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દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
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ग्रंथमाला नंबर ६ मो. श्रीमद्विजयानंदमूरी (आत्मारामजी महाराज)
विरचीत
श्री जैनधर्म विषयिक प्रश्नोत्तर.
ACTION
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पावी प्रसि करनार, श्री जैन आत्मानंद सजा
नावनगर.
)
Kा वीर संवत २४३३ आत्म सं. ११ वि. सं. १९६३
- *--
अमदावाद, युनियन प्रिन्टिंग प्रेस कंपनी लीमीटेडमां
मोतीलाल शामलदासे छोप्या,
कीमत आठ आना.
BUCATA
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प्रस्तावना. परोपकारी महात्मानना लेखोनी महत्वता अपूर्व होय . तेना नोक्ता अवानो आधार तेना ग्राहकना अधिकार उपर रहे डे, एवा अपूर्व ले. खोर्नु रहस्य आदर पूर्वक अभ्यासथोज प्रपट श्रा य बे; अने तेनुं आदर पूर्वक श्रवण पठन अने मनन करवाश्रीज अंते ते फलदायी नीवमे .
पवित्र जैन दर्शन जणावे ले के आ जगतमां अनादि कालथोज मिथात्व . जे मानवाने आ पणने प्रत्यक्ष आदि कारणो मोजुद ने, आवा मि थ्यात्वना कारणरुप अज्ञानरुपी अंधकारनो नाश करवा परम नपकारी पूज्यपाद गुरु श्री विजया नंदसूरी (आत्मारामजो)ए आ जैनधर्म विषयोक प्रश्नोत्तर नामनो ग्रंथ रच्यो , आ अने आ सिवायना बोजा आ महात्माए बनावेला ग्रंथो प्रथमश्रीज प्रशंसनीय यता आवेला .
आ हित धर्मनो जे नावना तेमना मगज मां जन्म पामेली ते लेख रुपे बाहार आवतांज आखो ऊनीयाना पंझोतो-शानी धर्म गुरुन
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लेखको अने सामान्य लोको उपर जे असर करे ने तेज तेनी नपयोगिता दर्शाववाने बत ने. ... जैनधर्म अनादि कालथीज , अने ते बौ
धर्मयो तदन अलग अने पेहेलाथीज , ते ते मज जैनमतना पुस्तकोनी नुत्पत्ति-कर्मनुं स्व. रूप-जीनप्रतिमानी पूजा करवानो तीर्थकरोए करेलो नपदेश विगेरे बीजो केट लीक नपयोगी वाबतोनो आ ग्रंथमा समावेश करेला डे.
वर्तमान कालमा व्यवहारिक केलवणी ली धेला युवको जेने जैनधर्मनु तत्व शुं तेनाथी अजाणतेनने तेमज अन्य धर्मीनने आ ग्रंथ आद्यंत वांचवाथी जैनधर्मनुं बुटु बटु स्वरुप केटलेक अंशे मालम पमे तेम . ___कोइपण निष्पक्षपातो तत्व जोज्ञासु पुरुष आ ग्रंथर्नु स्वरुप आद्यंत अवलोकशे तो एक जै नना महान् विक्षाने नारतवर्षनी जेन प्रजा न. पर आवा नत्तम ग्रंथो रची महद् उपकार कीधो . ते साये आ विज्ञान शिरोमणो महाशय पुरुष
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सांप्रत काले विद्यमान नथो तेने माटे अतुल खेद प्राप्त थशे.
बैवटे अमारे आनंद सहित जणाववुं पबे के मरहम पूज्यपादना हृदयमां अनगार धर्मनी साथै परोपकारपणानी पवित्र बाया जे पमी हतो ते बाया तेमना परिवार मंगलना हृदयमां उतरी बे. पोताना गुरुनुं यथाशक्ति अनुकरण करवाने ते शिष्य वर्ग त्रिकरण शुद्धिश्री प्रवर्त्त बे तेनी साधे विद्या, ऐक्यता स्वार्पण ने परोपकार बुद्धि तेमना शिष्य वर्गमां प्रत्यक्ष मूर्तिमान जोवामां आवे छे अने तेन परम सात्विक होइ सर्वने तेबांज देखे बे ने तेवाज करवा इबे वे अने तेननुं जीवन गुरु जक्तिमय बे आवा केटलाक गुसोने लइने आवा महान ग्रंथोने प्रसिद्धीमां लावी जैन समुहमां मूकी जैनधर्मनुं अजवालु पामवा आ ग्रंथनो आवृतो करवानो समय प्राच्यो ठें जो के या ग्रंथनी प्रथम आवृती आजथो अठार वर्ष नपर संबत १९९४५ नी सालमां मरहम गुरुराज नी समतोथो राजेश्री गीरधरलाल हीरानाई
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पालापुर दरबारी न्यायाधीशे बाहार पामी हती, परंतु तेनी एक नकल हालमां नहीं मलवाथी ते पूज्यपाद गुरुराजना परिवार मंगलनी आज्ञानुसा रतेनी बीजी आवृ मोए बाहार पामेलोबे.
आवा उपयोगो महान ग्रंथ अमारी सना तरफ बहार प तेमां मोने मोटुं मान बे जेथो तें बाबतमां मोने आज्ञा आपनार एम दान गुरुराजना परिवार मंगलनो अमो नपकार मानवो या स्थले नून जता नम्रो.
बेवटे आ ग्रंथनो प्रथम आवृतो प्रकट करावनार राजेश्री गोरधरलाल हीरानाइए अमारी सना तरफथी बोजी आवृती प्रकट करवानी आपेल मान नरेलो परवानगो माटे तेनुनो पल उपकार मानीए बीए,
आ ग्रंथ बपावतांना दरम्यान कच्छ मोटी खाखरना रेहेनार शेठ रणसीनाइ तेमज रवजी नाइ तथा नेणसीनाइ देवराजे तेनी सारी संख्यामां कोपोन लेवानो इच्छा जलाववाथी श्रावा ज्ञान खाताना कार्यना उत्तेजनार्थे श्रा तेनए क
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रेली मदद माटे अमो तेनने धन्यवाद आपीए
ये अने तेमां शेठ रवजोनाइ देवराजे खरीदेल बुको तमाम पोते पोता तरफथी वगर कीमते आपवाना होवाथी तेमना आवा स्तुती नरेला कार्यने माटे अमोने वधारे आनंद पाय . ____ ग्रंथनी शुश्ता अने निर्दोषता करवानी सा वधानी राख्या उतां कही कोई स्थले दृष्टी दोष. थी के प्रमादथो नूल येलो मालम प तो सुझ पुरुषो सुधारी वांचशो अने अमोने लखी जणा वशो तो तेननो उपकार मानोशु. संवत १९६३ ना ) समसामानंद मला फागण सुद ५ । श्री जैन याम्रानंद सना.
रविवार हेहीरोड. )
जावनगर,
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अर्पणपत्रिका. सद्गुण संपन्न स्वधर्म प्रेमी गुरुजक्त सुज्ञ शेठ श्री रणशीभाई देवराज
मु. मोटी खाखर.
__ (कच्छ). आप एक नदार अने श्रीमान जैन गृहस्थ गे जैनधर्म प्रत्येनो तेमज मुनि महाराजान प्र त्येनो आपनो अवर्णनीय प्रेम, श्वःक्षा, अने लागणी प्रसंशनीय डे. जैनधर्मना ज्ञाननो बहोलो फेलावो थाय तेवा यत्न करवामां आप प्रयत्नशील गे, अने तेवा नुत्तम कार्यना नमुनारुपे आपे आ ग्रंथ पाववामां योग्य मदद आपी ने तेमज अमारी मा सन्ना उपर अत्यंत प्रीति धरावो गे. विगेरे कारणोथी आ ग्रंप अमें आपने अर्पण करवानी रजा लश्ए गए.
प्रसिकर्ता,
-
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जैन प्रश्नोत्तर.
अनुक्रमणिका. विषय.
प्रश्नोत्तर-अंक. जिन अरु जिन शासन.
१-२ तिर्थकर. महाविदेह आदि क्षेत्रोमें मनुष्योंकों जाने
लिये हरकतो. भारतवर्ष भारतवर्ष तीर्थंकरो. प्रस्तुत चोवीसीके तीर्थकरोका मातापिता. ऋषभदेवसे पहिले भारतवर्ष धर्मका अभाव. ऋषभदेवने चलाया हुवा धर्म अद्यापि चला आताहै, तिस बिषयक ब्यान.
।१२-१३-१४-२१-२२ २३-२४-२५-२६-२७ २८-२९-३०-३१-३२
३३-३५-३६-३७-४२ महावीरचरित.
४३-४४-४५-४६-४७ ४८-४९-५०-५१-५२ ५३-५४-५५-५७-५७ ५९-८३-८४-८५-८६ ८७-८८-८९-९२-९३
।१३४-१३६-१३७-१३८ सातिवगेरा मदका फल.
१५-१९
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जैनीयोंए अपने स्वर्मिकों भ्राता सदृश जाननां.
१६-१७ जैनीयोमें ज्ञाति.
१०-२० परोपकार.
३४ ज्ञान.
३९-४०-४१. अछेरा.
५६ मुनियोंका धर्म. श्रावकोंका धर्म. मुनियोंका-अरु श्रावकोंका कोस लीये ___ धर्म पालनां, तिस विषयक ब्यान. महावीर स्वामीने दिखलाये हुवे धर्म विषयक पुस्तक.
६९-७०-७१-७२-७३ जैनमतके आगम (सिद्धांत) देवद्धि गणिक्षमाश्रमणके पहिले जैन मतके पुस्तक.
७५ महावीर स्वामीके समयमें जैनीराजें.
७६-७७ विशमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ अरु तिनकी पट्टे परंपरो.
७९-८० जैन बौद्ध मेंसें नहीं किंतु अलग चला आताहै बुद्धकी उत्पत्ति. आयुष बढता नही है.
९०-९१ उत्तराध्ययन सूत्र.
९४ निर्वाण शब्दका अर्थ
. ९५
८.
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आत्माका निर्वाण कब होताहै अरु पिछे
तिसकों कोन कहां ले जाताहै. ९६-९७-९८-९९ अभव्य जीवका निर्वाण नही अरु मोक्षमार्ग बंध नही.
१००=१०१-१०१ आत्माका अमरपणां अरु तिसका
कर्ता ईश्वर नही, १०३-१०४-१०५.-१०६ जीवकों पुनर्जन्म क्यों होताहै अरु तिसके बंध होनेमें क्या इलाजहै.
१०७-१०८ आत्माका कल्याण तीर्थकर भगवान्में __ होने विषयक ब्यान.
१०९-११० जिन पूजाका फल किस रीतिसे होताहै
तिस विषयक समाधान. पुण्य पापका फल देनेवाला ईश्वर नही किंतु
कर्म. ११२-११३-११४-११५-११६-११७-११८ जगत अकृत्रिमहै. जिन प्रतिमाकी पूजा विषयक ब्यान.
१२०-१२१-१२२-१२३ देव अरु देवोंका भेद सम्यक्त्वी देवताकी
साधु श्रावक भक्ति करे, शुभाशुभ कर्मके उदयमें देवता निमित्त है. १२४-१२५-१२६-१२७ संपतिराजा अरु तिसके कार्य.
१२८-१२९ लब्धि अरु शक्ति. १३०-१३१-१३२-१३३-१३५ ईश्वरकी मनि.
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बुद्धको मूर्ति अरु बुद्ध सर्वज्ञ नहीं था तिस विषयक ब्यान.
१४०-१४१-१४२ जनमत ब्राह्मणोके मतसे नही किंतु __ स्वतः अरु पृथक् है.
१४३ जैनमत अरु बुद्धमतके पुस्तकोंका मुकाबला. १४४-१४५ जैनमतके पुस्तकोंका संचय.
१९६-१४७ जैन आगम विषयक जैनीयोंकी बेदरकारी ___ अरु इसी लीये उनोंको ओलंभा. १४८-१४९-१५० जैनमंदिर अरु स्वधर्मि वत्सल करनेकी रीति. १५१ जैनमतका नियम सख्त अरु इसी लीये तिसके पसारेमें संकोच.
१५२ चौदपूर्व.
१५३ अन्य मतावलंबियोने जैनमतकी कीई हूई नकल
जैनमत मुजिब जगतकी व्यवस्था अष्ट कर्मका
ब्यान अरु तिसकी १४८ प्रकृतियोंका स्वरूप. महावीर स्वामिसे लेकर देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण
तलक आचार्योकी बुद्धि अरु दिगंबर श्वेताबरसें पिछे हुवा तिसका प्रमाण.
१५५ देवदिगणि क्षमाश्रमण ने महावीर भगवानकी पट्टपरंपरासें चला आता इनको पुस्तकोपर आरुढ कीया तिस विषयक व्यान मथुरांके प्राचीन लेख दिगंबर, लूंपक, ढुंढक अरु
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तेरापंथी मतवालोंकों सत्यधर्म अंगीकार करनेकी विज्ञप्ति
१५६-१५७ जैनमत मुजब योजनका प्रमाण.
१५८ गुरुके भेद तिनोकी उपमा अरु स्वरुप धर्मोपदेश
किस पासें मुननां अरु किस पासें न सुननां. १५९ जगतके धर्मका रूप अरु भेद. जैनधर्मी राजोंकों राज्य चलानेमें विरोध
नही आताहै, तिस बिषयक ब्यान. कुमारपाल राजाका बारांव्रत अरु तिसने
वो किस रीतिसें पाले थे. हिंदुस्तानके पंथो.
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॥ श्री अई नमः ॥
श्रीजैन धर्म विषयिक प्रश्नोत्तर
प्रश्न-जिन और जिनशासन इन दोनो शब्दोंका अर्थ क्याहै.
उत्तर-जो राग द्वेष क्रोध मान माया लोन काम अज्ञान रति अरति शोक हास्य जुगुप्सा अर्थात् घ्रिणा मिथ्यात्व इत्यादि नाव शत्रुयोंकों जीते तिसकों जिन कहते है यह जिन शब्दका अर्थहै. असे पूर्वोक्त जिनकी जो शिक्षा अर्थात् नत्सर्गापवादरूप मार्गद्वारा हितको प्राप्ति अहि. तका परिहार अंगीकार और त्याग करना तिसका नाम जिनशासन कहतेहै. तात्पर्य यहहैकि जिनके कहे प्रमाण चलना यह जिनशासन शब्दका अर्थहे अन्निध्धान चिंतामणि और अनुयोगद्दार वृत्यादिमेंहै.
प्र. २-जिनशासनका सार क्याहै,
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उ.-जिनशासन और द्वादशांग यह एकहीके दो नामहै इस वास्ते द्वादशांगका सार श्राचारंगहै और आचारंगका सार तिसके अर्थका य. पार्थ जानना तिस जाननेका सार तिस अर्थका यथार्थ परकों नपदेश करना तिस उपदेशका सार यहकि चारित्र अंगीकार करना अर्थात् प्राणिवध १ मृषावाद र अदत्तादान ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ रात्रिनोजन ६ इनका त्याग करना इसको चारित्र कहतेहै अथवा चरणसत्तरीके ७० सत्तर नेद और करण सत्तरिके 3 सत्तर नेद ये एकसौ चालीस १४० नेद मूल गुण नुत्तर गुणरूप अंगीकार करे तिसकों चारित्र कहते है तिस चारित्रका सार निर्वाणहै अर्थात सर्व कर्मजन्य नपाधिरूप अगिसे रहित शीतलीनूत होना तिसका नाम नि
ाण कहतेहै तिस निर्वाणका सार अव्याबाध अर्थात् शारीरिक और मानसिक पीमा रहित सदा सिह मुक्त स्वरूपमे रहना यह पूर्वोक्त सर्व जिनशासनका सारहै यह कथन श्री आचारंगकी नियुक्तिमेहै.
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३
प्र. ३- तीर्थकर कौन होते है और किस जगें होते है और किस काल में होते है.
न. - जे जीव तोर्थकर होनेके नवसें तोसरें नव में पहिलें वीस स्थानक अर्थात् वीस धर्मके कृत्य करे तिन कृत्योंसे बमा नारी तीर्थंकर नामकर्म रूप पुन्य निकाचित उपार्जन करे तब तहांसे काल करके प्रायें स्वर्ग देवलोकमें उत्पन्न होते है तहांसें काल कर मनुष्य क्षेत्र में बहुत जारी रिद्धि परिवारवाले उत्तम शुद्ध राज्यकुलमें उत्पन्न होते है जेकर पूर्व जन्म में निकाचित पुन्यसें जोग्य कर्म उपार्जन करा होवे तबतो तिस नोग्य कर्मानुसार राज्य जोगविलास मनोहर जोगते है, नही जोग्यकर्म उपार्जन करा होवे तब राज्यत्नोग नही करते है. इन तीर्थंकर होनेवाले जीवांको माताके गर्भ मेंदी तीन ज्ञान अर्थात् मति श्रुति अवधी अवश्यमेवही होते है, दीक्षाका समय तोर्थकरके जीव अपने ज्ञानसेंही जान लेते है जेकर माता पिता विद्यमान होवें तबतो तिनकी श्राज्ञा लेके जेकर माता पिता विद्यमान नही होवें तब
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४
अपने जाइ आदि कुटंबकी आज्ञा लेके दीक्षा लेंनेके एक वर्ष पहिले लोकांतिक देवते आकर कहते है है भगवान् ! धर्म तीर्थ प्रवर्त्तावो. तद पीछे एक वर्ष पर्यंत तीनसौ कोटि ग्यास्सी करोम असी लाख इतनी सोने मोहरें दान देके बने म होत्सवसें दीक्षा स्वयमेव लेते है किसीकों गुरु नही करते है क्योंकि वेतो आपही त्रैलोक्यके गुरु होनेवाले और ज्ञानवंतहै तद पीछे सर्व पापके त्यागी होके महा अद्भुत तप करके घातो कर्म चार कय करके केवली होते है. तद पोछे संसार तारक उपदेश देकर धर्म तीर्थ के करनेवाले से पुरुष तीर्थकर होते है. उपर कहे हुए वीस धर्म कृत्यों का स्वरूप संक्षेपसे नीचे लिखते है. अरिहंत १ सिद्ध २ प्रवचन संघ ३ गुरु आचार्य ४ स्वविर ५ बहुश्रुत ६ तपस्वी ७ इन सातों पदांका वात्सल्य अनुराग करनेसें इन सातों के यथावस्थित गुण उत्कीर्तन अनुरूप उपचार करनेसें तीर्थंकर नामकर्म जीव बांधता है इन पूर्वोक्त सातों अर्हतादि पदोंका अपने ज्ञानमें वार वार निरंतर स्वरूप
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चिंतन करे तो तीर्थकर नाम कर्म बांधे दर्शन सम्यक्त ए विनय ज्ञानादि विषये १० इन दोनोकों निरतिचार पालेतो तीर्थकर नाम कर्म बांधे. जो जो संयमके अवश्य करने योग्य व्यापारहै तिसको आवश्यक कहतेहै तिसमें अतिचार न लगावे तो तीर्थकर नाम कर्म बांधे ११ मूल गुण पांच महाव्रतमें और उत्तर गुण पिंम विशुद्ध्यादिक ये दोनो निरतिचार पाले तो तीर्थकर नाम कर्म बांधे १२ कण लव मूहुर्तादि कालमें संवेग ना. वना शुन्न ध्यान करनेसे तीर्थंकर नाम कर्म बांधताहै १३ उपवासादि तप करनेसे यति साधु जनको उचित दान देनेसे तीर्थकर नाम कर्म बांधताह १५ दश प्रकारकी वैयावृत्य करनेसे ती १५ गुरुवादिकांकों तिनके कार्य करणेसे गुरु आदिकोंके चित्त स्वास्त रूप समाधि नपजावनेसें ती० १६ अपूर्व अर्थात् नवा नवा ज्ञान पढनेसें ती १७ श्रुत नक्ति प्रवचन विषये प्रत्नावना करनेसे ती० १८ शास्त्रका बहुमान करनेसें ती १९ यथाशक्ति अर्हदुपदिष्ट मार्गकी देशनादि क
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रके शासनकी प्रनाबना करे तो तीर्थंकर नाम कर्म बांधेद २० कोई जीव इन वीसों कृत्योंमे चाहो कोई एक कृत्यसै तीर्थकर नाम कर्म बांधे है. कोई दो कृत्योंसे को तीनसे एवं यावत् कोइएक जीव वीस कृत्योंसे बांधेहै यह नपरका कथन ज्ञाता धर्मकथा १ कल्पसूत्र २ आवस्यकादि शास्त्रोंमे है. और तीर्थंकर पांच महाविदेह पांच जरत पांच ऐरवत इन पंदरां केत्रोमें नत्पन्न होते है और इसनरतखंममें आर्य देश साढे पच्चीसमे नुत्पन्न होतेहै वे देश २५॥ साढे पचवीस ऐसेहै. ___ उत्तर तर्फ हिमालय पर्वत और दक्षिण तर्फ विंध्याचल पर्वत और पूर्व पश्चिम समुद्रांत तक इसकों आर्यावर्त कहते है इसके बीचही साढे. पंचवीश देशहै तिनमें तीर्थंकर नुत्पन्न होतेहै यह कथन अन्निधान चिंतामणि तथा पनवणाआदि शास्त्रोंमेहै. अवसपिणि कालके बारे अर्थात् उ हिस्से है तिनमे तीसरे चौथे विनागमे तीर्थकर नत्पन्न होतेहै और नत्सपिणि कालके ब विनागोमेंसे तोसरे चोथे विनागमे नत्पन्न होतेहै.
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D
यह कथन जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों मे है.
प्र. रोके गुणाका बरनन करो.
न - तीर्थंकर भगवंत बदलेके उपकारकी इवा रहित राजा रंक ब्राह्मण और चंमाल प्रमुख सर्व जातिके योग्य पुरुषांकों एकांत हितकारक संसार समुश्की तारक धर्मदेशना करते है और तीर्थंकर भगवंत के गुणतो इंदिनी सर्व बरनन नही करसक्ते है तो फेर मेरे अल्प बुद्धीवालेकी तो क्या शक्ति है तो संक्षेपसें नव्यजीवांके जानने वास्ते थोमासा बरनन करते है. अनंत केवल ज्ञान १ अनंत केवल दर्शन २ अनंत चारित्र ३ अनंत तप | अनंत वीर्य ५ अनंत पांच लब्धि ६ कमा ७ निर्दोनता ८ सरलता ए निरनिमानता १० लाघवता १९ सत्य १२ संयम १३ निरिबकता १४ ब्रह्मचर्य १५ दया १६ परोपकारता १७ राग द्वेष रहित १८ शत्रु मित्राव रहित १८० कनक पथर इन दोनो ऊपर सम जाव २० स्त्री और तृण ऊ पर समन्नाव २१ मांसाहार रहित २२ मदिरा
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- तीर्थंकर क्या करते है और तीर्थक
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G
पान रहित २३ अन्नक्ष्य नक्षण रहित २४ अगम्य गमन रहित २५ करुणा समुड़ २६ सूर २७ वीर २८ धीर २० अन्य ३० परनिंदा रहित ३१ अपनी स्तुति न करे ३२ जो कोइ तिनके साथ विरोध करे तिसकोंनी तारनेकी इछावाले ३३ इत्यादि अनंत गुण तीर्थंकर भगवंतो मे है सो कोइजी शक्तिमान नही है जो सर्व गुण कह सके और लिख सके.
प्र. ५ - जैन मतमें जे क्षेत्र मादविदेहादिकहै तहां इहांका को मनुष्य जा सक्ता है कि नही. न. - नही जा सकता है क्योंकी रस्तेमें बर्फ पाणी जम गया है और बने बने ऊंचे पर्वत रस्ते है बी बी नदीयों और नऊ जंगल रस्ते
अन्य बहुत विघ्नहै इस वास्ते नदी जासक्ता है. प्र. ६ - भरत क्षेत्र कोनसा है और कितना लांबा चौका है.
न. - जिसमें हम रहते है यही भरतख है इसकी चौमा दक्षिणसे उत्तर तक ५२६० किंचित् अधिक नत्से गुलके हिसाबसें कोस होते है
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और वैताढ्य प्रवर्तके पास लंबा कुबक अधिक ए0000 नवे हजार नत्से गुलके हिसाबसे कोस होतेहै चीन रूसादि देश सर्व जैन मतवाले नरखेमके बीचही मानतेहै यह कथन अनुयोगहारकी चूर्णि तथा भंगुल सत्तरी ग्रंथानुसारहै कित. नेक आचार्य नरतखंमका प्रमाण अन्यतरेंके योजनोंसें मानतेहै परं अनुयोगधारकी चूर्णि कर्त्ता
श्री जिनदासगणि कमाश्रमणजी तिनके मतकों सितका मत नही कहतेहै.
प्र. ७-नरत क्षेत्रमे आजके कालसे पहिला कितने तीर्थंकर हूएहै.
उ.-इस अवसप्पिणि कालमें आज पहिला चौवीस तीर्थकर हूएहै जेकर समुच्चय अतीत कालका प्रश्न पूरतेहो तब तो अनंत तीर्थंकर इस नरत खंममे होगएहै,
प्र.G-इस अवसर्पिणि कालमे इस नरतखममें चोवोस तीर्थकर हूएहै तिनके नाम कहो.
न.-प्रथम श्री शषनदेव १ श्री अजीतनाथ २ श्री संजवनाथ ३ श्री अन्निनंदननाथ
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श्री सुमतिस्वामी ५ श्री पद्मप्रन्न ६ सुपार्श्वनाथ ७ श्री चंझन श्री सुविधिनाथ पुष्पदंत ए श्री शीतलनाथ१० श्री श्रेयांसनाथ११ श्रीवासुपूज्य१२ श्रीविमलनाथ१३ श्री अनंतनाथ१४ श्री धर्मनाथ १५ श्रीशांतिनाथ१६ श्री कुंथुनाथ१७ श्रीअरनाथ १७ श्री मल्लिनाथ १ए श्री मुनिसुव्रतस्वामी २० श्रीनमिनाथ१ श्री अरिष्टनेमिश्श् श्री पार्श्वनाथ २३ श्रीवर्धमानस्वामी महावीरजी श्व ये नामहै.
प्र. ए-इन चौवीस तीर्थकरोंके माता पिताके नाम क्या क्याथे.
न.-नानि कुलकर पिता श्रीमरूदेवीमाता १ जितशत्रुपिता विजय माता २ जितारि पिता सेना माता ३ संबर पिता सिक्षार्था माता ४ मेघ पिता मंगला माता ५ धर पिता सुसीमा माता ६ प्रतिष्ट पिता पृथ्वी माता ७ महसेन पिता लक्ष्मणा माता - सुग्रीव पिता रामा माता । दृढरथ पिता नंदामाता १० विश्नु पिता विश्नुश्री माता ११ वसुपूज्य पिता जया माता १२ कृतवर्मा पिता श्यामा माता १३ सिंहसेन पिता सु.
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यशा माता १४ जानु पिता सुव्रता माता १५ विश्वसेन पिता अचिरा माता १६ सूर पिता श्री माता १७ सुदर्शन पिता देवी माता १८ कुन पिता प्रनावति माता १ए सुमित्र पिता पदमावति माता २० विजयसेन पिता बप्रा माता ? समुविजय पिता शिवा माता श्श् अश्वसेन पिता वामा माता २३ सिद्धार्थ पिता त्रिशला माता २४ ये चौवीस तीर्थंकरोके क्रमसें माता पिताके नाम जान लेने चौवीसहो तीर्थकरोके पिता राजेथे. वीसमा २० और बावीसमा ये दोनो हरिवंश कुलमे नत्पन्न हुएथे और गौतम गोत्री थे शेष २२ बावीस तीर्थंकर ईशाकुवंशमें नत्पन्न हुएथे और काश्यप गोत्री थे.
प्र.१०-श्री ऋषन्नदेवजीसे पहिला इसनरतखंममे जैन धर्म था के नही.
न.-श्री रुपनदेवजीसे पहिलां इस अवसपिणि कालमें इसनरतखंझमे जैनधर्मादि को मतकानी धर्म नहीथा इस कथनमें जैन शा. स्त्रही प्रमाणहै.
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प्र. ११-जेसा धर्म श्रीज्ञषभदेवस्वामीने चलायाथा तैसाही आज पर्यंत चलाताहै वा कुछ फेरफार तिसमें हूआहै.
न.-श्रीशषनदेवजोने जैसा धर्म चलायाथा तैसाही श्री महावीर नगवंते धर्म चलाया इसमें किंचित्मात्रन्नी फरक नहीहै सोइ धर्म आजकाल जैन मतमें चलताहै.
प्र.-१२-श्री महावीरस्वामी किस जगें जन्मथे और तिनके जन्म हुांको आज पर्यंत १९४५ संवत तक कितने वर्ष हुएहै.
न.-श्रीमाहावीरस्वामी क्षत्रियकुंमग्राम नगरमें नत्पन्न हुएथे और आज संवत १एए तक श्व७ वर्षके लगन्नग हुएहै विक्रमसें ५४५ वर्ष पहिले चैत्र शुदि १३ मंगलवारकी रात्रि और नतराफाल्गुनि नक्षत्रके प्रथम पादमें जन्म हुआया.
