूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना। और भाषा वर्गणा के कारण बोलने रूप कार्य हुआ हैऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायोनि कार्याणि को नहीं माना। ___B. प्रश्न २४---मुहरूप आहार वर्गणा कारण और मुह खुला कार्य। कारणानुविधायीनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना? उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान काण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से मुंह खुलने रूप कार्य हुआ है मुंह रूप आहार वर्गणा से नहीं हुआ है तो कारणानुविधायोनि कार्याणि को माना है / और मुह रूप आहार वर्गणा के कारण मुह खुलने रूप कार्य हुआ है-ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। C प्रश्न २४--आत्मा का चारित्र गुण कारण और राग कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान
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________________ ( 208 ) कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से राग रूप कार्य हुआ है आत्मा के चारित्र गुण के कारण नही हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और आत्मा के चारित्र गुण के कारण राग रूप कार्य हुआ है-ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। ___D. प्रश्न २४-आत्मा का ज्ञान गुण कारण और ज्ञान कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना ? उत्तर-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण का अभाव करके उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ज्ञान रूप कार्य हुआ है आत्मा के ज्ञान गुण के कारण नहीं हुआ तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना / और आत्मा के ज्ञान गुण के कारण ज्ञान रूप कार्य हुआ है-ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि का नही माना। 25 A. प्रश्न २५-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर कारण और बोलना कार्य / कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना? उत्तर-बोलना रूप कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है, अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से नही हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर से बोलने रुप कार्य हुआ ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नहीं माना। ___B. प्रश्न २५-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर कारण और मुह खुला कार्य। कारणानुविधायोनि कार्याणि को कब माना और कब नहीं माना?
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________________ ( 206 ) उत्तर--मुह खुला कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से नही हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना / और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से मुंह खुलने रूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। ____C. प्रश्न २५--अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर कारण और राग कार्य / कारणानुविधायीनि कार्याणि को कव माना और कब नहीं माना? उत्तर-रागरूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से नही हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना। और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से रागरूप कार्य हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। ___D. प्रश्न २५-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नो नम्बर कारण और ज्ञान कार्य / कारणातुविधायोनि कार्याणि को कब माना और फव नहीं माना? उत्तर-ज्ञान रूप कार्य-उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से हुआ है अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर के कारण नही हुआ है तो कारणानुविधायीनि कार्याणि को माना / और अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय नौ नम्बर क्षणिक उपादान कारण से ज्ञान रूप कार्य हुआ है तो ऐसी मान्यता वाले ने कारणानुविधायीनि कार्याणि को नही माना। प्रश्न २६-मैंने आँख से नृत्य देखा। इस वाक्य मे ज्ञान-राग आँख-नृत्य, चारो कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो?
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________________ ( 210 ) प्रश्न २७---मैने हाथ से पुस्तक उठाई। इस वाक्य में ज्ञान-राग हाय-पुस्तक, इन चारो कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न २८-मैने मुंह से पेड़ा खाया। इस वाक्य में ज्ञान-राग-मुंहपेड़ा, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न २६-मैंने नाक से फूल संघा। इस वाक्य में ज्ञान-राग-नाकफूल, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३०~मैंने कान से रेडियो सुना। इस वाक्य मे ज्ञान-रागकान-रेडियो, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३१-मैं कुर्सी से उठा-इस वाक्य मे ज्ञान-राग-कुर्सी-उठना, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३२-~मैं लकड़ी के सहारे चला-इस वाक्य मे ज्ञान रागलकडी-चला, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३३-कर्म के उदय से मुझे बुखार हो गया इस वाक्य मे ज्ञान-राग-कर्म का उदय-बुखार, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३४-ठडी हवा चलने के कारण मुझे बुखार हो गया इस वाक्य में ज्ञान-राग-ठडी हवा-बुखार, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३५--मेरे गले मे खांसी हो गई इस वाक्य में ज्ञान-रागगला-खांसी, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो?
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________________ ( 211 ) प्रश्न ३६-चक्कू से मेरी ऊंगली कट गई इस वाक्य में ज्ञानराग-चाकू-ऊगली कटना, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३७-मैंने चकला-बेलन आदि से रोटी बनाई इस वाक्य में ज्ञान-राग-चकला-बेलन-रोटी, इन पाँच कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ३८-मैंने मंजन से दांत साफ किये-इम वाक्य मे ज्ञानराग-मनन-दांत साफ, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? / प्रश्न ३६-मैं पाउडर लगाने से गोरा हो गया-इस वाक्य में ज्ञानराग-पाउडर-गोरा, इन चार कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? प्रश्न ४०-मैंने हाथ कलम से पुस्तक बनाई इस वाक्य मे ज्ञानराग-कलम-हाथ-पुस्तक, इन पाँच कार्यों पर प्रश्नोत्तर 1 से 25 तक के अनुसार उत्तर दो? श्रावक का आचरण रात्रि भोजन मे त्रस हिंसा होती है, इसलिए श्रावक को उसका त्याग होता ही है। इसी प्रकार अनछने पानी मे भी त्रस जीव होते है / शुद्ध और मोटे कपडे से छानने के पश्चात् ही श्रावक पानी पीता है / रात्रि को तो पानी पिये ही नही और दिन मे छान कर पियें। रात्रि को बस जीवो का सचार बहुत होता है। | इसलिए रात्रि मे खान-पान से बस जीवो की हिंसा होती है। जिसमे त्रस हिंसा होती है / ऐसे कार्य श्रावक के नहीं हो सकते / पूज्य श्रीकानजी स्वामी श्रावक धर्म प्रकाश 53-54 .
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________________ ( 212 ) नवमा अधिकार स्वतन्त्रता की घोषणा (चार बोलो से स्वतन्त्रता की घोषणा करता हुआ विशेष प्रवचन) पूज्य श्री कानजी स्वामी का प्रवचन समयसार-कलग 211 भगवान सर्वज्ञदेव का देखा हुआ वस्तु स्वभाव कैसा है, उसमें कर्ता-कर्मपना किस प्रकार है, वह अनेक प्रकार से दृष्टांत और युक्तिपूर्वक पुन पुनः समझाते हुये, उस स्वभाव के निर्णय में मोक्षमार्ग किस प्रकार आता है वह पूज्य गुरुदेव ने इन प्रवचनों मे बतलाया है। इनमें पुनः पुनः भेदज्ञान कराया है और वीतराग-मार्ग के रहस्यभूत स्वतन्त्रता की घोषणा करते हुए कहा है कि सर्वज्ञदेव द्वारा कहे हुए इस परम सत्य वीतराग-विज्ञान को जो समझेगा उसका अपूर्व कल्याण होगा। कर्ता-कर्म सम्बन्धी भेदज्ञान कराते हुए आचार्यदेव कहते है कि ननु परिणाम एव फिल कर्म विनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् / न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकल्या स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव तत // 21 // वस्तु स्वयं अपने परिणाम की कर्ता है, और अन्य के साथ उसका
