________________
प्रकाशकीय निघेदन , जगत के सब जीव सुख चाहते है अर्थात् दुख से भयभीत है । सुख पाने के लिए यह जीव सर्व पदार्थों को अपने भावो के अनुसार पलटना चाहता है। परन्तु अन्य पदार्थों को बदलने का भाव मिथ्या है क्योकि पदार्थ तो स्वयमेव पलटते है और इस जीव का कार्य मात्र ज्ञाता-दृष्टा है।
सुखी होने के लिए जिन वचनो को समझना अत्यन्त आवश्यक है। वर्तमान मे जिन धर्म के रहस्य को बतलाने वाले अध्यात्म पुरुष श्री कान जी स्वामी थे। ऐसे सतपुरुप के चरणो की शरण मे रहकर हमने जो कुछ सिखा पढा है उसके अनुसार प० कैलाश चन्द्र जी जैन द्वारा गुथित जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के सातो भाग जिन-धर्म के रहस्य को अत्यन्त स्पष्ट करने वाले होने से चौथी बार प्रकाशित हो रहे है।
इस प्रकाशन कार्य मे हम लोग अपने मडल के विवेकी और सच्चे, देव-गुरू-शास्त्र को पहचानने वाले स्वर्गीय श्री रूप चन्द्र जी, माज़रा : वालो को स्मरण करते हैं जिनकी शुभ प्रेरणा से इन ग्रन्थो का प्रकाशन कार्य प्रारम्भ हुआ था।
हम बडे भक्ति भाव से और विनय पूर्वक ऐसी भावना करते हैं कि सच्चे सुख के अर्थी जीव जिन वचनो को समझकर सम्यग्दर्शन प्राप्त करे। ऐसी भावना से इन पुस्तको का चौथा प्रकाशन आपके हाथ मे है।
इस दूसरे भाग मे छहकारक, उपादन-उपादेय, योग्यता, निमित्तनैमित्तिक आदि विषयो का स्पष्टीकरण करके सौवा गाथा के चार बीलो को समझाया गया है ताकि भव्य जीव इन सबको समझकर धर्म की प्राप्ति कर मके।
विनीत श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मडल
देहरादून