प्र.१३-दात्रियकुंमग्राम नगर किस जगेंथा.
न.-पूर्व देशमें सूबेबिहार अर्थात् बहार तिसके पास कुंमलपुरके निजदीक अर्थात् पासहीथा.
प्र. १५-महावीर नगवंत देवानंदा ब्राह्म
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पीकी कूखमें किस वास्ते उत्पन्न हूये.
न.-श्रीमहावीर नगवंतके जीवने मरीचीके नवमें अपने नंच गोत्र कुलका मद अर्थात् अनिमान कराया तिस्से नीच गोत्र बांध्याथा सो नीच गोत्रकर्म बहुत नवोंमें नोगना पडा तिसमेंसें थोमासानीच गोत्र नोगना रह गयाथा तिसके प्रत्नावसे देवानंदाकी कूखमें नुत्पन्न हुए नर नीच गोत्र नोगा.
प्र. १५-तो फेर जेकर हम लोक अपनी जात नर कुलका मद करे तो अबा फल होवेगा के नही, मद करना अच्छाहै के नही.
न.-जेकर कोइनी जीव जातिका १ कु. लका १ बलका ३ रूपका ४ तपका ५ ज्ञानका ६ लानका ७ अपनी ठकुराइका ये आठ प्र. कारका मद करेगा सो जीव घणे नवां तक ये पूर्वोक्त आठहो वस्तु अली नही पावेगा अर्थात् आगेही वस्तु नीच तुब मिलेगा इस वास्ते बुद्धिमान पुरुषकों पूर्वोक्त आठहो वस्तुका मद करना अच्छा नहीहै.
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प्र.१६-जितने मनुष्य जैनधर्म पालते होवे तिन सर्व मनुष्योंको अपने नाइ समान मानना चाहियेके नही. जेकर नाइ समान मानेतो तिनके साथ खाने पीनेकी कुछ अमचलहै के नही.
न. जितने मनुष्य जैन धर्म पालते होवे तिन सर्वके साथ अपने नाश करतांनी अधिक पियार करना चाहिये, यह कथन श्राइ दिनकृत्य ग्रंथमें है और तिनोकी जातीयां जेकर लोक व्यवहार अस्पृश्य न होवें तदा तिनके साथ खाने पीनेकी जैन शास्त्रानुसार कुल अमचल मालुम नही होतीहै क्योंकि जब श्रीमहावीरजीसें ७० वर्ष पी और श्रीपार्श्वनाथजीके पीछे बडे पाट श्रीरत्नप्रनसूरिजीने जब मारवामके श्रीमाल नगरसें जिस नगरीका नाम अब निलमाल कहेतेह तिस नगरसे किसी कारणसें नीमसेन राजेका पुत्र श्रीपुंज तिसका पुत्र नत्पलकुमर तिसका मंत्री महम ए दोनो जणे १८ हजार कुटंब सहित निकलके योधपुर जिस जगेहै तिससे वीस कोसके लगनग उत्तर दिशिमे लाखों आदमीयोकी
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वस्ती रूप उपकेशपट्टन नामक नगर वसाया, तिस नगरमें सवालक आदमीयांको रत्नप्रनसू. रिने श्रावक धर्ममे स्गप्या तिस समय तिनके अगरह गोत्र स्वापन करे तिनके नाम तातहम गोत्र १ बापणा गोत्र २ कर्णाट गोत्र ३ वलहरा गोत्र ४ मोराद गोत्र ५ कुलहट गोत्र ६ विरहट गोत्र ७ श्री श्रीमाल गोत्र श्रेष्टि गोत्र ए सु. चिंती गोत्र १० आश्चणाग गोत्र ११ नूरि गोत्र नटेवरा १२ ना गोत्र १३ चीचट गोत्र १५ कुंनट गोत्र १५ मि/ गोत्र १६ कनोज गोत्र १७ लघुश्रेष्टी १८ येह अगरही जैनी होनेसे परस्पर पुत्र पुत्रीका विवाह करने लगे और परस्पर खाने पीने लगे इनमेसें कितने गोत्रांवाले रजपूतथे और कितने ब्राह्मण और बनियेनी इस वास्ते जेकर जैन शास्त्रसे यह काम विरुप होता तो आचार्य महाराज श्रीरत्नप्रनसूरिजी इन सर्वको एकठे न करते. इसी रीतीसें पीने पोरवाम नसवालादि वंश थापन करे गये है, अन्य को अमचलतो नहोहै परंतु इस कालके वैश्य लोक अपने समान किसी
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दूसरी जातिवालेको नही समजते है यह प्रमचल है प्र. १७ - जैन धर्म नही पालता होय तिसके साथ तो खाने पीने श्रादिकका व्यवहार न करे परंतु जो जैन धर्म पालता होवे तिसके साथ नक्त व्यवहार होसके के नही.
न. - यह व्यवहार करना न करना तो बलिये लोकों के आधीन है. और हमारा अभिप्राय तो हम ऊपर के प्रश्नोत्तर में लिख आए है.
प्र. १८ - जैन धर्म पालने वालोंमें अलग अलग जाती देखने में आती है ये जैन शास्त्रानुसार हैं के अन्यथा है और ए जातियों किस वखतमे हूदै.
न. - जैन धर्म पालने वाली जातियों शाखानुसारे नही बनी है, परंतु किसी गाम, नगर पुरुष धंधे के अनुसारे प्रचलित हूइ मालम पमती है. श्रीमाल नसवालकातो संवत् नपर लिख श्राये और पोरवाम वंश श्रीहरिनसूरिजीने मे - वाम देशमें स्वापन करा और तिनका विक्रम संवत् स्वर्गवास होनेका ५८५ का ग्रंथो मे लिखा है
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और जैपुरके पास खमेला गामहै तहां वीरात् ६५३ मे वर्षे जिनसेनाचार्यने २ गाम रजपूतोकें और दो गाम सोनारोके एवं सर्व गाम GU जैनी करे तिनके चौरासी गोत्र स्गपन करे सो सर्व खंमेलवाल बनिये जिनकों जैपुरादिक देशोंमें सरावगी कहतेहै. और संवत् विक्रम १७ मे हंसारसे दश कोशके फासलेपर अग्रोहा नामक नगरका उजम टेकरा बमा नारीहै तिस अग्रोहे नगरमें विक्रम संवत् २१७ के लगनग राजा अग्रके पुत्रांको और नगरवासी कितनेही हजार लोकांकों लोहाचार्यने जैनी करा, नगर न. कम हुआ. पीछे राजभ्रष्ट होनेसें और व्यापार वणिज करनेसे अग्रवाल बनिये कहलाये. इसी तरे इस कालकी जैनधर्म पालने वाली सर्व जातियां श्री महावीरसे ७० वर्ष पीसें लेके विक्रम संवत् १५७५साल तक जैन जातियों आचार्योने बनाइहै तिनसे पहिलां चारोही वर्म जैन धर्म पालते थे इस समयेकी जातियों नहीथी इस प्रश्नोत्तर में जो लेख मैने लिखाहै सो बहुत ग्रंथोमें मैने ऐसा लेख बां
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चाहे परंतु मैने अपनी मनकल्पनासे नही लिखा है.
प्र. १ - पूर्वोक्त जातीयोंमेंसें एक जातीवाले दूसरी जाति वालोंसें अपनी जातिकों नत्तम मानते है और जाति गर्व करतेदै तिनकों क्या फल होवेगा.
न. - जो अपनी जातिकों उत्तम मानते है यह केवल अज्ञानसें रूढी चली हूइ मालम होती है क्योंके परस्पर विवाह पुत्र पुत्री का करना और एक नारों में एकडे जोमला और फेर अपने श्रापकों जंचा माननां यह अज्ञानता नहीतो दूसरी क्याहै. और जातिका गर्व करनेवाले जन्मांतर में नीच जाति पावेंगे यह फल होवेगा.
प्र. २० – सर्व जैन धर्म पालनवालीयों वैश्य जातियां एकठी मिल जायें और जात न्यात नाम निकल जावे तो इस काम में जैनशास्त्रकी कुब मना है वा नही.
न. - जैन शास्त्र में तो जिस काम के करने सें धर्म में दूषण लगे सो बातकी मनाइ है. शेषतो लोकोनें अपनी अपनी रूढीयों मान रखो है नपरले
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प्रश्नोमें जब सवाल बनाएथे तब अनेक जा. तियोकी एक जाति बनाश्थी इस वास्ते अबन्नी को सामर्थ पुरुष सर्व जातियोंको एकठो करे तो क्या विरोधहै.
प्र. २१-देवानंदा ब्राह्मणीकी कूखथी त्रिशला दत्रियाणीकी कूरखमें श्रीमहावीरस्वामीकों किसने और किसतरेंसें हरण किना.
न-प्रथमदेवलोकके इंकी आज्ञार्से तिसके सेवक हरिनगमेषी देवताने संहरण कीना तिसका कारण यहहैकि कदाचित् नीच गोत्रके प्रत्नावसे तीर्थकर होने वाला जीव नीच कुलमें नुत्पन्न होवे परंतु तिस कुलमें जन्म नही होताहै इस वास्तै अनादि लोक स्थीतीके नियमोसे इंश से. वक देवतासे यह काम करवाताहै.
प्र. २२-अपनी शक्तिसें महावीरस्वामी त्रिशलाकी कूरखमें क्यों न गये.
उ.-जन्म, मरण, गर्नमें नत्पन्न होनां यह सर्व कर्मके अधीनहै. निकाचित् अवश्य नोगे विना जेन दूर होवे ऐसे कर्मके नदयमे किसीकोनी
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शक्ति नही चल सक्तिहै. और जो लोक इश्वरावतार देहधारीकों सर्वशक्तिमान् मानतेहै सो निकेवल अपने माने ईश्वरकी महत्वता जनाने वास्ते. जेकर पक्षपात गेमके विचारीये तो जो चाहेसो कर सके ऐसा कोश्नी ब्रह्मा, शिव, हरि, क्रायस वगेरे मानुष्योमे नही हुआहै. इनोंके कर्तव्योकी इनका पुस्तकें वांचीये तब यथार्थ सर्व शक्ति वि. कल मालुम होजावेंगे. इस कारणसें सर्व जीव अपने करे कर्माधीनहै इस हेतुसे श्रीमहावीरस्वामी अपनी शक्तिसें त्रिशला माताकी कूखमें नही जासकेहै.
प्र.५३-महावीरस्वामीके कितने नाम
न.-वीर १ चरमतीर्थकृत २ महावीर ३ वईमान ४ देवार्य ५ ज्ञातनंदन ६ येह नामहै १ वीर बहुत सूत्रोंमैं नामहै १ चरमतीर्थकृत कल्पादि सूत्रे २ महावीर ३ वर्द्धमान यहतो प्रसिइहै ब. हुत शास्त्रोंमे देवार्य, आवश्यकमें ज्ञातनंदन, ज्ञातपुत्र,आचारंग दशाश्रुतस्कंधे ६ उहाँ एकठे हेमाचार्यकृत् अन्निधानचिंतामणि नाममालामेहै.
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२१
प्र. २४ - श्रीमहावीरस्वामीका बना नाइ और तिनकी बहिनका क्या क्या नामथा.
न - श्री महावीरस्वामीके बने नाइका नाम नंदिवर्द्धन और बहिनका नाम सुदर्शना था.
प्र. २५ - श्री महावीरके उपर तिनके माता पिताका अत्यंत रागथा के नही.
न. - श्रीमहावीरके उपर तिनके माता पिताका अत्यंत राग था क्योंकि कल्पसूत्र में लिखा है कि श्रीमहावीरजीने गर्भमे ऐसा विचार कराके हलने चलनेसें मेरी माना दुख पावे है. इस वास्ते अपने शरीरकों गर्भमेही हलाना चलाना बंघ करा. तब त्रिशला माताने गर्भके न चलनेसें मनमें ऐसें मानाके मेरा गर्न चलता हलता नही है इस वास्ते गल गया है, तबतो त्रिसला माताने खान, पान, स्नान, राग, रंग, सब बेामके बहुत या ध्यान करना शुरु करा, तब सर्व राज्यन्नवन शोक व्याप्त हुआ. राजा सिद्धार्थनी शोकवंत हुआ. तब श्रीमहावीरजीने अवधिज्ञानसें यह बनाव देखा तब विचार कराके गर्भ मे रहे मेरे ऊपर माता
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३२
पिताका इतना बमा नारी स्नेहहै तो जब में इनकी रूबरु दीका लेऊंगा तो मेरे माता पिता अवश्य मेरे वियोगसे मर जाएगे, तब श्रीमहावीरजीने गर्नमेही यह निश्चय कराकि माता पिताके जीवते हुए मैं दीदा नही लेईंगा.
प्र. २६-इन श्रीमहावीरजीका वईमान नाम किस वास्ते रखा गया.
न. जब श्रीमहावीरजी गर्नमें आये त. बसें सिद्धार्थराजाकी सप्तांग राज्य लक्ष्मी वृद्धिमान् हुश्, तब माता पिताने विचाराके यह हमारे सर्व वस्तुको वृद्धि गर्नके प्रत्नावलें हुश्है. इस वास्ते इस पुत्रका नाम हम वर्द्धमान रखेंगे; नगवंतके जन्म पीने सर्व न्यात वंशीयोको रूबरू पुत्रका नाम वईमान ररका.
प्र. २७-इनका महावीर नाम किसने दीना.
न. परीषह और उपसर्पसे इनको नारी मरणांत कष्ट तक हुए तोनी किंचित मात्र अ. पना धीर्य और प्रतिज्ञासें नहो चलायमान हुए है, इस वास्ते इंद, शक और नक्त देवतायोंने
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श्रीमहावीर नाम दीना. यह नाम बहुत प्रसिद्धदै.
प्र. २८-श्रीमहावीरकी स्त्रीका नाम क्या था और वह स्त्री किसको बेटीथी.
उ.-श्रीमाहावीरको स्त्रीका नाम यशोदा था, और सिद्धार्थ राजाका सामंत समरवीरकी पुत्री श्री जिसका कौमिन्य गोत्र था.
प्र. २७-श्रीमहावीरजीने यशोदा स्त्रीके साथ अन्य राज्य कुमारोंकी तरे महिलोंमें नोग विलास कराया.
न.-श्री महावीरजीके नोग विलासकी सामग्री महिल बागादि सर्वथी. परंतु महावीरजी तो जन्मसेंही संसारिक लोग विलासोंसे वैराग्यवान् निस्टह रहते थे; और यशोदा परणी सोनी माता पिताके आग्रहसें और किंचित् पूर्व जन्मोपार्जित नोग्य कर्म निकाचित नोगने वास्ते. अन्यथातो तिनकी नोग्य नोगनेमे रति नही थी.
प्र.३०-श्रीमहावीरजीके को संतान हुआ था तिसका नाम क्याथा.
न.-एक पुत्री हुश्श्री तिसका नाम प्रिय
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४
दर्शना था.
प्र. ३१-श्रीमहावीरस्वामी अपने पिताके घरमें मूलसें त्यागी वा नोगी रहेथे.
न.-श्रीमहावीरजी २८ अगवीस वर्ष तक तो नोगी रहे पीने माता पिता दोनो श्री पार्श्व. नाथजी २३ में तीर्थंकरके श्रावक श्राविका थे. वेह महावीरजीकी २८ मे वर्षकी जिंदगीमें स्वर्गवासी हुए पीछे श्री महावीरजीने अपने बड़े नाइ राजा नंदिवईनकों दीक्षा लेने वास्ते पूग, तब नंदिवईनने कहाकी अबहीतो मेरे मातापिता मरेहै और तत्कालही तुम दीक्षा लेनी चाहतेहो यह मेरेको बमा नारी वियोगका सुख होवेगा, इस वास्ते दो वर्ष तक तुम घरमे मेरे कदनेसे रहो. तब महावीरजी दो वरस तक साघको तरे त्यागी रहै.
प्र.३३-महावीरजीका बेटीका किसके साथ विवाह कराया.
उ.-दत्रियकुंमका रहने वाला कौशिक गोत्रिय जमालि नामा क्षत्रिय कुमारके साथ वि
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वाह करा था.
प्र. ३३-श्रीमहावीरजीकों त्यागी होनेका क्या प्रयोजन था.
न-सर्व तीर्थंकरोका यही अनादि नियम हैकि त्यागी होके केवलज्ञान नत्पन्न करके स्व परोपकारके वास्ते धर्मोपदेश करना. तीर्थंकर अपने अवधिज्ञानसे देख लेतेहैकि अब हमारे सं. सारिक नोग्य कर्म नही रहाहै और अमुक दिन हमारे संसार गृहवास त्यागनेकाहै तिस दिनही त्यागी हो जातेहै. श्रीमहावीरस्वामोको बाबतन्नी इसी तरें जान लेनां.
प्र. ३४-परोपकार करनां यह हरेक म. नुष्यकों करनां नचितहै.
उ.-परोपकार करनां यह सर्व मनुष्योंकों करना उचितहै, धर्मी पुरुषकोंतो अवश्यही करनां नचितहै.
प्र. ३५–श्रीमहावीरजीने किस वस्तुका त्याग करा था. __न.-सर्व सावद्य योगका अर्थात् जीव
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२६
हिंसा १ मृषावाद २ प्रदत्तादान ३ मैथुन स्त्री आदिकका प्रसंग ४ सर्व परिग्रह ५ इत्यादि सर्व पके कृत्य करने करावने अनुमतिका त्याग कराथा.
प्र. ३६ – श्रीमहावीरजीने नगारपणा कब लीनाथा और किस जगे में लीनाथा और कितने वर्षकी उमर में लीनाथा
न - विक्रमसें पहिले ५१२ वर्षे मगसिर aat ददामी दिन पिबले पहर मे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में विजय महुर्त्तमें चंदना शिवका में बैah चार प्रकारके देवते और नंदि वर्द्धन राजाप्रमुख हजारों मनुष्योंसें परिवरे हुए नानाप्रकारके वार्जित्र बजते हुए बने नारी महोत्सवसें न्यातवनक नाम बागमे अशोकवृक्षके देवे जन्मसें तीस वर्ष व्यतीत हुए दीक्षा लोनीथी. मस्तक के केश अपने हाथसें लुंचन करे और अंदर के क्रोध, मान, माया, लोभका लुंचन करा.
प्र. ३७ - श्री महावीरजीकों दीक्षा लेनेसें तुरत दी किस वस्तुकी प्राप्ति हुईथी.
न. चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ था.
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प्र. ३०-मनःपर्यवज्ञान नगवंतकों गृह स्थावस्थामें क्युं न हुआ.
उ.-मनःपर्यवज्ञान निग्रंथ संयमीकोंही होताहै अन्यको नही.
प्र. ३ए-ज्ञान कितने प्रकारकेहै. न.-पांच प्रकारके शानहै. प्र.४०-तिन पांचो ज्ञानके नाम क्या क्याहै.
न.-मतिज्ञान १ श्रुतिज्ञान २ अवधिज्ञान ३ मनःपर्यवज्ञान । केवलज्ञान ५
प्र. ४१-इन पांचो ज्ञानोंका थोमासा स्वरूप कहो.
न.-मतिज्ञान विनाही सुनेके जो ज्ञान होवे तथा चार प्रकारकी जो बुद्धिहै सो मतिज्ञानहै. इसके ३३६ तीनसौ उत्तीस नेदहै. जो कहने सुननेमे आवे सो श्रुतिज्ञान है; तिसके १४ चौदह नेदहै. अवधिज्ञान सर्व रूपी घस्तुकों जाने देखे; तिसके ६ नेद है. मनःपर्यवज्ञान अ. ढाइहीपके अंदर सर्वके मन चिंतित अर्थको जाने देखे. तिसके दोय दहै. केवलज्ञान नूत, न.
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२०
विष्यत्, वर्त्तमानकालको वस्तु सूक्ष्म बादर रूपी अरूपी व्यवध्यान रहित व्यवधान सहित दूर नेमे अंदर बाहिर सर्व वस्तुकों जाने, देखेहै; इस झानके जेद नही है. इन पांचो ज्ञानोका विशेष स्वरूप देखना होवेतो नंदिसूत्र मलयगिरि वृत्ति सहित वांचना वा सुन लेना,
प्र. ४२ - श्रीमहावीरस्वामी अनगार हो कर जब चलने लगेथे तब तिनके नाइ राजा नंदिवर्द्धनने जो विलाप कराया तो थोमासा श्लोकोमें कद दिखलावो.
न. - त्वया विना वीर कथं व्रजामो ॥ गृदेधुना शून्य वनोपमाने || गोष्टी सुखं केन सहाचरामो । नोक्ष्यामहे केन सहाथ बंधो ॥ १ ॥ अस्यार्थः ॥ हे वीर तेरे एकलेको बोमके हम सूने बन समान अपने घर में तेरे विना क्युंकर जावेंगे, अर्थात् तेरे विना हमारे राजमहिलमे हमारा मन जानेको नही करता है, तथा दे बंधव तेरें विना एकांत बेठके अपने सुख दुखको बातां क रन रूप गोष्टी किसके साथ मैं करूंगा तथा दे
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बंधव तेरे विना मैं किसके साथ बैठके भोजन जीमुगा; क्योंके तेरे विना अन्य कोई मेरा त्रिशलाका जया जाइ नही है १ सर्वेषु कार्येषु च वीर वीरे ॥ त्यामंत्रणदर्शनतस्तवार्य ॥ प्रेमप्रक र्षादनजामहर्ष निराश्रया श्चायकमाश्रयामः ॥२॥ अर्थ || हे आर्य उत्तम सर्व कार्यके विषे वीर वीर ऐसे हम तेरेकों बुलाते थे और हे श्रार्य तेरे देखनेसे दम बहुत प्रेमसें दर्षकों प्राप्त होते थे; अब दम निराश्रय होगये है, सो किसकों श्राश्रित होवे, अर्थात् तेरे विना हम किसकों हे वीर दे वीर कहेंगे, और देखके हर्षित होवेगे ॥ २॥ अति प्रियं बांधव दर्शनं ते । सुधांजनं नाविक दास्म दक्ष्णोः नीरागचित्तोपिकदाचिदस्मान् ॥ स्मरिष्यसि प्रौढ गुणाभिराम ॥ ३ ॥ प्रस्यार्थः ॥ दे बांधव तेरा दर्शन मेरेकों अधिक प्रिय है, सो तुमारे दर्शन रूप अमृतांजन हमारी आंखो में फेर कद पगा. हे महा गुणवान् वीर तूं निराग चित्तवाला है तो कक हम प्रिय बंधवांकों स्मरण करेंगा ३ इत्यादि विलाप करेथे.
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प्र. ३-श्रीमहावीरस्वामी दीक्षा लेके जब प्रथम विहार करने लगेथे तिस अवसरमें शकईश्ने श्रीमहावीरजीको क्या बिनती करीश्री.
न.-शकशने कहाकि हे नगवन् तुमारे पूर्व जन्मोंके बहुत असाता वेदनीयादि कग्नि कमोके बंधनहै तिनके प्रत्नावसे आपकों बद्मस्वावस्गमें बहुत नारी उपसर्ग होवेंगे जेकर आपकी अनुमति होवे तो मैं तुमारे साथही साथ रहुं और तुमारे सर्व नपसर्ग टालु अर्थात् दूर करूं.
प्र. ४४-तब श्रीमहावीरजीने को क्या नत्तर दीनाथा.
न-तब श्रीमहावीरजीने इंकों ऐसे कहा के हे ६ यह वात कदापि अतीत काल में नही हुईहै अबन्नी नहीहै और अनागत कालमे नी नही होवेगी के किसीनी देवें असुरेशदिके साहाय्यसे तीर्थंकर कर्मक्षय करके केवलज्ञान न. त्पन्न करतेहै; किंतु सर्व तीर्थंकर अपने ५ प्राकमसें केवलज्ञान नत्पन्न करतेहै इस वास्ते हमनी दूसरेकी साहाय्य विना अपनेही प्राक्रमसें केवल
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ज्ञान उत्पन्न करेंगे.
प्र. ४५—क्या श्रीमहावीरजीकी सेवामें इंज्ञादि देवते रहते थे.
उ.-उद्ममस्गवस्त्रगमें तो एक सिझार्थनामा देवता इंश्को आज्ञासे मरणांत कष्ट पुर करने वास्ते सदा साथ रहता था; और इंद्रादि देवते किसि किसि अवसरमें वंदना करने सुखसाता पूरने वास्ते और नपसर्ग निवारण बास्ते आते थे और केवलज्ञान नत्पन्न हुआ पीतो सदाही देवते सेवामे हाजर रहतेथे.
प्र. ४६-श्रीमहावीरजीने दीक्षा लीया पीछे क्या नियम धारण कराया.
न.-यावत् उद्मस्व रहुं तावत् कोइ परीषह उपसर्ग मुझकों होवे ते सर्व दोनता रहित अन्य जनकी साहायसे रहित सहन करूं. जिस स्वगनमे रहनेसें तिस मकान वालेकों अप्रीति नत्पन होवे तो तहां नहीं रहेनां १ सदाही कार्योत्सर्ग अर्थात् सदा खमा होके दोनो बाहां शरी. रके अनलगती हु हैठकों लांबी करके पगोंमे
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चार अंगुल अंतर रखके थोमासा मस्तक नीचा नमावी एक किसी जीव रहित वस्तु नपर दृष्टि लगाके खमा रहुंगा २; गृहस्तका विनय नही करुंगा ३: मौन धारके रहुंगा ४; हायमेही लेके नोजन करूंगा, पात्रमे नदी ५, ये अनिग्रह नियम धारण करेथे.
प्रज-श्रीमहावीरस्वामीजीने बद्मस्ल का. लमे कैसे कैसे परीग्रह परीषह उपसर्ग सहन करे थे तिनका संदेपसे ब्यान करो.
न. प्रथम नपसर्ग गोवालीयेने करा १ शूलपाणिके मंदिरमें रहे तहां शूलपाणी यदने उपसर्ग करे ते ऐसे अदृष्ट हासी करके मराया १ हाथीका रूप करके नपसर्ग करा २ सर्पके रूपसें ३पिशाचके रूपसें । नपसर्ग सरा. पी मस्तकमे १ कानमे २ नाकमे ३ नेत्रोंमे ४ दांतोमें ५ पुग्में ६ नखेमे ७ अन्य सुकुमार अंगोमें ऐसी पीमा कीनीके जेकर सामान्य पुरुष एक अंगमेनी ऐसी पीमा होवे तो तत्काल मरण पावे, परंगवंतनेतो मेरुकी तरें अचल होके अदीन मनसे सहन
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करे, अंतमे देवता थकके श्री महावीरजीका सेवक बना शांत हुआ. चंम कौशिक सर्पने मंक मारा परं नगवंततो मरा नही, सर्प प्रतिबोध हूआ. सुदंष्ठ नाग कुमार देवताका उपसर्ग संबल कंबल देवतायोंने निवारा, नगवंततो कायो. त्सर्गमें खमेथे. लोकोंने बनमे अग्नि बालो लोक तो चले गये पोडे अग्नि सूके घासादिको बालती हू नगवंतके पगों हेठ आ गइ, तिस्ते नगवंत के पग दग्ध हूए परं नगवंतने तो कायोत्सर्ग डोमा नही. तहांही खमे रहे. कटपूतना देवीने माघमासके दिनों में सारी रात नगवंतके शरीरकों अत्यत शोतल जल गंटा, नगवंततो चलायमान नही हुए. अंतमे देवी थकके जगवंतकी स्तुति करने लगी. संगम देवताने एक रात्रिमें वीस नपसर्ग करे वे एसेहै नगवंतके उपर धूलिकी वर्षा करी जिस्से नगवंतके आंख कानादि श्रोत बंद होनेसे स्वासोत्साससे रहित हो गये तोनी ध्यानसे नही चले १ पीछे बजमुखी कोमीयों बनाके नगवंतका शरीर चालनिवत् सबि करा २ बज
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३४ चूंचवाले दंशोने बहु पीमा करी ३ तीक्ष्ण चूंच. वालो घीमेल बनके खाया ४ बिबु ५ सर्प ६ ननल ७ मूसे के रूपोसें मंक मारा और मांस नोची खाधा. दाश्री ए हथणी १० बनके झूम दांतका घाव करा पग हेठ मर्दन करा तोनीनगवंत वज झपन्न नाराच नामक संहनन वाले होनेसे नही मरे. पिशाच बनके अहहहास्य करा ११ सिंह बनके नख दामायोंसे बिदारया, फामया १२ सिदार्थ त्रिशलाका रूप करके पुत्रके स्नेहके बिलाप करे १३ स्कंधावारके लोक बनाके नगवंतके पगों उपर हांझी रांधी १४ चमालके रूपसें पंखियोंके पंजरे नगवंतके कान बाहु आदिमे लगाये तिन पदीयोंने शरीर नोंचा १५ पीने खर पवनसें नगवंतकों गेंदकी तरे नहाल के धरती ऊपर पटका १६ पीछे कलिका पवन क. रके नगवंतकों चक्रकी तरे घुमाया १७ पीले चक्र मारा जिससे नगवंत जानु तक नूमिमे धस गये १८ पीने प्रनात विकुर्वी कहने लगा विहार करो. नगवंततो अवधिज्ञानसे जानतेथे के अबीतोरा
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त्रिदै १ए पीजे देवांगनाका रूप करके हाव नावादि करके नपसर्ग दीना २० इन वीलों नपसगाँसें जब नगवंत किंचित् मात्रन्नी नही चले तब संगमदेवताने मास तक लगवंतके साथ रहके नपसर्ग करे, अंतमें थकके अपनी प्रतिज्ञासे ब्रष्ट होके चला गया. अनार्य देशमे नगवंतको बहुत परीसह नपसर्ग हुए. अंतमे दोनो कानोंमें गोवालीयोंने कांसकी सलीयो माली तिनसे बहुत पीमा हुइ सा मध्यम पावापुरी नगरीमे खरकवैद्य सिझार्थ नामा बाणियाने कांसकी सलीयों कानोमेंसे काढी जगवंत निरुपक्रमायुवाले थे इससे उपसर्गोमे मरे नही, अन्य सामान्य मनुष्यकी क्या शक्तिहै, जो इतने उख होनेसें न मरे. विशेष इनका देखना होवेतो आवश्यक सूत्रसें देख लेना.