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________________ ( 213 ) कर्ता-कर्म का सम्बन्ध नही है-इस सिद्धांत को आचार्यदेव ने चाय वोलो से स्पष्ट समझाया है - (1) परिणाम अर्थात पर्याय हो कर्म है-कार्य है। (2) परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी के ही होते हैं, अन्य के नही होते / क्योकि परिणाम अपने-अपने आश्रयभूत परिणाम (द्रव्य) के आश्रय से होते है / अन्य के परिणाम अन्य के आश्रय से नही होते। (3) कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, अर्थात् परिणाम वस्तु के बिना नहीं होते। (4) वस्तु को निरन्तर एक समान स्थिति नही रहतो, क्योंकि वस्तु द्रव्य-पर्याय स्वरूप है। इस प्रकार आत्मा और जड सभी वस्तुये स्वय ही अपने परिणामरूप कम की कर्ता है-ऐसा वस्तु स्वरूप का महान सिद्धात आचार्य देव ने समझाया है और उसी का यह प्रवचन है। इस प्रवचन मे अनेक प्रकार मे स्पष्टीकरण करते हुए गुरुदेव ने भेदज्ञान को पुन: पुन समझाया है। देखो, इसमे वस्तु स्वरूप को चार वोलो द्वारा समझाया है। इस जगत मे छह वस्तुये है आत्मा अनन्त है, पुद्गल परमाणु अनन्तानन्त हैं तथा धर्म, अधम, आकाश और काल-ऐसी छहो प्रकार की वस्तुये और उनके स्वरूप का वास्तविक नियम क्या है ? सिद्धान्त क्या है ? उसे यहा चार बोलो मे समझाया जा रहा है - (1) परिणाम हो कर्म है। प्रथम तो 'ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयत' अर्थात् परिणामी वस्तु के जो परिणाम है वही निश्चय से उसका कर्म है / कर्म अर्थात् कार्य, परिणाम अर्थात् अवस्था; पदार्थ की अवस्था ही वास्तव मे उसका कर्म-कार्य है। परिणामी अर्थात अखण्ड वस्तु; वह जिस
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________________ ( 214 ) भाव से परिणमन करे उसको परिणाम कहते हैं / परिणाम कहो कार्य कहो, पर्याय कहो या कर्म कहो-वह वस्तु के परिणाम ही हैं। जैसे कि-आत्मा ज्ञानगुणस्वरूप है; उसका परिणमन होने से जानने की पर्याय हुई वह उसका कर्म है, वह उसका वर्तमान कार्य है। राग या शरीर वह कोई ज्ञान का कार्य नही, परन्तु 'यह राग है, यह शरीर है, ऐसा उन्हे जानने वाला जो ज्ञान है वह आत्मा का कार्य है। आत्मा के परिणाम वह आत्मा का कार्य है और जड के परिणाम अर्थात जड की अवस्था वह जड का कार्य है। इस प्रकार एक वोल पूर्ण हुआ। (2) परिणाम वस्तुका ही होता है, दूसरे का नहीं। अब, इस दूसरे बोल मे कहते हैं कि-जो परिणाम होता है वह परिणामी पदार्थ का ही होता है, परिणाम किसी अन्य के आश्रय से नही होता। जिस प्रकार श्रवण के समय जो ज्ञान होता है वह कार्य है-कर्म है / वह किसका कार्य है ? वह कही शब्दो का कार्य नहीं है, परन्तु परिणामी वस्तु जो आत्मा है उसी का वह कार्य है। परिणामी के बिना परिणाम नहीं होता। आत्मा परिणामी है-उसके विना ज्ञान परिणाम नही होता-यह सिद्धात है। परन्तु वाणी के बिना ज्ञान नहीं होता-यह बात सच नही है। शब्दो के बिना ज्ञान नही होता-ऐसा नही, परन्तु आत्मा के बिना ज्ञान नही होता। इस प्रकार परिणामी के आश्रय से ही ज्ञानादि परिणाम है। देखो, यह महा सिद्धांत है, वस्तुस्वरूप का यह अबाधित नियम परिणामी के आश्रय' से ही उसके परिणाम होते हैं जाननेवाला मात्मा वह परिणामी है, उसके आश्रित ही ज्ञान होता है, वे ज्ञानपरिणाम आत्मा के हैं, वाणी के नहीं। वाणी के रजकणो के आश्रित ज्ञान नही होते, परन्तु ज्ञानस्वभावी आत्मावस्तु के आश्रय स
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________________ ( 215 ) वे परिणमन होते हैं / आत्मा त्रिकाल स्थित रहने वाला परिणामी है, वह स्वय रूपातर होकर नवीन-नवीन अवस्थाओ को धारण करता है। उसके ज्ञान-आनन्द इत्यादि जो वर्तमान भाव हैं वे उसके परिणाम हैं। _ 'परिणाम' परिणामी के ही हैं अन्य के नही-इसमे जगत के सभी पदार्थों का नियम आ जाता है। परिणाम परिणामी के ही आश्रित होते हैं, अन्य के आश्रित नही होते हैं। ज्ञान परिणाम आत्मा के आश्रित हैं, भाषा आदि अन्य के आश्रित ज्ञान के परिणाम नही है। इसलिये इसमे पर की ओर देखना नही रहता, परन्तु अपनी वस्तु के सामने देखकर स्वसन्मुख परिणमन करना रहता है उसमे मोक्ष मार्ग आ जाता है। __ वाणी तो अनन्त जड परमाणुओ की अवस्था है, वह अपने परमाणुओ के आश्रित है। बोलने कीजो इच्छा हुई उसके आश्रित भापा के परिणाम तीन काल मे नही हैं / जब इच्छा हुई और भाषा निकली उस समय उसका जो ज्ञान हुआ वह ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही हुआ है / भाषा के आश्रय से तथा इच्छा के आश्रय से ज्ञान नही हुआ है। परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी के ही होते है, अन्य के आश्रय से नही होते-~-इस प्रकार अस्ति-नास्ति से अनेकान्त द्वारा वस्तुस्वरूप समझाया है / सत्य के सिद्धांत की अर्थात् वस्तु सतस्वरूप यह बात है, उसको पहिचाने विना मृढतापूर्वक अज्ञानता मे ही जीवन पूर्ण कर डालता है / परन्तु भाई / आत्मा क्या ? जड क्या ? उसकी भिन्नता समझकर वस्तुस्वरूप के वास्तविक सत् को समझे बिना ज्ञान मे सतपना नही आता, अर्थात् सम्यग्ज्ञान नही होता, वस्तुस्वरूप के सत्यज्ञान के बिना रुचि और श्रद्धा मी नही होती, और सच्ची श्रद्धा के बिना वस्तु मे स्थिरता रूप चारित्र प्रगट नही होता, शान्ति नही होती समाधान और सुख नही होता। इसलिये वस्तुस्वरूप क्या है उसे प्रथम
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________________ ( 216 ) समझना चाहिये / वस्तुस्वरूप को समझने से मेरे परिणाम पर से और पर के परिणाम मुझसे-ऐसी पराश्रित बुद्धि नहीं रहती अर्थात् स्वाश्रित-स्वसन्मुख परिणाम प्रगट होता है, यही धर्म है। __ आत्मा को जो ज्ञान होता है उसको जानने के परिणाम आत्मा के आश्रित है, वे परिणाम वाणी के आश्रय से नहीं हुए है, कान के आश्रय से नहीं हुए है, तथा उस समय की इच्छा के आश्रय से भी नही हुए हैं। यद्यपि इच्छा भी आत्मा के परिणाम हैं, परन्तु उन परिणामो के आश्रित ज्ञान परिणाम नहीं है, ज्ञान परिणाम आत्मवस्तु के आश्रित हैं -इसलिये वस्तु सन्मुख दृष्टि कर। बोलने की इच्छा हो, होठ हिले, भापा निकले ओर उस समय उस प्रकार का ज्ञान हो--ऐसी चारो क्रियाये एक साथ होते हुए भी कोई क्रिया किसी के आश्रित नही, सभी अपने-अपने परिणामी के ही आश्रित है / इच्छा बह आत्मा के चारित्रगुण के परिणाम हैं, होठ हिले वह होठ के रजकणो की अवस्था है, वह अवस्था इच्छा के आधार से नहीं हुई। भाषा प्रगट हो वह भापावर्गणा के रजकणो की अवस्था है वह अवस्था इच्छा के आश्रित या होठ के आश्रित नहीं हुई, परन्तु परिणामी ऐने रजकणो के आश्रय से वह भापा उत्पन्न हुई है और उस समय का ज्ञान आत्मवस्तु के आश्रित है, इच्छा अथवा भाषा के आश्रित नहीं है, ऐसा वस्तुस्वरूप है / भाई, तीन काल तीन लोक मे सर्वज्ञ भगवान का देखा हुआ यह वस्तुस्वभाव है, उसे जाने बिना और समझने की परवाह बिना अन्धे की भाति चला जाता है, परन्तु वस्तुस्वरूप के सच्चे ज्ञान के बिना किसी प्रकार कही भी कल्याण नही हो सकता। इस वस्तुस्वरूप को बारम्बार लक्ष मे लेकर परिणामो मे भेदज्ञान करने के लिए यह बात है। एक वस्तु के परिणाम अन्य वस्तु के आश्रित तो है नही, परन्तु उस वस्तु मे भी उसके एक परिणाम के आश्रित दूसरे परिणाम नही
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________________ ( 217 ) है। परिणामी वस्तु के आश्रित ही परिणाम है। यह महान सिद्धात प्रतिक्षण इच्छा, भाषा और ज्ञान यह तीनो एक साथ होते हुए भी इच्छा और ज्ञान जीव के आश्रित है और भापा वह जड के आश्रित हैं, इच्छा के कारण भापा हुई और भाषा के कारण ज्ञान हुआ-ऐसा नही, उसी प्रकार इच्छा के आश्रित ज्ञान भी नही। इच्छा और ज्ञान यह दोनो है तो आत्मा के परिणाम तथापि एक के आश्रित दूसरे के परिणाम नहीं है। ज्ञान परिणाम और इच्छा परिणाम दोनो भिन्नभिन्न है / जान वह इच्छा का कार्य नही है और इच्छा वह ज्ञान का कार्य नहीं है। जहा ज्ञान का कार्य इच्छा भी नही वहा जड भाषा आदि तो उसका कार्य कहा से हो सकता है ? वह तो जड का कार्य है। ___ जगत मे जो भी कार्य होते हैं वह सत् की अवस्था होती है, किसी वस्तु के परिणाम होते है, परन्तु वस्तु के विना अधर से परिणाम नही होते। परिणामी का परिणाम होता है, नित्य स्थित वस्तु के आश्रित परिणाम होते है, पर के आश्रित नहीं होते। परमाणु मे होठो का हिलना और भापा का परिणमन-यह दोनो भी भिन्न वस्तु है। आत्मा मे इच्छा और ज्ञान-यह दोनो परिणाम भी भिन्न-भिन्न है। होठ हिलने के आश्रित भापा की पर्याय नही है / होठ का हिलना वह होठ के पुदगलो के आश्रित है, भाषा का परिणमन वह भापा के पुद्गलो के आश्रित है। होठ और भापा, इच्छा और ज्ञान-इन चारो का काल एक होने पर भी चारो परिणाम अलग हैं। उसमे भी इच्छा और ज्ञान-यह दोनो परिणाम आत्माश्रित होने पर भी इच्छा परिणाम के आश्रित ज्ञान परिणाम नही है। ज्ञान वह आत्मा का परिणाम है, इच्छा का नहीं, इसी प्रकार इच्छा वह आत्मा का परिणाम है, ज्ञान का नही। इच्छा को जानने वाला ज्ञान वह
