________________ ( 218 ) 'इच्छा का कार्य नहीं है, उसी प्रकार वह ज्ञान इच्छा को उत्पन्न नहीं करता, इच्छा-परिणाम आत्मा का कार्य अवश्य है परन्तु ज्ञान का कार्य नहीं / भिन्न-भिन्न गुण के परिणाम भिन्न-भिन्न हैं, एक ही द्रव्य मे होने पर भी एक गुण के आश्रित दूसरे गुण के परिणाम नही कितनी स्वतन्त्रता / / और इसमे पर के आश्रय की तो बात ही कहा रही ? - आत्मा में चारिनगुण इत्यादि अनन्त गुण है, उनमे चारित्र के 'विकृत परिणाम सो इच्छा है, वह चारित्रगुण के आश्रित है, और उस समय इच्छा का ज्ञान हुआ वह ज्ञानगुण रूप परिणामी के परिणाम हैं, वह कही इच्छा के परिणाम के आश्रित नहीं है। इस प्रकार इच्छा परिणाम और ज्ञान परिणाम दोनो का भिन्न परिणमन है, एक-दूसरे के आश्रित नहीं है। सत् जैसा है उसी प्रकार उसका ज्ञान करे तो सत् ज्ञान हो और सत् का ज्ञान करे तो उसका वहुमान एव यथार्थ का आदर प्रगट हो, रुचि हो, श्रद्धा दृढ हो और उसमे स्थिरता हो, उसे धर्म कहा जाता है / सत् से विपरीत ज्ञान करे उसे धर्म नहीं होता / स्व मे स्थिरता ही मूलधर्म है, परन्तु वस्तुस्वरूप के सच्चे ज्ञान विना स्थिरता कहाँ करेगा? आत्मा और शरीरादि रजकण भिन्न-भिन्न तत्व हैं; शरीर की अवस्था, हलन-चलन-बोलना, वह उसके परिणामी पुद्गलोका परिणाम है, उन पुद्गलो के आश्रित वह परिणाम उत्पन्न हुये हैं, इच्छा के आश्रित नही; उसी प्रकार इच्छा के आश्रित ज्ञान भी नहीं है / पुद्गल के परिणाम आत्मा के आश्रित मानना, और आत्मा के परिणाम पुद्गलाश्रित मानना, उसमे तो विपरीत मान्यता रूप मूढता है / जगत मे भी जो वस्तु जैसी हो उससे विपरीत बतलाने वाले को लोग मूर्ख कहते हैं, तो फिर सर्वज्ञ कथित यह लोकोत्तर वस्तु स्वभाव