प्र. -श्रीमहावीरस्वामीको उपसर्ग हो. नेका क्या कारण था.
न.-पूर्व जन्मांतरोमें राज्य करणेसें अत्यंत पाप करे वे सर्व इस जन्ममेही नष्ट होने चाहिये
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३६
इस वास्ते असातावेदनीय कर्म निकाचितनें श्र पने फल रूप नृपसर्गसें कर्म जोग्य कराके दूर दोगये, इस वास्ते बहुत उपसर्ग हुए.
प्र. ४ - श्रीमहावीरजीने परीषहे किस वास्ते सहन करे और तप किस वास्ते करा.
न. - जेकर जगवंत परोषहे न सहन करते और तप न करते तो पूर्वोपार्जित पाप, कर्म, दय न होते, तबतो केवलज्ञान और निर्वाण पद ये दोनो न प्राप्त होते इस वास्ते परीषहे नृपसर्ग सहन करे, और तपनी करा.
प्र. ५० - श्रीमहावीरजीने बद्मस्वावस्था में तप कितना करा और नोजन कितने दिन कराया, न. - इसका स्वरूप नोचले यंत्र से समऊ लेनां.
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मासी | मासी | चार | तीन अढाइ दो मासी मेढ मा मास क पखवा तप १ मासी मासी मास | तप | स तप पण तप मीयातप
तप
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तप १ पांच दिन | ए | २ | २ | ६ | १ | १२ । ७२
न्यून लर प्रति महा नासर्वतो बह अध्म सर्व पा| दिक्षा सर्व काल तप नर मा तप | तप ४ |न | तप | तप रणां | दिन | पारणा एकत्र तप
करै दिन ३ ४ |१०| | १२ | ३धए। १ । १५ वर्ष मास ६
दिन १५
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३०
प्र. ५१ - श्रीमहावीरजीकों दीक्षा लीये पीछे कितने वर्ष गये केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था.
न. - १२ वर्ष ६ मास ऊपर १५ पंदरादिन इतने काल गये पोछे केवलज्ञान ऊत्पन्न हुआ था.
प्र. ५२ - श्रीमहावीरजीकों केवलज्ञान कैसी अवस्बा में और किस जगें, उत्पन्न हुआ था.
न. - वैशाख शुदि १० दशमी के दिन पिछले चौथे पहर में जूँजिक गाम नगरके बाहिर रुजु - बालुका नामे नदीके कांठे ऊपर वैयावृत्त नामा व्यंतर देवताके देहरे के पास श्यामाक नामा गृहपतिके खेत में साल वृक्ष के नीचे गाय दोहनेके अवसर में जैसें पगथलीयोंके नार बैठते है तैसें नकटिका नाम आसने बैठे प्रतापना लेनेकी जगें प्रतापना लेते हुए, तिस दिन दूसरा उपवास बघ नक्त पाणि रहित करा हुआथा. शुक्ल ध्यानके दूसरे पादमे आरूढ हुआकों केवलज्ञान हुआ था.
प्र. ५३ - भगवंतकों जब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था तब तिनकी कैसी अवस्था हुइथी.
न. - सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहंत जिन केवली
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रूप अवस्ग हस्थी.
प्र. ५४-नगवंतकी प्रथम देशनासे किसीको लान्न हुआथा.
न.-नही ॥ शुनने बालेतो थे, परंतु कि. सीको तिस देशनासे गुण नही उत्पन्न हुआ.
प्र. ५५-प्रथम देशना खाली ग तिस बनावकों जैन शास्त्र में क्या नाम कहतेहै.
न.-अछेरा नूत अर्थात् आश्चर्य नूत जैन शास्त्रमें इस बनावका नाम कहाहै.
प्र.५६-अबेरा किसकों कहतेहै.
न.-जो वस्तु अनंते काल, पीले आश्चर्य कारक होवे तिसको अछेरा कहतेहै, क्योंकि कोशनी तीर्थकरकी देशना निःफल नही जातीहै और श्रीमहावीरजीकी देशना निष्फल गइ, इस वास्ते इसको अछेरा कहतेहै.
प्र.५७-श्रीमहावीरजीतो केवलज्ञानसें जानते थे कि मेरी प्रथम देशनासे किसीकोंन्नी कुब गुण नही होवेगा, तो फेर देशना किस वास्ते दोनी.
न.-सर्व तीर्थंकरोंका यह अनादि नियम
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५०
है कि जब केवलज्ञान नत्पन्न होवे तब अवश्यही देशना देते है तिस देशनासें अवश्यमेव जोवांकों गुण प्राप्त होताहै, परं श्रीवीरकी प्रथम देशनासे किसीको गुण न हुआ; इस वास्ते अछेरा कहाहै.
प्र. ५-श्रीमहावीर नगवंते दूसरी देशना किस जगें दीनोथी.
न.-जिस जगें केवलझान नत्पन्न हुआ था तिस जगासें ४ कोसके अंतरे अपापा नामा, नगरी थी, तिससे इशान कोनमे महासेन वन नामे नद्यान या तिस वनमें श्रीमहावीरजी आए; तहां देवतायोने समवसरण रचा. तिसमें बैठके श्रीमहावीर नगवंते देशना दूसरी दोनी.
प्र. एए-दूसरी देशना सुनने वास्ते तहां कोन कोन आये थे और तिस दप्तरी देशनामें क्या बमा नारी बनाव बना था और किस किसमें दीक्षा लोनी, और नगवंतके कितने शिष्य साधु हुए, और बमी शिष्यणी कौन हूश्.
न.-चार प्रकारके देवता और चार प्रकारकी देवी मनुष्य, मनुष्यणी इत्यादि धर्म सुन. नेकों आये थे.
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नगवंतकी देशना सुनके बहुत नर नारी अपापा नगरीमें जाके कहने लगे, आजतो हमारो पुन्यदशा जागी जो हमने सर्वझके दर्शन करे, और तिसकी देशना सुनी हमने तो ऐसी रचना. वाला सर्वज्ञ कदे देखा नहीं; यह वात नगरमे विस्तरो तिस अवसरमें तिस अपापा नगरोमें सोमल नामा ब्राह्मणने यज्ञ करनेका प्रारंन कर रस्का था, तिस यज्ञके कराने वाले इग्यारें ब्राह्मगोंके मुख्याचार्य बुलवाये थे, तिनके नामादि सर्व ऐसें थे. इंश्नूति १ अग्निन्नूति २ वायुनूति ३ ये तीनो सगेनाइ, गौतम गोत्री, इनका जन्म गाम मगधदेशमें गोबरगाम, इनका पिता बसुन्नूति, माताका नाम पृथिवी, उमर तीनोकी गृहवासमें क्रमसे ५० । ४६ । ४२ । वर्षकी इनके विद्यार्थी ५०० पांच पांचसौ चतुर्दश विद्याके पारगामी चौथा अव्यक्त नामा १ नारद्वाज गोत्र २ जन्म गाम कोखाक सनिवेस ३ पिताका नाम धनमित्र ४ माता वारुणी नामा ५ गृहवासें नमर ५० वर्षकी ६ विद्यार्थी ५ सौ ७ विद्या १५
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४३
का जान ज. पांचमा सुधर्म नामा १ अग्निवैश्यायन गोत्री २ जन्म गाम कोल्लाक सनिवेस ३ पिता धम्मिल नश्लिा माता ५ गृहवास ५० वर्ष ६ विद्यार्थी ए०० सौ ७ विद्या । १४ । ७. उघा मंमिकपुत्र नाम १ वाशिष्ट गोत्र २ जन्म गाम मौर्य सन्निवेश ३ पिता धनदेव ४ माता विजयदेवा ५ गृहवास ६५ वर्ष ६ विद्यार्थी ३५० सौ ७ विद्या । १४ । ज. सातमा मौर्य पुत्र नाम १ का. श्यप गोत्र २ जन्म गाम मौर्य सन्निवेस ३ पिता मौर्य नाम ४ माता विजयदेवा ए गृहवास ५३ वर्ष ६ विद्यार्थी ३५० सौ विद्या । १५ । ७. आउमा अकंपित नाम १ गौतम गोत्र २ जन्म गाम मिथिला ३ पिता नाम देव ४ माता जयंती एगृ. हवास ४ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० सौ, विद्या १५ । . नवमा अचलभ्राता नाम १ गोत्र हारीत २ जन्म गम कोशला ३ पिता नाम वसु । नंदा माता ५ गृहवास ४६ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० सौ, विद्या १४ । ७. दसमेका नाम मेतार्य १ गोत्र कौमिन्य २ जन्म गाम कौशला वत्स भूमिमे ३
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पिता दत्त । माता बरुणदेवा ५ गृहवास ३६ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० तीनसौ ७ विद्या १५ । ७. इ. ग्यारमा प्रन्नास नामा १ गौत्र कौमिन्य २ जन्म राजगृह ३ पिता बल ४ माता अतिन्नश ५ गृहवास १६ वर्ष ६ विद्यार्थी ३०० सौ ७ विद्या १४ । ७. इस स्वरूप वाले ग्यारे मुख्य ब्राह्मण यज्ञ पामेमें थे तिनोके कानमें पूर्वोक्त शब्द सर्वज्ञकी महिमाका पमा, तब इंद्रनृति गौतम अनिमान सें सर्वज्ञका मान नंजन करने वास्ते जगवंतके पास आया। तिनकों देखके आश्चर्यवान् हुआ; तब लगवंतने कहा हे इंश्लूति गौतम तुं आया तब गौतम मनमें चिंतने लगा मेरे नाम लेनेसें तो मै सर्वज्ञ नही मानु, परं मेरे रिदय गत संशय दूर करे तो सर्वज्ञ मान. तब नगवंतने तिनके वेद पद और युक्तिसे संशय दूर करा. तब ५०० सौ गत्रा सहित गौतमजीने दीक्षा लीनी, ए बमा शिष्य हुआ. इसी तरे ग्यारेदीके मनके संशय दूर करे और सर्वने दीक्षा लीनी. सर्व ४१०० सौ ग्यारे अधिक शिष्य हुए. इग्यारोंके मनमें जीवहै के
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४४
नही १ कर्महैके नही १ जो जीव है सोइ शरीर है वा शरीरसे जीव अलग है ३ पांच भूत वा नही ४ जैसा इस जन्ममे जीवहै जन्मांतर में ऐसाही होवेगा के अन्य तरेका होवेगा ५ मोक्ष के नही ६ देवते है के नही ७ नारकी है के नही ० पुन्य है के नही ए परलोक है के नही १० मोक्षका नपाय है के नही ११. इनके दूर करने का संपूर्ण कन विशेषावश्यक है. तिस दिनही चंपा के राजा दधिवाहनको पुत्री कुमारी ब्रह्मचारणी चंदनवा लाने दीक्षा लीनी. यह बमो शिष्यणी हुई. इसके साथ कितनीही स्त्रीयोंने दीक्षा लीनी. दूसरी देशनामे यह बनाव बनाया.
प्र. ६० – गणधर किसकों कहते है.
उ. - जिस जीवनें पूर्व जन्ममे शुभ करणी करके गणधर होनेका पुन्य उपार्जन करा दोवे सो जीव मनुष्य जन्म लेके तीर्थकर के साथ दीक्षा लेता है अथवा तीर्थंकर प्रतिको जब केवलज्ञान होता है तिनके पास दीक्षा लेता है, और बमा शिष्य होता है; तीर्थंकरकें मुखसें त्रिपदी सुनके ग
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गधर लब्धिसें चौदहे पूर्व रचताहै और चार ज्ञानका धारक होताहै. तिसकों तीर्थंकर नगवंत गणधर पद देतेहै और साधुयोंके समुदाय रूप ग
कों धारण करता है, तिसकों गणधर कहतेहै. प्र.६१-श्रीमहावीरजीके कितने गणधर हुए थे.
उ.-ग्यारें गणधर हुए थे, तिनके नाम ऊपर लिख आएहै.
प्र. ६२-संघ किसकों कहतेहै.
न.-साधु १ साध्वी श्रावक ३ श्राविका ४ इन चारोंकों संघ कहतेहै.
प्र. ६३–श्रीमहावीर नगवंतके संघमें मुख्य नाम किस किसका था.
उ.-साधुयोंमे इंश्नूति गौतम स्वामी नाम प्रसिइ १ साधवीयोंमें चंपा नगरीके दधिबाहन राजाकी पुत्री साधवी चंदनबाला श्रावकोंमें मु. ख्य श्रावस्ति नगरीके वसने वाले संख १ शतक २ श्राविकायोंमें सुलसा ३ रेवती सुलसा राजगृहके प्रसेनिजित राजाका सारथी नाग तिसको नार्या और रेवती मेंढिक ग्रामकी रहने वाली
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धनाढ्य गृह पत्नी श्री.
ଅଷ୍ଟି
प्र. ६४ - श्रीमहावीरस्वामीनें किसतरेंका
धर्म प्ररूप्या था
न. - सम्यक्त पूर्वक साधुका धर्म और श्रावकका धर्म प्ररूप्या था
प्र. ६५ सम्यक्तं पूर्वक किसकों कहते है. उ. - नगवंतके कथनकों जो सत्य करके श्र, तिसकों सम्यक्त कहते है, सो कथन यहहै. लोककी अस्ति है १ अलोकनी है २ जीवनी है ३ जीवजी ४ कर्मका बंधनी है ५ कर्मका मोक्ष जीहै ६ पुन्यन्नी है 9 पापनी है ८ श्रव कर्मका श्रावणानी जीव है ए कर्म आवनेके रोकऐका उपाय संबरनी है १० करे कर्मका वेदना जोगना
है ११ कर्मकी निर्जरानी है कर्म फल देके खिरजाते है १२ अरिहंतनी है १३ चक्रवर्तीनी है १४ बलदेव बासुदेवजी है १५ नरकनी है १६ नारकीमी १७ तिर्यंचनी है १८ तिर्यचणीनी है १७ माता पिता रुषीनी है २० देवता और देवलोकनी है २१ सिद्धि स्थानजी है २२ सिनी २३
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H
परिनिर्वाणनीहै श्व परिनिवृत्तनीहै ३५ जीवहिं. सान्नीहै २५ जूग्नीहै २६ चौरीनोहै २७ मैथुननीहै २७ परिग्रहनीहै श्ए क्रोध, मान माया, लोन, राग, द्वेष, कलह, अन्याख्यान, पैशुन, परनिंदा, माया, मृषा, मिथ्यादर्शन, शल्य येनी सर्व है. इन पूर्वोक्त जीव हिंसासें लेके मिथ्यादर्शन पर्यंत अगरह पापोंके प्रतिपदी अगरह प्रकारके त्यागन्नीहै ३० सर्व अस्ति नावकों अस्ति रूपे और नास्तिनावकों नास्तिरूपें नगवंतने कहाहै ३१ अछे कर्मका अहा फल होताहै बुरे क
र्माका बुरा फल होताहै ३२ पुण्य पाप दोनो संसारावस्थामें जीवके साथ रहतेहै ३३ यह जो नियोंके वचनहै वे अति उत्तम देव लोक और मोदके देने वालेहै ३५ चार काम करने बाला जीव मरके नरक गतिमें नत्पन्न होताहै. महा हिंसक, क्षेत्र वामी कर्षण सर सोसादिसें महा जीवांका बध करनेवाला १ महा परिग्रह तृभा वाला ५ मांसका खाने वाला ३ पंचेंश्यि जीवका मारने वाला ४ ॥ चार काम करने वाला मरके तिर्यंच
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गतिमें उत्पन्न होता है. माया कपटसें दूसरे के साथ ठगी करे ? अपने करे कपटके ढांकने वास्ते जुठ बोले २ कमती तोल देवे अधिक तोल लेवे ३ गुसावंत के गुण देख सुनके निंदा करे ४ चार काम करनेसें मनुष्य गति में उत्पन्न होता है; नकि स्व नाव वाले स्वनावें कुटलितासें रहित होवे १ स्वनावेहीं विनयवंत होवे श् दयावंत होवे ३ गुणवंतके गुण सुनके देखके द्वेष न करे ४ ॥ चार कारणसें देवगतिमें उत्पन्न होता है; सरागी साधुपला पालनेसें १ गृहस्थ धर्म देश विरति पालनेसें अज्ञान तप करनेसें ३ अकाम निर्जरासे ४ तथा जैसी नरक तिर्यंच गतिमे जीव वेदना जोगता है और मनुष्यपणा अनित्य है. व्याधि, जरा, मररा वेदना करके बहुत जरा हुआ है. इस वास्ते धर्म करणे में उद्यम करो. देवलोक में देवतायोंकों मनुष्य करतां बहुत सुख है. अंतमे सोनी अनित्य है. जैसे जीव कर्मोसें बंधाता है और जैसें जीव कर्मसें बुटके निर्वाण पदकों प्राप्त होता हैं और काय के जीवांका स्वरूप ऐसा
पीछे साधुका
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४ए
धर्म और श्रावकके धर्मका यह स्वरूपहै इत्यादि धर्म देशना श्री महावीर नगवंते सर्वजातिके मनुष्यादिकोंको कथन करीथी.
प्र. ६६-साधुके धर्मका थोमेसेमें स्वरूप कह दिखलानः
न.-पांच महाव्रत और रात्रि नोजनका त्याग यह वस्तु धारण करे. दश प्रकारका यति धर्म और सत्तरेनेदे संयम पालन करे; ४२ बैतालीस दोष रहित निदा ग्रहण करे; दश विध चक्रवाल समाचारी पाले.
प्र.६७-श्रावक धर्मका श्रोझेसे में स्वरूप कह दिखलान.
उ.-त्रस जीवकी हिंसाका त्याग १ बमे जुम्का त्याग, अर्थात् जिसके बोलनेसे राजसे दंम होवे, और जगतमें जुठ बोलने वाला प्रसिध्द होवे. ऐसे चौरीमेंनी जानना २ बडी चोरीका त्याग ३ परस्त्रीका त्याग ४ परिग्रहका प्रमाण ५ ब्हें दिशामें जानेका प्रमाण करे. नोग परिनोगका प्रमाण करे; बावीस अन्नदय न खाने योग्य
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५०
वस्तुका ओर बतीस अनंत कायका त्याग करे. और १५ बुरे वाणिज व्यापार करनेका त्याग करे. बिना प्रयोजन पाप न करे. सामायिक करे; देशावकाशिक करे; पोषध करे; दान देवे; त्रिका ल देव पूजन करे.
प्र. ६७-साधु श्रावकका धर्म किसवास्ते मनुष्यों को करना चाहिये.
न.-जन्म मरणादि संसार भ्रमण रूप सुखसे बूटने वास्ते साधु और श्रावकका पूर्वोक्त धर्म करना चाहिये.
प्र. ६ए-श्रीनगवंत महावीरजीने जो धर्म कथन कराया. सो धर्म श्रीमहावीरजीने अपने हाथोंसे किसी पुस्तकमें लिखा था वा नही.
न.-नही लिखाथा.
प्र. ७०–श्रीमहावीर नगवंतका कथन करा हुआ सर्व उपदेश नगवंतकी रूबरु किसी दूसरे पुरुषने लिखाथा.
न.-दूसरे किसी पुरुषने सर्व नही लिखाथा. प्र. ७१-क्या लिखने लोक नही जानते
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थे, इस वास्ते नही लिखा वा अन्य कोइ कारएप था.
न.-लिखनेतो जानते थे, परं सर्व ज्ञान लिखनेकी शक्ति किसोनी पुरुषमें नही थी, क्योकें नगवंतने जितना ज्ञानमें देखा था तिसके अनंतमें नागका स्वरूप वचनद्वारा कहा था. जितना कथन करा था तिसके अनंतमें नाग प्रमाण गणधरोने बादशांग सूत्र में ग्रंथन करा, जेकर कोइ १२ बारमें अंग दृष्टिबादका तीसरा पूर्व नामा एक अध्ययन लिखे तो १६३०३ सो. लांहजार तीन सौ त्रिराशी हाथीयों जितने स्पा हीके ढेर लिखने में लगें, तो फेर संपूर्ण द्वादशांग लिखनेकी किसमे शक्ति हो सक्तीहै, और जब तीर्थंकर गणधरादि चौदह पूर्वधारी विद्यमान तिनके आगे लिखनेका कुबनी प्रयोजन नहीथा,
और देशमात्र ज्ञान किसि साधु, श्रावकने प्रकरण रूप लिख लीया होवे, अपने पठन करने वास्ते, तो निषेध नही.
प्र. ७३–पूर्वोक्त जैनमतके सर्व पुस्तक
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५
श्रीमहावीरसें और विक्रम संवत्की शुरुयातसें कितने वर्ष पीछे लिखे गये है,
न - श्रीमहावीरजीसें ए८० नवसौ अंस्सी वर्ष पीछे और विक्रम संवत् ५१० में लिखे गये है,
प्र ७३ - इन शास्त्रोंके कंठ और लिखने में क्या व्यवस्था बनी थी, और यह पुस्तक किस जगे किसने किस रीतीसे कितने लिखेथे.
ऊ. - श्री महावीरजीसें १७० वर्षतक श्री बाहुस्वामी यावत् ( द्वादशांग ) चौदह पूर्व और इग्यारे अंग जैसें सुधर्मस्वामीने पाठ ग्रंथन करा या तैसाही था, परं नबाहुस्वामीने बारां १२ चौमासे निरंतर नैपाल देशमें करे थे, तिस समय में हिंदुस्थान में बारां वर्षका काल पकाथा, जिसमें निदा ना मिलनेसें एक बाहुस्वामीको बर्जके सर्व साधुयोंके कंठसें सर्व शास्त्र बीच बीचसें कितनेही स्थल विस्मृत हो गये, जब बारां वरसका काल डर हुआ, तब सर्व प्राचार्य साधु पालिपुत्र नगर में एकठे हुए, सर्व शास्त्र
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आपसमें मिलान करे तब इग्यारे अंग तो संपूर्ण हुए, परंतु चौदह पूर्व सर्व सर्वथा नूल गए, तब संघको आझासें स्थुलनद्रादि ५०० सौ तीक्ष्ण बुध्विाले साधु नैपाल देशमें श्रीनबाहुस्वा. मोके पास चौदह पूर्व सीखने वास्ते गये, परंतु एक स्थुलनास्वामीने दो वस्तु न्यून दश पूर्व पागर्थसे सीखे. शेष चार पूर्व केवल पाठ मात्र सीखे. श्री नबाहुके पाट नपर श्री स्थुलन स्वामी वैठे, तिनके शिष्य आर्यमहागिरिसुहस्तिसे लेके श्री वजस्वामी तक जो वजस्वामी श्री महावीरसें पीछे एन्ध में वर्ष विक्रम संवत् ११४ में स्वर्गवासी हुए है तहां तक येह आचार्य दश पूर्व और इग्यारे अंगके कंट्याग्र ज्ञानवाले रहे, तिनके नाम आर्य महागिरि १ आर्यसुहस्ति श्री गुणसुंदरसूरि ३ श्यामाचार्य । स्कंधिलाचार्य ५ रेवतीमीत्र ६ श्री धर्मसूरि ७ श्री नगुप्त श्री गुप्त ए बजस्वामी १० श्री बजस्वामीके समीपे तोसलीपुत्र आचार्यका शिष्य श्री आर्यरक्षित सूरिजीने साढे नव पूर्व पागर्थसे पवन करे. श्री
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आर्यरहितसूरि तक सर्व सूत्रोंके पाठ नपर चा रोहो अनुयोगकी व्याख्या अर्थात् जिस श्लोकमें चरणकरणानुयोगकी व्याख्या जिन अकरोंसे क रतेथे तिसही श्लोकके अदरोंसे व्यानुयोगकी व्याख्या और धर्मकथानुयोगकी और गणितानु योगकी व्याख्या करते थे. इसतरें अर्थ करणेकी रीती श्री सुधर्मस्वामीसे लेक श्री आर्यरक्षितमूरि तक रही, तिनके मुख्य शिष्य विंध्यउर्वलिका पु. पादिकी बुद्धि जब चारतरेके अर्थ समझनेमें गनराइ तब श्री आर्यरक्षितसूरिजीने मनमें वि. चार करा के इन नव पुर्वधारीयोंकी बुझिमें जब चार तरेका अर्थ याद रखना कठिन पड़ता है, तो अन्य जोव अल्प बुद्धिवाले चार तरेका सर्व शा. स्त्रोंका अर्थ क्युं कर याद रखेंगे, इस वास्ते सर्व शास्त्रोंके पागेका अर्थ एकैक अनुयोगकी व्याख्या शिष्य प्रशिष्योंकों सिखा. शेष व्यवद करी सोइ व्याख्या जैन श्वेतांबर मतमे आचार्योकी अ विग्नि परंपरायसे आज तक चलती है, तिनके पीने स्कंधिलाचार्य श्री महावीरजीके २५ मे
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पाट हुए है. नंदीसूत्रकी वृत्तिमें श्री मलयगिरि आचार्य ऐसा लिखाहै कि श्री स्कंधिलाचार्यके समयमे बारां वर्ष १२ का ऽग्निक काल पमा, ति. समें साधुयोंकों निका न मिलनेसे नवीन पढना और पिब्ला स्मरण करना बिलकुल जाता रहा. और जो चमत्कारी अतिशयवंत शास्त्रथे वेनी बहुत नष्ट हो गये. और अंगोपांगनी नावसे अर्थात् जैसे स्वरूप वालेथे तैसे नहो रहै. स्मरण परावर्तनके अन्नावसे जब बारां बर्षका उर्निद काल गया और सुन्निद हुआ, तब मथुरा नगरोमें स्कंधिलाचार्य प्रमुख श्रमण संघने एकठे होके जो पाठ जितना जिस साधुके जिस शास्त्रका कंठ याद रहा सो सर्व एकत्र करके कालिक श्रुत अंगादि और कितनाक पूर्वगत श्रुत किंचित्मात्र रहा हुआ जोमके अंगादि घटन करे, इस वास्ते इसको माथुरि वाचना कहते है. कितनेक प्राचार्य ऐसें कहतेहै १२ वर्षके कालके वसमें एक स्कंधिलाचार्यकों वर्जके शेष सर्वाचार्य मर गये थे. गीतार्थ अन्य कोश्नी नही रहा था,
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परं सर्व शास्त्र नूलेतो नही थे; परंतु तिस कासमें इतनाही कंठ था, शेष अल्प बुद्धि के प्रनावसे पहिलाही नूल गया था, तिस स्कंधिलाचार्य के पीछे आम्मे पाट और श्री वीरसें ३२ में पाट देवर्द्धिगणि कमाश्रमण हुए, तिनका वृत्तांत ऐसें जैन ग्रंथोमें लिखा है. सोरठ देशमें वेलाकूलपत्तनमें अरिदमन नामे राजा, तिसका सेवक काश्यप गोत्रीय कामाई नाम क्षत्रिय, तिसको नार्या कलावती, तिनका पुत्र देवईिनामे, तिसने लोहित्य नामा आचार्यके पास दीक्षा ली. नी, ग्यारे अंग और पूर्व गत ज्ञान जितना अपने गुरुक आताथा, तितना पढ लिया, पीछे श्री पार्श्वनाथ अर्हतकी पट्टावलिमे प्रदेशी राजाका प्रतिबोधक श्री केशी गणधरके पट्ट परंपरायमें श्री देवगुप्त सूरिके पासों प्रथम पूर्व पठन करा, अर्थसें, दूसरे पूर्वका मूल पाठ पढते हुए श्री दे. वगुप्त सूरि काल कर गये, पोडे गुरुने अपने पट्ट ऊपर स्थापन करा. एक गुरुने गणि पद दीना, दूसरेने दमाश्रमण पद दोना, तब देवईिगणि
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५७
कमाश्रमण नाम प्रसिह हुआ. तिस समयमें
जैन मतकै ५०० पांचसौ प्राचार्य विद्यमान थे, तिन सर्वमें देवगिणि कमाश्रमण युगप्रधान और मुख्याचार्य थे, वे एकदा समय श्री शत्रुजय ती. श्रमें वज स्वामिकी प्रतिष्टा हुइ. श्री शषनंदेवकी पितल मय प्रतिमाकों नमस्कार करके कपर्दि यहकी आराधना करते हुए; तब कपर्दि यह प्र. गट होके कहने लगा, हे नगवान, मेरे स्मरण करनेका क्या प्रयोजन है. तब देवगिणी क्षमाश्रमणजीने कहा, एक जिनशासनका कामहै, सो यहहै कि बार वर्षी उकालके गये, श्री स्कंधिलाचार्यने माथुरो वाचना करीहै; तोन्नो कालके प्र. नावसे साधुयोंकी मंद बुद्धिके होनेसे शास्त्र के. उसे भूलते जातेहै. कालांतरमें सर्व भूल जावेंगे. इस वास्ते तुम साहाय्य करो, जिस्से मै ताम पत्रो ऊपर सर्व पुस्तकोंका लेख करूं; जिससे जैन शास्त्रकी रक्षा होवे. जो मंदबुद्धिवालानी होवेगा सोनी पत्रों नपरि शास्त्राध्ययन कर सकेगा, तब देवतानें कहा मैं सानिध्य करुंगा, परंतु सर्व सा.