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________________ ( 218 ) 'इच्छा का कार्य नहीं है, उसी प्रकार वह ज्ञान इच्छा को उत्पन्न नहीं करता, इच्छा-परिणाम आत्मा का कार्य अवश्य है परन्तु ज्ञान का कार्य नहीं / भिन्न-भिन्न गुण के परिणाम भिन्न-भिन्न हैं, एक ही द्रव्य मे होने पर भी एक गुण के आश्रित दूसरे गुण के परिणाम नही कितनी स्वतन्त्रता / / और इसमे पर के आश्रय की तो बात ही कहा रही ? - आत्मा में चारिनगुण इत्यादि अनन्त गुण है, उनमे चारित्र के 'विकृत परिणाम सो इच्छा है, वह चारित्रगुण के आश्रित है, और उस समय इच्छा का ज्ञान हुआ वह ज्ञानगुण रूप परिणामी के परिणाम हैं, वह कही इच्छा के परिणाम के आश्रित नहीं है। इस प्रकार इच्छा परिणाम और ज्ञान परिणाम दोनो का भिन्न परिणमन है, एक-दूसरे के आश्रित नहीं है। सत् जैसा है उसी प्रकार उसका ज्ञान करे तो सत् ज्ञान हो और सत् का ज्ञान करे तो उसका वहुमान एव यथार्थ का आदर प्रगट हो, रुचि हो, श्रद्धा दृढ हो और उसमे स्थिरता हो, उसे धर्म कहा जाता है / सत् से विपरीत ज्ञान करे उसे धर्म नहीं होता / स्व मे स्थिरता ही मूलधर्म है, परन्तु वस्तुस्वरूप के सच्चे ज्ञान विना स्थिरता कहाँ करेगा? आत्मा और शरीरादि रजकण भिन्न-भिन्न तत्व हैं; शरीर की अवस्था, हलन-चलन-बोलना, वह उसके परिणामी पुद्गलोका परिणाम है, उन पुद्गलो के आश्रित वह परिणाम उत्पन्न हुये हैं, इच्छा के आश्रित नही; उसी प्रकार इच्छा के आश्रित ज्ञान भी नहीं है / पुद्गल के परिणाम आत्मा के आश्रित मानना, और आत्मा के परिणाम पुद्गलाश्रित मानना, उसमे तो विपरीत मान्यता रूप मूढता है / जगत मे भी जो वस्तु जैसी हो उससे विपरीत बतलाने वाले को लोग मूर्ख कहते हैं, तो फिर सर्वज्ञ कथित यह लोकोत्तर वस्तु स्वभाव
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________________ ( 216 ) जैसा है वैसा न मानकर विरुद्ध माने तो लोकोत्तर मूर्ख और अविवेकी है, विवेकी और विलक्षण कब कहा जाय ? किसी वस्तु के जो परिणाम हुये उसे कार्य मानकर, उसे परिणामी-वस्तु के आश्रित समझे और दूसरे के आश्रित न माने, तब स्व-पर का भेद ज्ञान होता है और तभी विवेकी है ऐसा कहने मे आता है। आत्मा के परिणाम पर के आश्रय नही होते / विकारी और अविकारी जो भी परिणाम जिस वस्तु के हैं वह उसी वस्तु के आश्रित है, अन्य के आश्रित नही। पदार्थ के परिणाम वही उसका कार्य है-यह एक बात, दूसरी वात यह कि वह परिणाम उसी वस्तु के आश्रय मे होते हैं, अन्य के आश्रय से नहीं होते। --यह नियम जगत के समस्त पदार्थो मे लागू होते हैं। देखो भाई / यह भेद ज्ञान के लिए वस्तु स्वभाव के नियम बतलाये गये हैं। धीरे-धीरे दृष्टात से युक्ति से वस्तु स्वरूप सिद्ध किया जाता किसी को ऐसे भाव उत्पन्न हुये कि सौ रुपये दान मे दं, उसके वह परिणाम आत्म वस्तु के बाश्रित हुये हैं, वहाँ रुपये जाने की जो क्रिया होती है वह रुपये के रजकणो के आश्रित हैं, जोव की इच्छा के आश्रित नही / अब उस समय उन रुपयो की क्रिया का ज्ञान, अथवा इच्छा के भाव का ज्ञान होता है वह ज्ञान परिणाम आत्माश्रित हुआ है-इस प्रकार परिणामो का विभाजन करके वस्तु स्वरूप का ज्ञान करना चाहिये। ___ भाई, तेरा ज्ञान और तेरी इच्छा, यह दोनो परिणाम आत्मा मे होते हुये भी वे एक दूसरे के आश्रित नहीं है, तो फिर पर के आश्रय की तो बात ही कहाँ रही ? दान की इच्छा हुई और रुपये दिये गये, वहा रुपये जाने की क्रिया भी हाथ के आश्रित नही, हाथ का हिलना इच्छा के आश्रित नही, और इच्छा का परिणमन वह ज्ञान के आश्रित नही है सभी अपने-अपने आश्रयभूत वस्तु के आधार से है।
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________________ ( 220 ) देवो, यह सर्वन के विज्ञान पाठ है, ऐसा वस्तु स्वत्प का ज्ञान सच्चा पदार्थ विज्ञान है / जगत के पदार्यों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे सदा एक रूप नहीं रहते, परन्तु परिणमन करके नवीन नवीन अवस्था रूप नार्य किया करते है, ---यह वात चौथे वोल में कही जायेगी। जगन के पदायों का स्वभाव ऐसा है कि वह नित्य स्थायी रहे और उसमे प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्था रूप कार्य उसके अपने आश्रित हुआ करे / वस्तु स्वभाव का ऐसा जान ही सम्यग्ज्ञान है। जीव को उच्छा हुई इसलिये हाथ हिला और सी रुपये दिये गयेऐसा नहीं है। (1) इच्छा का आधार आत्मा है, हाथ और रुपयो का आधार परमाणु है / (2) रुपये जाने थे इसलिये इच्छा हुई ऐसा भी नहीं है। (3) हाथ का हलन-चलन वह हाथ के परमाणुओ के आधार से है। (4) स्पयो का आना-जाना वह रुपया के परमाणुओ के गवार से है। इन्छा का होना वह आत्मा के चारित्र गण के आधार से है। __यह तो भिन्न-भिन्न द्रव्य के परिणाम की भिन्नता की वात हुई, यहा तो उससे भी आगे अन्दर की बात लेना है। एक ही द्रव्य के अनेक परिणाम भी एक-दूसरे के आश्रित नही है-सा वतलाना है राग और ज्ञान दोनो के कार्य भिन्न है, एक-दूसरे के आश्रित नहीं है। किसी ने गाली दी और जीव को द्वप के पाप-परिणाम हुये, वहा वे पाप के परिणाम प्रतिकूलता के कारण नही हुये, आर गाली देने वाले के आश्रित भी नही हुये, परन्तु चारित्रगुण के आश्रित हुये है, चारित्रगुण ने उस समय उस परिणाम के अनुसार परिणमन किया है। अन्य तो निमित्तमात्र हैं। . अब ष के समय उसका ज्ञान हुआ कि 'मुझे यह द्वेष हुआ'यह ज्ञान परिणाम ज्ञानगुण के आश्रित है, क्रोध के आश्रित नहीं है। ज्ञानस्वभावी द्रव्य के आश्रित ज्ञान परिणाम होते है, अन्य के आश्रित नही होते। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन परिणाम, सम्यग्ज्ञान परिणाम,
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________________ ( 221 ) आनन्द परिणाम इत्यादि मे भी ऐसा ही समझना / यह ज्ञानादि परिणाम द्रव्य के आश्रित हैं, अन्य के आश्रित नही तथा परस्पर एक-दूसरे के आश्रित भी नहीं है। गाली के शब्द अथवा द्वेष के समय उसका भान हुआ, वह ज्ञान शब्दो के आश्रित नहीं है और क्रोध के आश्रित भी नही है, उस का आधार तो ज्ञानस्वभावी वस्तु है-इसलिए उनके ऊपर दृष्टि लगा तो तेरी पर्याय मे मोक्षमार्ग प्रगट हो, इस मोक्षमार्गरूपी कार्य का कर्ता भी तू ही है, अन्य कोई नही। ___अहो, यह तो सुगम और स्पष्ट बात है। लौकिक पढाई अधिक न की हो, तथापि यह समझ मे आ जाये ऐसा है। जरा अन्दर मे उतर कर लक्ष मे लेना चाहिये कि आत्मा अस्ति रूप है, उसमे अनन्त गुण हैं, ज्ञान है, आनन्द है, श्रद्धा है, अस्तित्व है इस प्रकार अनन्त गुण है। इस अनन्त गुणो के भिन्न-भिन्न अनन्त परिणाम प्रति समय होते है, उन सभी का आधार परिणामी ऐसा आत्मद्रव्य है, अन्य वस्तु तो उसका आधार नही है, परन्तु अपने मे दूसरे गुणो के परिणाम भी उसका आधार नही है, -जैसे कि श्रद्धा परिणाम का आधार ज्ञान परिणाम नही है और ज्ञान परिणाम का आधार श्रद्धा नही है, दोनो परिणामो का आधार आत्मा ही है। उसी प्रकार सर्व गूणो के परिणामो के लिये समझना / इस प्रकार परिणाम परिणामी का ही है, अन्य का नही। इस २११वे कलश मे आचार्यदेव द्वारा कहे गये वस्तुस्वरूप के चार बोलो मे से अभी दूसरे बोल का विवेचन चल रहा है। प्रथम तो कहा कि 'परिणाम एव किल कर्म' और फिर कहा कि 'स भवति परिणामिन एव, न अपरस्य भवेत्' परिणाम ही कर्म है, और यह परिणामी का ही होता है, अन्य का नही, --ऐसा निर्णय करके स्व-द्रव्य सन्मुख लक्ष जाने से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है। सम्यग्ज्ञान परिणाम हुये वह आत्मा का कर्म है, वह आत्मारूप
