________________ और स्वभाव का कभी अभाव होता नहीं। इसलिये विकार को कर्मकृत मानना चाहिए। क्या यह ठीक है? उत्तर-(१) विकारी भाव व्याप्य और द्रव्यकर्म व्यापक, ऐसा माने तो व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध नही बनेगा, क्योकि व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एक द्रव्य का उसकी पर्याय मे ही होता है भिन्न-भिन्न द्रव्यो में नही होता है / इसलिए आत्मा व्यापक और विकारी भाव व्याप्य ऐसा मानने योग्य है। (2) हम विकार को एक समय का विकारी स्वभाव कहते है त्रिकाली स्वभाव नही कहते हैं। (3) यदि जीव विकार को एक समय का स्वय का अपराध माने, तो त्रिकाली स्वभाव के आश्रय से विकार का अभाव कर सकता है। (4) यदि विकार को कर्मकृत माना जावे तो जीव कभी निगोद से भी नहीं निकले, जहाँ जो पडा हो वही पड़ा रहेगा। प्रश्न २३-शुद्धनय की दृष्टि से रागादिक का व्याप्य-व्यापक कौन है ? उत्तर-रागादिभाव व्याप्य और पुद्गल व्यापक है। प्रश्न २४-अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक का व्याप्य-व्यापक कौन है ? उत्तर--रागादि भाव व्याप्य और अज्ञानी जीव का चारित्र गुण व्यापक है। प्रश्न २५-द्रव्य-गुण और पर्याय में व्याप्य-व्यापक कौन है ? उत्तर-द्रव्य-गुण व्यापक है और पर्याय व्याप्य है। प्रश्न २६-व्याप्य-व्यापक के पर्यायवाची शब्द क्या-क्या हैं ? उत्तर-व्याप्य-व्यापक कहो, कर्ता-कर्म भाव कहो एक ही बात है। क्योकि व्याप्य-व्यापक भाव के बिना कर्ता-कर्म की स्थिति नही हो सकती है। प्रश्न २७-कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार बनाया-इसमे व्याप्य व्यापक बताओ?