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धुयोंकों एकठे करो और स्याही ताम पत्र बहुत संचित करो; लिखारियोंको बुलान; और साधारण व्य श्रावकोंसें एकता करावो; तब श्री देवाईगणि कमाश्रमणने पूर्वोक्त सर्व काम वजनी नगरीमें करा, तब पांचसौ आचार्य और वृक्ष गीताोंने सर्वांगोपांगादिकांके आलापक साधु ले. खकोंने लिखे, खरमा रुपसें; पीछे देवगिणि क्षमाश्रमणजीने सर्व अंगोपांगोके आलापक जो. मके पुस्तक रूप करे. परस्पर सूत्रांकी भुलावना जैसे नगवतीमे जहा पनवणाए इत्यादि अति देशकरे सर्व शास्त्र शुद्ध करके लिखवाए. देवताकी सानिध्यतासें एक वर्षमें एक कोटी पुस्तक १००00000 लिखे. प्राचारंगका महाप्रज्ञा अध्ययन किसी कारणसें न लिखा, परं देवगिणि कमाश्रमणजी प्रमुख कोश्नी आचार्यने अपनी मन कल्पनासें कुगनी नही लिखाहै. इस वास्ते जैन शास्त्र सर्व सत्य कर मानने चाहिये ॥ जो कोश को कथन समझ में नही आताहै, सो यथार्थ गुरु गम्यके अन्नावसें; परं गणधरोके कथनमें किंचित्
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पए मात्रनी भूल नहीं है. और जो कुछ किसी प्राचा. र्यके भूल जानेसे अन्यथा लिखानी गया हो तो नी अतिशय ग्यानी विना कोन सुधार सके; इस वास्ते तहमेव सचं जं जिणेहिं पन्नत्तं, इस पाठके अनुयायी रहना चाहिये.
प्र. ७-जैन मतमै जिसको सिद्धांत तथा आगम कहते है, वै कौनसे कौनसे है. और तिनके मूल पाठ ? नियुक्ति नाष्य ३ चूमि । टीका ए के कितने कितने ३२ बत्तीस अकर प्र. माण श्लोक संख्याहै, यह संदेपसे कहो.
न.-इस कालमें किसी रूढिके सबबसें ४५ पैंतालीस आगम कहै जातेहै, तिनके नाम और पंचांगोके श्लोक प्रमाण आगे लिखे हुए, यं. त्रसे जान लेने. और इनमें विषय विधेय इस तरेका है. आचारंगमें मूल जैन मतका स्वरूप,
और साधुके आचारका कथन है. १ सूयगमांगमे तीनसौ ३६३ त्रेस मतका स्वरूप कथनादि वि. चित्र प्रकारका कथनहै २ गणांगमें एकसें लेके दश पर्यंत जे जे वस्तुयो जगतमेंहै तिनका क
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६०
थन है. ३ समवायांग में एकसें लेके कोटाकोटि पर्यंत जे पदार्थ है तिनका कथन है ४. जगवती में गौतमस्वामोके करे हुए विचित्र प्रकारके ३६००० बत्तीस हजार प्रश्नो के उत्तर है. ५ ज्ञातामें धर्मी पुरुषोंकी कथा है. ६ उपाशक दशा में श्री महावीरके आनंदादि दश श्रावकों के स्वरूपका कथन है. ७ अंतगम में मोक गये ए० नव्वे जीवांका कथन है. सूत्तरोववाइमें जे साधु पांच अनुत्तर विमान मे नृत्पन्न हुएहे, तिनका कथन है. प्रश्नव्याकरण में हिंसा १ मृषावाद २ चौरी ३ मैथुन 8 परिग्रह ५ इन पांचो पापांका कथन और अहिंसा, सत्य २, अचौरी ३, ब्रह्मचर्य ४, परिग्रह त्याग ५ इन पांचो संवरोका स्वरूप क
न करा. १० विपाक सूत्र में दश दुख विपाकी और दश सुख विपाकी जोवांके स्वरूपका कथन है. ११ इति संक्षेपसें अंगानिधेय. नववा में श् बावीस प्रकारके जीव काल करके जिस जिस जगें नृत्पन्न होते है तिनका कथनादि, कोएकको बंदना विधि महावीरकी धर्म देशनादिका कथन
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६१
है. १ राजप्रश्रीयमें प्रदेशी राजा नास्तिक मतीका प्रतिबोधक केशी गणधरका और देव विमानादिकका कथन है. २ जोवानीगम में जीव अजीवका विस्तारसें चमत्कारी कथन करा है. ३ पत्रवणामें ३६ बत्तीस पदमे बत्तीस वस्तुका बहुत विस्तारसें कथन है. 8 जंबुद्विप पन्नतिमें जंबुद्दी - पादिका कथन है. ५ चंप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष चक्र के स्वरूपका कथन है. ६, ७ निरावलिका में कितनेक नरक स्वर्ग जाने वाले जीव और राजयोंकी माई आदिकका कथन है. GI ए । १० । ११॥ १२ आवश्यक में चमत्कारी प्रति सूक्ष्म पदार्थ नय निक्षेप ज्ञान इतिहासादिका कयन है, १ दशवैकालिक में साधुके आचारका कथन है २ पिंमनियुक्ति में साधुके शुद्धाहारादिकके स्वरूपका कथन है ३ उत्तराध्ययनमें तो बत्तीस अध्ययनो में विचित्र प्रकारका कथन करादै ४ बहों बेद ग्रंथो में पद विभाग समाचारी प्रायश्चित आ दिका कथन है ६ नंदीमे ५ पांच ज्ञानका कथन करा है. १ अनुयोगद्वारमें सामायिक के उपर चार
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अनुयोगहारोंसें व्याख्या करीहै २ चनसरणमें चारसरणेका अधिकार है १, रोगीके प्रत्याख्यान की विधी २, अनशन करणेको विधी ३, बमे प्रत्पाख्यानके करणेका स्वरूप ४, गर्नादिका स्वरूप ५, चं बेध्यका स्वरूप ६, ज्योतिषका कथा न ७, मरणके समय समाधिकी रीतिका कथन ज, इंशेके स्वरूपका कथन ए, गबाचारमें गलका स्वरूप, १० और संस्थारपश्नमें संथारेकी महि. माका कथनहै, यह संदेपसे पैंतालीस आगममें जो कुछ कथन करा है, तिसका स्वरूप कहा, प रंतु यह नही समझ लेनाके जैन मतमें इतनेही शास्त्र प्रमाणिक है, अन्य नहीं; क्योंकि नमास्वा ति आचार्यके रचे हुए, ५०० प्रकरणहै, और श्री महावीर नगवंतका शिष्य श्री धर्मदास गणि क. माश्रमणजीकी रची हुश् नपदेशमाला तथा श्री हरिन सूरिजीके रचे १४४४ चौदहसौ चौवाली. स शास्त्र इत्यादि प्रमाणिक पूर्वधरादि आचार्योंके प्रकृति शतकादि हजारोही शास्त्र विद्यमान है, वे सर्व प्रमाणिक आगम तुल्य है, राजा शि
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वप्रसादजीने अपने बनाए इतिहास तिमर नासकमें लिखा है. बुलरसाहिबने १५०००० मेढ लाख जैन मतके पुस्तकोंका पता लगाया है; और यहनो मनमें कुविकल्प न करनाके यह शास्त्र गराघरोंके कथन करे हुए है, इस वास्ते सच्चे है, अन्य सच्चे नही, क्योंके सुधर्मस्वामीने जेसे अंग रचेथे वैसेतो नही रहेहै. संप्रति कालके अंगादि सर्व शास्त्र स्कंधिलादि आचार्योने वां. चना रूप सिद्धांत बांधेहै, इस वास्ते पूर्वोक्त आ. ग्रह न करना, सर्व प्रमाणिक आचायोंके रचे प्र. करण सत्यकरके मानने, यही कल्याणका हेतुहै.
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भंक. सूत्र नामानि तल नियुक्तिः भाष्यं. | चूर्णिः । टीका. सर्व संख्या.
अथांगानि. | १ आचारांग सूत्र २५०० ४५० ० । १२००० २३२५०
सूयगडांग मूत्रं. २१०० ।
२५०
०
१००००
१२०५०
२५२००
.
१५२५०
१९०२५
४००
३७७६
५८४३
ठाणंग सूत्र. ३७७५ समवायांग मूत्रं. १६६७ | भगवती सूत्रं. १५७५२ ज्ञाता धर्मकथा ६००० ।
०
४०००
१८६१६ । ३०३६८
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६
४२५२
१०२५२
सूत्रं.
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उपाशकदशांग
सूत्रं.
१२
अंतगड सूत्र. अनुत्तरोववाइ सू.
मश्नव्याकरण सूत्रं.
११ विपाक श्रुतांग १२१६
सूत्र.
उववाइ सूत्र.
०१२
राजप्रश्नाय सूत्र.
७९०
१९२
१२५०
११६७
२०७८
०
०
O
O
O
O
O
O
थोपांगानि.
०
O
O
०
O
O
१३००
४६००
९००
३१२५
६०००
३०९४
५०५०
२११६
४२९२
८०७८
६५
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जीवाभिगम | ४७००
० ।
मूत्रं.
० | १५०० । १३०००
टिप्पन । २०३००
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पन्नवणा
[ | ७००० सूत्रं.
०
०
०
लघु રૂ૭૨૮ बृहत् १४००
२५५२८
जंबूद्वीप पनत्ति ४१४६ ।
सूत्रं.
१८६० । १६००० । २२००६
sue|2|22
९.१४ । ११३१४
।
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चंद पन्नति । २२००
सूत्रं. सूर्य पन्नत्ति २२००
सूत्रं.
२२०० • / सर्व प्रति । २०. .
• .
• ९:१४ / ११३१४ . ००० | ११२००
९०००
११२००
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निरावलिया। सुयखंध सूत्रं. कप्पिया
सूत्रं. कप्पवडसिया
सूत्रं. पुफिया सूत्रं
११०९
.
.
.
७००
। २००९
Pะ 6ะะะะ #
पुप्फचूलिया
मूत्रं. वन्हिदशांग
सूत्रं.
अथ मूल सूत्राणि.
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आवश्यकं.
२२००० टिप्पन ४६००
४७८००
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________________
लघु
विशेषावश्यकं ५०००
४७०००
वृहत् २००००
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पाक्षिकं सूत्रं. | ३००
०
। ४००
२७००
३४००
नवनियुक्तिः । ११७०
३००० । ७००
| ११८७०
लघु
| दशवैकालिक
७०० । ४५०
सूत्रं.
.
२७००
७०००
G
१७६६०
वृहत् ६७१०
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पिंडनियुक्तिः । ७०० -
०
०
०
लघु ४००० वृहत् ७०००
११७००
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________________
लघु
उत्तराध्ययन
१२०००
| २००० । ५00
|
०
६०००
सत्र
३७१४५
१७६५५
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अथ छेद सूत्राणि | १८३० । १६८ । ० | २२२५
४२२३
दशाश्रुत संध सूत्र.
:
वृहत्कल्प सूत्रं.
४७३
लघु ८००० १४००० | वृहत् विशेष १२००० ११०००
०० । ८७४७३
६०००
६००० १०३६१
३३६२५
५०५८६
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व्यवहार
सूत्र. पंचकल्प
०
३१२५० ३१३० ।
३१२५० | ३१३० |
| ७३८८
७३८८
सूत्रं.
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________________
जीतकल्प
मूत्रं.
।
२०५
३१२४ विशेषचूर्ण ७०२०
२२३२॥
लघु
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ร
निशिथ
सूत्रं.
८१५
AD
वृहत्
७,००२८०००
४८२१५
१२०००
महानिशिथ.
लघुवांचना मध्यम वांचना
४२०० पश्ना सूत्राणि.
वृहद्वांचना १२२०० ४५००
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चतुःशरण
सूत्रं.
४
.
|आनुरप्रत्या ३५ | ख्यानं सूत्रं.
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३
३६
४ महामत्याख्यान १३४
सूत्र.
५ तंदुल पेयालीय ४०० सूत्र.
३८
ut of
भक्तपरिज्ञा १७१
सूत्रं.
१)
2
गणिविद्या १०० सूत्र. मरणसमाधि ६५६ सूत्रं.
४१
९. देवेंद्र स्तत्र सूत्रं २०० ४२ वास्तव सूत्र
चंद्रवेध्यक १७६
सूत्रं.
4
०
O
०
०
O
०
O
o
०
O
o
०
०
O
O
O
०
०
०
०
O
१७१
१३४
४००
१७६
१००
६५६
२००
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________________
१०
०
१२२
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गडाचार । १३८ । । '
| १३७ सूत्रं. संस्तारक सूत्रं. १२२ चूलिका सूत्र, रुषिभाषितज्योतिस्क सिद्धप्रामृत वसुदेवहिं मध्यमखंड तीर्थोडार सूत्र
सूत्र. करंड सूत्र. सूत्र. | डि प्रथम १५००० १५०० अंगवि ७०० । १८५० १३३५ । खंड. द्वीपसागर द्या ९००० ये
२१००० पति भी४५ के अंतर
२५०० । भूतही है.
लघ
२३१२ नंदि सूत्र. । ७०० ० ० | २००१
१२७४८ ७७३५
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२
अनुयोगद्वार । १८९९
.
.
१४८एए
वृहत्
६५०० ।
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७३
प्र. ७५-श्री देवर्द्धिगणि दमाश्रमणसे पहिला जैन मतका कोइ पुस्तक लिखा हुआ थाके नही.
न.-अंगोपांगादि शास्त्रतो लिखे हुए नही मालुम होते है, परंतु कितनेक अतिशय अत्रुत चमत्कारी विद्याके पुस्तक और कितनीक आम्नायके पुस्तक लिखे हुए मालुम होतेहै, क्योंकि विक्रमादित्यके समयमें श्री सिद्धसेन दिवाकर नामा जैनाचार्य हुआहै, तिनौने चित्रकुटके किल्लेम एक जैन मंदिर में एक बमानारी एक पथरका बीचमे पोलामवाला स्तंन्न देखा, तिसमे श्री सिद्धसेनसे पहिले होगए कितनेक पूर्वधर आचार्योने विद्यायोंके कितनेक पुस्तक स्थापन करेथे, तिस स्तंनका ढांकणा ऐसी किसी कषधीके खेपसे बंद करा था कि सर्व स्तंन्न एक सरीखा मालम पमताथा; तिस स्तंन्नका ढांकणा श्री सिद्धसेन दिवाकरकों मालुम पमा, तिनोंने किसीक औषधीका लेप करा तिससे स्तंनका ढांकणा खुल गया. जब पुस्तक देखनेकों एक निकाला तिसका एक पत्र वांच्या,
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७४
तिसके ऊपर दो विद्या लिखी हुश्थी. एक सुवर्ण सिद्धी १ दूसरी परचक सैन्य निवारणी २ इन दोनो विद्यायोंके बांचे पीछे जब आगे बांचने लगे तब तिन विद्यायोंके अधिष्टाता देवताने श्री सि-इसेन को कहा कि आगे मत वांचो, तुमारे नाग्यमें ये दोही विद्यादै । तब श्री सिद्धसेन दिवाकरजीने स्तंन्नका मुख बंद करा. वो एक पुस्तक अपने पास रखा, पोडे तिस पुस्तककों नऊयन नगरीके श्री
आवतो. पार्श्वनाथजीके मंदिरमे गुप्तपणे कही रख दीया. पाळे वो पुस्तक श्री जिन:त्तसूरिजी महाराज जो विक्रम संवत् १२०४ मे थे तिनकों तिस मंदिरमेंसे मिला. अब वोदी पुस्तक जैसलमेरके श्री चिंतामणि पार्श्वनाथजीके मंदिरमे बसे यत्नसे रखा हुआहै, ऐसा हमने सुनाहै. और चित्रकुटका स्तंन्न नूमिमें गरक हो गया, यह कथन कितनेक पट्टावलि प्रमुख ग्रंथों में लिखा हुआहै. इस वास्ते श्री देवहिगणि कमाश्रमणसे पहिला नी कितनेक पुस्तक लिखे हुए मालुम होतेहै.
प्र. ७६-श्री महावीरजोके समयमें कि
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७५
तने राजे श्री महावीरके नक्त थे.
न-राजगृहका राजे श्रेणिक जिसका दूसरा नाम नंन्नसार श्रा, १ चंपाका राजा नंन्न सारका पुत्र अशोकचंऽ जिसका नाम कोणिक प्रसिद्ध श्रा, २ वैशालिनगरीका राजा चेटक, ३ काशी देशके नव मल्लिक जातिके राजे और कोशल देशके नव लोडिक जातिके राजे २१ पु. लासपुरका विजयनामा राजा १२ अमलकल्पा नगरीका स्वेतनामा राजा, १३ वोतनय पहनका नदायन राजा २४, कौशांबीका नदायन वत्सराजा, २५, कत्रियकुंक ग्राम नगरका नंदिवर्द्धन राजा, २६ नऊयनका चंदप्रद्योत राजा, २७ हिमालय पर्वतके उत्तर तर्फ पृष्टचंपाके शाल महाशाल दो नाश् राजे २८ पोतनपुरका प्रसन्नचं राजा, ए हस्तिशीर्ष नगरका अडिनशत्रु राजा, ३० रुषन्नपुरका धनावह नामा राजा, ३१ वीरपुर नगरका वीरश्न मित्र नामा राजा, ३शवि. जयपुरका वासवदत्त राजा, ३३ सोगंधिक नगरोका अप्रतिहत नामा राजा, ३४ कनकपुरका
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७६
प्रियचं राजा, ३५ महापुरका बलनामा राजा, ३६ सुघोस नगरका अर्जुन राजा, ३७ चंपाका दत्त राजा, ३८ साकेतपुरका मित्रनंदी राजा ३७३त्यादि अन्यन्नी कितनेक राजे श्री महावीरके नक्त थे, येह सर्व राजायोंके नाम अंगोपांग शास्त्रोंमें लिखे हुएहै.
__प्र. -जो जो नाम तुमने महावोर नगवंतके नक्त राजायोंके लिखेहै, बौधमतके शा. स्त्रोमें तिनही सर्व राजायोंको बौद्धमति लिखाहै, तिसका क्या कारणहै.
न.-जितने राजे श्रीमहावीर नगवंतके नक्त थे, तिन सर्वको बौधशास्त्रोंमें बौधमति अर्थात् बुधके नक्त नहि लिखेहै, परंतु कितनेक राजायोका नाम लिखाहै, तिसका कारणतो ऐसा मा. लुम होताहैकि पहिले तिन राजायोंने बुधका न पदेश सुनके बुधके मतकों माना होवेगा, पीले श्रीमहावीर नगवंतका उपदेश सुनके जैनधर्ममें आये मालुम होते है, क्योंकि श्रीमहावोर नग वंतसे १६ वर्ष पहिले गौतम बुधने काल करा,
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७७
अर्थात् गौतम बुधके मरण पीछे श्रीमहावीर - स्वामी १६ वर्ष तक केवलज्ञानी विचरे थे तिनके उपदेश कितनेक बौद्ध राजायोंने जैन धर्म अंगीकार करा, इस वास्ते कितनेक राजायोंका नाम दोनो मतो में लिखा मालुम होता है.
प्र. ७८- क्या महावीर स्वामीसें पहिलां भरतखंग में जैनधर्म नही था ?
न. - श्रीमहावीर स्वामीसें पहिलां नरतखंग में जैनधर्म बहुत कालसें चला आता था, जिस समय में गौतम बुधने बुध होनेका दावा करा, और अपना धर्म चलाया था, तिस समयमें श्री पार्श्वनाथ २३ मे तीर्थकरका शासन चला था, तिनके केशी कुमार नामें आचार्य पांचसो ५०० साधुयों के साथ विचरते थे, और केशी कुमारजी गृहवासमें उज्जयिनिका राजा जयसेन धौर तिसकी पट्टराणी अनंगसुंदरी नामा तिनके पुत्र थे, विदेशि नामा आचार्य के पास कुमार बह्मचारीने दीक्षा लीनो, इस वास्ते केशी कुमार कहे जाते है, श्री पार्श्वनाथके बने शिष्य श्री शु
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७०
जदत्तजी गणधर १ तिनके पट्ट पर श्री हरिदनाचार्य २, तिनके पद ऊपर श्री आर्यसमुह ३, तिनके पट्ट ऊपर श्री केशी कुमारजी हुए है, जिनोंने स्वेतंबिका नगरीका नास्तिकमति प्रदेशी नामा राजेकों प्रतिबोधके जैनधर्मी करा, और श्रीमहावीरजीके बमे शिष्य इंझनूति गौतमके साथ श्रावस्ति नगरोमें श्री केशी कुमार मिले तहां गौतम स्वामीके साथ प्रश्नोत्तर करके शिष्योंका संशय दूर करके श्री महावीरका शासन अंगीकार करा तथा श्रीपार्श्वनाथजीके संतानोमेंसे कालिक पुत्र १ मैथिाल २ आनंदरक्षित ३ काश्यप ४ ये नामके चार स्थिविर पांचसौ सा. धुयोंके साथ तुंगिका नगरीमें आये तिस समयमें श्री महावीर नगवंत इंश्नूति गौतमादि साधुयोंके साथ राजगृह नगरमें विराजमान थे, तथा साकेतपुरका चंपाल राजा तिसकी कलासवेश्या नामा राणी तिनका पुत्र कलासवैशिक नामे ति. सने श्री पार्श्वनाथके संतानीये श्रीस्वयंप्रनाचा. र्यके शिष्य वैकुंगचार्यके पास दीदा लोनी. पीले
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राजगृहनगरमें श्रीमहावीरके स्वविरोसे चर्चा करके श्री महावीरका शासन अंगीकार करा. इसी तरे पार्श्वसंतानोये गंगेय मुनि तथा नदकपेमाल पुत्र मुनिने श्रीमहावीरका शासन अंगीकार करा. इन पुर्वोक्त आचार्योंके समयमे वैशालि नगरीका राजा चेटकादि और कृत्रियकुंमनगरके न्यातवंशी काश्यप गोत्री सिद्धार्थ राजादि श्रावक थे, और त्रिसलादि श्राविकायो थी. बुधधर्मके पुस्तकमें विशालि नगरीके राजाकों बुध के समयमें पा. पंम धर्मके मानने वाला अर्थात् जैनधर्मके मानने वाला लिखाहै, और बुधधर्मके पुस्तकमें ऐसान्नी लिखाहैकि एक जैनधर्मी बझे पुरुषकों बुधने अपने नपदेशसें बौः धर्मी करा, इस वास्ते श्रीम. हावीरसे पहिला जैनधर्म भरतर्षममें श्रीपार्श्वना. पके शासनसे चलता था.
प्र. उए-श्रीमहावीरजीसे पहिले तेवीसमें तीर्थकर श्रीपार्श्वनाथजी हुए है. इस कथनमें क्या प्रमाण है.
न.-श्रीपार्श्वनाथजीसें लेके आजपर्यंत श्री
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पार्श्वनाथकी पट्ट परंपरायमें ७३ तैरासी प्राचार्य हुए है. तिनमेंसे सर्वसें पिबला सिद्ध सूरि नामे आचार्य सांप्रति कालमें मारवाममें विचरेहै, ह. मने अपनी आंखोस देखाहै, जिसकी पट्टावलि आज पर्यंत विद्यमान है, तिस पार्श्वनाथजीके होनेमे यही प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण बलवंतहै.
प्र. ८०-कौन जाने किसी धूर्त्तनें अपनी कस्पनासें श्रीपार्श्वनाथ और तिनकी पट्ट परंपराय लिख दीनी होवेगी, इससे हमकों क्योंकर श्री पार्श्वनाथ हुए निश्चित होवें ?
न.-जिन जिन आचार्योंके नाम श्रीपार्श्वनाथजीसे लेके आज तक लिखे हुए है, तिनोमेंसें कितनेक आचार्योंने जो जो काम करहै वे प्रत्यक्ष देखने में आते है जैसे श्री पार्श्वनाथजीसें बड़े ६ पट्ट पर श्री रत्नप्रन्न सूरिजीने वीरात् ७० वर्ष पोले नपकेश पहमें श्री महावीर स्वामीकी प्रतिष्टा करी सो मंदिर और प्रतिमा आज तक विद्यमान है, तथा अयरणपुरकी गवनीसें ६ को. सके लगनग कोरंटनामा नगर नऊम पमा है,
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जिस जगो कोरटा नामें आजके काल में गाम वसता है. तहांनी श्रीमहावीरजीकी प्रतिमा मंदिरकी श्रीरत्नप्रन सूरिजीकी प्रतिष्टा करी हु अब विद्यमान कालमें सो मंदिर खमाहै, तथा नसवाल और श्रीमालि जो बणिये लोकों में श्रावक झाति प्रसिद्ध है, वेनी प्रथम श्रीरत्नप्रन्न सूरिजोनेही स्थापन करीहै, तथा श्रीपार्श्वनाथजी १७, सत्तरमें पट्ट ऊपर श्री यकदेव सूरि हुए है, वो. रात् ५५ वर्षे जिनोने बारा वर्षीय कालमें वज्जस्वामीके शिष्य वज्रसेनके परलोक हुए पीने तिनके चार मुख्य शिष्य जिनकों वज्रसेनजीने सोपारक पट्टणमें दीक्षा दीनी थी, तिनके नामसे चार शाखा तथा कुल स्थापन करे, वे यहैं; नागें १, चं २, निवृत्त ३ विद्याधर ४. यह चारों कुल जैन मतमें प्रसि-है; तिनमेंसे नागेंद्र कुलमें उदयप्रन मल्लिषेणमूरि प्रमुख और चंकुल में बम गछ, तप गड, खरसर गछ, पूर्मवल्लीय गन, देवचंद्रसूरि कुमारपालका प्रतिबोधक श्रीहेमचंसूरि प्रमुख प्राचार्य हुए है. तथा निवृत्तकुलमें श्रो
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शीलांकाचार्य श्रीशेणसूरि प्रमुख आचार्य हुए है. तथा विद्याधरकुलमें १५४५ ग्रंथका कर्ता श्रीहरिनद्रसूरि प्रमुखाचार्य हुए है, तथा मैं इसग्रंथका लिखनेवाला चंकुलमें हुं; तथा पैंतीसमें पट्ट नपर श्रीदेवगुप्तसूरिजी हुए है. जिनोंके समीपेश्री देवर्किगणि हमाश्रमणजीने पूर्व र दो पढे थे, तथा श्री पार्श्वनाथजीके ४३ मे पट्ट ऊपर श्री क्वसूरि पंच प्रमाण ग्रंथके कर्ता हुएहै, सो ग्रंथ वि. द्यमानहै तथा ४४ मे पट्ट कपर श्रीदेवगुप्तसूरिजो विक्रमात् १७७२ वर्षे नवपद प्रकरणके करता हुए है, सोनी ग्रंथ विद्यमानहै; तथा श्रीमहावीरजीकी परंपराय वाले प्राचार्योंने अपने बनाए कितनेक ग्रंथोमें प्रगट लिखाहै कि, जो नपकेश गहै सो पट्ट परंपरायसें श्रोपार्श्वनाथ २३ तेवीसमें तीर्थकरसें अविछिन्न चला आताहै; जब जिन आचायाँकी प्रतिमा मंदिरकी प्रतिष्टा करी हुई और ग्रंथ रचे हुए विद्यमान है तो फेर तिनके होने में जो पुरुष शंसय करताहै तिसकों अपने पिता, पितामह, प्रपितामह प्रादिकी वंशपरंपरायमेनी
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शंसय करना चाहिये, जैसे क्या जाने मेरो सातमो पेमोका पुरुष आगे हुआहैके नही. इस तरेका जो संशय को विवेक विकल करे तिसकों सर्व बुद्धिमान् नन्मत्त कहेंगे. इसी तरें श्रीपार्श्वनायकी पट्ट परंपरायके विद्यमान जो पुरुष श्री पार्श्वनाथ २३ तेवीसमें तीर्थंकरके होनेमे नही करे अथवा संशय करे तिसकोंनी प्रेक्षावंत पुरुष उन्मत्तोही पंक्तिमे समझते है, तथा धूर्त पुरुष जो काम करताहै सो अपने किसी संसारिक सुखके वास्ते करता है. परंतु सर्व संसारिक इश्यि जन्य सुखसे रहित केवल महा कष्ट रूप परंपराय नही चला सक्ताहै, इस वास्ते जैनधर्मका संप्रदाय धूर्त्तका चलया हुआ नही, किंतु अष्टादश दूषण रहित अर्हतका चलाया हुआहै.