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________________ ( 222 ) परिणामी के आधार से हुए है। पूर्व के मन्दराग के आश्रय से अथवा वर्तमान मे शुभराग के आश्रय से वे सम्यग्दशन परिणाम नहीं हुए। यद्यपि राग भी है तो आत्मा का परिणाम, परन्तु श्रद्धा-परिणाम से राग परिणाम अन्य है, वे श्रद्धा के परिणाम राग के आश्रित नहीं हैं। क्योकि परिणाम परिणामी के ही आश्रय से होते है, अन्य के आश्रय से नहीं होते। उसी प्रकार चारित्र परिणाम मे-आत्मस्वरूप मे स्थिरता वह चारित्र का कार्य है, वह कार्य श्रद्धा परिणाम के आश्रित नही, ज्ञान के आश्रित नही, परन्तु चारित्रगुण धारण करने वाले आत्मा के ही आश्रित है / शरीरादि के आश्रय से चारित्र नहीं है / (1) श्रद्धा के परिणाम आत्मद्रव्य के आश्रित हैं; (2) ज्ञान के परिणाम आत्मद्रव्य के आश्रित हैं; (3) स्थिरता के परिणाम आत्मद्रव्य के आश्रित है। (4) आनन्द के परिणाम आत्मद्रव्य के आश्रित हैं। बस, मोक्ष मार्ग के सभी परिणाम स्व द्रव्याश्रित है, अन्य के आश्रित नहीं हैं, उस समय अन्य (रागादि) परिणाम होते हैं उनके आश्रित भी यह परिणाम नहीं है। एक समय मे श्रद्धा-ज्ञान-चारित्रा इत्यादि अनन्त गुणो के परिणाम वह धर्म, उनका आधार धर्मी अर्थात परिणमित होने वाली वस्तु है, उस समय अन्य जो अनेक परिणाम होते है उनके आधार से श्रद्धा इत्यादि के परिणाम नही हैं। निमितादि के आधार से तो नही है, परन्तु अपने दूसरे परिणाम के आधार से भो कोई परिणाम नहीं है। एक ही द्रव्य मे एक साथ होने वाले परिणाम मे भी एक परिणाम दूसरे परिणाम के आश्रित नही, द्रव्य के ही आश्रित सभी परिणाम हैं, सभी परिणामो रूप से परिणमन करने वाला द्रव्य ही है-अर्थात् द्रव्य सन्मुख लक्ष जाते ही सम्यक् पर्याये प्रगट होने लगती हैं।
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________________ ( 223 ) वाह / देखो, आचार्यदेव की शैली थोडे मे बहुत समा देने की है। चार बोलो के इस महान सिद्धात मे वस्तुस्वरूप के बहुत से नियमो का समावेश हो जाता है। यह त्रिकाल सत्य सर्वज्ञ द्वारा निश्चित किया हुआ सिद्धात है। अहो, यह परिणामी के परिणाम की स्वाधीनता, सर्वज्ञदेव द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप का तत्त्व, सन्तो ने इसका विस्तार करके आश्चर्यकारी कार्य किया है, पदार्थ का पृथक्करण करके भेदज्ञान कराया है। अन्दर मे इसका मन्थन करके देख तो मालूम हो कि अनन्त सर्वज्ञो तथा सन्तो ने ऐसा ही वस्तु स्वरूप कहा है और ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। ___ सर्वज्ञ भगवन्त दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा तत्त्व कहते आये हैं—ऐसा व्यवहार से कहा जाता है, दिव्यध्वनि तो परमाणुओ के आश्रित है। ___ कोई कहे कि अरे, दिव्यध्वनि भी परमाणु-आश्रित है ? हाँ, दिव्यध्वनि वह पुद्गल का परिणाम है, और पुद्गल परिणाम का आधार तो पुद्गल द्रव्य ही होता है, जोव उसका आधार नहीं हो सकता। भगवान का आत्मा तो अपने केवल ज्ञानादि का आधार है। भगवान आत्मा तो केवलज्ञान-दर्शन-सुख इत्यादि निज परिणामरूप परिणमन करता है, परन्तु कही देह और वाणीरूप अवस्था धारण करके भगवान का आत्मा परिणमित नहीं होता, उस रूप तो पुद्गल ही परिणमित होता है। परिणाम परिणामी के ही होते हैं, अन्य के नहीं। भगवान की सर्वज्ञता के आधार से दिव्यध्वनि के परिणाम हुएऐसा वस्तुस्वरूप नही है। भाषा परिणाम अनन्त पुद्गलाश्रित है, और सर्वज्ञता आदि परिणाम जीवाश्रित है, इस प्रकार दोनो की भिन्नता है। कोई किसी का कर्ता या आधार नही है। देखो, यह भगवान आत्मा की अपनी बात है / समझ मे नही आयेगी, ऐसा नही मानना; अन्दर लक्ष करे तो समझ मे आये-ऐसी सरल है। देखो, लक्ष मे लो कि अन्दर कोई वस्तु है या नही ? और यह जो जानने के या रागादि के भाव होते हैं इन भावों का कर्ता कौन
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________________ ( 224 ) है ? आत्मा स्वय उनका कर्ता है। इस प्रकार आत्मा को लक्ष मे लेने के लिए दूसरी पढाई की कहा आवश्यकता है ? दुनिया की वेगार करके दुखी होता है उसके वदले वस्तुस्वभाव को समझे तो कल्याण हो जाये / अरे जीव / ऐसे सुन्दर न्याय द्वारा सन्तो ने वस्तुस्वरूप समझाया है उने तू समझ / वस्तुस्वत्य के दो वोल हुए। अव तीसरा बोल - (3) कर्ता के बिना कर्म नहीं होता कर्ता अर्थात् परिणमित होने वाली वस्तु और कर्म अर्थात उसकी अवस्था रूप कार्य; कर्ता के बिना कर्म नहीं होता, अर्थात् वस्तु के विना पर्याय नहीं होती, सर्वथा गून्य मे मे कोई कार्य उत्पन्न हो जाये ऐसा नहीं होता। देखो, यह वस्तु विज्ञान के महान सिद्धांत है, इस २१श्वे कलश मे चार वोलो द्वारा नागे पक्षो से स्वतन्त्रता सिद्ध की है। विदेशो मे अजान की पढाई के पीछे हैरान होते है, उसकी अपेक्षा सर्वजदेव कथित इस परम सत्य वीतरागी विज्ञान को समझे तो अपूर्व कल्याण हो / (1) परिणाम सो कर्म , यह एक वात। (2) वह परिणाम किसका ?-कि परिणामी वस्तु का परिणाम है, दूसरे का नहीं। यह दूसरा बोल इसका बहुत विस्तार किया है। ___ अब इस तीसरे वोल मे कहते है कि-परिणामी के विना परिणाम 'नही होता। परिणामी वस्तु से भिन्न अन्यत्र कही परिणाम हो ऐसा नही होता। परिणामी वस्तु मे ही उसके परिणाम होते हैं, इसलिए पारणामी वस्तु वह कर्ता है, उसके विना कार्य नहीं होता। देखो, इसमे निमित्त के विना नही होता-ऐसा नहीं कहा। निमित्त निमित्त मे रहता है, वह, कही इस कार्य मे नही आ जाता, इसलिए निमित्त के विना कार्य है परन्तु परिणामी के विना कार्य नहीं होता। निमित्त भले
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________________ ( 225 ) हो, परन्तु उसका अस्तित्व तो निमित्त मे है, इसमे उसका अस्तित्व नही है। परिणामी वस्तु को सत्ता मे ही उसका कार्य होता है / आत्मा के बिना सम्यक्त्वादि परिणाम नही होते / अपने समस्त परिणामो का कर्ता आत्मा है, उसके विना कर्म नहीं होता। "कर्म कृत शून्य न भवति"-प्रत्येक पदार्थ की अवस्था उस-उस पदार्थ के विना नही होती। सोना नही है और गहने बन गये, वस्तु नही है और अवस्था हो गई-ऐसा नही हो सकता। अवस्था है वह त्रैकालिक वस्तु को प्रगट करती है-प्रसिद्ध करती है कि यह अवस्था इस वस्तु की है। ___ जैसे कि-जड कर्मरूप पुद्गल होते हैं, वे कर्म परिणाम कर्ता के विना नही होते / अब उनका कर्ता ?-तो कहते है कि-उस पुद्गल कर्मरूप परिणमित होने वाले रजकण ही कर्ता है, आत्मा उनका कर्ता नही है / (अ) आत्मा कर्ता होकर जड कर्म का बन्ध करे-ऐसा वस्तुस्वरूप मे नही है। (आ) जडकर्म आत्मा को विकार कराये-ऐसा वस्तुस्वरूप में नहीं है। (इ) मन्द कषायके परिणाम सम्यक्त्व का आधार हो-ऐसा वस्तुस्वरूप मे नही है। (ई) शुभ राग से क्षायिक सम्यक्त्व हो--ऐसा वस्तुरूप मे नही है। __ तथापि अज्ञानी ऐसा मानता है यह सब तो विपरीत है-अन्याय है। भाई तेरे यह अन्याय वस्तुस्वरूप मे सहन नही होगे। वस्तुस्वरूप को विपरीत मानने से तेरे आत्मा को बहुत दुख होगा,-ऐसी करुणा सन्तो को आती है / सन्त नही चाहते कि कोई जीव दुखी हो। जगत के सारे जीव सत्य स्वरूप को समझे और दुख से छूटकर सुख प्राप्त करे-ऐसी उनकी भावना है। भाई / तेरे सम्यग्दर्शन का आधार तेरा आत्मद्रव्य है। शुभराग कही उसका आधार नही है / मन्दराग वह कर्ता और सम्यग्दर्शन उसका कार्य ऐसा त्रिकाल मे नही है / वस्तु का जो स्वरूप है वह तीन काल मे आगे पीछे नही हो सकता। कोई जीव अज्ञान से उसे विपरीत
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________________ ( 226 ) माने उससे कही सत्य वदल नहीं जाता। कोई समझे या न समझे, सत्य तो सदा सत्यरूप ही रहेगा, वह कभी वदलेगा नहा / जो उसे यथावत् समझेगे वे अपना कल्याण कर लेंगे और जो नही समझेगे उनकी तो वात ही क्या ? वे तो ससार में भटक ही रहे है।। देखो, वाणी सुनी इसलिए ज्ञान होता है न / परन्तु सोनगढ वाले इन्कार करते है कि 'वाणी के आधार से ज्ञान नहीं होता',-ऐसा कह कर कुछ लोग कटाक्ष करते है, लेकिन भाई / यह तो वस्तुस्वरूप है, त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ परमात्मा भी दिव्यध्वनि में यही कहते है किज्ञान आत्मा के आश्रय से होता है, ज्ञान वह आत्मा का कार्य है, दिव्यध्वनि के परमाणु का वह कार्य नहीं है / ज्ञान कार्य का कर्ता आत्मा है, न कि वाणी के रजकण ? जिस पदाथ के जिस गुण का जो वर्तमान हो वह अन्य पदार्थ के या अन्य गुण के आश्रय से नहीं होता। उसका कर्ता कौन ? -कि वस्तु स्वय / कर्ता और उसका कार्य दोनो एक ही वस्तु मे होने का नियम है, वे भिन्न वस्तु मे नहीं होते। यह लकडी ऊपर उठी सो कार्य है, यह किसका कार्य है ? -कि कर्ता का कार्य, कर्ता के बिना कार्य नहीं होता। कर्ता कौन है ? - कि लकडी के रजकण ही लकडी की इस अवस्था के कर्ता हैं, यह हाथ, अगुली या इच्छा उसके कर्ता नहीं है। ___ अब अन्तर का सूक्ष्म दृष्टात ले-किसी आत्मा मे इच्छा और सम्यग्ज्ञान दोनो परिणाम वर्तते हैं, वहा इच्छा के आधार से सम्यग्ज्ञान नहीं है / इच्छा सम्यग्ज्ञान की कर्ता नहीं है। आत्मा ही कर्ता होकर उस कार्य को करता है। कर्ता के विना कर्म नहीं है और दूसरा कोई कर्ता नही है, इसलिये जीव कर्ता द्वारा ज्ञान कार्य होता है। इस प्रकार समस्त पदार्थों के सर्व कार्यों मे उस पदार्थ का कर्तापना है-ऐसा समझना चाहिए। देखो भाई, यह तो सर्वज्ञ भगवान के घर की बात है, उसे सुनकर सन्तुष्ट होना चाहिए / अहा / सन्तो ने वस्तु स्वरूप समझा कर मार्ग
