________________ ( 232 ) भगवान के निकट जाकर पूजा करे या शास्त्र श्रवण करे उस समय अलग परिणाम होते है, और घर पहुचने पर अलग परिणाम हो जाते हे तो क्या सयोग के कारण वे परिणाम बदले ? नही, वस्तु एकरूप न रहकर उसके परिणाम बदलते रहे-ऐसा ही उसका स्वभाव है, उन परिणामो का बदलना वस्तु के आश्रय से ही होता है, सयोग के आश्रय से नही। इस प्रकार वस्तु स्वयं अपने परिणाम की कर्ता है-यह निश्चित सिद्धात है। इन चार वोलो के सिद्धांतानुसार वस्तु स्वरूप को समझे तो मिथ्यात्व की जडे उखड जायें और पराश्रितवुद्धि छूट जाये। ऐसे स्वभाव की प्रतीति होने से अखण्ड स्ववस्तु पर लक्ष जाता है और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है / सम्यग्ज्ञान परिणाम का कर्ता आत्मा स्वय है। पहले अज्ञान परिणाम भी वस्तु के ही आश्रय से थे और अब ज्ञान परिणाम हुये वे भी वस्तु के ही आश्रय से हैं / मेरी पर्याय का कर्ता दूसरा कोई नहीं है, मेरा द्रव्य परिणमत होकर मेरी पर्याय का कर्ता होता है-ऐसा निश्चय करने से स्वद्रव्य पर लक्ष जाता है और भेदज्ञान तथा सम्यग्ज्ञान होता है। अब, उस काल कुछ चारित्रदोप से रागादि परिणाम रहे वह भी अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा का परिणमन होने से आत्मा का कार्य है-ऐसा धर्मी जीव जानता है, उसे जानने की अपेक्षा से व्यवहार को उस काल मे जाना हुआ प्रयोजनवान कहा है। धर्मी को द्रव्य का शुद्ध स्वभाव लक्ष में आ गया है इसलिए सम्यक्त्वादि निर्मल कार्य होते हैं और जो राग शेप रहा है उसे भी वे अपना परिणमन जानते हैं परन्तु अब उसकी मुख्यता नही है, मुख्यता तो स्वभाव की हो गई है। पहले अज्ञानदशा मे मिथ्यात्वादि परिणाम थे वे भी स्वद्रव्य के अशुद्ध उपादान के आश्रय से ही थे, परन्तु जब निश्चित किया कि मेरे परिणाम अपने द्रव्य के ही आश्रय से होते हैं तब उस जीव को मिथ्यात्व परिणाम नही रहते, उसे तो सम्यक्त्वादि रूप परिणाम ही होते हैं। अब जो राग परिणमन साधक पर्याय मे शेष रहा है उसमे यद्यपि उसे एकत्वबुद्धि नहीं है