प्र. ०१ कितनेक यूरोपीअन पंमित प्रोफेसर ए. वेबर साहिबादि मनमे ऐसी कल्पना करते हैं कि जैन मतकी रीती बुध धर्मके पुस्तकोंके अनुसारे खमी करीहै, प्रोफेसर वेबर ऐसेंनी मा. नतहै कि, बौध धर्मके कितने साधु बुधकों नाक
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बूल करके बुधके एक प्रतिपक्षी के अर्थात् महावीरके शिष्यवनें और एक वार्त्ता नवीन जोम के जैनमत नामे मत खमा करा, इस कथनकों आप सत्य मानते हो के नहीं ?
क्र. - इस कथनकों हम सत्य नहीं मानते है; क्यों कि प्रोफेसर जेकोबीने आचारंग और कल्पसूत्रके अपने करे हुए इंग्लीश जाषांतरकी नपयोगी प्रस्तावना में प्रोफसर ए. वेबर और मी० ए. वार्थकी पूर्वोक्त कल्पनाकों जूठी दिखाई है; ओर प्रोफेसर जेकोबीने यह सिद्धांत अंतमे बतायाहै कि जैनमतके प्रतिपक्षीयोंनें जैन मतके सिद्धांत शास्त्रों ऊपर भरोसा रखनां चाहिये, कि इनमें जो कथन है सो मानने लायक है. विशेष देखनां होवेतो मातर बूलरसाहिब कृत जैन दंत कथाकी सत्यता वास्ते एक पुस्तकका अंतर हिस्सा जाग है, सो देख लेनां. हमबी अपनी बुद्धिके अनुसारे इस प्रश्नका उत्तर लिखते है. हम ऊपर जनमतकी व्यवस्था श्रीपार्श्वनाथजीसें लेके आज
तक लिख आहे, तिससें प्रोफेसर ए. वेबरका
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पूर्वोक्त अनुमान सत्य नही सिद्ध होता है. जेकर कदाचित् बौध मतके मूल पिडग ग्रंथो में ऐसा लेख लिखा हुआ होवेकि, बुधके कितनेक शिष्य बुधकों नाकबूल करके बुध के प्रतिपक्षी निर्ग्रथोके सिरदार न्यात पुत्रके शिष्य बने; तिनोंने बुधके समान नवीन कल्पना करके जैनमत चलाया है. जेकर ऐसा लेख होवे तबतो हमकोबी जैनमतकी सत्यता विषे संशय उत्पन्न होवे, तबतो हमनी प्रोफेसर ए. वेबर के अनुमानकी तर्फ ध्यान देवें; परंतु ऐसा लेख जुटा बुधके पुस्तकोंमे नही है क्योंकि बुधके समयमे श्रीपार्श्वनाथजीके हजारों साधु विद्यमानथे तिनके होते हुए ऐसा पुर्वोक्त लेख कैसें लिखा जावे, बलके जैन पुस्तकोंमेंतो बुधकी बाबत बहुत लेख है श्रीयाचा रंग की टीका में ऐसा लेखहै. मौलिस्वातिपुत्राभ्यां शौौदनं ध्वजीकृत्य प्रकाशितः अस्यार्थ ॥ माङ्गलिपुत्र अर्थात् मौलायन और स्वातिपुत्र अर्थात् सारीपुत्र दोनोंने श्रुद्धोदनके पुत्रकों ध्वजीकृत्य अर्थात् ध्वजाकी तरे सर्व मताध्यक्कोंसें अधिक नंचा सर्वोत्तम रूप
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करकें प्रकाश्याहै. आचारंगके लेख लिखनेवालेका यह अभिप्रायहै कि श्रुःोदनका पुत्र सर्वज्ञ अतिशयमान् पुरुष नही था, परंतु इन दोनों शिष्योने अपनी कल्पनासें सर्वसें नत्तम प्रकाशित करा, इस वास्ते बौद्धमत स्वरूचिसें बनायाहै; तथा श्री आचारंगजीकी टीकामें एक लेख ऐसानो लिखा है, तज्ञनिकोपासकोनेंदबलात् , बुद्धोत्पत्ति कथानकात् द्वेषमुपगत्. अर्थ बुधका नपासक आनंद तिसकी बुद्धिके बलसें बुधकी नत्पत्ति हूश्दै, जेकर यह कथा सत्यसत्य पर्षदामें कथन करोये तो बौक्ष्मतके मानने वालोंकों सुनके इष नत्पन्न होवे, इस वास्ते जिस कथाके सुननेसें श्रोताकों क्षेष उत्पन होवे तैसी कथा जैनमुनि परिषदामें न कथन करे, इस लेखसें यह आशय हैकि बुधकी नुत्पतिरूप सच्ची कथा बुधकी सर्वझता और अति उत्तमता और सत्यता और तिसकी कल्पित कथाकी विरोधनीहै, नहीतो तिसके नक्तोंकों द्वेष क्यों कर नत्पन्न होवे, इस वास्ते जैन मत इस अवसप्पिणिमे श्री ज्ञषनदेवजीसे
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लेकर श्रीमहावीर पर्यंत चौवीस तीर्थकरोंका च. लाया हुआ चलताहै परंतु कल्पित नहीहै.
प्र.७२-बुद्धकी नुत्पतिकी कथा आपने किसी स्वेतांबरमतके पुस्तकोमें बांचोहै ?
न.-स्वेतांबरमतके पुस्तको तो जितना बुधकी बाबत कथन हमने श्री आचारंगजीकी टीकामें देखा बांचाहै तितनातो हमने ऊपरके प्रश्रमें लिख दीयाहै, परंतु जैनमतकी उसरी शाखा जो दिगंबरमतकीहै तिसमे एक देवसेनाचार्यने अपने रचे हुए दर्शनसार नामक ग्रंथमे बुधकी नत्पत्ति इस रीतीसें लिखीहै. गाथा ॥ सिरि पासणाह तित्थे ॥ सरक तोरे पलासगयर त्ये॥ पिहि आसवस्स सीहे ॥ महा खुदो बुइकित्ति मुणी ॥१॥ तिमिपूरणासणेया ॥ अदिगयपवळावऊपरमन्न ॥ रबरंधरित्ता ॥ पवियतेणण्यत्तं ॥२॥ मंसस्सनत्थिजीवो जहाफलेदहियउद्धसक्कराए ॥ तम्हातमुणित्ता नरकंतोणत्थिपाविठो॥३॥ मऊंगवऊणिकं ॥ दव्वदवंसहजलंतहएदं ॥ इति लोएघोसिता पवत्तियंसंघसावऊं ॥॥ अस्मोकरे
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दिकम्मं ॥असोतनुंजदीदिसि ईनं ॥ परिकप्पिकगणूणं ॥ वसिकिन्चाणिरयमुववलो ॥५॥ इति इ. नकी नाषा अथ बौइमतकी उत्पति लिखते है. श्री पार्श्वनाथके तीर्थमें सरयू नदीके कांठे ऊपर पलासनामे नगरमें रहा हुआ, पिहिताश्रव नामा मुनिका शिष्य बुद्धकीर्ति जिसका नाम था, ए. कदा समय सरयू नदीमें बहुत पानीका पूर चढि आया तिस नदीके प्रयाहमें अनेक मरे हुए मछ वहते हुए कांठे ऊपर आ लगे, तिनको देखके तिस बुकीर्तिने अपने मनमें ऐसा निश्चय क. राकि स्वतः अपने आप जो जीव मर जावे तिसके मांस खानेमे क्या पापहै, तब तिसने अंगोकार करी हुइ प्रवजावत रूप गेम दीनी, अर्थात् पूर्व अंगीकार करे हुए धर्मसें भ्रष्ट होके मांस नकण करा, और लोकोंके आगे ऐसा अनुमान कथन कराकी मांसमें जोव नहो है, इस वास्ते इसके खाने में पाप नही लगताहै. फल, दुध, दहिं तरें तथा मदोरा पोनेनो पाप नहीहै. ढीला व्य हानेसे जलवत् . इस तरेको प्ररूपणा करके
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तिसने बोइमत चलाया, और यहनो कथन करा के सर्व पदार्थ कणिकहै, इस वास्त पाप पुन्यका कर्ता अन्यहै, और नोक्ता अन्यहै. यह सिांत कथन करा बौक्ष्मतके पुस्तकोमें ऐसानी लेखहै कि, बुधका एक देवदत्तनामा शिष्य था, तिसने बुधके साथ बुधकों मांस खाना बुझानेके वास्ते बहुत ऊगमा करा, तोनी शाक्यमुनि बुधनें मांस खाना न गेमा, तब देवदत्तने बुधकों गेम दीया, कब बुधने काल करा था, तिस दिनन्नी चंदनामा सोनीके घरसें चावलोंके बीच सूयरका मांस रांधा हुआ खाके मरणको प्राप्त हुआ. यह कथनन्नी बु. धमतके पुस्तकोंमें है; और स्वेतांबराचार्य साढेतीन करोम नवीन श्लोकोंका कर्ता श्री हेमचंसूरिजीने अपने रचे हुए योगशास्त्रके दूसरे प्रकाशकी वृत्तिमें यह श्लोक लिखाहै । स्वजन्मकाल एवात्म, जनन्युदरदारिणः मांसोपदेशदातुश्च, कथंशौद्धोदनेर्दया ॥११॥ अर्थ । अपने जन्म काल में ही अपनी माता मायाका जिसने उदर विदारण करा, तिसके, और मांस खानेके नपदेशके देने
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वाले शुद्धोदनके पुत्रके दया कहांसे श्रो, अपितु नही थी. इस ऊपरके श्लोकसे यह आशय निकलताहै कि जब बुध गर्नमें था, तब तिसके सबबसें इसकी माताका नदर फट गयाथा, अथवा नदर विदारके इसकों गर्नमेंसे निकाला होवेगा. चाहो कोश निमित्त मिला होवे, परंतु इनकी माता इनके जन्म देनेसें तत्काल मरगइ थी. तत्काल मरणांतो इनकी माताका बुद्ध धर्मके पुस्तकोमेंनी लिखाहै. और बुझ मांसाहार गृहस्थाबस्थामेंनी करता होवेगा, नहीतो मरणांत तकनी मांसके खानेसे इसका चित्त तृप्तही न हुआ ऐसा बौइमतके पुस्तकोंसेंही सिह होताहै. इस वास्तेही बौइमतके साधु मांस खानेमे घृणा नही करतेहै,
और बेखटके आज तक मांस नदण को जाते है; परंतु कच्चे मांसमें अनगिनत कृमि समान जीव नुत्पन्न होतहै, वे जीव बुधकों अपने ज्ञानसें नही दोखेहै; इस वास्तेही बुध मतके नपासक गृहस्थ लोक अनेक कृमि संयुक्त मांसकों रांधतेहै और खाते है. इस मतमें मांस खानेका निषेध नहीं है,
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इस वास्तेहो मांसाहारो देशोंमें यह मत चलताहै.
प्र.३-श्रीमहावीरजी उद्मस्ट कितने काल तकरहे और केवली कितने वर्ष रहे ?
न.-बारां वर्ष १२ ब ६मास १५ पंदरा दिन उद्मस्थ रहे, और तीस वर्ष केवली रहेहे.
प्र. ४-नगवंतने बद्मस्थावस्थामें किस किस जगे चौमासे करे, और केवलो हुए पोठे किस किस जगे चौमासे करे थे ?
न.-अस्थि ग्राममें १, दूसरा राजगृहमें, २, तीसरा चंपामे ३, चौथा पृष्ट चंपामें ४, पांचमा नाशिकामे ५, बहा नझिकामें ६, सातमा आलंन्नियामे ७, आठमा राजगृहमे ७, नवमाअनार्यदेशमे ए, दशमा सावढिमे १०, ग्यारमा विशालामे ११, बारमा चंपामे १२, येह १२ बद्मस्थावस्थाके चौमासे करे केवली हुए. पीछे १५ राजगृहमें ११ विशालामें ६ मिश्रलामें १ पावापुरीमें एवं सर्व ३० हुए
प्र.०५-श्रीमहावीरस्वामीका निर्वाण किस जगें और कब हुआ था?
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U
न. - पावापुरी नगरीके हस्तिपाल राजाकी दफतर लिखनेकी सना में निर्वाण हुआ था, और विक्रमसें ४७० वर्ष पहिलें और संप्रति कालके १९९४५ के सालसें २४१५ वर्ष पहिलें, निर्वाण हुआ था.
प्र. ८६ - जिस दिन जगवंतका निर्वाण हुआ था सो कौनसा दिन वा रात्रिथी ?
न. - नगवंतका निर्वाण कार्त्तिक वदि अमावस्या की रात्रि के अंतमें हुआ था.
प्र. 09- तिस दिन रात्रिकी यादगीरी वास्ते कोइ पर्व हिंदुस्थानमे चलता है वा नही ?
न - हिंदु लोक में जो दिवालीका पर्व चलताहै, सो श्री महावीरके निर्वाणके निमत्त सेंदी चलता है.
प्र. ८८ - दिवालिको उत्पत्ति श्री महावीरके निर्वाणसें किसतरें प्रचलित हुदै ?
न. - जिस रात्रि में श्रोमहावीरका निर्वाण हुआ था, निम रात्रिमें नव मल्लिक जातिके राजे और नव की जातिके राजे जो चेटक महाराजाके सामंत थे, तिनोन तहां उपवास रूप
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पोषध करा था, जब जगवंतका निर्वाण हुआ, तब तिन अगरहही राजायोंने कहाकि इस जरतखंझसे नान नद्योत तो गया, तिसको नकलरूप हम इव्यो द्योत करेंगे, तब तिन राजायोने दीपक करे, तिस दिनसे लेकर यह दीपोत्सव प्र. वृत्त हुआ है. यह कथन कल्पसूत्रके मूल पाठमें है. जो अन्य मत वाले दिवालीका निमित्त कथन करतेहै, सो कल्पितहै क्योंकि किति मतके नी मुख्य शास्त्र में इस पर्वको नुत्पत्तिका क. श्रन नहीहै.
प्र. नए-नगवंतके निर्वाण होनेके समयमें शकरंद्रे आयु वधावनेके वास्ते क्या विनती करी श्री, और नगवंत श्री महावीरजीयें क्या नत्तर दीनाथा? ___ न.-शकईझे यह विनती करीश्री के, हे स्वामि एक दणमात्र अपना आयु तुम वधाको, क्योंकि तुमारे एक क्षणमात्र अधिक जीवनेसे तुमारे जन्म नक्षत्रोपरि जस्म राशिनामा तीस ३० मा ग्रह आया है, सो तुमारे शासनकों पीमा
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एन
नही दे सकेगा, तब लगवंतने ऐसे कहाके हे इंच, यह पोडे कदेइ हुआ नहो, और होवेगानी नही कि क. आयु वधा सके; और जो मेरे शासनकों पीमा होवेगी सो अवश्य होनहार है, कदापि नही टलेगी.
प्र. ए0-तबतो कोनी देह धारी आयु नही वधा सक्ताहे यह सिद्ध हुआ ?
न.-हां, कोइनो कणमात्र आयु अधिक नही वधा सक्ता है.
प्र. ५१-कितनेक मतावलंबी कहते है कि योगाभ्यासादिके करनेसें आयु वध जाताहै, यह कथन सत्यहे वा नही ?
न.-यह निकेवल अपनी महत्वता वधाने वास्ते लोकों गप्पे गेकतेहै, क्योंकि चौवीस ती
कर ब्रह्मा, विष्नु, महेश, पातंजली, व्यास, ई. शामसीह, महम्मद प्रमुख जे जगतमें मतचलाने वाले सामर्थ पुरुष गिने जातेहै, वेनो आयु नही वघा सकेहै, तो फेर सामान्य जीवोंमें तो क्या शक्तिहै के आयु वधा सके; जेकर किसीने वधा
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होवे तो अब तक जीता क्यों नही रहा.
प्र. १ - नगवतका नाइ नंदिवर्धन, और भगवंतकी संसारावस्थाकी यशोदा स्त्री और नगवंतकी बेटी प्रियदर्शना, और जगवंतका जमाइ जमाली, इनका क्या वर्त्तत हुआ था ?
न. - नंदीवर्धन राजातो श्रावक धर्म पालता रहा, और यशोदाजी श्राविका तो थी, परंतु यशोदाने दीक्षा लोनी मैने किसी शास्त्र में नही बचा है. और जगवंतकी पुत्रीने एक हजार स्त्रीयोंके साथ और जमाइ जमालिने ५०० पांचसौ पुरुषोंके साथ जगवंत श्री महावीरजीके पास दीक्षा लीनीथी.
प्र. ९३ - श्रीमहावीर भगवंतने जो अंतमें सोलां पोहर तक देशना दीनीथी, तिसमे क्या क्या उपदेश कराया ?
न. - जगवंतने सर्वसें अंतकी देशना में ५५ पचपन अशुभ कर्मोके जैसें जीव जवांतर मे फल नोगते है, ऐसे अध्ययन और पचपन ५५ शुभ कर्मो के जैसें भवांतर में जीव फल भोगतेदै, ऐसे
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अध्ययन और उत्तीस ३६ विना पूज्यां प्रश्नोके नत्तर कथन करके पीने ५५, पचपन शुन्न विपाक फल ना अध्ययनोंमेंसें एक प्रधान नामे अध्ययन कथन करते हुए निर्वाण प्राप्त हुए थे. यह कथन संदेह विषौषधी नामें ताम पत्रोपर लिखी हुइ पुरानी कल्पसूत्रकी टीकामे है. येह सर्वाध्ययन श्री सुधर्मस्वामीजीने सूत्ररूप गूंथे होवेंगे के नही, ऐसा लेख मेरे देखनेमें किसी शास्त्रमें नही आया है.
प्र. ए-जैनमतमे यह जो रूढिसे कितनेक लोक कहते है कि श्री उत्तराध्ययनजीके बत्तीस अध्ययन दिवालीकी रात्रिमें कथन करके ३७ सैंतीसमा अध्ययन कथन करते हुएमोक्षगये, यह कथन सत्य है, वा नही?
न.-यह कथन सत्य नही, क्योंकि कल्प सूत्रकी मूल टीकासे विरुद्धहै, और श्रीनबाहुस्वामीने नुत्तराध्ययनकी नियुक्तिमें ऐसा कथन कराहै कि उत्तराध्ययनका दूसरा परीषहाध्ययनतो कर्मप्रवाद पूर्वके १७ सत्तरमें पाहुमसे नुसार क.
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रके रचाहै, और आठमाध्ययन श्री कपिल केवलीने रचाहै, और दशमाध्ययन जब गौतमस्वामी अष्टापदसे पीछे आएहै, तब नगवंतने गौतमको धीर्य देने वास्ते चंपानगरीमें कथन करा था, और २३ मा अध्ययन केशोगौतमके प्रभोत्तर रूप स्-ि अवरोने रचाहै. कितने अध्ययन प्रत्येकबुद्धि मुनियोके रचे हुएहै. और कितनेक जिन नाषित है. इस वास्ते उत्तराध्ययन दिवालीकी रात्रिमे कअन करासिइ नही होताहै.
प्र. ए५-निर्वाण शब्दका क्या अर्थ है ?
न.-सर्व कर्म जन्य नपाधि रूप अग्निका जो बुझ जाना तिसकों निर्वाण कहते है, अर्थात् सर्वोपाधिसे रहित केवल, श्रुझ, बुझ सच्चिदानंद रूप जो आत्माका स्वरूप प्रगट होना, तिसकों नि. वाण कहते है.
प्र. ए६-जीवको निर्वाण पद कद प्राप्त होताहै ?
न. जब शुन्नाशुन्न सर्व कर्म जीवके नष्ठ हो जातेहै तब जीवको निर्वाणपद प्राप्त होताहै.
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प्र. ए-निर्वाण हूआ पीछे आत्मा कहा जाता है, और कहां रहताहै ?
न.-निर्वाण हूआ पी आत्मा लोकके अग्र नागमे जाताहै, और सादिअनंत काल तक सदा तहांहो रहताहै.
प्र. ए-कर्म रहित आत्माकों लोकाग्रमें कौन ले जाताहै ?
न.-आत्मामें नईगमन स्वन्नावहै, तिसमें आत्मा लोकाग्र तक जाताहै.
प्र. ए-आत्मा लोकाग्रसे आगे क्यों नही जाताहै ?
न.-आत्मामे नईगमन स्वन्नाव तो है, परंतु चलनेमे गति साहायक धर्मास्तिकाय लोका. ग्रसे आगे नहींहै, इस वास्ते नही जाताहै. जैसे मनमे तरनेकी शक्तितो है, परंतु जल विना नही तरसक्ताहै, तैसें मुक्तात्मानी जानना.
प्र.१००-सर्व जीव किसी कालमें निर्वाण पद पावेंगे के नहीं?
उ.-सर्व जीव निर्वाण पद किसी कालमें
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भी नही पावेंगे.
प्र. १०१ - क्या सर्व जीव एक सरीखे नही है, जिससे सर्व जीव निर्वाश पढ़ नही पावेगें.
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न - जीव दो तरे के है; एक नव्य जीव है १, दुसरे नव्य जीवहै; तिनमें जो भव्य जीव दोवेतो को निर्वाण पदकों प्राप्त नही होवेगं, क्योंकि तिनमे अनादि स्वभावसेंही निर्वाण पद प्राप्त होनेकी योग्यताही नही है; और जो नव्य जीव है तिनमें निर्वाणपद पावनेको योग्यता तो है, परंतु जिस जिसकों निर्वाण होनेके निमित्त मिलेंगे वे निर्वाणपद पावेंगे, अन्य नही.
प्र. १०२ - सदा जीवांके मोह जानेसें किसी कालमें सर्व जीव मोक्षपद पावेंगे, तबतो संसारमें प्रव्य जीवही रह जायेंगे, और मोक्ष मार्ग बंद हो जावेगा ?
न - जन्य जीवांकी राशि सर्व प्रकाशके प्रदेशोंकी तरे अनंत तथा अनागत कालके समयकी तरें अनंत है. कितनाही काल व्यतीत होवे तोजी अनागत कालका अंत नही आता है, इसो
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तरें सदा मोद जानेसें जीवनी खूटते नहींहै. इस लोकमें निगोद जीवांके असंख्य शरोरहै, एकैक शरीरमें अनंत अनंत जीवहै; एक शरीरमें जितने अनंत अनंत जीवहै, तिनमेंसे अनंतमे नाग प्रमाण जीवअतीत कालमें मोक्षपद पायेहै, और तिनमेंसे अनंतमें नाग प्रमाण अनंत जीव अनागत कालमें मोद पद पावेंगे, इस वास्ते मोद मार्ग बंद नही होवेगा.
प्र. १०३-आत्मा अमरहैके नाशवंतहै ?
न-आत्मा सदा अविनाशी है, सर्वथा नाशवंत नहीं है।
प्र. १०४-आत्मा अमर है, अविनाशी है, इस कथनमें क्या प्रमाण है ?
उ.-जिस वस्तुको नत्पत्ति होतीहै, सो नाशवंत होताहै, परंतु आत्माकी नुत्पत्ति नही हुश्है, क्योंकि जिस वस्तुकी नत्पत्ति होतीहैं तिसका नपादान अर्थात् जिसकी आत्मा बन जावे जैसें घमेका उपादान मिंट्टीका पिंम है, सो नपादान कारण को अरूपी ज्ञानवंत वस्तु होनी
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१०१ चाहिये, जिससे आत्मा बने, ऐसा तो आत्मासे पहिला कोश्नी नपादान कारण नहीहै; इस वा. स्ते आत्मा अनादि अनंत अविनाशी वस्तु है.
प्र. १०५-जेकर कोइ ऐसे कहे प्रात्माका नपादान कारण ईश्वरहै, तबतौ तुम आत्माकों अनित्य मानोगेके नही.
न.-जब ईश्वर आत्माका नपादान कारण मानोगे, तबतो ईश्वर और सर्व अनंत संसारी आत्मा एकहो हो जावेगी, क्योंकि कार्य अपणे नपादान कारणसें निन्न नही होता है.
प्र. १०६-ईश्वर और सर्व संसारी आत्मा एकही सि होवेगेतो इसमे क्या हानि है ? ।
न.-ईश्वर और सर्व संसारी आत्मा एकही सिह होवेगे तो नरक तिर्यचकी गतिमेनी ईश्वरही जावेगा, और धर्मा धर्मनी सर्व ईश्वरहीं क. रनेवाला और चौर, यार, लुच्चा, लफंगा, अगम्यगामी इत्यादि सर्व कामका कर्त्ता ईश्वरही सिः होवेगा, तबतो वेदपुराण, बैबल, कुरान प्रमुख शास्त्रनो ईश्वरने अपनेही प्रतिबोध वास्ते रचे
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१०३
सिद्ध होवेंगे, तबतो ईश्वर अज्ञानी सिह होवेगा. जब अज्ञानी सिः६ हुआ तबतो तिसके रचे शा. स्वनी जूठे और निष्फल सिह होवेगे, ऐसे जब सिद्ध होगा तबतो माता, बहिन, बेटीके गमन करनेको शंका नही रहेगी, जिसके मनमें जो आवे सो पाप करेगा, क्योंके सर्व कुछ करने कराने फल लोगने नुक्ताने वाला सर्व ईश्वरही है, ऐस माननेसे तो जगतमे नास्तिक मत खमा करना सिद्ध होवेगा.
प्र. १०७-जीवकों पुनर्जन्म किस कारणसे करणा पमताहै ?
न.-जीवहिंसा, १ जूठ बोलना, १ चौरी करनी, ३ मैथुन, स्त्रीसें नोगकरना, ४ परिग्रह रखना, ५ क्रोध १ मान माया ३ लोन एवं ए राग १० द्वेष ११ कलह १२ अन्यारव्यान अ. र्थात् किसीकों कलंक देना १३ पैशुन १४ प. रकी निंदा करनी १५ रति अरति १६ माया मृषा १७ मिथ्यादर्शन शल्ल, अर्थात् कुदेव, कुगुरु, कु. धर्म, इन तीनोको सुदेव, सुगुरु, सुधर्म करके
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१०३
मानना १७, जब तक जीव येह अष्ठादश पाप सेवन करताहै, तब तक इसको पुनर्जन्म होताहै.
प्र. १७-जीवकों पुनर्जन्म बंद दोनेका क्या रस्ताहै ?
न. ऊपर लिखे हुए अष्टादश पापका त्याग करे, और पूर्व जन्मांतरोमें इन अष्टादश पापोंके सेवनेसे जो कर्माका बंध कराहै, तिसको अर्ह. तकी आज्ञानुसार ज्ञान श्रद्धा जप तप करनेसें सर्वथा नाश करे तो फेर पुनर्जन्म नही होताहै.
प्र. १०0-तीर्थकर महाराजके प्रन्नावसे अ. पना कल्याण होवेगा, के अपनी आत्माके गुणाके प्रन्नावसे हमारा कल्याण होवेगा ?
न.-अपनी आत्माका निज स्वरूप केवल झान दर्शनादि जब प्रगट होवेगे, तिसके प्रत्नावसे हमारी तुमारी मोद होवेगी.
प्र. ११०-जेकर निज आत्माके गुणोंसेमोह होवेगी, तबतो तीर्थंकर नगवंतकी नक्ति करनेका क्या प्रयोजन है ? ___ न.-तीर्थंकर नगवंतकी नक्ति करने में ती
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१०४ थैकर नगवंत निमित्त कारणहै. विना निमित्तके अपनी आत्माके गुणरूप नपादान कारण कदेश फल नही देताहै. तोर्थंकर निमित्तनूत होवे तब नक्तिरूप नपादान कारण प्रगट होताहै टिससेंही; आत्माके सर्व गुण प्रगट होतेहै, तिनसे मोक्ष होताहै. जैसे घट होनमे मिट्टी नपादान कारनहै, परंतु विना कुलाल चक दंग चीवरादि निमित्तके कदापि घट नही होताहै, तैसेंही तीर्थंकर रूप निमित्त कारण विना आत्माकों मोक्ष नही हो. ताहै, इस वास्ते तोर्थकरकी नक्ति अवश्य करने योग्यहै,
प्र. ११२-जगतमें जीव पुन्य पाप करतेहै तिनके फलका देनेवाला परमेश्वरहै वा नही ?
न-पुन्य पापके फलका देनेवाला परमेश्वर नही है,
प्र. ११३-पुन्य पापके फलका दाता ई. श्वर मानिये तो क्या हरज है ?
न.-ईश्वर पुन्य पापका फल देवे तब तो ईश्वरकी ईश्वरताको कलंक लगता है.
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१०५
प्र. ११५-क्या कलंक लगताहै ?