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________________ ( 227 ) स्पष्ट कर दिया है, सन्तो ने सारा मार्ग सरल और सुगम बना दिया है, उसमे वीच मे कही अटकना पडे ऐसा नही है / पर से भिन्न ऐसी स्पष्ट वस्तुस्वरूप समझे तो मोक्ष हो जाये। बाहर से तथा अन्दर से ऐसा भेदज्ञान समझने पर मोक्ष हथेली मे आ जाता है। मैं तो पर से पृथक हूँ और मुझ मे एक गुण का कार्य दूसरे गुण से नही है-यह महान सिद्धात समझने पर स्वाश्रय भाव से अपूर्व कल्याण प्रगट होता ___कर्म अपने कर्ता के विना नही होता-यह वात तीसरे वोल मे कही, और चौथे पोल मे कर्ता की (-वस्तु की) स्थिति एकरूप अर्थात् सदा एक समान नही होती, परन्तु वह नये-नये परिणामो रूप से बदलती रहती है यह बात कहेगे। हर वार प्रवचन मे इस चीथे बोल का विशेष विस्तार होता है, इस बार दूसरे वोल का विशेप विस्तार आया है। कर्ता के बिना कार्य नही होता यह सिद्धात है, वहा कोई कहे कि यह जगत सो कार्य है और ईश्वर उसका कर्ता है, तो यह बात वस्तुस्वरूप की नही है। प्रत्येक वस्तु स्वय ही अपनी पर्याय का ईश्वर है और वही कर्ता है, उससे भिन्न दूसरा कोई ईश्वर या अन्य कोई पदार्थ कर्ता नहीं है। पर्याय सो कार्य और पदार्थ उसका कर्ता। ___ कर्ता के बिना कार्य नहीं और दूसरा कोई कर्ता नहीं। कोई भी अवस्था हो-शुद्ध अवस्था, विकारी अवस्था या जड अवस्था, उसका कर्ता न हो ऐसा नही होता तथा दूसरा कोई कर्ता हो-ऐसा भी नही, होता / तो क्या भगवान उसके कर्ता है ? हां, भगवान कर्ता अवश्य है, परन्तु कौन भगवान ? अन्य कोई भगवान नहीं परन्तु यह आत्मा स्वय अपना भगवान है वह कर्ता होकर अपने शुद्ध-अशुद्ध परिणामो को करता है। जड के परिणाम को जड पदार्थ करता है, वह अपना भगवान है। प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी
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________________ ( 228 ) अवस्था की रचयिता ईश्वर है। स्व का स्वामी है पर का स्वामी मानना मिथ्यात्व है। सयोग के बिना अवस्था नही होती-ऐसा नही है, परन्तु वस्तु परिणमित हुए बिना अवस्था नही होती-ऐसा सिद्धात है / पर्याय के कर्तृत्व का अधिकार वस्तु का अपना है उसमे पर का अधिकार नही है / इच्छारूपी कार्य हुआ उसका कर्ता आत्मद्रव्य है / उस समय उसका ज्ञान हुआ, उस ज्ञान का कर्ता आत्मद्रव्य है / पूर्व पर्याय मे तीन राग था इसलिये वर्तमान मे राग हुआ, इस प्रकार पूर्व पर्याय मे इस पर्याय का कर्तापना नही है। वर्तमान मे आत्मा वैसे भावरूप परिणामित होकर स्वय कर्ता हुआ है। इसी प्रकार ज्ञानपरिणाम, श्रद्धापरिणाम, आनन्दपरिणाम उन सब का कर्ता आत्मा है पर कर्ता नही। पूर्व के परिणाम भी कर्ता नही तथा वर्तमान मे उसके साथ वर्तते हुए अन्य परिणाम भी कर्ता नही हैआत्मद्रव्य स्वय कर्ता है। शास्त्र मे पूर्व पर्याय को कभी-कभी उपादान कहते हैं, वह तो पूर्व–पश्चात् को सधि बतलाने के लिए कहा है, परन्तु पर्याय का कर्ता तो उस समय वर्तता हुआ द्रव्य है, वही परिणामी होकर कार्यरूप परिणमित हुआ है। जिस समय सम्यग्दर्शन पर्याय हुई उस समय उसका कर्ता आत्मा ही है / पूर्व की इच्छा, वीतराग की वाणी या शास्त्र-वे कोई वास्तव में इस सम्यग्दर्शन के कर्ता नही हैं। उसी प्रकार ज्ञानकार्य का कर्ता भी आत्मा ही है / इच्छा का ज्ञान हुआ, वहा वह ज्ञान कही इच्छा का कार्य नही है और वह ज्ञान का कार्य नही है। दोनो परिणाम एक ही वस्तु के होने पर भी उनको कर्ता-कर्मपना नही है, कर्ता तो परिणामी वस्तु है। पुदगल मे खट्टी-खारी अवस्था थी और ज्ञान ने तदनुसार जाना, वहाँ खट्टे-खारे तो पुद्गल के परिणाम हैं और पुद्गल उनका कर्ता है; तत्सम्बन्धी जो ज्ञान हुआ उसका कर्ता आत्मा है; उस ज्ञान का
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________________ ( 226 ) कर्ता वह खट्टी-खारी अवस्था नहीं है। कितनी स्वतन्त्रता || उसी प्रकार शरीर मे रोगादि जो कार्य हो उसके कर्ता वे पुद्गल हैं, आत्मा नहीं और उस शरीर की अवस्था का जो ज्ञान हुआ उसका कर्ता आत्मा है। आत्मा कर्ता होकर ज्ञान परिणाम को करता है परन्तु शरीर की अवस्था को वह नहीं करता। यह तो परमेश्वर होने के लिए परमेश्वर के घर की वात है। परमेश्वर सर्वज्ञदेव कथित यह वस्तुस्वरूप है। जगत मे चेतन या जड अनन्त पदार्थ अनन्तरूप से नित्य रहकर अपने वर्तमान कार्य को करते हैं। प्रत्येक परमाणु मे स्पर्श-रग आदि अनन्त गुण, स्पर्श की चिकनी आदि अवस्था; रग की काली आदि अवस्था, उस उस अवस्था का कर्ता परमाणुद्रव्य है। चिकनी अवस्था वह काली अवस्था की कर्ता नहीं है। इस प्रकार आत्मा मे-प्रत्येक आत्मा मे अनन्त गुण हैं; ज्ञान मे केवलज्ञान पर्यायरूप कार्य हुमा, आनन्द मे पूर्ण आनन्द प्रगट हुआ उसका कर्ता आत्मा स्वय है। मनुष्य-शरीर अथवा स्वस्थ शरीर के कारण वह कार्य हुआ ऐसा नहीं है,पूर्व की मोक्षमार्ग पर्याय के आधार से वह कार्य हुआ ऐसा भी नही है; ज्ञान और आनन्द के परिणाम भी एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं, द्रव्य ही परिणमित होकर उस कार्य का कर्ता हुमा है। भगवान आत्मा स्वय ही अपने केवलज्ञानादि कार्य का कर्ता है, अन्य कोई नही / -यह तीसरा बोल हुआ। (4) वस्तु को स्थिति सदा एक रूप [-फूटस्थ] नहीं रहती सर्वज्ञदेव द्वारा देखा हुआ वस्तु का स्वरूप ऐसा है कि वह नित्य अवस्थित रहकर प्रतिक्षण नवीन अवस्था रूप परिणमित होता रहता है। पर्याय बदले विना ज्यो का त्यो कूटस्थ हो रहे-ऐसा वस्तु का स्वरूप नही है। वस्तु द्रव्य-पर्याय स्वरूप है, इसलिए उसमें सर्वथा अकेलानित्यपना नहीं है, पर्याय से परिवर्तनपना भी है। वस्तु स्वय ही अपनी पर्याय रूप से पलटती है कोई दूसरा उसे परिवर्तित करे-ऐसा
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________________ ( 230 ) नही है। नयी-नयी पर्यायरूप होना वह वस्तु का अपना स्वभाव है, तो कोई उसका क्या करेगा? इन सयोगो के कारण यह पर्याय हुई, -इस प्रकार सयोग के कारण जो पर्याय मानता है उसने वस्तु के परिणामनस्वभाव को नही जाना है, दो द्रव्यो को एक माना है / भाई, तू सयोग से न देख, वस्तुस्वभाव को देख / वस्तुस्वभाव ही ऐसा है वह नित्य एकरूप न रहे / द्रव्यरूप से एकरूप रहे परन्तु पर्यायल्प से एकरूप न रहे, पलटता ही रहे-ऐसा वस्तुस्वरूप है। इन चार वोलो से ऐसा समझाया है कि वस्तु स्वय ही अपने परिणाम रूप कार्य को कर्ता है-यह निश्चित सिद्धात है। इस पुस्तक का पृष्ठ पहले ऐमा था और फिर पलट गया, वहाँ हाथ लगने से पलटा हो ऐसा नहीं है, परन्तु उन पृष्ठो के रजकणो मे ही ऐसा स्वभाव है कि सदा एकरूप उनकी स्थिति न रहे, उनकी अवस्था बदलती रहती है, इसलिये वे स्वय पहली अवस्था छोडकर दूसरी अवस्था रूप हुये है, दूसरे के कारण नही / वस्तु मे भिन्न-भिन्न अवस्था होती ही रहती है, वहाँ सयोग के कारण वह भिन्न अवस्था हुई-ऐसा अज्ञानो का भ्रम है, क्योकि वह सयोग को हो देखता है परन्तु वस्तस्वभाव को नही देखता। वस्तु स्वय परिणमनस्वभावी है, इसलिए वह एक ही पर्यायरूप नहीं रहती,-ऐसे स्वभाव को जाने तो किसी सयोग से अपने मे या अपने से पर मे परिवर्तन होने की बुद्धि छूट जाये और स्वद्रव्य की ओर देखना रहे, इसलिए मोक्षमार्ग प्रगट हो। पानी पहले ठडा था और चूल्हे पर आने के बाद गर्म हुआ, वहाँ उन रजकणो का ही ऐसा स्वभाव है कि उनकी सदा एक अवस्था रूप स्थिति न रहे, इसलिये वे अपने स्वभाव से ही ठण्डी अवस्था को छोडकर गर्म अवस्था रूप परिणमित हुये हैं। इस प्रकार स्वभाव को न देखकर अज्ञानी सयोग को देखता है कि अग्नि के आने से पानी गर्म हुआ। आचार्यदेव ने चार बोलो से स्वतन्त्र वस्तुस्वरूप समझाया
