________________ ( 220 ) देवो, यह सर्वन के विज्ञान पाठ है, ऐसा वस्तु स्वत्प का ज्ञान सच्चा पदार्थ विज्ञान है / जगत के पदार्यों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे सदा एक रूप नहीं रहते, परन्तु परिणमन करके नवीन नवीन अवस्था रूप नार्य किया करते है, ---यह वात चौथे वोल में कही जायेगी। जगन के पदायों का स्वभाव ऐसा है कि वह नित्य स्थायी रहे और उसमे प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्था रूप कार्य उसके अपने आश्रित हुआ करे / वस्तु स्वभाव का ऐसा जान ही सम्यग्ज्ञान है। जीव को उच्छा हुई इसलिये हाथ हिला और सी रुपये दिये गयेऐसा नहीं है। (1) इच्छा का आधार आत्मा है, हाथ और रुपयो का आधार परमाणु है / (2) रुपये जाने थे इसलिये इच्छा हुई ऐसा भी नहीं है। (3) हाथ का हलन-चलन वह हाथ के परमाणुओ के आधार से है। (4) स्पयो का आना-जाना वह रुपया के परमाणुओ के गवार से है। इन्छा का होना वह आत्मा के चारित्र गण के आधार से है। __यह तो भिन्न-भिन्न द्रव्य के परिणाम की भिन्नता की वात हुई, यहा तो उससे भी आगे अन्दर की बात लेना है। एक ही द्रव्य के अनेक परिणाम भी एक-दूसरे के आश्रित नही है-सा वतलाना है राग और ज्ञान दोनो के कार्य भिन्न है, एक-दूसरे के आश्रित नहीं है। किसी ने गाली दी और जीव को द्वप के पाप-परिणाम हुये, वहा वे पाप के परिणाम प्रतिकूलता के कारण नही हुये, आर गाली देने वाले के आश्रित भी नही हुये, परन्तु चारित्रगुण के आश्रित हुये है, चारित्रगुण ने उस समय उस परिणाम के अनुसार परिणमन किया है। अन्य तो निमित्तमात्र हैं। . अब ष के समय उसका ज्ञान हुआ कि 'मुझे यह द्वेष हुआ'यह ज्ञान परिणाम ज्ञानगुण के आश्रित है, क्रोध के आश्रित नहीं है। ज्ञानस्वभावी द्रव्य के आश्रित ज्ञान परिणाम होते है, अन्य के आश्रित नही होते। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन परिणाम, सम्यग्ज्ञान परिणाम,