न.-अन्यायता, निर्दयता असमर्थता अझानतादि.
प्र. ११५-अन्यायता दूषण ईश्वरको पुन्य पापके फल देनेसे कैसे लगताहै ?
न.-जब एक आदमीने तलवारादिसें किसी पुरुषका मस्तक बेदा, तब मस्तकके बिदने. से नस पुरुषकों जो महा पीमा नोगनी पमीहै, सो फल ईश्वरने दूसरे पुरुषके हायसें नसका मस्तक कटवाके भुक्ताया, तद पी तिस मारने वालेकों फांसी आदिकसे मरवाके तिसकों तिस शिर बेदन रूप अपराधका फल भुक्ताया, ईश्वरने पहिला तिसका शिर कटवाया, पीछे तिसकों फांसी देके तिस शिर छेदनेका फल नुक्ताया; ऐसे काम करनेसे ईश्वर अन्यायी सिद्ध होताहै.
प्र, ११६--पुन्य पापके फल नुक्तानेसे ई. श्वरमें निर्दयता क्यों कर सिद्ध होतोहै :
न.-जब ईश्वर कितने जोवांकों महा पु. खी करताहै, तब निर्दयी सिद्ध होताहै. शास्त्रों
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मेंतो ऐसे कहताहै किसी जीवको मत मारना, उखोनी न करना, भूखेकों देखके खानेकों देना, और आप पूर्वोक्त काम नहीं करताहै, जीवांकों मारताहै, महा उखी करताहै. नूखसे लाखो क रोमो मनुष्य कालादिमें मर जातेहै, तिनको खा नेकों नही देताहै, इस वास्ते निर्दयो सिद्ध हो. ताहै,
प्र.११७-ईश्वरतो जिस जीवने जैसा जैसा पुन्य पाप कराहै तिसकों तैसा तैसा फल देता है. इसमे ईश्वरकों कुछ दोष नही लगताहै, जैसे राजा चौरकों दंम देताहै और अच्छे काम करने वालेकों इनाम देताहै.
न..-राजातो सर्व चोराकों चोरी करनेसें बंद नही कर सकता है. चाहतातोहै कि मेरे राज्यमें चोरी न होवेतो ठीकहै, परंतु ईश्वरकों तो लोक सर्व सामर्थ्यवाला कहतेहै, तो फेर ई. श्वर सर्व जीवांकों नवीन पाप करनेसे क्यों नही मन करताहै. मनै न करनेसे ईश्वर जान बूझके जीवोसें पाप करताहै. फेर तिसका दंम देके जी
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१०७
वोंकों उखी करताहै. इस हेतु ही अन्यायी, निदयी, असमर्थ ईश्वर सिद्ध होताहै. इस वास्ते ईश्वर नगवंत किसीकों पुन्य पापका फल नही देताहै. इस चर्चाका अधिक स्वरूप देखना होवे तो हमारा रचा हुआ जैनतत्वादर्शनामा पुस्हक बांचनां.
प्र. ११७--जब ईश्वर पुन्य पापका फल नही देताहै, तो फेर पुन्य पापका फल क्योंकर जीवांको मिलताहै ?
न.--जब जीव पुन्य पाप करतेहै तब तिनके फल नोगनेके निमित्तन्नी साथही होनेबाले बनाता करताहै, तिन निमित्तो द्वारा जीव शु. नाशुन्न कर्मोका फल नोगतेहै, तिन निमित्तोका नामही अज्ञ लोकोने ईश्वर रख गेमाहै.
प्र. ११५-जगतका कर्ता ईश्वरहै के नही ?
न..-जगततो प्रवाहसे अनादि चला आताहै. किसीका मूलमें रचा हुआ नहाहै. काल १ स्वन्नाव २ नियते ३ कर्म ४ चेतन अात्मा और जड पदार्थ इनके सर्व अनादि नियमोसें
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१०७ यह जगत विचित्ररूप प्रवाहसें चला हुआ नत्पाद व्यय ध्रुव रूपसें इसी तरे चला जायगा.
प्र. १२०--श्री महावीरस्वामीए तीर्थकरोको प्रतिमा पूजनेका उपदेश कराहै के नहो ?
न.-श्री महावीरजीने जिन प्रतिमाकी पूजा ये और नावेतो गृहस्थकों करनी बता. यिहै, और साधूयोंकों नावपूजा करनी बताइहै.
प्र. १५१-जिन प्रतिमाकी पूजा विना जिनकी नक्ति हो शक्तोहै के नहो ?
न.-प्रतिमा विना नगवंतका स्वरूप स्मरण नही हो सक्ताहै, इस वास्ते जिन प्रतिमा विना गृहस्थलोकोसे जिनराजकी नक्ति नही हो सक्तीहै.
प्र. १२२-जिन प्रतिमातो पाषाणादिककी बनी हुश्है, तिसके पूजने गुणस्तवन करनेसे क्या लान्न होताहै ?
न.-हम पर जानके नही पूजतेहै, किंतु तिस प्रतिमा धारा साक्षात् तीर्थकर नगवंतकी पूजा स्तुति करतेहै. जैसे सुंदर स्त्रोकी तसबीर
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१०॥ देखनेसे असल स्त्रीका स्मरण होकर कामी काम पीमित होताहै तैसेही जिन प्रतिमाके देखनेसे नक्तजनोको असली तीर्थकरका रूपका स्मरण होकर नक्तोंका जिन नक्तिसे कल्याण होता है.
प्र. १५३-जिन प्रतिमाकी फूलादिसें पूजा करनेसे श्रावकॊको पाप लगताहै के नही ?
3.-जिन प्रतिमाकी फूलादिसें पूजा क. रनेसें संसारका कय करे, अर्थात् मोक्ष पद पावे; और जो किंचित् इव्य हिंसा होती है, सो कूपके दृष्टांतसे पूजाके फलसेही नष्ट होजातिहै, यह कपन आवश्यक सूत्र मेंहै.
प्र. १२५-सर्व देवते जैनधर्मी है ? न.-सर्व देवते जैनधर्मी नहीहै, कितनेकहै.
प्र. १२५-जैनधर्मी देवताकी जगती श्रावक साधु करे के नही ? ___.-सम्यग् दृष्टी देवताकी स्तुति करनी जैनमतमें निषेध नही, क्योंकि श्रुत देवता ज्ञानके विघ्नोको उर करतेहै, सम्यग् दृष्टी देवते धममे होते विनोको उर करतेहै, और को नोला
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११०
जीव इस लोकार्थके वास्ते सम्यग् दृष्टि देवत्तायोंका आराधन करेतो तिसकानी निषेध नही है, साधुनो सम्यग् दृष्टि देवताका आराधन स्तु ति जैनधर्मकी उन्नति तथा विघ्न दुर करने वास्ते करेतो निषेध नही. यह कथन पंचाशकादि शास्त्रोंमे है.
-
प्र. १२६ - सर्व जीव अपने करे हुए कर्मका फल जोगते है, तो फेर देव ते क्या कर सक्ते है ? न —जैसें जैसें अशुभ निमित्तोकें मिले प्रशुन कर्मका फल उदय होता है, तैसे शुभ निमितोके मिलने से अशुभ कर्मोदय नष्ठन्नी हो जाताहै, इस बास्ते अशुभ कर्मा के नदयकों दुर क रनेमें देवतानी निमित्त है.
प्र. १२७ - जैनधर्मी अथवा अन्यमति देवते विना कारण किसीकों दुख दे सक्ते है के नही ?
उ.- जिस जीवके देवताके निमित्त - शुभ कर्मका उदय दोना है, तिसकों तो द्वेषादि
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कारणसें देवते दुख दे सक्ते है, अन्यको नदी. प्र. १२८ - संप्रतिराजा कौन था ?
न. -- राजगृह नगरका राजा श्रेणिक जिसका दूसरा नाम नंनसार था, तिसकी गद्दी ऊपर तिसका बेटा अशोकचंद दूसरा नाम कोशिक बैठा, तिसने चंपानगरीकों अपनी राजधा नी करी, तिसकै मरां पिबै तिसकी गद्दी ऊपर तिसका बेटा नदायि बैठा, तिसने अपनी राजधानी पामलीपुत्र नगर में करी सो नदायि विना पुत्रके मरण पाया; तिसकी गद्दी ऊपर नायिका पुत्र नंद बैठा, तिसकी नव पेढीयोने नंदही नामसें राज्य करा, वें नव नंद कदलाए. नबमें नंदकी गद्दी ऊपर मौर्यवंशी, चंड्गुप्तराजा बैठा, तिसकी गद्दी ऊपर तिसका पुत्र बिंदुसार बैठा, तिसकी गद्दी ऊपर तिसका बेटा अशोकश्रीराजा बैठा, तिसका पुत्र कुणाल प्रांखासें अंधा था इस वास्ते तिसकों राज गद्दी नही मिली, तिस कुगालका पूत्र संप्रति हुआ, सो जिस दिन जन्याया तिस दिनही तिसकों अशोकश्री राजाने
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अपनी राजगद्दी ऊपर बैगया, सो संप्रति नामे राजा हुआहै, श्रेणिक १ कोणिक २ नदायि ३ यह तीनो तो जैनधर्मी थे, नब नंदोकी मुझे ख बर नही, कौनसा धर्म मानते थे. चंगुप्त १ बि उसार ए दोनो जैनी राजे थे, अशोकश्रीनी जैनराजा था, पीसें केश्क बौक्ष्मति हो गया कह तेहै, और संप्रति तो परम जैनधर्मीराजा था.
प्र. १२ए-संप्रति राजाने जैनधर्मके वास्ते क्या क्या काम करेथे.
न.-संप्रतिराजा सुहस्ति आचार्यका श्राबक शिष्य १२ वारां व्रतधारी था, तिसने इविम अंध्र करणाटादि और काबुल कुराशानादि अनार्य देशोमें जैनसाधयोका बिहार करके तिनके नपदेशसे पूर्वोक्त देशोमें जैनधर्म फैलाया, और नि नानवे एए000 हजार जीर्म जिन मंदरोंका न.
ार कराया, और बव्वीस २६००० हजार नवीन जिनमंदिर बनवाए थे, और सवाकिरोम १२५00000 जिन प्रतिमा नवीन बनवाई थी, जिनके बनाए हुए जिनमंदिर गिरनार नझोलादि
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११३
स्थानोमे अवनी मौजूद खमेहे, और तिनकी बनवाइ हुइ सैंकको जिन प्रतिमानो महा सुंदर विद्यमान काल मे विद्यमान है; और संप्रति राजा ने ७०० सौ दानशाला करवाई थी. और प्रजाके महा हितकारी नुबधशालादिनी बनवाई थी, इत्यादि संप्रतिराजाने जैनमतकी वृद्धि और प्रजावना करी थी. विरात् २०१ वर्ष पीछे हुआ है.
प्र. १३० - मनुष्यों मे कोई ऐसी शक्ति वि द्यमान है कि जिसके प्रभावसें मनुष्य अद्भुत काम कर सक्ता है ?
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न - मनुष्यम अनंत शक्तियों कमके आवरणसे ढंकी हुइ है, जेकर वे सर्व शक्तियां आवरण रहित हो जावेंतो मनुष्य चमत्कारी अद्भुत काम कर सक्ते है.
प्र. १३१ वेशक्तियां किसने ढांक बोमी है? न. आठ कर्माकी अनंत प्रकृतियोने आ
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बदन कर बोमी है. प्र. १३२ तो आठ कर्मकी १४८ वा १५८ प्रक्रतियां सुनी है, तो तुम अनंत किस तरेसें
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११४
कहते है ?
न. एकसौ १४८ वा ९५८ यह मध्य प्रकृतियांके भेद है, और उत्कृष्ट तो अनंत नेद है, क्योंके श्रात्मा के अनंत गुण है, तिनकै ढांकनेवालीयां कर्म प्रकृतियांनी अनंत है.
प्र. १३३ - मनुष्य में जो शक्तियां अद्भुत काम करनेवालीयां है तिनका थोमासा नाम लेके बतलान, और तिनका किंचित् स्वरूपनी कहौ, और यह सर्व लब्धियां किस जीवकों किस का - लमें होतीयांदे ?
न. - आमोसहि लो १ जिस मुनिके दायादिके स्पर्श लगनेसें रोगीका रोग जाए, तिसका नाम श्रमर्षोषधि लब्धि है, मुनि तिस ल विधवाला कहा जाता है, यह लब्धि साधुदीकों होती है.
विप्पोसहि लदी २ -- जिस साधुके मलमूके लगने से रोगीका रोग जाए, तिसका नाम विट्पोषधि लब्धि है, इस लब्धिवाले मुनिका मल, विष्टा और मूत्र सर्वं कर्पूरादिवत् सुगंधि
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११५ वाला होता है, यह लब्धि साधुकोही होतीहै.
खेलोसहि ली ३--जिस साधुका श्लेष्म बूंकही नषधिरूप है, जिस रोगीके शरीरकों लग जावेतो तत्काल सर्व रोग नष्ट हो जावे, यह सुगंधित होताहै, यह लब्धि साधुकों होती है, इ. सको श्लेष्मोषधि लब्धि कहतेहै.
जल्लोसहि सही --जिस साधुके शरीरका पसीना तथा मैलन्नी रोग दूर कर सके, तिसकों जल्लोषधि लब्धि कहते है, यहन्नी साधुकोंही होती है.
सधोसहि लड़ी ५ जिस साधुके मलमूत्र केश रोम नखादिक सर्वोषधि रूप हो जाबे, सर्व रोग दूर कर सकें, तिसकों सर्वोषधि लब्धि कह तेहै, यह साधुको होतोहै. ___संनिन्नासोए लही ६-जो सर्व इंडियोंसे सुणे, देखे, गंध सूंघे, स्वाद लेवे, स्पर्श जाणे ए कैक इंस्थिसे सर्व इंश्यांकी विषय जाणे अथवा बारा योजन प्रमाण चक्रवर्तिकी सेनाका पमाव होताहै, तिसमे एक साथ वाजते हुए सर्व वजं
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११६ त्रोकों अलग अलग जान सके तिसको संन्निन्न श्रोत्र लब्धि कहतेहै, यह साधुको होवे है.
नहिनाण लही -अवधिज्ञानवंतको अव. धिज्ञान लब्धि होती है, यह चारो गतिके जीवांको होतीहै, विशेष करके साधुकों होतीहै.
रिनम लद्धी --जिस मनः पर्यायज्ञानसे सामान्य मात्र जाणे, जैसे इस जीवने मनमें घट चिंतन कराहै इतनाही जाणे, परंतु ऐसा न जा नेकि वैसा घट किस क्षेत्रका नत्पन्न हुआ किस कालमें नत्पन्न हुआहै, अथवा अढाइ दीपके मनु ष्योके मनके बादर परिणामा जाणे तिसकों जु मति लब्धि कहते है, यह निश्चय साधुकों होती है अन्यको नही.
विनलमा लद्धी ए-जिस मनः पर्यायसे झजुमतिसे अधिक विशेष जाणे, जैसे इसने सों नेका घट चिंतन कराहैः पामलिपुत्रका नुत्पन्न हूआ वसंतझतुका अथवा अढाइ दीपके संझी जी वांके मनके सूक्ष्म पर्यायांकोंना जाणे, तिसकों विपुलमति लब्धि कहतेहै, इसका स्वामी साधुही
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११०
दोवे, यह लब्धि केवल ज्ञानके विना हुआ
जाए नही.
चारण लडी १० - चारण दो तरेके होते है, एक जंघा चारण १ दूसरा विद्या चारण २ जंधा चारण नसकों कहते है जिसकी जंघायोंमे आका शमें नमनेकी सक्ति नृत्पन्न होवे सो ऊंघा चार रा. ऊंचा तो मेरू पर्वतके शिखर तक नमके जा सक्ता है, और तिरबा तेरमे रुचक द्वीप तक जा सकता है, और विद्याचारण ऊंचा मेरु शिखरतक और तिरछ । आठमें नंदीश्वर द्वीप तक विद्याके प्रभावसें जा सक्ता है, येह दोनो प्रकारकीं लब्धिको चारण लब्धि कहते है, यह साधुकों होती है.
सीबिष लो ११ आशी नाम दाढाका है, तिनमें जो विष होवे सो आशोविष. सो दो प्रकारे है, एक जाति शोविष दूसरा कर्म श्राशीविष, तिनमें जाति जदरीके चार भेद है. विबु १ सर्प २ मींक ३ मनुष्य ४ और तप क रनेसें जिस पुरुषको आशीविष लब्धि होती है सो शाप देके अन्यकों मार सक्ता है, तिसकोंनी
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आशीविष लब्धि कहतेहै.
केबल लही १२-जिस मनुष्यकों केवल ज्ञान होवे, तिसकों केवलि नामे सब्धिहै.
___ गणहर लो १३-जिससे अंतर मुहर्नमें चौदह पूर्व गूंथे और गणधर पदवी पामें, तिसको गणधर लब्धि कहतेहै.
पुव्वधर लद्धी १५-जिससे चौदहपूर्व दश पूर्वादि पूर्वका ज्ञान होवे, सो पूर्वधर लब्धि..
अरहंत लही १५-जिससे तीर्थंकर पद पावे, सो अरिहंत लब्धि.
चक्कवट्टि लही १६-चक्रवर्तीकों चक्रवर्ती लब्धि .
बलदेव लद्धी १७-बलदेवकों वलदैव लब्धि.
वासुदेव लद्धी १०-वासुदेवकों वासुदेवकी लब्धि
___ खीरमहुसप्पिासव लद्धी १ए-जिसके वचनमें ऐसी शक्तिहै कि तिसकी वाणि सुणके श्रोता ऐसा तृप्त हो जावेके मानु दूध, घृत, शा. कर, मिसरीके खानेसे तृप्त हुआहै, तिसकों खीर
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११५
मधुसर्पि आसव लब्धि कहते है, यह साधुकों
होती है.
कुध्य बुद्धि लद्धी २० - जैसे वस्तु कोठे में पमी हुइ नाश नही होती है, ऐसेहो जो पुरुष जितना ज्ञान सीखे सो सर्व वैसेका तैसाही जन्मपर्यंत जूले नही, तिसकों कोष्टक बुद्धि लब्धि कहते है.
पयानुसारी ली २१ - एक पद सुननेसें संपूर्ण प्रकरण कह देवें, तिसकों पदानुसारी लब्धि कहते है.
बीयबुद्धि लड़ी २२ - जैसें एक बीजसें प्रनेक बीज उत्पन्न होते है, तैसेही एक वस्तुकै स्व रूपके सुननेसें जिसको अनेक प्रकारका ज्ञान होवे, सो बीजबुद्धि लब्धिहै.
तेनलेसा लघी २३ जिस साधुके तपके प्र नावसें ऐसी शक्ति उत्पन्न होंवेके जेकर क्रोध चढेतो मुखके फुंकारेसें कितनेही देशांकों बालके नस्म कर देवे, तिसकों तेजोलेश्या लब्धि कहते है
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आहारए लद्धी श्व चनदह पूर्वधर मुनि तीर्थकरकी शहि देखने वास्ते, १ वा कोई अर्थ अवगाहन करने वास्ते, अथवा अपना संशय दूर करने वास्ते अपने शरीरमें हाथ प्रमाण स्फटिक समान पूतला काढके तीर्थंकरके पास नेजताहै, तिस पूतलेसें अपने कृत्य करके पाग शरीरमें संहार लेताहै, तिसकों आहारक लब्धि कहतेहै.
सीयलेसा लही २५ तपके प्रत्नावसे मु. निकों ऐसी शक्ति नुत्पन्न होतोहैके जिससे तेजो लेश्याकी ननताको रोक देवे, वस्तुकों दग्ध न होने देवे, तिसकों शोतलेशा लब्धि कहते है.
वेनविदेह लदी २६ जिसकी सामर्थसे अ णुकी तरे सूक्ष्म कण मात्रमें हो जावे, मेरुकी तरें नारी देह कर लेवे, अर्क तूलकी तरें लघु ह लका देह कर लेवे, एक वस्त्रमेंसें वस्त्र करोगों पार एक घटमेंसें घट करोमों करके दिखला देवे, जैसा श्छे तैसा रूप कर सके, अधिक अन्य क्या कहिये, तिसका नाम वैक्रिय लब्धि है.
अरकीपमहापसी लो २७-जिसके प्रना
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११ वसे जिस साधुनें आहार आणाहै, जहां तक सो साधु न जीमे तहां तक चाहो कितनेहो साधु तिस निकामेंसे आहार करे तोनी खूटे नही, तिसको अहीणमहानसिक लब्धि कहते है.
____पुलाय लही श्-जिसके प्रत्नावसे धर्मकी रदा करने वास्ते धर्मका षी चक्रवर्त्यादिकों सेना सहित चूर्म कर सके, तिसकों पुलाकल. ब्धि कहते है,
पूर्वोक्त येह लब्धियां पुन्यके और तपके और अंतःकरणके बहुत शुइ परिणामोके होनेसे होवेहे, ये सर्व लब्धियां प्रायें तीसरे चौथे आरेमेंही होतीयांहे, पंचम पारेकी शुरुआतमेंनी हो तीयां है.
प्र. १३४-श्री महावीरस्वामीकों ये पूर्वोक लब्धियां २० अगवीस थी?
न.-श्री महावीरजीकोंतो अनंतीयां लब्धि यां थी. येह पूर्वोक्ततो २७ अठावीस किस गिन तीमेंहै, सर्व तीर्थकराको अनंत लब्धियां होतीहै.
प्र. १३५-इंचूति गौतमकों ये सर्व ख
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१२३
धियो थी ?
न - चक्री, बलदेव, वासुदेव जुमति, ये नही थी, शेष प्राये सर्वही लब्धियां थी.
प्र. १३६ - आप महावीरकोंही जगवंत सर्वज्ञ मानतेहो, अन्य देवोंकों नही, इसका क्या कारण है ?
क्र. - अपने २ मतका पक्षपात बोरुके विचारीये तो, श्री महावीरजी में ही जगवंतके सर्व गुण सिद्ध होते है, अन्य देवो में नही.
प्र. १३७ श्री महावीरजीकों हूएतो बहुत वर्ष हुए है, हम क्योंकर जानेके श्री महावीरजीमेंही भगवानपके गुण थे, अन्य देवोंमें नही थे?
न. - सर्व देवोंकी मूर्त्तियों देखनेसें और ति नके मतो में तिन देवोंके जो चरित कथन करे है तिनके वांचने और सुननेसें सत्य जगवंत के लक्ष ए और कल्पित जगवंतोंके लक्षण सर्व सिद्ध हो जावेगे.
प्र. १३८ कैसी मूर्त्तिके देखनें सें भगवंतकी यह मूर्त्ति नहीदें, ऐसे हम माने ?
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न. जिस मूर्तिके संग स्त्रीकी मूर्ति होवे तब जाननाके यह देव विषयका नोगी था. जिस मूर्तिके दायमें शस्त्र होवे तब जानना यह मूर्ति रागी, देषी वैरीयोके मारने वाले और असमर्थ देवोकी है। जिस मूर्तिके हाथमें जपमाला होवे तब जानना यह किसीका सेवक है, तिससे कुछ मागने वास्ते तिसकी माला जपताहै.
प्र. १३ए परमेश्वरकी कैसी मूर्ति होती है?
न.-स्त्री, जपमाला, शस्त्र, कमलुसे रहित और शांत निस्टह ध्यानारूढ समता मतवारी, शांतरस, मनसुख विकार रहित, ऐसी सच्चे दे. वकी मूर्ति होतीहै.
प्र. १४० जैसे तुमने सर्वज्ञकी मूर्तिके ल कण कहेहै, तैसे लक्षण प्रायें बुझकी मूर्ति है, क्या तुम बुद्धको जगवंत सर्वज्ञ मानतेहो ?
न.-हम निकेवल मूर्तिकेही रूप देखनेसें सर्वज्ञका अनुमान नहीं करतेहे, किंतु जिसका चरितन्नो सर्वज्ञके लायक होवे, तिसकों सच्चा देव मानते है.
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प्र. १४१ क्या बुधका चरित सर्वज्ञ सच्चे देव सरीखा नही है ?
न. बुके पुस्तकानुसार बुद्धका चरित स र्वज्ञ सरीखा नही मालुम होता है.
प्र. १४२ बुद्धके शास्त्रों में बुद्धका किसतरैंका चरित है, जिससे बुद्ध सर्वज्ञ नही है ?
न. - बुद्धका बुद्ध के शास्त्रानुसारे यह चरित जो आगे लिखते है, तिसें बुद्ध सर्वज्ञ नही सिद्ध होता है. १ प्रथम बुद्धने संसार बोमके निर्वाणका मार्ग जानने वास्ते योगीयांका शिष्य हुआ, वे योगी जातके ब्राह्मण थे और तिनकों बने ज्ञानी भी लिखा है, तिनके मतकी तपस्यारूप करनीसें बु. इका मनोर्थ सिद्ध नही हुआ, तब तीनको बोhi बुझ गया के पास जंगलमें जा रहा २, इस के बुद्ध ऊपर के लेख सेतो यह सिद्ध होता है कि बुद्ध कोइ ज्ञानी बुद्धिमानतो नही था, नहीतो तिनके म तको निष्फल कष्ट क्रिया काहेको करता, और गुरुयोंके बोमनेसें स्वच्छंदचारी अविनीतजी इसी लेखसे सिद्ध होता है १ पीछे बुद्धने नम्र ध्यान
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१३५ और तप करने में कितनेक वर्ष व्यतीत करे इस लेखसें यह सिह होताहैकि जब गुरुयोंकों बोका निकम्मे जानके तो फेर तिनका कथन करा हुआ, नग्र ध्यान और तप निष्फल काहेको करा, इस सेंनी तप करता हुआ, जब मूळ खाके पमा तदा तकनी अज्ञानी था, ऐसा सिद्ध होता है १ पीने जब बुझने यह विचार कराके केवल तप करनैसें ज्ञान प्राप्त नही होताहै, परंतु मनके नधाम करनेसे प्राप्त करना चाहिये, पोडे तिसने खानेका निश्चय करा और तप गेमा २ जब ध्यान और तप करनेसें मन न नघमा तो क्या खानेस मन नघम शकताहै, इससे यहनी तिसकी समझ अ समंजस सिद्ध होती है, १ पीछे अजपाल वृक्षके हेठे पूर्व तर्फ बैठके इस्ने ऐसा निश्चय कराके जहां तक मैं बुद्ध न होवांगा तहां तक यह जगा न गेहुंगा, तिस रात्रिमें इसको श्वारोध करनेका मार्ग और पुनर्जन्मका कारण और पूर्व जन्मांतरोका ज्ञान नत्पन्न हुआ, और दूसरे दिनके सवे रेके समय इसका मन परिपूर्ण नघमा, और स
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वोपरि केवलज्ञान नत्पन्न हुआ । अब विचारीये जिसने नमध्यान और तप गेम दीया और नित्यप्रते खानेका निश्चय करा तिसकों निर्हेतुक बारोध करनेका और पुनर्जन्मके कारणोंका ज्ञान कैसे हो गया, यह केवल अयौक्तिक कथनहै. मो जलायन और शारिपुत्र और आनंदकी कल्पनासें ज्ञानी लोकोमें प्रसिद्ध हुआ है १, बुद्धने यह क. थन करा है, आत्मा नामक कोइ पदार्थ नहीं है, आत्मातो अज्ञानियोने कल्पन करा है , जब बु हुने ज्ञानमें आत्मा नहीं देखा तव केवलज्ञान किसकों हुआ, और बुद्धने पुनर्जन्मका कारण कि सका देखा, और पूर्व जन्मांतर करने वाला किसकों देखा, और पुन्य पापका कर्त्तानूक्ता किसको देखा, और निर्वाण पद किसकों हुआ देखा, जेकर को यह कहके नवीन नवीन कणको पि ग्ले २ कणोकी वासना लगती जाती है, कर्ता पिबला कणहै, और नोक्त अगला कणहै, मोदका साधन तो अन्य कणने करा, और मोक्ष अ गले कणकी हुश्, निर्वाण उसको कहतेहै कि जो
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दीपककी तरें लोका बुऊ जाना, अर्थात् सर्व ar परंपरायका सर्वथा अभाव हो जाएगा, अ थवा शुद्ध होकी परंपराय रहती है. पांच स्कंधोसें वस्तु उत्पन्न होती है, पांचो स्कंधनी कणि कदै, कारण कार्य एक कालमे नही है, इत्यादि सर्व बौद्ध मतका सिद्धांत प्रयोक्तिक है १ बुद्धके शिष्य देवदत्त ने बुधको मांस खाना बुकानें के वास्ते बहुत उपदेश करा, परंतु बुद्धने न माना, अंत में - श्री सूयरका मांस और चावल अपने नक्तके घरसें लेके खाया, और वेदना ग्रस्त होकर के मरा, और पालीके जीव बुद्धकों नही दीखे तिससें कच्चे पानी के पीने और स्नान करनेका उपदेश अपने शिष्योंकों करा, इत्यादि असमंजस मतके उपदेशककों हम क्यों कर सर्वज्ञ परमेश्वर मान सके, जो जो धर्मके शब्द बौद्ध मतमें कथन करे है वे सर्व शब्द ब्राह्मणोके मतमेंतो है नही, इस वास्ते वे सर्व शब्द जैन मतसें लीये है. बुद्ध से प हिलें जैन धर्म था, तिसका प्रमाण हम ऊपर लिख आए है, बुद्धके शिष्य मौलायन और शारिपु
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१२० त्रने श्री महावीरके चरितानुसारी बुद्धको सर्वसें ऊंचा करके कथन करा सिह होताहै, इस वास्ते जैनमतवाले बुके धर्मकों सर्वज्ञका कथन करा हुआ नही मानते है.