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________________ ( 231 ) है, उसे समझ ले तो कही भ्रम न रहे। एक समय मे तीन काल-तीन लोक को जानने वाले सर्वज्ञ परमात्मा वीतराग तीर्थकरदेव की दिव्यध्वनि मे आया हुआ यह तत्व है और मन्तो ने इसे प्रगट किया है। वर्फ के सयोग से पानी ठडा हुआ और अग्नि के सयोग से गम हुआ ऐसा अज्ञानी देखता है, परन्तु पानी के रजकणो मे ही ठडागर्म अवस्था रूप परिणमित होने का स्वभाव है उसे अज्ञानी नहीं देखता / भाई / वस्तु का स्वरूप ऐसा ही है कि अवस्था की स्थिति एकरूप न रहे। वस्तु कूटस्थ नहीं है परन्तु बहते हुये पानी भाति द्रवित होती है-पर्याय को प्रवाहित करती है, उस पर्याय का प्रवाह वस्तु मे से आता है, सयोग मे से नहीं आता। भिन्न प्रकार के सयोग के कारण अवस्था की भिन्नता हुई, अथवा सयोग वदले इसलिये अवस्था बदल गई-ऐसा भ्रम अज्ञानी को होता है, परन्तु वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। यहाँ चार बोलो द्वारा वस्तु का स्वरूप एकदम स्पष्ट किया है। (1) परिणाम ही कर्म है। (2) परिणामी वस्तु के ही परिणाम है, अन्य के नही। (3) वह परिणाम रूपी कर्म कर्ता के बिना नहीं होता। (4) वस्तु की स्थिति एकरूप नही रहती। -इसलिये वस्तु स्वय ही अपने परिणाम रूप कर्म को कर्ता है-यह सिद्धांत है। इन चारो बोलो मे तो बहुत रहस्य भर दिया है। उसका निर्णय करने से भेदज्ञान तथा द्रव्य सन्मुख दृष्टि से मोक्षमार्ग प्रगट होगा। प्रश्न-संयोग आये तदनुसार अवस्था बदलती दिखाई देती है न? उत्तर-यह बराबर नहीं है, वस्तु स्वभाव को देखने से ऐसा दिखाई नहीं देता, अवस्था बदलने का स्वभाव वस्तु का अपना है ऐसा दिखाई देता है। कर्म का मद उदय हो इसलिये मद राग और तीव्र उदय हो इसलिये तीव्र राग-ऐसा नहीं है, अवस्था एकरूप नही रहती, परन्तु अपनी योग्यता से मद-तीव्ररूप से बदलती है-ऐमा स्वभाव वस्तु का अपना है, वह कही पर के कारण नहीं है।
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________________ ( 232 ) भगवान के निकट जाकर पूजा करे या शास्त्र श्रवण करे उस समय अलग परिणाम होते है, और घर पहुचने पर अलग परिणाम हो जाते हे तो क्या सयोग के कारण वे परिणाम बदले ? नही, वस्तु एकरूप न रहकर उसके परिणाम बदलते रहे-ऐसा ही उसका स्वभाव है, उन परिणामो का बदलना वस्तु के आश्रय से ही होता है, सयोग के आश्रय से नही। इस प्रकार वस्तु स्वयं अपने परिणाम की कर्ता है-यह निश्चित सिद्धात है। इन चार वोलो के सिद्धांतानुसार वस्तु स्वरूप को समझे तो मिथ्यात्व की जडे उखड जायें और पराश्रितवुद्धि छूट जाये। ऐसे स्वभाव की प्रतीति होने से अखण्ड स्ववस्तु पर लक्ष जाता है और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है / सम्यग्ज्ञान परिणाम का कर्ता आत्मा स्वय है। पहले अज्ञान परिणाम भी वस्तु के ही आश्रय से थे और अब ज्ञान परिणाम हुये वे भी वस्तु के ही आश्रय से हैं / मेरी पर्याय का कर्ता दूसरा कोई नहीं है, मेरा द्रव्य परिणमत होकर मेरी पर्याय का कर्ता होता है-ऐसा निश्चय करने से स्वद्रव्य पर लक्ष जाता है और भेदज्ञान तथा सम्यग्ज्ञान होता है। अब, उस काल कुछ चारित्रदोप से रागादि परिणाम रहे वह भी अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा का परिणमन होने से आत्मा का कार्य है-ऐसा धर्मी जीव जानता है, उसे जानने की अपेक्षा से व्यवहार को उस काल मे जाना हुआ प्रयोजनवान कहा है। धर्मी को द्रव्य का शुद्ध स्वभाव लक्ष में आ गया है इसलिए सम्यक्त्वादि निर्मल कार्य होते हैं और जो राग शेप रहा है उसे भी वे अपना परिणमन जानते हैं परन्तु अब उसकी मुख्यता नही है, मुख्यता तो स्वभाव की हो गई है। पहले अज्ञानदशा मे मिथ्यात्वादि परिणाम थे वे भी स्वद्रव्य के अशुद्ध उपादान के आश्रय से ही थे, परन्तु जब निश्चित किया कि मेरे परिणाम अपने द्रव्य के ही आश्रय से होते हैं तब उस जीव को मिथ्यात्व परिणाम नही रहते, उसे तो सम्यक्त्वादि रूप परिणाम ही होते हैं। अब जो राग परिणमन साधक पर्याय मे शेष रहा है उसमे यद्यपि उसे एकत्वबुद्धि नहीं है
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________________ ( 233 ) तथापि वह परिणमन अपना है-ऐसा वह जानता है। ऐसा व्यवहार का ज्ञान उस काल का प्रयोजनवान है / सम्यग्ज्ञान होता है तब निश्चय" व्यवहार का स्वरूप यथार्थ ज्ञात होता है तब द्रव्य पर्याय का स्वरूप ज्ञात होता है, तब कर्ता-कर्म का स्वरूप ज्ञात होता है और स्वद्रव्य के लक्ष से मोक्षमार्ग रूप कार्य प्रगट होता है, उसका कर्ता आत्मा स्वय है। इस प्रकार इस २११वें कलश मे आचार्य देव ने चार बोलो द्वारा स्पष्ट रूप से अलौकिक वस्तुस्वरूप समझाया है, उसका विवेचन पूर्ण हुआ। जय महावीर-जय महावीर -'.-- दसवाँ अधिकार भैया भगवतीदास जी विरचित || उपादान-निमित्त दोहा || दोहा-पाद प्रणमि जिनदेव के, एक उक्ति उपजाय / __उपादान अरू निमित्त को, कहूँ संवाद बनाय // 1 अर्थ-जिनेन्द्रदेव के चरणो मे प्रणाम करके एक अपूर्व कथन तैयार करता हूँ। उपादान और निमित्त का सवाद बनाकर इसे कहता हूँ। प्रश्न-पूछत है कोऊ तहां, उपादान किह नाम / कहो निमित्त कहिये कहा, कब के है इह ठाम // 2
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________________ ( 234 ) अर्थ-यहाँ कोई पूछता है कि उपादान किसका नाम है ? निमित्त "किसे कहते हैं ? और उनका सवध कब से है ? सो कहो / उत्तर-उपादान निज शक्ति है जियको मूल स्वभाव / है निमित्त परयोग तें, बन्यो अनादि बनाय // 3 अर्थ-उपादान अपनी निजकी शक्ति है वह जीव का मूल स्वभाव है और पर सयोग निमित्त है उनका सम्बन्ध अनादिकाल से बना हुआ निमित्त-निमित्त कहै मोको सबै, जानत है जग लोय / तेरा नाव न जान ही, उपादान को होय // 4 अर्थ-निमित्त कहता है कि जगत् के सभी लोग मुझे जानते हैं और उपादान कौन है, उसका नाम तक नही जानते।। “उपादान-उपादान कहें रे निमित्त, तू कहा कर गुमान। मोको जानें जीव वे जो हैं सम्यक् वान // 5 अर्थ-उपादान कहता है कि हे निमित्त / तू अभिमान किसलिये करता है / जो जीव सम्यक ज्ञानी हैं वे मुझे जानते हैं। निमित्त-कहैं जीव सब जगत के, जो निमित्त सोई होय। उपादान की बात को, पूछे नाहीं कोय // 6 अर्थ-जगत के सब जीव कहते है कि जैसा निमित्त होता है वैसा ही कार्य होता है / उपादान की वात को तो कोई पूछता ही नही है। उपादान-उपादान बिन निमित्त तू, कर न सके एक काज / कहा भयो जग ना लखै, जानत है जिनराज // 7 अर्थ-उपादान कहता है कि अरे निमित्त एक भी कार्य बिना उपादान के नहीं हो सकता, इसे जगत नहीं जानता तो क्या हुआ ? जिनराज तो उसे जानते है। 'निमित्त-देव जिनेश्वर गुरु यती, अरु निज आगम सार / इह निमित्त से जीव सब, पावत हैं भवपार // अर्थ-निमित्त कहता है कि जिनेश्वरदेव, निग्रंथगुरु और वीत
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________________ ( 235 ) राग का आगम उत्कृष्ट है, इन निमितो द्वारा सभी जीव भव से पार होते हैं। उपादान—यह निमित्त इह जीव के मिल्यो अनंतीवार / उपादान पलट्यो नहीं तो भटक्यो संसार // अर्थ-उपादान कहता है कि यह निमित्त इस जीव को अनतबार मिले, किन्तु उपादान-जीव स्त्रय नही बदला, इसलिये वह ससार में भटकता रहा। निमित्त-के केवलि के साधु के, निकट भव्य जो होय / सोक्षायक सम्यक लहै, यह निमित्त बल जोय // 10 अर्थ-निमित्त कहता है कि यदि केवली भगवान अथवा श्रुतकेवली मुनि के पास भव्य जीव हो तो क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट होता है-यह निमित्त का बल देखो। उपादान-केवलि अरु मुनिराज के, पास रहे बहु लोय। पंजाको सुलटियो धनी क्षायिक ताको होय // 11 अर्थ-उपादान कहता है कि केवली और श्रु नकवली भगवान के पास बहुत से लोग रहते हैं, किन्तु जिसका धनी [आत्मा] अनुकूल होता है, उसी को क्षायिक सम्यक्त्व होता है। निमित्त-हिंसादिक पापन किये, जीव नरक में जाहि / जो निमित्तनहिं काम को तो इम काहे कहाहि // 12 / अर्थ-निमित्त कहता है कि यदि निमित्त कार्यकारी न हो, तो फिर यह क्यो कहा जाता है-हिंसादिक पाप करने से जीव नरक में जाता है ? उपादान-हिंसा में उपयोग जहां, रहे ब्रह्म के राच / ____ तेई नरक मे जात हैं, मुनि नहिं जाहिं कदाच // 13 __ अर्थ-हिंसादिक मे जिसका उपयोग (चैतन्य परिणाम) हो और जो आत्मा उसमे रचा-पचा रहे वही नरक मे जाता है। भावमुनि कदापि नरक मे नही जाते।
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________________ ( 236 ) निमित्त दया दान पूजा किये, जीव सुखी जग होय / जो निमित्त झूठी कहो यह क्यो माने लोय // 14 अर्य-निमित्त कहता है कि दया-दान-पूजा करने से जीव जगत मे सुखी होता है। यदि आपके कथनानुसार निमित्त झूठा हो, तो लोग उसे क्यो मानेगे। उपादान-दया दान पूजा भली, जगत माहि सुखकार / ___ जहं अनुभव को आचरण, तहं यह बंध विचार // 15 अर्थ-उपादान कहता है-दया-दान-पूजा इत्यादि भले ही जगत मे बाह्य सहुलियत दे, कि जहाँ अनुभव के आचरण पर विचार करते हैं, वहाँ यह सब (शुभ भाव) वध है [धर्म नही] / निमित्त-यह तो बात प्रसिद्ध है, सोच देख उर माहिं। नर देहि के निमित्त विन, जिय क्यो मुक्ति न जाहिं // 16 अर्थ-निमित्त कहता है कि यह बात तो प्रसिद्ध है कि नर देह के निमित्त विना जीव मुक्ति को प्राप्त नहीं होता, इसलिए हे उपादान ! तू इस सम्बन्ध मे अपने अन्तरग मे विचार कर देख / उपादान-देह पीजरा जीव को, रोक शिवपुर जात / उपादान की शक्ति सो, मुक्ति होत रे भ्रात // 17 अर्थ-उपादान निमित्त से कहता है कि भाई / देहरूपी पिंजरा तो जीव को शिवपुर (मोक्ष) जाने से रोकता है, किन्तु उपादान की शक्ति से मोक्ष होता है। नोट-(देहरूपी पिंजरा जीव को मोक्ष जाने से रोकता है यह व्यवहार कथन है / जीव शरीर पर लक्ष्य करके अपनेपन की पकड से स्वय विकार मे रुक जाता है, तब शरीर का पिंजरा जीव को रोकता है, यह उपचार से कथन है।) निमित्त उपावान सब जीव पे, रोकन हारो कोन / जाते क्यों नहिं मुक्ति में, बिन निमित्त के होन // 18 अर्थ-निमित्त कहता है कि उपादान तो सब जीवो के हैं तब उन्हें
