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शरीराश्रित उपदेश, उपवासादिक क्रिया और शुभरागरूप व्यवहार को मोक्षमार्ग न जानो यह बात आ जाती है ।)
"उपादान निज गुण जहाँ तहाँ निमित्त पर होय । भेदज्ञान परमान विधि, बिरला बूके कोय ॥" अर्थ -- जहाँ निज शक्ति रूप उपादान हो वहाँ पर निमित्त होता ही है । उसके द्वारा भेदज्ञान प्रमाण की विधि ( व्यवस्था ) हैं । यह सिद्धान्त कोई विरले ही समझते हैं ।
भावार्थ - जहाँ उपादान की योग्यता हो वहाँ नियम से निमित्त होता ही है । निमित्त की प्रतीक्षा करनी पडे ऐसा नही होता, और निमित्त को हम जुटा सकते हैं- ऐसा भी नही होता । निमित्त की प्रतीक्षा करनी पडती है या उसे मैं ला सकता हूँ - ऐसी मान्यता पर पदार्थ मे अभेद बुद्धि अर्थात् अज्ञान सूचक है । उपादान और निमित्त दोनो असहायरूप स्वतन्त्र है यह उनकी मर्यादा है ।
"उपादान बल जहँ तहाँ नह निमित्त को दाव । एक चक्र सौ रथ चले, रवि को यहि स्वभाव ॥" अर्थ-जहाँ देखो वहाँ उपादान का ही बल है, ( निमित्त होता है ) परन्तु निमित्त का (कार्य करने मे ) कोई भी दाव (बल) नही है । एक चक्र से रवि का ( सूर्य का ) रथ चलता है वह उसका स्वभाव है । ( उसी प्रकार प्रत्येक कार्य उपादान की योग्यता से ( सामर्थ्य से ) ही होता है ।)
प्रश्न २२ -- " हौ जाने था एक ही उपादान सो काज । सहाई पौन बिन, पानी माँहि जहाज ॥
अर्थ -- अकेले उपादान से कार्य होता हो तो पवन की सहायता के बिना जहाज पानी मे क्यो नही चलता
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उत्तर- " सर्व वस्तु असहाय जहँ तहँ निमित्त है कौन । ज्यो जहाज परवाह मे, तिरै सहज विन पौन ॥"
अर्थ - जहाँ प्रत्येक वस्तु स्वतन्त्र रूप से अपनी अवस्था को ( कार्य