प्र. १४३-कितनेक यूरोपीयन विद्वान ऐसे कहतेहै कि जैन मत ब्राह्मणोंके मतमेसें लीयाहै, अर्थात् ब्राह्मणोके शास्त्रोकी बातां लेके जैन मत रचा है ?
न-यूरोपीयन विज्ञानोने जैनमतके सर्व पुस्तक वांचे नहीं मालुम होतेहै, क्योंकि जेकर ब्राह्मणोके मतमें अधिक ज्ञान होवे, और जैनमतमें तिसके साथ मिलता थोमासा ज्ञान होवे, तब तो हमनी जैनमत ब्राह्मणोके मतसें रचा ऐसा मान लेवे, परंतु जैनमतका ज्ञानतो ब्राह्मणादि सर्व मतोके पुस्तकोंसे अधिक और विलक्षणहै, क्योंकि जैनमतके बेद पुस्तक और कर्मा के स्वरूप कथन करनेवाले कर्म प्रकृति, १ पंच संग्रह, २ षट्कर्म ग्रंथादि पुस्तकों में जैसा ज्ञान कथन करा है, तैसा ज्ञान सर्व ऽनियाके मतके
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१२॥ पुस्तकोंमे नहीहै, तो फेर ब्राह्मणोके मतके ज्ञानसे जैन मत रचा क्योंकर सिह होवे, बलकि यह तो सिझनी हो जावेके सर्व मतोमें जो जो सूक्त वचन रचना है वे सर्व जैनके द्वादशांग समुश्केही बिंऽ सर्व मतोमे गये हुएहै. विक्रमादित्य राजेके प्रोहितका पुत्र मुकंदनामा चार वेदादि चौदह वि द्याका पारगामी तिसने वृद्धवादी जैनाचार्यके पास दोदा लीनो. गुरुने कुमुदचं नाम दीना
और आचार्यपद मिलनेसें तिनका नाम सिद्धसेन दिवाकर प्रसिह हुआ, जिनक' नाम कवि कालो दासने अपने रचे ज्योतिर्विदानरण ग्रंथमें विक्रमादित्ययकी सन्नाके पंमितोके नाम लेतां श्रुतसेन नामसें लिखाहै, तिनोने अपने रचे बत्तीस बत्ती सी ग्रंथमें ऐसा लिखाहै, सुनिश्चितं नःपरतंत्र युक्तिषु ॥ स्फुरतिया कश्चिन्मुक्तिसंपदः ॥ तवैवतांः पूर्वमहार्णवोचता ॥ जगत्प्रमाणं जिनबाक्य विपुष ॥१॥ नदधाविव सर्व संधव ॥ समुद्दीरणा त्वयि नाथ दृष्टयः ॥ नचतासु नवान्प्रदृश्यते ॥ प्रविन्नक्त सरित्स्विवोदधिः ॥ १ ॥ प्रथम श्लोक
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का नावार्थ ऊपर लिख आएहै, दूसरे श्लोकका नाबार्थ यह है, कि समुझे सर्व नदीयां समा सक्तो है, परंतु समुश् किसीनी एक नदीमें नही समा सक्ता है, तैसे सर्व मत नदीयां समान है, वैतो सर्व स्याहाद समुद्ररूप तेरे मतमे समा सक्ते है, परंतु तेरा स्याहाद समुप मत किसी मतमेंनी संपूर्ण नही समा सक्ता है, ऐसेही श्री ह रिजइसूरिजी जो जातिके ब्राह्मण और चित्रकूटके राजाके प्रोहित थे और वेद वेदांगादि चौदह विद्याके पारगामी थे, तिनोनें जैनकी दीक्षा लेके १४४४ ग्रंथ रचेहै, तिनोनेनो ऊपदेशपद षोमश कादि प्रकरणोमें सिइसेन दिवाकरकी तरेही लि खाहै तथा श्री जिनधर्मी हुआ पोडे जानाहै, जि सने शैवादि सकल दर्शन और वेदादि सर्व मतों के शास्त्र ऐसे पंमित धनपालने जोके नोजराजा की सन्नामें मुख्य पंमित था, तिसने श्री कृषनदेवकी स्तुतिमें कहाहै, पावंति जसं असमंजसावि, वयणेहिं जेहि पर समया, तुह समय महो अहिणो, ते मंदाविउ निस्संदा ॥१॥ अ.
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स्यार्थः ॥ जैनमतके विना अन्य मतके असमंजस वचनरूप शास्त्र जो जगमें यशको पावें है जैन से वचनोसें वे सर्व वचन तेरे स्याद्वादरूप महोदधि के अमंद विंडु नमके गए हुए है, इत्यादि सैकमो चार वेद वेदांगादिके पाठीयोनें जैनमतमे दीक्षा लीनी है, क्या उन सर्व पंमितोकों बौद्धायनादि शास्त्र पकते हुआको नही मालुम पका होगा के बौधायनादि शास्त्र जैनमतके वचनोसें रचे गये है, वा जैन मत बौधायनादि शास्त्रोंसें रचा गया है, जेकर कोई यह अनुमान करके श्री महावीरजीसें बौधायनादि शास्त्र पहिले रचे गए है, इस वास्ते जैनमत पीछेसे हुआ है, यह माननानो ठीक नहो, क्योंकि श्री महावीरजीसें २५० वर्ष पहिले श्री पार्श्वनाथजी और तिनसें पहिले श्री नेमिना यादि तीर्थकर हुएहै, तिनके वचन लेके बौधाय नादि शास्त्र रचे गए है, जैनी ऐसें मानते है; जेक र कोई ऐसें मानता होवे कि जैनमत थोमा है और ब्राह्मण मत बहुत है, इस वास्ते थोमे मतसें बमा मत रचा क्यों कर सिद्ध होवे; यह अनुमान अ
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तोत कालकी अपेक्षाए कसा मानना ठीक नही, क्योंकि इस हिंस्तानमें बुके जीते हुए बुद्धमत विस्तारवंत नही था, परंतु पीसे ऐसा फैलाके ब्राह्मणोका मत बहुतही तुब रह गया था; इसी तरे कोइ मत किसी कालमे अधिक हो जाता है, और किसी कालमे न्यून हो जाता है, इस वास्ते योमा और बमा मत देखके यो मतको बमेसे रचा मानना ये अनुमान सच्चा नही है, जट्ट मो दमूलरने यह जो अनुमान करके अपने पुस्तकमें लिखाहै कि वेदोंके बंदोनाग और मंत्रनागके रचेकों श्ए० वा ३१०० सौ वर्ष हुएहै, तो फेर बौज्ञयनादि शास्त्र बहुत पुराने रचे हुए क्यों कर सि होवेंगे, इस वास्ते अपने मनकल्पित अनु. मानसें जो कल्पना करनी सो सर्व सत्य नही हो शक्ती है, इस वास्ते अन्य मतोंमे जो ज्ञानहै सो सर्व जैन मतमें है, परंतु जैनमतका जो ज्ञानहै सो किसी मतमे सर्व नही है; इस वास्ते जैन मतके वादशांगोकेही किंचित वचन लेके लोकोने मनकल्पित उसमें कुछ अधिक मिलाके मत रच
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१३३
लीनैहै; हमारे अनुमानसेंतो यहो सिइ होता है.
प्र. १४४-कोई यूरोपियन विद्वान् ऐसे क हताहै कि बौद्धमतके पुस्तक जैनमतसें चढतेहै?
न-जेकर श्लोक संख्यामे अधिक होवे अ. थवा गिनतिमें अधिक होवे अथवा कवितामें अ. धिक होवे, तबतो अधिकता को माने तो हमारी कुछ हानि नहीहै, परंतु जेकर ऐसें मानता होवेके बौद्ध पुस्तकोमें जैन पुस्तकोंसे धर्मका स्वरूप अधिक कथन करा है, यह मानना बिलकुल भूल संयुक्त मालुम होताहै, क्योंकि जैन पु स्तकोंमें जैसा धर्मका रूप और धर्म नीतिका स्व रूप कथन कराहै, वैसा सर्व पुनीयांके पुस्तकोंमें नही है.
प्र. १४५-जैनके पुस्तक बहुत थोमे है, और बौधमतके पुस्तक बहुत है, इस वास्ते अधिकता है?
न-संप्रति कालमें जो जैनमतके पुस्तकहै वे सर्व किसी जैनीनेनी नही देखेहै, तो यूरोपीयन विज्ञान कहांसे देखे; क्योंकि पाटन और जै
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१३४ सलमेरमें ऐसे गुप्त नंमार पुस्तकोंके है कि वे किसी इंग्रेजनेनी नहीं देखे है, तो फेर पूर्वोक्त अ नुमान कैसे सत्य होवे.
प्र. १५६-जैनमतके पुस्तक जो जैनो रख ते है सो किप्तोको दिखाते नहीं है, इसका क्या कारण है ?
न-कारणतो हमकों यह मालुम होताहै कि मुसलमानोंको अमलदारोमें मुसलमानोने बहुत जैनमतोपरि जुल्म गुजारा श्रा, तिसमें सैं. कडो जैनमतके पुस्तकोंके नंमार बाल दीये थे,
और हजारो जैनमतके मंदिर तोमके मसजिदे बनवा दीनी थी. कुतब दिल्ली अजमेर जुनागढके किलेमें प्रनास पाटणमें रांदेर, नरूचमें इत्यादि बहुत स्थानोमें जैनमंदिर तोमके मसजिदो बनवाश हुश् खमी है, तिस दिनके मरे हुए जैनि कि सीकोनी अपने पुस्तक नही दिखाते है, और गुप्त नंमारोंमें बंध करके रख गेमेहै.
प्र. १४७-इस काल में जो जैनी अपने पु. स्तक किसीको नही दिखातेहै, यह काम अना
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है वा नही?
न.-जो जैनी लोक अपने पुस्तक वहुत यत्नसें रखतेहै यहतो बहुत अच्छा काम करते है, परंतु जैसलमेरमें जो नंमारके आगे पथ्थरकी नोत चिनके नंमार बंध कर गेमा है, और कोइ नसको खबर नही लेता है, क्या जाने वे पुस्तक मट्टी हो गयेहै के शेष कुब रह गयेहै, इस हेतुसे तो हम इस कालकै जैन मतीयोंको बहुत नालायक समझते है
प्र. १७-क्या जैनो लोकों के पास धन न होहैं, जिससे वे लोक अपने मतके अति नुत्तम पुस्तकोंका नझार नही करवाते है ?
न.-धनतो बहुतहै, परंतु जैनी लोकोंकी दो इंडिय बहुत जबरदस्त हो गश्है, इस वास्ते ज्ञान नंमारकी कोश्नी चिंता नही करताहैं.
प्र. १४-वे दोनो इंडियो कौनसी है जो ज्ञानका नद्धार नही होने देती है ?
न.-एकतो नाक और दूसरी जिव्हा, क्यों कि नाकके वास्ते अर्थात् अपनी नामदारोके
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वास्ते लाखों रूपश्ये लगाके जिन मंदिर बनवाने चले जातेहै, और जिव्हाके वास्ते खानेमे लाखों रूपश्ये खरच करतेहै, चूरमेादिकके लड़योंकी खबर लीये जातेहै, परंतु जीर्णनंमारके नद्धार करणेकी बाततो क्या जाने, स्वप्नमेनो करते हो वेंगे नही.
प्र. १५०-क्या जिन मंदिर और साहम्मि वछल करने में पापहै, जो आप निषेध करतेहो ?
न.-जिन मंदिर बनवानेका और साहाम्मिवल करनेका फलतो स्वर्ग और मोक्षकाहै, परंतु जिनेश्वर देवनेतो ऐसे कहाकि जो धर्मदंत्र बिगमता होवे तिसकी सार संसार पहिले करनी चाहिये; इस वास्ते इस कालमै ज्ञान नंमार बिगमताहै. पहिले तिसका नद्धार करना चाहिये. जिन मंदिरतो फेरनी बन सकतेहै, परंतु जेकर पुस्तक जाते रहेगे तो फेर कोन बना सकेगा.
प्र. १५१-जिन मंदिर बनवाना और सा. हम्मिवल करना, किस रीतका करना चाहिये?
उ.-जिस गामके लोक धनहीन होवें, जिन
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१३७
मंदिर न बना सकें, और जिन मार्गके नक्त होवे, तिस जगे आवश्य जिन मंदिर करानां चाहिये, और श्रावकका पुत्र धनहीन होवे तिसकों किसी का रुजगार में लगाके तिसके कुटंबका पोषण होवे ऐसे करे, तथा जिस काम में सीदाता होवे तिसमें मदत करे. यह साहम्मिवबलहै, परंतु यह न समऊनांके हम किसी जगे जिन मंदिर बना नेकों और बनिये लोकोंकें जिमावने रुप साहम्मिल्लका निषेध करते है, परंतु नामदारीके वास्ते जिन मंदिर बनवाने में अल्प फल कहते है, और इस गामके बनोयोने उस गामके बनियोंकों जिमाया और उस गामवालोंने इस गाम के बनियोंकों जिमाया, परंतु साहम्मिकों साहाय्य करनेकी बुद्धिसें नही, तिसकों हम साहमिवबल नही मानते है, किंतु गधें खुरकनी मानते है.
प्र. १५२ - जैनमततो तुमारे कहनेसें दमको बहुत उत्तम मालुम होता है, तो फेर यह मत बहुत क्यों नही फैला है ?
न. - जैनमतके कायदे ऐसे कठिन है कि
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तिन नपर अल्प सत्ववाले जिव बहुत नही चल सक्तेहै. गृहस्थका धर्म और साधुका धर्म बहुत नियमोसे नियंत्रितहै, और जैनमतका तत्व तो बहुत जैन लोकनी नहीं जान सक्तेहै, तो अन्यमतवालोंको तो बहुतही समझना कठिनहै, बौः मतके गोविंदाचार्य- नरूचमें जैनाचार्यसे चरचामे हार खाइ, पी जैनके तत्व जानने वास्ते कपटसें जैनकी दोहा लीनी. कितनेक जैनमतके शास्त्र पढके फेर बौध वन गया, फेर जैनाचार्यों के साथ जैनमतके खेमन करनेमें कमर बांधके चरचा करी, फेरनी हारा, फेर जैनकी दीक्षा लीनी, फेर हारा, इसोतरें कितनी वार जैनशास्त्र पमे; परंतु तिनका तत्व न पाया, पिग्ली विरीया तत्व पाया तो फेर बौध नही हुआ. जैनमत स. मझनां और पालनां दोनो तरेसे कठिन है, इस वास्ते बहुत नही फैला है; किसी कालमे बहुत फैलानी होवेगा, क्या निषेध है, इसीतरे मीमांसाका वार्तिककार कुमारिल नट्टने और किरणा वलिक कर्त्ता नदयननेन्नी कपटसें जैन दीका
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१३५ लीनी, परंतु तत्व नही प्राप्त हुआ.
प्र. १५३-जैनमतमें जो चौदहपूर्व कहे जाते है, वे कितनेक बझेथे और तिनमें क्या क्या कथन था. इसका संकेपर्स स्वरूप कथन करो?
न.-इस प्रश्रका उत्तर अगले यंत्रसे देख लेनां.
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१४०
पूर्व नाम पद संख्या शाहालिख विषय क्याहै.
नमें कितनी
उत्पाद। एक करा एक करोड ? एकहाथी सर्व द्रव्य और सर्व पर्या
जितने शायांकी उत्पत्तिका स्वरूप १०.०... हीके ढेरसे कथन करा हे.
लिखा जावे
णोपर्व २छानवेलाख ।
हाथीप्रमा| सर्व द्रव्य और सर्व पर्याण शाहोसे य और सर्व जीव विशेषांएवं सर्वत्र के प्रमाणका कथन है.
पद.
-
-
-
वीर्यपवा मित्तरलाख ४ हाथी | कर्म सहित और कर्म रपद. प्रमाण. हित सर्व जीवांका और
सर्व अजीव पदार्थोके वीर्य अर्थात् शक्तिके स्वरूपका
कथन है, अस्ति | साठलाख |८ हाथी | जो लोकमें धर्मास्तिका. नास्ति पद
यादि अस्तिरूप है और प्रवाद | ६००००००
जोखर शृंगादि नास्तिरूप पूर्व ४
है तिसकाकथन है अथवा सर्व वस्तु स्वरूप करके अस्तिरूप है और पररूप करके नास्तिरूप है ऐसा कथन है.
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१४१ ज्ञान प्र एककरोड पद १६ हाथी पांचो ज्ञान मति आदि वाद पूर्व,१००..... ए प्रमाण. तिनका महा विस्तारसे क.
५ क पद न्यून. थन है. सत्य मएककरोड पद ३२ हाथी सत्य संयम घचन इन ती वाद पूर्व १००००००० प्रमाण. नोका विस्तारसे कथन है. ६६ पद अधिक
आत्मप्र-छबीसकरोड ६४ हाथी | आत्मा जीव तिसका सावाद पूर्व पद. प्रमाण, नसों ७०० नयके मतोंसे ७ | २६०००००००
स्वरूप कथन करा है.
-~~ -~कर्म एक करोड अ१२८ हाथी ज्ञानावरणीयादि अष्ठ कर्मका वाद पूर्व स्सी हजार. प्रमाण. पकृति स्थिति अनुभावप्रदेशा
७ | १००८०००० दिसें स्वरूपका कथनकराहै. प्रत्या चोरासी लाख २६५ हाथी प्रत्याख्यान त्यागने योख्यान| पद, | प्रमाण. ग्य वस्तुयोका और त्याप्रवाद ८४००.००
|गका विस्तारसे कथन कपूर्व. ९/
विद्यानु एक करोड दा५१२ हाथी अनेक अतिशयवंत चमप्रवाद मास लाख पदः प्रमाण. विद्यायो
कार करनेवाली अनेक वे. १० ११००००००
विद्यायोका कथन है, अवंध्य छब्बीस करो-१०२४ हा जिसमें ज्ञान, तप, संयपूर्व. ११/ ड पद. थी प्रमाण.पादिका शुन फल और
| २६००००००० सर्व प्रमादादि पापोंका अ
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शुभ फल कथन करा है.
प्राणायु एक करोड २०४० हा पांच इंद्रिय और मनबपूर्व. १२ चाश लाख. यी प्रमाण.ल, वचनबल, कायाबल पद.
और उच्छास नि:श्वास | १५००००००
और आयु इन दशो प्राणाका जहां विस्तार से स्व
रूप कथन करा है. क्रिया| नव करोड ४०९६ हा जिसमे कायक्यादि क्रिविशाल पद. थी प्रमाण. या वा संयमक्रिया छंदपूर्व. १३ ९००००.०० शाहीसे लिक्रियादि क्रियायोंका कथ
खा जावे. न है. लोक बि माढवारा क८१९२ हा लोकमें वा श्रुतज्ञान लो
दुसार रोड पद. थी प्रमाण कमें अक्षरोपरि बिंदु समापूर्व. १४/१२५०००००० न सार सर्वोत्तम सर्वाक्षरों
के मिलाप जाननेकी लब्धिका हेतु जिसमें है.
प्र. १५४-जैनमतके पंच परमेष्टिकी जगे प्राचीन और नवीन मत धारीयोनें अपनी बुद्धि अनुसारे लोकोंने अपने अपने मतमें किस रोतेसें कल्पना करोहै, और जैनी इस जगतकी व्यवस्था किस हेतुसे किस रीतोसें मानते है ?
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२४३ न.-मतधारीयोने जो जनमतके पंच प. रमेष्टोकी जगे जूठी कल्पना खमी करी है, सो नोचले यंत्रसे देख लेना.
जैनमत १
सिद्ध २. प्राचार्य / उपाध्या
य ४.
साधु ५.
सांख्य कपि मत २. | ल
आसुरी
विद्यापाठ सांख्य
क.
साधु
वैदिक | जैम मत ३. | नि
भाभा विद्यापाठ कर । क.
नैयायिक गौ मत ४. .
| आचार्य न्याय एकईश्वर
| नैयायिक पाठक
साधु
वेदांत | व्या मत ५. स
एकब्रह्म
आचार्यो। वेदांत , परमहं स्ति । पाठक | सादि
वैशेषिक शिव मत ६.
एकईश्वर कणाद , पाठक
साधु
उपदे
यहूदी मूमा
| एकईश्वर| अनेक मत ७.
पाठक
शक
| पथर सम
पादरी
इसाइ
। ईशा मत ८. ।
त्यादि पाठक
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१४४ | मुसलमान | मह एक ईश्वर| अनेक | पाठक | फकीर
मत ९. म्मद
शंकर शंकर एकब्रह्म आनंदगि शंकरभा | गिरिपुरि मत १०.
री आदि ष्यादि | भारती
पाठक । आदि
रामानुज रामा एक इश्वर अनेक | रामानुज | साधु मत ११. नुज | रामचंद्र
मत पाठक वैश्नव
वलभ मत वल्ल एक ईश्वर | अनेक वल्लभ मत तिस मतके भाचा कृष्ण ।
पाठक साधु नही
कबीर मत कबी एक ईश्वर | अनेक | तन्मत | गृहस्थ वा
पाठक | साधु
नानक | नाना एक ईश्वर | अनेक ग्रंथ पाठक. उदासी मत १४. क
साधु
दादूमत दाद एक ईश्वर सुंदर दा | तत् ग्रंथ | दादू पंथी
सादि | पाठक | साधु
गोरख मत गोर एक ईश्वर
अनेक
| तत् ग्रंथ | कानफटे पाठक | योगी
मामीनारा सामो/एक ईश्वर | स्त्रो और | तत् ग्रंथ रंगे वस्त्रवायण १७. नारा
परिग्रह | पाठक ले धोले वधारी ।
खां वाले |
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२४५
दयानंदमत दया एक ईश्वर | अस्ति तन्मत पाठ साधु । १८. नंदक ।
इत्यादि इस तरे मतधारीयोंने पंच परमेटोकी जगे पांच ५ वस्तु कल्पना करी है, इस बास्ते पंच परमेष्टोके विना अन्य कोई सृष्टिका कर्ता सर्वज्ञ वीतराग ईश्वर नही है, नि:केवल लोकांको अज्ञान ब्रमसे सृष्टि कर्त्ताकि कल्पना नुत्पन्न होती है, पूर्व पद को प्रश्न करे के जेकर सर्वज्ञ वीतराग ईश्वर जगतका कर्त्ता नही है, तो यह जगत अपने आप कैसे उत्पन्न हुआ, क्योंकि हम देखतेहै क के विना कुबन्नो नत्पन्न नही होताहै, जैसें घमीयालादि वस्तु. तिसका उत्तर-हे परीक्षको! तुमको हमारा अग्निप्राय य पार्थ मालुम पमता नही है, इस वास्ते तुम कर्ता ईश्वर कहतेदो, जो इस जगतमें बना हु वस्तुहै, तिसका कर्त्ता तो हमनी मानतेहै, जैसे घट, पट, शराव, नदंचन, घमियाल, मकान, हाट, हवेलो, संकल, जंजोरादि परंतु आकाश, काल, स्वन्नाव, परमाणु, जीव इत्यादि वस्तुयां
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१४६ किसीकी रची हुश् नही है, क्योंकि सर्व विद्यानोका यह मतहैके जो वस्तु कार्यरूप नुत्पन्न होतीहै तिसका नपादान कारण अवश्य दोनां चाहिये. विना नपादानके कदापि कार्यको नत्पत्ति नही होती है, जो कोइ विना नपादान कारणके वस्तुकी उत्पति मानता है, सो मूर्ख, प्रमाणका स्वरूप नही जानता है; तिसका कथन को महा मृढ मानेगा, इस वास्ते आकाश १ श्रात्मा २ काल ३ परमाणु ५ इनका नपादान कारण को नहीं है, इस वास्ते ये चारो वस्तु अनादि है, इ. नका कोश रचनेवाला नहीं है, इसे जो यह कहना है कि सर्व वस्तुयों ईश्वरने रचीहै सो मि. च्याहै, अब शेष वस्तु पृथ्वी १ पानी अग्नि ३ पवन ४ वनस्पति ५ चलने फिरने वाले जीव रहे है, तथा पृथ्वीका नेद नरक, स्वर्ग, सूर्य, चंच, ग्रह, नक्षत्र, तारादि है, ये सर्व जम चैत. न्यके उपादानसें बने है, जे जोव और जम परमाणुओंके संयोगसे वस्तु बनीहै, वे ऊपर पृथ्वी प्रादि लिख आयेहै, ये पृथ्वी आदि वस्तु प्रवाह
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१५७ से अनादि नित्यहै, और पर्याय रूप करके अनित्यहै, और यें जम चैतन्य अनंत स्वनाविक शक्तिवाले है, वे अनंत शक्तियां अपने कालादि निमित्तांके मिलनेसें प्रगट होतीहै, और इस जगतमें जो रचना पीने इश्है, और जो हो रहीहै, और जो होवेगी, सर्व पांच निमित्त नपादान का रणोंसें होतीहै, वे कारण येहहै, काल १ स्वन्नाव २ नियति ३ कर्म ४ उद्यम ५; इन पांचोके सिवाय अन्य कोई इस जगतका कर्त्ता और नियंता ईश्वर किसी प्रमाणसे सिइ नही होताहै, तिसकी सिझीका खंकन पूर्व पहिले सब लिख
आएहै, जैसे एक बीजमें अनंत शक्तियांहै, वृदमे जितने रंग विरंगे मूल १ कंद २ स्कंध ३ त्वचा ४ शाखा ५ प्रवाल ६ पत्र ७ पुष्प - फल ए बीज १० प्रमुख विचित्र रचना मालुम होतीहै, सो सर्व बीजमें शक्ति रूपसे रहतीहै, जब कोई वीजको जालके नस्म करे तब तिस बिजके परमाणुयोमें पूर्वोक्त सर्व शक्तियां रहताहै, परंतु बिना निमित्तके एकभी शक्ति प्रगट नही होतीहै,
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१४० जेकर बीजमें शक्तियां न मानीये तबतो गेहूंके बीजसे आब और बंबूल मनुष्य, पशु, पदो आ दिनो नत्पन्न होने चाहिये. इस वास्ते सर्व वस्तुयोंमे अपनी २ अनंत शक्तियांहै. जैसा २ निमिन मिलताहै तैसी र शक्ति वस्तुमें प्रगट होतीहै, जैसे बीज कोठिमें पमाहै तिसमें वृक्षके सर्व अ वयवोंके होनेकी शक्तियांहै, परंतु बीजके काल विना अंकुर नही हो सकताहै; कालतो वृष्टि शतुकाहै, परंतु नूमि और जलके संयोग विना अंकुर नही हो सकताहै, काल नूमि जलतो मिलेहे परंतु विना स्वन्नावके कंकर बोवेतो अंकुर नही होवेहै. बीजका स्वन्नाव १ काल २ नूमि ३ जलादितो मिलेहै, परंतु बोजमे जो तथा तथा न वन अर्थात् होनेवालो अनादि नियतिके विना बीज तैसा लंबा चौमा अंकुर निर्विघ्नसे नही दे सक्ताहै, जो निर्विघ्नपणे तथा तथा रूप कार्यको निष्पन्न करे सो नियति, और जेकर वनस्पतिके जीवोंने पूर्व जन्ममें ऐसे कर्म न करे होतेतो व. नस्पतिमे उत्पन्न न होते; जेकर बोनेवाला न होवे
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१४॥ तथा बीज स्वयं अपने नारोपणे करके पृथ्वीमें न पमेतो कदापि अंकुर नत्पन्न न होवे; इस वा स्ते बीजाकुंरकी नत्पत्तिमें पांच कारणहै. काल? स्वन्नाव २ नियति ३ पूर्वकर्म ४ नद्यम ५ श्न पांचोके सिवाय अन्य कोई अंकुर नत्पन्न करने वाला कोई ईश्वर नही सिद्ध होताहै, तथा मनुष्य गर्नमें नत्पन्न होताहै तहांनी पांच कारणसेही होताह, गर्न धारणके कालमेंही गर्न रहै १, गर्न की जगाका स्वन्नाव गर्न धारणका होवे तोही गर्न धारण करे २, गर्नका तथा तथा निर्विघ्नपनेसे होना नियतिसेंहै ३, जीवोंने पूर्व जन्ममें मनुष्य होनेके कर्म करेहै तोही मनुष्यपणे नत्प न होतेहै, ४ माता पिता और कर्मसे आकर्षण न होवेतो कदापि गर्न नत्पन्न न होवे, ५ इसीतरे जो वस्तु जगतमें नत्पन्न होतीहै सो श्नही पांचो निमित्त कारणोंसे और नपादान कारणोस होती है, और पृथ्वी प्रवाहसे सदा रहेगी और पर्याय रूप करके तो सदा नाश और उत्पन्न होती रही है; क्योंकि सदा असंख जीव पृथ्वीपणेहो नत्पन्न
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. १५०
होतेहै, और मरतेहै तिन जीवाके शरीरोंका पिं. मही पृथ्वीहै. जो कोइ प्रमाणवेत्ता ऐसे समऊताहै के कार्य रूप होनेसे पृथ्वी एक दिनतो अवश्य सर्वथा नाश होवेगी, घटवत्. उत्तर-जैसा कार्य घटहै तैसा कार्य पृथ्वी नहीहै, क्योंकि घ टमें घटपणे नत्पन्न होनेवाले नवीन परमाणु नही आतेहै, और पृथ्वी में तो सदा पृथ्वी शरीरवाले जीव असंख नत्पन्न होतेहै, और पूर्वले नाश होतेहै. तिन असंख जीवांके शरीर मिलने और वि हमनेसे पृथ्वी तैसीही रहेगी. जैसें नदीका पाणी अगला २ चला जाता है; और नवीन नवीन आ नेसे नदी वैसीही रहती है, इस वास्ते घटरूप कार्य समान पृथ्वी नही है, इस वास्ते पृथ्वी सदाही रहेगी और तिसके उपर जो रचना है; सो पूर्वोक्त पांच कारणोंसें सदा होती रहेगी. इस वास्ते पृथ्वी अनादि अनंत काल तक रहेगी, इस वास्ते पृथ्वीका कर्ता ईश्वर नही है, और जो कितनेक नोलें जोव मनुष्य १ पशु ५ पृथ्वी ३, पवन ४, वनस्पतिकों तथा चंद्र, सूर्यकों देखके और मनु
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१५१ ज्य पशुयोके शरीरकी हड्डीयांकी रचना आंखके पमदे खोपरीके टुको नशा जालादि शरीरोंकी विचित्र रचना देखकें हेरान होतेहै, जब कुछ
आगा पोग नही सूफताहै, तब हार कर यह कह देतेहै, यह रचना ईश्वरके विना कौन कर सक्ता है; इस वास्ते ईश्वर कर्त्ता पुकारते है; परंतु ज गत् कर्त्ता माननेसे ईश्वरका सत्यानाश कर देते है, सो नही देखतेहै. काणी दयनी एक पासेकी ही वेतमायां खातीहै, परंतु हे नोले जीव जेकर तेने अष्ट कर्मके १४० एकसौ अमतालीस नेद जाने होते, तो अपने बिचारे ईश्वरकों काहेको जगत का रूप कलंक देके तिसके ईश्वरत्वकी हानी करता. क्योंकि जो जो कल्पना नोले लो कोने ईश्वरमें करी है, सो सो सर्व कर्मद्वारा सिद्ध होती है, तिन कर्माका स्वरूप संदेप मात्र यहां लिखते है, जेकर विशेष करके कर्म स्वरूप जाननेकी श्छा होवे तदा षट्कर्म ग्रंथ १ कर्म प्रकति प्राभृत २ पंचसंग्रह ३ शतक ४ प्रमुख ग्रंथ देख लेने, प्रथम जैनमतमें कर्म किसकों कहते
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१५२ तिसका स्वरूप लिखते है.