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________________ हो रहा हैन कहता है सिद्ध लोक का ( 237 ) रोकने वाला कोन है ? वे मोक्ष मे क्यो नही चले जाते ? स्पष्ट है कि निमित्त के न होने से ऐसा नहीं होता। उपादान-उपादान सु अनादिका, उलट रह्यो जग माहि। सुलटत ही सूघे चलें सिद्ध लोक को जांहि // 16 अर्थ-उपादान कहता है कि जगत मे अनादिकाल से उपादान उल्टा हो रहा है, उसके सुल्टे होते सच्चा-ज्ञान और सच्चा चारित्र प्रगट होता है और उससे वह सिद्ध लोक को जाता है-मोक्ष पाता है। निमित्त-कहुं अनादि बिन निमित्तही उलट रह्यौ उपयोग। _ऐसी बात न संभवै उपादान तुम जोग / / 20 ____अर्थ-निमित्त कहता है कि क्या अनादि से विना निमित्त के ही उपयोग (ज्ञान का व्यापार) उल्टा हो रहा है / हे उपादान / तुम्हारे लिए ऐसी बात तो सभव नही है। उपादान-उपादान कहे रे निमित्त हम पे कहीं न जाय / ऐसे ही जिन केवलो, देखे त्रिभुवन राय // 21 अर्थ-उपादान कहता है कि हे निमित्त / मुझ से नहीं कहा जा सकता / जिनेन्द्र केवलीभगवान त्रिभुवन राय ने ऐसा ही देखा है। नोट-(यहां कहा है कि उपादान मे कार्य होता है तब निमित्त स्वय उपस्थित होने पर भी उपादान को वह कुछ कर सकता नही-ऐसा अनन्त ज्ञानियो ने अपने ज्ञान मे देखा है) 'निमित्त~जो देख्यो भगवान ने सो ही साँचो आहि। हम तुम संघ अनादि के वली कहोगे काहि // 22 अर्थ-निमित्त कहता है भगवान ने जो देखा है वही सच है। मेरा और तेरा अनादिकालीन सम्बन्ध है। इसलिए दो मे से बलवान किसे कहा जाय ? अर्थात् कम-से-कम यह तो कहो, हम दोनो समान हैं। समकक्ष हैं। उपादान-उपादान कहे वह वली, जाको नाश न होय / जो उपजत विनशत रहे, बली कहा ते सोय // 23
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________________ ( 238 ) __ अर्थ-उपादान कहता है-जिसका नाम नही होता वह वलवान है / जो उत्पन्न होता है और जिसका विनाश होता है वह वलवान कैसे हो सकता है ? नोट-(उपादान त्रिकाली अखड एकरूप वस्तु स्वय है इसलिए उसका नाश नहीं। निमित्त तो सयोगरूप है--आता और जाता है इसलिए नाशरूप है / अत उपादान ही वलवान है)। निमित्त-उपादान तुम जोर हो तो क्यो लेत अहार। __ पर निमित्त के योग सो जीवत सब संसार // 24 अर्थ-निमित्त कहता है कि हे उपादान | यदि तेरा वल हो तो तू आहार क्यो लेता है / ससार के सभी जीव पर निमित्त के योग से जीते है। उपादान-जो अहार के जोग सो, जीवित है जगमाहि। तो वासी ससार के, मरते कोऊ नांहि // 25 अर्थ-उपादान कहता है कि यदि आहार के योग से जगत के जीव जीते हो, तो ससारवासी कोई भी जीव नही मरता। निमित्त-सूर सोम मणि अग्नि के, निमित्त लखें ये नैन / अन्धकार मे कित गयो, उपादान दूग दैन // 26 अर्थ-निमित्त कहता है--सूर्य, चन्द्रमा, मणि अथवा अग्नि का निमित्त हो तो आँख देख सकती हैं। यदि उपादान देखने का काम कर सकता हो तो अधकार में उसकी देखने की शक्ति कहाँ चली जाती है (अन्धकार मे आँख से क्यो नही दिखाई देता)। उपादान-सूर, सोम, मणि, अग्नि जो करे अनेक प्रकाश / नन शक्ति बिन ना लखे, अन्धकार सम भास // 27 अर्थ-उपादान कहता है कि सूर्य, चन्द्रमा, मणि और दीपक अनेक' प्रकार का प्रकाश करते हैं। तथापि देखने की शक्ति के बिना कुछ भी नही दिखाई देता, सब अन्धकार सा भासित होता है /
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________________ ( 239 ) निमित्त-कहै निमित्त वे जीव को मो विन जग के मांहि / सबै हमारे वश परे, हम बिन मुक्ति न जाहिं // 28 अर्थ-निमित्त कहता है कि मेरे विना जगत मे मात्र जीव क्या कर सकता है ? सभी मेरे वश मे है, मेरे विना जीव मोक्ष भी नही जा सकता। उपादान-उपादान कहै रे निमित्त! ऐसे बोल न बोल। तोको तज निज भजत हैं, ते ही करें किलोल // 26 अर्थ-उपादान कहता है कि हे निमित्त / ऐसी बात मत कर तेरी ऊपर की दृष्टि को छोडकर जो जीव अपना भजन करता है वही आनन्द करता है। निमित्त-कह निमित्त हमको तज, कैसे शिव जात / पंचमहावत प्रगट हैं और हु क्रिया विख्यात // 30 अर्थ-निमित्त कहता है कि मुझे छोडकर कोई मोक्ष कैसे जा सकता है ? पच महाव्रत तो प्रगट हैं ही और दूसरी क्रियाये भी प्रसिद्ध है। जिन्हे लोग मोक्ष का कारण मानते है। उपादान-पंच महावत जोग त्रय और सकल व्यवहार। पर को निमित्त खपाय के तब पहुंचे भवपार // 31 अर्य-उपादान कहता है पच महाव्रत, तीन योग की ओर का लक्ष्य और समस्त व्यवहार तथा निमित्त का लक्ष्य दूर करके ही जीव भव से पार होता है। निमित्त-कह निमित्त जग मैं बड्यो, मोते बड़ो न कोय / तीन लोक के नाथ सब, मो प्रसाद तें होय // 32 ___ अर्थ-निमित्त कहता है कि जगत मे मैं बडा हूँ, मुझसे वडा कोई नही है, तीन लोक का नाथ भी मेरी कृपा से होता है। ___ नोट-(सम्यग्दर्शन की भूमिका मे ज्ञानी जीव के शुभ विकल्प करने पर तीर्थकर नाम कर्म का वन्ध होता है, इस दृष्टान्त को उपस्थित करके निमित्त अपनी बलवत्ता को प्रगट करना चाहता है।)
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________________ ( 240 ) उपादान-उपादान कहैं तू बडा, चहुँ गति में ले जाय। तो प्रसाद ते जीव सब दुःखी हो हि रे भाय // 33 अर्थ-उपादान कहता है अरे निमित्त / तू कौन ? तू तो जीव को 'चारो गतियो मे ले जाता है। भाई, तेरी कृपा से सभी जीव दुःखी ही होते हैं। नोट-(निमित्ताधीन दृष्टि का फल चारो गति ससार है, निमित्त के कारण जीव चार गति मे जाता है-ऐसा नही है।) 'निमित्त, कहँ निमित्त जो दुःख सहै, सो तुम हमहि लगाय। सुखी कौन तें होत है, ताको देहु बताय // 34 अर्थ-निमित्त कहता है-जीव तो दुख सहन करता है उसका दोष तू हमारे ऊपर लगाता है, किन्तु यह भी बताओ कि जीव सुखो किससे होता है ? उपादान-जो सुख को तूं सुख कहै सो सुख तो सुख नाहिं। ये सुख दुख के मूल हैं, सुख अविनाशि माहि // 35 अर्थ-उपादान कहता है कि तू जिस सुख को सुख कहता है वह सुख ही नहीं है, वह सुख तो दुख का मूल है। आत्मा के अन्तरग मे अविनाशी सुख है। निमित्त-अविनाशी घट घट बसे, सुख क्यों विलसत नाहिं। शुभ निमित्त के योग बिन परे परे बिल लाहि // 36 अर्थ-निमित्त कहता है कि अविनाशी सुख तो घट-घट मे प्रत्येक जीव मे विद्यमान है। तब फिर जीवो के सुख का विलास-सुख का भोग क्यो नही होता। शुभ निमित्त के योग के विना जीव क्षण-क्षण मे दुखी हो रहा है। उपादान-शुभ निमित्त इह जीव को मिल्यो कई भवसार। पैइक सम्यक दर्श बिन, भटकत फिर्योगवार॥३७ अर्थ-उपादान कहता है-~-शुभ निमित्त इस जीव को कई भवो मे
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________________ ( 241 ) मिले, परन्तु एक सम्यग्दर्शन के बिना यह मूर्ख जीव (अज्ञान भाव से) भटक रहा है। निमित्त-सम्यकदर्श भये कहा त्वरित मुक्ति में जाहिं। आगे ध्यान निमित्त है ते शिव को पहचाहिं // 38 अर्थ-सम्यग्दर्शन होने से क्या जीव तत्काल मोक्ष मे चला जाता है ? नही। आगे भी ध्यान निमित्त है। जो मोक्ष मे पहुचता है। यह निमित्त का तर्क है। उपादान–छोर ध्यान की धारणा मोर योग की रीत / तोरि कर्म के जाल को जोरि लई शिव प्रीत // 36 अर्थ-उपादान कहता है कि ध्यान की धारणा को छोडकर, योग की रीति को समेट कर, कर्म जाल को तोडकर जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा शिवानन्द की प्राप्ति करते हैं। निमित्त तब निमित्त हार्यो तहां अब नहिं जोरि बसाय / उपादान शिव लोक में पहच्यो कर्म खपाय // 40 अर्थ-तब निमित्त हार गया। अब कुछ जोर नहीं करता और उपादान कर्म का क्षय करके शिव लोक मे पहुच गया। उपादान-उपादान जीत्यो तहाँ, निज बलकर परकाश / सुख अनन्त ध्रुव भोगवे अंत न वरन्यो तास // 41 अर्थ-इस प्रकार निज बल का प्रकाश कर उपादान जीता (वह उपादान अब) उस अनन्त ध्र व सुख को भोगता है जिसका अन्त नही है। तत्व स्वरूप-उपादान अरु निमित्त ये, सब जीवन पं वीर। जो निज शक्ति संभाल हो सो पहुँचे भवतीर // 42 अर्थ-उपादान और निमित्त सभी जोवो के है किन्तु जो वीर अपनी उपादान शक्ति की सम्भाल करते है वे भव के पार को प्राप्त होते हैं।
