________________ ( 216 ) जैसा है वैसा न मानकर विरुद्ध माने तो लोकोत्तर मूर्ख और अविवेकी है, विवेकी और विलक्षण कब कहा जाय ? किसी वस्तु के जो परिणाम हुये उसे कार्य मानकर, उसे परिणामी-वस्तु के आश्रित समझे और दूसरे के आश्रित न माने, तब स्व-पर का भेद ज्ञान होता है और तभी विवेकी है ऐसा कहने मे आता है। आत्मा के परिणाम पर के आश्रय नही होते / विकारी और अविकारी जो भी परिणाम जिस वस्तु के हैं वह उसी वस्तु के आश्रित है, अन्य के आश्रित नही। पदार्थ के परिणाम वही उसका कार्य है-यह एक बात, दूसरी वात यह कि वह परिणाम उसी वस्तु के आश्रय मे होते हैं, अन्य के आश्रय से नहीं होते। --यह नियम जगत के समस्त पदार्थो मे लागू होते हैं। देखो भाई / यह भेद ज्ञान के लिए वस्तु स्वभाव के नियम बतलाये गये हैं। धीरे-धीरे दृष्टात से युक्ति से वस्तु स्वरूप सिद्ध किया जाता किसी को ऐसे भाव उत्पन्न हुये कि सौ रुपये दान मे दं, उसके वह परिणाम आत्म वस्तु के बाश्रित हुये हैं, वहाँ रुपये जाने की जो क्रिया होती है वह रुपये के रजकणो के आश्रित हैं, जोव की इच्छा के आश्रित नही / अब उस समय उन रुपयो की क्रिया का ज्ञान, अथवा इच्छा के भाव का ज्ञान होता है वह ज्ञान परिणाम आत्माश्रित हुआ है-इस प्रकार परिणामो का विभाजन करके वस्तु स्वरूप का ज्ञान करना चाहिये। ___ भाई, तेरा ज्ञान और तेरी इच्छा, यह दोनो परिणाम आत्मा मे होते हुये भी वे एक दूसरे के आश्रित नहीं है, तो फिर पर के आश्रय की तो बात ही कहाँ रही ? दान की इच्छा हुई और रुपये दिये गये, वहा रुपये जाने की क्रिया भी हाथ के आश्रित नही, हाथ का हिलना इच्छा के आश्रित नही, और इच्छा का परिणमन वह ज्ञान के आश्रित नही है सभी अपने-अपने आश्रयभूत वस्तु के आधार से है।