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________________ ( 242 ) आत्मा को महिमा भैया महिमा ब्रह्म की, कैसे वरनी जाय / वचन अगोचर वस्तु है कहिवो वचन बताय // 43 अर्थ-भगवतीदास जी आत्म स्वभाव की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि भाई / ब्रह्म की (आत्म-स्वभाव की महिमा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह वस्तु वचन अगोचर है उसे किन वचनों के द्वारा बताया जा सकता है। सरस संवाद उपादान अरु निमित्त को, सरस बन्यो संवाद / समदृष्टि को सरल है, मूरख को बकवाद // 44 अर्थ-उपादान और निमित्त का यह सुन्दर सम्वाद वना है यह सम्यग्दृष्टि के लिए सरल है और मिथ्यादृष्टि के लिए वकवाद मालूम होगी। जो आत्मा के गुणो को पहिचानता है वह इस स्वरूप को जाणे जो जाने गुण ब्रह्म के, सो जाने यह भेद / साख जिनागम सो मिले, तो मत कीज्यो खेद // 45 अर्थ-आत्मा के गुणो को जो जानता है, वह इसका मर्म जानता है। इस स्वरूप की साक्षी जिनागम से मिलती है इसलिए इसमे शका नही करना चाहिए। आगरा में संवाद बनाया नगर आगरा अन है, जैनी जन को वास / तिहथानक रचना करो, 'भैया' स्वमति प्रकाश // 46 अर्थ-आगरा मे जैनियो का वास ज्यादा है। वहाँ पर भईया भगवती दास ने अपने ज्ञान के अनुसार यह रचना की है अथवा अपने ज्ञान के प्रकाश के लिए यह रचना की है। रचना काल-संवत् विक्रम भूप को सत्तरह से पचास / फाल्गुन पहले पक्ष में दशो विशा परकाश // 47
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________________ ( 243 ) अर्थ-विक्रम सवत् 1750 के फाल्गुन मास के प्रथम पक्ष मे इस सवाद की रचना की गई है। जय महावीर-जय महावीर मौखिक प्रश्नावली प्रश्न १-केवलज्ञान में लोकालोक के सब पदार्थ जानने में आते हैं। इसमे निमित्त-नमित्तिक क्या है ? प्रश्न २–केवलज्ञान को नैमित्तिक कहे, तो निमित्त कौन है ? प्रश्न ३-लोकालोक को नैमित्तिक कहे, तो निमित्त कौन है ? प्रश्न ४-केवलज्ञान को निमित्त की अपेक्षा क्या कहते हैं ? प्रश्न ५-केवलज्ञान का त्रिकाली उपादान कारण क्या है ? प्रश्न ६-'उपादेय' शब्द कितने अर्थों में प्रयुक्त होता है ? प्रश्न ७-केवलज्ञान को उपादेय क्यो कहा है ? प्रश्न ८-कार्य को निमित्त की अपेक्षा क्या कहते हैं ? प्रश्न :-कार्य को उपादान की अपेक्षा क्या कहते हैं ? प्रश्न १०--मैं जोर-शोर से बोलता हूँ इसमें १००वीं गाथा के चार बोल लगामो? प्रश्न ११-क्या निमित्त-नैमित्तिक एक द्रव्य मे होता है ? प्रश्न १२-क्या उपादान-उपादेय दो द्रव्यो के होता है ? प्रश्न १३-चाई उपादान कारण और रोटी उपादेय। क्या उपापान-उपादेय का ज्ञान ठीक है ?
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________________ ( 244 ) - प्रश्न १४-कोई चतुर वाई को उपादान कारण और रोटी को उपादेय / ऐसा ही माने तो क्या दोष आता है ? प्रश्न १५-निमित्त कारणो से हो कार्य की उत्पत्ति माने उसे जिनवाणी मे फिन-किन नामो से सम्बोधन किया है ? प्रश्न १६-आटा त्रिकाली उपादान कारण और रोटी उपादेय। ऐसा मानने से क्या लाभ हुआ? प्रश्न १७-कोई चतुर प्रश्न करता है कि तवा, चकला, बेलन, बाई आदि निमित्त कारण हो तो रोटी बने आप कहते हो निमित्तकारणो से कार्य का सम्बन्ध नहीं है। तो आटा उपादानकारण और रोटी उपादेय / यह आपकी बात झूठी साबित होती है ? ' प्रश्न १८-आटे भी रोटी का सच्चा कारण नहीं है तो रोटी का सच्चा उपादान कारण कौन है ? प्रश्न १६-आटा मे अनादि काल से पर्यायो का प्रवाह क्यो चला आ रहा है ? प्रश्न २०-अनन्तर पूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई क्षणिक उपादान कारण और रोटी उपादेय / इसको मानने से क्या लाभ हुआ ? प्रश्न २१-कोई चतुर फिर प्रश्न करता है कि अभाव मे से भाव की उत्पत्ति नहीं होती हैं और पर्याय में से पर्याय नहीं आती है / ऐसा जिनवाणी में बताया है। तो फिर यह मानना अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई क्षणिक उपादान कारण और रोटी उपादेय / यह आपकी बात झूठी साबित होती है ? प्रश्न २२-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई रोटी का सच्चा कारण नहीं है। तो कैसा कारण है और कैसा कारण नहीं है ? प्रश्न २३-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई भी रोटो का सच्चा कारण नहीं है। तो वास्तव में रोटी का सच्चा कारण कौन है ? प्रश्न २४-वास्तव में उस समय पर्याय की योग्यता रोटी क्षणिक
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________________ ( 245 ) उपादान कारण ही रोटी का सच्चा कारण है। इसको जानने से क्या लाभ हमा? प्रश्न 25-(1) आटा त्रिकाली उपादान कारण और रोटी उपादेय। (2) अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई क्षणिक उपादान कारण और रोटी उपादेय (3) उस समय पर्याय की योग्यता रोटी क्षणिक उपादान कारण और रोटी उपादेय / ऐसा शास्त्रो में बताया। परन्तु इतना लम्बा-लम्बा झगड़ा करने से क्या लाभ था। कह देते कि कार्य उस समय पर्याय की योग्यता से ही होता है ? प्रश्न २६-रोटी उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से बनी है। इसको जानने से क्या लाभ हुआ? प्रश्न २७–केवली के समान सच्चा ज्ञान होने से क्या-क्या अपूर्व कार्य देखने में आता है ? प्रश्न २८-विश्व में प्रत्येक कार्य उस समय पर्याय की योग्यता से होता है। तव कौन-कौन सी चार बातें एक साथ एक ही समय में नियम से होती हैं ? प्रश्न २६–कार्य उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण से ही होता है, क्या यह निरपेक्ष है ? प्रश्न ३०-बाई ने रोटी बनाई-इस पर कितने प्रश्न उठते हैं ? प्रश्न ३१-बाई ने रोटी बनाई-इस पर छह कारक लगाकर बताओ? प्रश्न ३२-निमित्त को जानने का क्या लाभ है ? प्रश्न ३३-त्रिकाली कर्ता को जानने का क्या लाभ है ? प्रश्न ३४-त्रिकाली कर्ता आटे पर छह कारक लगाकर बताओ? प्रश्न ३५-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई को जानने का क्या लाभ है ? प्रश्न ३६-अनन्तरपूर्व क्षणवर्ती पर्याय लोई क्षणिक उपादान कारण पर छह कारक लगाकर बताओ?
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________________ ( 246 ) प्रश्न ३७-क्या अभाव में से भाव की उत्पत्ति नहीं होती है ? प्रश्न ३५-क्या उस समय पर्याय की योग्यता क्षणिक उपादान कारण ही कार्य का सच्चा कारण है ? प्रश्न ३६-उस समय पर्याय की योग्यता रोटी क्षणिक उपादान कारण पर छह कारक लगाकर बताओ? प्रश्न ४०-योग्यता से क्या सिद्ध होता है ? प्रश्न ४१-चाई ने रोटी बनाई-इस वाक्य पर निमित्त की परिभाषा लगाकर बताओ? प्रश्न ४२-बाई ने रोटी बनाई-इस पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध लगाकर समझाओ? प्रश्न ४३-वाई ने रोटी बनाई-इस पर व्याप्य-व्यापक किस प्रकार है ? प्रश्न ४४-बाई ने रोटी बनाई-इस पर सौवीं गाथा के चार बोल लगाकर बताओ? प्रश्न ४५-चारो गत्तियो का अभाव वाला मंत्र क्या है? प्रश्न ४६-सौपी गाथा में योग किसे कहा है और उपयोग किसे कहा है ? प्रश्न ४७–सौवीं गाथा के चार बोलो के नाम बताओ? प्रश्न ४८व्याप्य-व्यापक किसे कहते हैं ? प्रश्न ४६-निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की परिभाषा क्या है ? प्रश्न ५०-निमित्त कारणो के कितने भेव हैं ? प्रश्न ५१--प्राप्य-विकार्य-निर्वयं का अर्थ समझाओ? प्रश्न ५२-सम्यग्दर्शन पर तीनों उपादान-उपादेय समझाओ। प्रश्न ५३–'उपादेय' शब्द कहां-कहां पर प्रयोग होता है ? प्रश्न ५४-राग को किस-किस अपेक्षा क्या-क्या कहते हैं और क्यों कहते हैं ?
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________________ ( 247 ) प्रश्न ५५-फर्म की दशा कितने प्रकार की होती हैं ? प्रश्न ५६–मोहनीय कर्म में कितनी दशायें होती हैं ? प्रश्न ५७–कारक किसे कहते हैं ? प्रश्न ५८-निमित्त-उपादान का बड़ा भारी झगडा लगता है ? उत्तर-निमित्त उपादान का सच्चा ज्ञान हो तो झगडे को समाप्त कर देता है परन्तु एक को दूसरे का कर्ता मानना यह झगडा है। प्रश्न ५६-निमित्त-उपादान का झगड़ा क्यों नहीं मिटता है ? उत्तर-उपादान-निमित्त का सच्चा ज्ञान ना होने से अपने कार्यों का कर्ता निमित्त पर लगाकर स्वय निर्दोष बना रहना चाहता है इसलिए 'निमित्त-उपादान का झगडा नही मिटता है। प्रश्न ६०-अब क्या करें तो निमित्त-उपादान का झगडा समाप्त हो जावे ? उत्तर-जैसा निमित्त-उपादान का स्वरूप इस शास्त्र मे समझाया है उसी प्रकार समझकर अपनी ओर दृष्टि करे तो निमित्त-उपादान का झगडा समाप्त होकर धर्म की प्राप्ति कर क्रम से मोक्ष रूपी लक्ष्मी का नाथ बन जावे। // द्वितीय भाग सम्पूर्ण // जय महावीर-जय महावीर