जैसें तेलादिसे शरीर चोपमीने कोई पुरुष नगरमें फिरे, तब तिसके शरीर ऊपर सूक्ष्म रज पमनेसे तेलादिके संयोगसें परिणामांतर होके मल रूप होके शरीरसें चिप जाती है, तैसेही जी वांके जीवहिंसा १ जुठ ३ चोरी ३ मैथुन ४ प. रिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया 6 लोन ए राग १० द्वेष ११ कलह १२ अन्याख्यान १३ पैशुन १५ परपरिवाद १५ रतिअरति १६ मायामृषा१७ मिथ्यादर्शन शल्य १० रूप जो अंतःकरणके प रिणाम है. वे तेलादि चीकास समान है, तिनमें जो पुजल जमरूप मिलताहै, तिसकों वासना रूप सूक्ष्म कारमण शरीर कहतेहै; यह शरीर जीवके साथ प्रवाहसे अनादि संयोग सबंधवाला है; इस शारीरमें असंख तरेंकी पाप पुण्य रूप कर्म प्रकृति समा रही है. इस शरीरको जैनमतमें कर्म कर्म कहते है. और सांख्यमतवाले प्रकृति, और वेदांति माया, और नैयायिक वैशेषिक अदृष्ट क हते. कोश्क मतवाले क्रियमाण संचित प्रारब्ध
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१५३
रूप नेद करते है, बौद्ध लोक वासना कहते है, विना समझके लोक इन कर्माको ईश्वरकी लीला कुदरत कहतेहै, परंतु कोइ मतवाला इन कर्माका यथार्थ स्वरूप नही जानता है, क्योंकि इनके मतमें कोई सर्वज्ञ नही हुआ है, जो यथार्थ क. मौका स्वरूप कथन करे; इस वास्ते लोक भ्रम अज्ञानके वश होकर अनेक मनमानी ऊतपटंग जगत कादिककी कल्पना करके, अंधाधुंध पंथ चलाये जातेहै, इस वास्ते नव्य जीवांके जानने वास्ते आठ कर्मका किंचित् स्वरूप लिखते है. ज्ञानावरणीय १ दर्शनावरणीय श् वेदनीय ३ मोहनीय ४ आयु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय ७ इनमेसें प्रथम ज्ञानावरणीयके पांच नेदहै; मति ज्ञानावरणीय १ श्रुतज्ञानावरणीय श् अवधिज्ञानावरणीय ३ मनःपर्यायज्ञानावरणीय ४ केवलज्ञानावरणीय ५. तहां पांच इंख्यि और उहा मन इन ग्रहों द्वारा जो ज्ञान नत्पन्न होवे, तिसका नाम मतिज्ञान है. तिस मतिज्ञानके तोनसौ बतीस ३३६ नेदहै. वे सर्व कर्मग्रंथकी वृत्निसें जा
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१५४
नने. तिन सर्व ३३६ नेदांका प्रावरण करनेबाला मतिज्ञानावरण कर्मका नेदहै, जिस जीवके आवरण पतला हुआहै. तिस जीवकी बहुत बुद्धि निर्मलहै; जैसे जैसे आवरणके पतलेपणेकी ता. रतम्यताहै, तैसे तैसें जीवांमे बुद्धिकी तारतम्यताहै. यद्यपि मतिज्ञान मतिज्ञानावरणके कयोप शमसे होताहै, तोन्नी तिस क्षयोपशमके निमित्त मस्तक, शिर, विशाल मस्तकमे नेऊा, चरबी, चोकास, मांस, रुधिर, निरोग्य हृदय, दिल निरुपश्व, और मूंठ, व्राह्मो वच, घृत, दूध, शाकर, प्रमुख अहो वस्तुका खानपानादिसें अधिक अधिकतर मतिज्ञानावरणके कायोपशमके निमित्त है; और शील संतोष महा व्रतादि करणी, और पठन करानेवाला विद्यावान गुरू, और देश काल अक्षा, नत्साह, परिश्रमादि ये सर्व मतिज्ञानावरणके दायोपशम होनेके कारणहै. जैसे जैसें जी वांकों कारण मिलतेहै तैसी तैसी जीवांकी बुद्धि होतीहै. इत्यादि विचित्र प्रकारसे मतिज्ञानावररणीका नेदहै. इति मतिज्ञानावरणी १. दूसरा
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१५५
श्रुतज्ञानावरण श्रुतज्ञानका आबरण श्रुतज्ञान, तिसकों कहतेहै, जो गुरु पासों सुनके ज्ञान होवे और जिसके बलसें अन्य जीवांकों कथन करा जावे, तिसके निमित्त पूर्वोक्त मति ज्ञानवाले जा नने, क्योंके ये दोनो ज्ञान एक साथही नत्पन्न होतेहै; परं इतना विशेषहै; मतिज्ञान वर्तमान विषयिक होता है, और श्रुतझान त्रिकाल विषय होताहै; श्रुतज्ञानके चौदह १४ तथा वीस नेदश्व है, तिनका स्वरूप कर्मग्रंथसे जानना. पठन पा उनादि जो अक्षरमय वस्तुका ज्ञानहै, सो सर्व श्रुतज्ञानहै, तिसका आवरण आगदन जो है, जिसकी तारतम्यतासे श्रुतज्ञान जीवांकों विचित्र प्र कारका होताहै, तिसका नाम श्रुतज्ञानावरणीय है. इसके दायोपशमके वेही निमित्त है, जौनसें मतिज्ञानके है; इति श्रुतज्ञानावरण २. तीसरा अवधिज्ञानका आवरण अवधिज्ञानावरणीय ३. ऐसेंही मनःपर्यायज्ञानावरण ४. केवलझानावरण ५, इन पांचों ज्ञानोमेंसे पिडले तीन ज्ञान इस कालके जीवांकों नहोहै; सामग्री और साधनके
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१५६
अमावसें इस वास्ते इनका स्वरूप नंदी आदि सिद्धांतोसें जानना. ये पांच भेद ज्ञानावरण कर्म केहै. यह ज्ञानावरणकर्म जिन कर्त्तव्योंसें बांधता है, अर्थात् उत्पन्न करके अपने पांचों ज्ञान शक्तियांका आवरण कर्त्ता है सो येह है, मति, श्रुत प्र मुख पांच ज्ञानकी १ तथा ज्ञानवंतकी २ तथा ज्ञानोपकरण पुस्तकादिकी ३ प्रत्यनीकता अर्था तू निष्टपणा प्रतिकुलपणा करे, जैसें ज्ञान और ज्ञानवंतका बुरा होवे तैसें करे १; जिस पासों पढा होवे तिस गुरुका नाम न बतावे, तथा जानी हूइ वस्तुकों प्रजानी कहे २; ज्ञानवंत तथा ज्ञानोपकरणका अग्निशस्त्रादिकसें नास करे ३; तथा ज्ञानवंत ऊपर तथा ज्ञानोपकरण ऊपर प्रदेष अं तरंग अरुची मत्सर ईर्ष्या करे ; पढने वालों को अन्न वस्त्र वस्ती देनेका निषेध करें, पढनेवालों को अन्य काममें लगावे, बातों में लगावे, पठन विवेद करे ए; ज्ञानवंतकी प्रति अवज्ञा करे, यह हीन जाति वाला है, इत्यादि मर्म प्रगट करनेके वचन
बोले, कलंक देवे, प्राणांत कष्ट देवे, तथा आचार्य
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B
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१५७ नपाध्यायकी अविनय मत्सर करे, अकालमे स्वा. ध्याय करे, योगोपधान रहित शास्त्र पढे, अस्वाध्यायमें स्वाध्याय करे, ज्ञानके नपकरण पास हयां दिसा मात्रा करे, ज्ञानोपकरणको पग लगावे, ज्ञानोपकरण सहित मैथुन करे, ज्ञानोपकरणकों थूक लगावे. ज्ञानके व्यका नाश करे, नाश क रतेको मना करे, इन कामोंसें ज्ञानावरणीय पंच प्रकारका कर्म बांधे; तिसके नदय क्षयोपशमसे नाना प्रकारकी बुद्धिवाले जीव होते महाव्रत सं. यम तपसे ज्ञानावरणीय कर्म कय करे, तब केवलज्ञानी सर्व वस्तुका जानने वाला होवे, इति प्रथम ज्ञानावरणी कर्मका संदेप मात्र स्वरूप.१
अथ दूसरा दर्शनावरणीय कर्म तिसके नव ए नेदहै. चकुदर्शनावरण १ अचकुदर्शनावरण २ अवधिदर्शनावरण ३ केवलदर्शनावरण निज्ञ ५ निशानिश ६ प्रचला ७ प्रचला प्रचला स्त्यान
झे ए. अब इनका स्वरूप लिखतेहै. सामान्य रूप करके अर्थात् विशेष रहित वस्तुके जाननेकी जो आत्माकी शक्तिहै तिसकों दर्शन कहते है, तिनमें
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१५७ नेत्रांकी शक्तिकों आवरण करे सो चकुदर्शनावर गीय कर्मका नेदहै; इसके क्षयोपशमकी विचित्रतासें आंखवाले जीवोंकी आंखद्वारा विचित्र त रेकी दृष्टि प्रवर्ने है, इसके कयोपशम होने में विचित्र प्रकारके निमित्त है, इति चकुदर्शनावरणी य १. नेत्र वर्जके शेष चारों इंडियोको अचकु द र्शन कहते है, तिनके सुनने, सूंघने, रस लेने, स्पर्श पिडाननेका जो सामान्य ज्ञानहै सो अचा दर्शनहै; चारो इंडियोंकी शक्तिका आगदन करने वाला जो कर्म है तिसको अचकु दर्शन कहते है, इसके कयोपशम होने में अंतरंग बहिरंग विचित्र प्रकारके निमित्तहै, तिन निमित्तोंझारा इस कर्मका क्षय नपशम जैसा जैसा जीवांके होता है तैसी तैसी जोवोंको चार इंख्यिकी स्व स्व विषयमें शक्ति प्रगट होती है, इति अचकुदर्शनावरणी २. अवधि दर्शनावरणीय, और केवलदर्शना वरणीयका स्वरूप शास्त्रसें देख लेनां; क्योंकि सामग्रीके अन्नावसे ये दोनो दर्शन इस कालकेत्रके जीवांकों नही है, एवं दर्शनावरणीयके चार
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༢༥མ
जेंद हुए ४. पांचमा भेद निा जिसके उदयसें सुखें जागे सोनिश १ जो बहुत दलाने चलानेसें जागे सोनिश निश १ जो बैठेकों नींद आवे सो प्रचला ३ जो चलतेकों प्रावे सो प्रचला प्रचला ४ जो नींद में करके अनेक काम करे नींदमें शरीर में बल बहुत होवे है, तिसका नाम स्त्यान निद्राहै ५. पांच इंदियांकें ज्ञानमे हानि करती है, इस वास्ते दर्शनावरणीयको प्रकृति है, एवं ए नेद दर्शनावरणीय कर्मके हुए, इस कके बांधने हेतु ज्ञानावरणीयकी तरे जानने, परं ज्ञानकी जगे दर्शन पद कहनां, दर्शन चकु अचक्कु आदि, दर्शनी साधु आदि जीव, तिनकी पांच इंडियाका बुरा चिंते, नाश करे अथवा सम्मति तत्वार्थ द्वादशार नयचक्रवाल तर्कादि दर्श न प्रजावक शास्त्र के पुस्तक तिनका प्रत्यनीकप यादि करे तो दर्शनावरणीय कर्मका बंध करे, इति दूसरा कर्म २.
अथ तीसरा वेदनीय कर्म तिसकी दो प्रसाता वेदनीय २
कृतिहै; साता वेदनीय १
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१६० साता वेदनीयसे शरीरकों अपने निमित्तधारा सुख होताहै; और असाता वेदनीयके नदयसे सुख प्राप्त होता है. एवं दो नेदोंके बांधनेके कारण प्रथम साता वेदनीयके बंध करणेके कारण गुरु अर्थात् अपने माता पिता धर्माचार्य इनकी नक्ति सेवा करे १ दमा अपने सामर्थके हुए दूसरायोंका अपराध सहन करना २ परजीवांकों पुखी देखके तिनके मुख मेटनेकी वांग करे ३ पंचमहाव्रत अनुव्रत निर्दूषण पाले ४ दश विध चक्रवाल समा चारी संयम योग पालनेसें ५ क्रोध, मान, माया, लोन, हास्प, रति अरति, शोक, नय, जुगुप्सा इनके नदय आया इनको निष्फल करे ६ सुपात्र दान, अन्नय दान, देता सर्व जीवां नपर नपकार करे सर्व जीवांका हित चिंतन करे ७ धर्ममें स्थिर रहे, मरणांत कष्टकेनी आये, धर्मसें चलायमान न होवे, बाल वृक्ष रोगीकी वैयावृत्त करतां धर्ममें प्रवर्त्ततां सहाय करे, चैत्य जिन प्रतिमाकी अली नक्ति करतां सराग संयम पाले देशनतीपणा पाले, अकाम निर्जरा अज्ञान तप करें, सौच्य स
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त्यादि सुंदर अंतःकरणकी वृत्ति प्रवावे तो साता वेदनीय कर्म बांधे, इति साता वेदनीयके बंध हेतु कहे १ इनसे विपर्यय प्रवर्ने तो असाता वेदनीय बांधे १ इति वेदनीय कर्म स्वरूप ३.
अथ चोथा मोहनीय कर्म तिसके प्रभावीस नेद है, अनंतानुबंधो क्रोध १ मान २ माया ३ लोन ४ अप्रत्याख्यान क्रोध ५ मान ६ माया ७ खोन प्रत्पाख्यानावरण क्रोध एमान १० माया ११ लोन १२ संज्वलका क्रोध १३ मान १४ माया १५ लोन १६ हास्य १७ रति १० अरति १ए शोक २० नय १ मुगुप्सा स्त्रीवेद २३ पुरुषवेद २४ नपुंसकवेद २५ सम्यक्त मोहनीय २६ मिश्र मोहनीय १७ मिथ्यात्व मोहनीय श्. अथ इनका स्वरूप लिखतेहै; प्रथम अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोन जां तक जीवे तां तक रहे; हटे नही तिनमेसें अनंतानुबंधी क्रोध तो ऐसाकि जाव जीव सुधो क्रोध न बगेमे, अपराधी कितनो प्रा. धीनगी करे तोन्नी क्रोध न गेमे, यह क्रोध ऐ. साहै जेसे पर्वतका फटना फेर कदापि न मिले
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मान पत्रके स्तंन समान किंचित् मात्रनी न नमे, माया कग्नि वांसकी जम समान सूधो न होवे, लोन कृमिके रंग समान फेर उतरे नही. यै चारों जिसके उदयमें होवे सो जीव मरके नरकमें जाता है; और इस कषायके नदयमें जीवांकों सच्चे देवगुरु धर्मकी श्र रूप सम्यक्त नही होता है; ४ दूसरा अप्रत्याख्यान कषाय तिसकी स्थिति एक वर्षकी है. एक वर्ष तक कोध मान माया लोन रहै तिनमें क्रोधका स्वरूप पृथ्वीके रेखा फाटने समान बझे यतनसे मिले, मान हामके स्तंने समान मुसकलसें नमे, माया मिंढेके सींगके बल समान सिधा कठनतासे होवे; लोन नगरकी मोरीके कीचमके दाग समान, इस क. षायके नदयसे देश व्रतीपणा न आवे और मरके पशु तीर्यचकी गतिमें जावे तीसरी प्रत्याख्या नावरण कषाय तिसकी स्थिति चार मासकी है. क्रोध वालुको रेखा समान, मान काष्टके स्तंन्ने समान, माया बैलके मूत्र समान वांकी, लोन गामीके खंजन समान, इसके उदयसे शुध साधु
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नही होताहै ऐसा कषायवाला मरके मनुष्य होताहै १५ चौथी संज्वलनको कषाय, तिसकी स्थिति एक पक्षकी. क्रोध पाणीकी लकीर समा न, मान वांसको शीखके स्तंने समान, माया, बांसको ब्लिक समान, लोन हलदीके रंग समान, इसके नदयसे वीतराग अवस्था नही होती है. इस कषायवाला जीव मरके स्वर्गमें जाताहै १६ जिसके नदयसे हासी आवे सो हास्य प्रकृति १७ जिसके नदयसे चित्त में निमित्त निनिमितसें रति अंतरमें खुशी होवे सो रति १० जिसके उदयसे चित्तमे सनिमित्त निनिमित्तसें दिलगोरी उदासी उत्पन्न होवें सो परति प्रकृति १ए जिस. के नुदयसे इष्ट विजोगादिसें चित्तमें नदेग नत्पन्न होवे सो शोक मोहनीय प्रति १० जिसके नुदयसे सात प्रकारका नय नत्पन्न होवे सो नय मोहनीय २१ जिसके नदयसे मलीन वस्तु देखी सूग उपजे सो जुगुप्सा मोहनीय १३ जिसके नदयसे स्त्रीके साथ विषय सेवन करनेकी श्छा नुत्पन्न होवे, सो पुरुषवेद मोहनीय १३ जिसके
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१६४ नदयसे पुरुषके साथ विषय सेवनेकी श्छा नुत्पन्न होवे, सो स्त्री वेद मोहनीय २५ जिसके नदयसें स्त्री पुरुष दोनोंके साथ विषय सेवनेकी अनिला षा नत्पन्न होवे, सो नपुंसकवेद मोहनीय, २५ जिसके नदयसे शुइ देव गुरु, धर्मकी श्रज्ञ न होवे तो मिथ्यात्व मोहनीय २६ जिसके नुदयसें शुइ देव गुरु धर्म अर्थात् जैनमतके ऊपर रागनी न होवे, और द्वेषनी न होवे, अन्य मतकीनी श्रा न होवे सो मिश्र मोहनीय श जिसके नदयसे शुः देव गुरु धर्मको श्रहातो होवे परंतु सम्यक्तमें अतिचार लगावे सो सम्यक्त मोहनीय २० इन २७ प्रतियोंमें आदिकी २५ पच्चीस प्र. कतिको चारित्र मोहनीय कहतेहै, और ऊपलो तीन प्रतियोंकों दर्शनमोहनीय कहते है एवं श्व प्रकृति रूप मोहनीय कर्म चौया है, अथ मोहनीय कर्मके बंध होनेके हेतु लिखते है. प्रथम मिथ्या त्व मोहनीयके बंध हेतु नन्मार्ग अर्थात् जे संसा रके हेतु हिंसादिक आश्रव पापकर्म, तिनको मोद हेतु कहे तथा एकांत नयसें नि:केवल क्रिया क
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१६५ ष्टानुष्टानसे मोक्ष प्ररूपे तथा एकांत नयॐ निःके वल ज्ञान मात्रसे मोद कहे ऐसेही एकले विनयादिकसे मोद कहै १ मार्ग अर्थात् अर्हत नाषित सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोद मार्ग तिसमे प्रवर्त्तनेवाले जीवकों कुहेतु, कुयुक्ति, करके पूर्वोक्त मार्गसे भ्रष्ट करे २ देवद्रव्य ज्ञान इ. व्यादिक तिनमें जो नगवानके मंदिर प्रतिमादि के काम आवे काष्ट, पाषाण, मृतीकादिक तथा तिस देहरादिके निमित्त करा हुआ रूपा, सोनादि धन तिसका हरण करे; देहराकी जुमि प्रमु. खकों अपनी कर लेवे, देवको वस्तुसे व्यापारक रके अपनी आजीवीका करे तथा देवव्यका नाश करे, शक्तिके हुए देवश्यके नाश करनेवालेको हटावे नही, ये पूर्वोक्त काम करनेवाला मिथ्याह ष्टि होताहै, सो मिथ्यात्व मोहनीय कर्मका बंध करता है; तथा दूसरा हेतु तीर्थकर केवलोके अवर्णवाद बोले, निंदा करे तथा नले साधुकी तथा जिन प्रतिमाकी निंदा करे तथा चतुर्विध संघ साधु साधवी श्रावक श्राविकाका समुदाय तिस
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१६६ की श्रुनज्ञानको निंदा अवज्ञा होलना करता हुआ, और जिन शासनका नड्डाह करता हुआ अयश करता कराता हुआ निकाचित महा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म बांधे. इति दर्शन मोहनीयके बंध हेतु. ॥ अथ चारित्रमोहनीय कर्मके बंध हेतु लि खते है. चारित्र मोहनीय कर्म दो प्रकारका है, कषाय चारित्र मोहनीय १. नोकषाय चारित्र मो हनीय २. तिनमेंसे कषाय चारित्र मोहनीयके १६ सोलां नेदहे, तिनके बंध हेतु लिखते है. अनंता. नुबंधी क्रोध, मान, माया, लोनमे प्रवर्ने तो सो. लाही प्रकारका कषाय मोहनीय कर्म बांधे. अप्रत्याख्यानमे वर्ते तो ऊपल्या बारां कषाय बांधे. प्रत्याख्यानमें प्रवर्ते तो ऊपख्या आठ कषाय बांधे, संज्वलनमें प्रवनें तो चार संज्वलनका कषाय बांधे. इति कषाय चारित्र मोहनोयके बंध हेतु. नोकषाय हास्यादि तिनके बंध हेतु यह है, प्रथम हास्य हांसी करे, नांझ कुचेष्टा करे, वहुत बोले तो हास्य मोहनीय कर्म बांधे १ देश देखनेके र. ससे, विचित्र क्रीमाके रससे, अति वाचाल हो.
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नेसे कामण मोहन टूणा वगेरे करे, कुतुहल करे तो रति मोहनीय कर्म बांधे २. राज्य नेद करे, नवीन राजा स्थापन करे, परस्पर लगा करावे, दूसरायोंको अरति नच्चाट नत्पन्न करे, अशुन्न काम करने करानेमें नत्साह करे, और शुन्न का. मके नत्साहकों नांजे, निष्कारण आध्यान करे तो अरति मोहनीय कर्म बांधे ३. परजीवांकों त्रास देवे तो, निर्दय परिणामी जय मोहनीय कर्म बांधे ४. परकों शोक चिंता संताप नपजावे, तपावे तो शोक मोहनीय कर्म बांधे ५. धर्मी साधु जनोकी निंदा करे, साधुका मलमलीन गात्र देखि निंदा करे तो जुगुप्सा मोहनीय कर्म बांधे ६. शब्द रूप, रस, गंध, स्पर्शरूप, मनगती विषयमें अत्यंताशक्त होवे, दूसरेकी वर्षा करे, माया मृषा सेवे, कुटिल परिणामी होवे, पर स्त्रीसे लोग करे तो जीव स्त्रोवेद मोहनीय कर्म बांधे ७. सरल होवे, अपनी स्त्रीसे ऊपरांत संतोषी होवे, इर्षा रहित मंद कषायवाला जोव पुरुषवेद बांधे तीव्र कषायवाला, दर्शनी दूसरे मतवालोंका शोल
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नंग करे, तीव्र विषयी होवे, पशुकी घात करे, मिथ्यादृष्टी जीव नपुंसकवेद बांधे ए. संयमीके दूषण दिखावे, असाधुके गुण बोले, कषायको न. दीरणा करता हुआ जीव चारित्र मोहनीय कर्म समुच्चय बांधे. इति मोहनीय कर्म बंध हेतु. यह मोहनोय कर्म मदिरेके नशेकी तरें अपने स्वरूपसें भ्रष्ट कर देताहै. इति मोहनीय कर्मका स्वरूप संक्षेप मात्रसे पुरा हुआ ४.
अथ पांचमा आयुकर्म, तिसकी चार प्रकति जिनके नदयसे नरक १ तिर्यंच २ मनुष्य ३ देव ४ नवमें बचा हुआ जीव जावे है, जैसें चमकपाषाण लोहको आकर्षण करता है, तिसका नाम आयुकर्म. नरकायु १ तिर्यंचायु २ मनुष्या यु ३ देवायु ४ प्रथम नरकायुके बंध हेतु कहतेहै. महारंन चक्रवर्ती प्रमुखकी शदिनोगनेमें महा मूळ परिग्रह सहित, व्रत रहित अनंतानुबंधी कषायोदयवान् पंचेंश्यि जीवको हिंसा निशंक होकर करे, मदिरा पोवे, मांस खावे, चौरी करे, जूया खेले, परस्त्री और वेस्या गमन करे, शिकार
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१६॥
मारे, कृतघ्नी होवे, विश्वासघाती, मित्र शेही, नत्सूत्र प्ररूपे, मिथ्यामतकी महिमा बढावे, कृश्न नील, कापोत लेश्यासे अशुन्न परिणामवाला जोव नरकायु बांधे १ तिर्यचकी आयुके बंध हेतु यह है. गूढ हृदयवाला, अर्थात् जिसके कपटकी कि सीको खबर न पड़े, धूर्त होवे, मुखसे मीग बोले, हृदयमें कतरणी रखे, जूठे दूषण प्रकाशे, आर्त्तध्यानी इस लोकके अर्थे तप क्रिया करे, अपनी पूजा महिमाके नष्ट होनेके जयसे कुकर्म करके गुरुआदिकके आगे प्रकाशे नहीं, जूठ बोले, कमती देवे, अधिक लेवे, गुणवानको इर्षा करे,
आर्तध्यानी कृश्नादि तीन मध्यम लेश्यावाला जीव तिर्यंच गतिका आयु वांधे. ति तिर्यंचायु १ अथ मनुष्यायुके बंधहेतु मिथ्यात्व कषायका स्वनावेही मंदोदयवाला प्रकृतिका नकि धूल रेखा समान कषायोदयवाला सुपात्र कुपात्रकी परीक्षा विना विशेष यश कीर्तिकी वांग रहित दान देवे, स्वनावे दान देनेकी तीव्र रुचि होवे, क्षमा, आर्जव, मार्दव, दया, सत्य शौचादिक मध्यम गुणा.
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में वर्ते, सुसंबोध्य होवे, देव गुरुका पूजक, पूजाप्रिय कापोत लेश्याके परिणामवाला मनुष्य तिर्यचादि मनुष्यायु बांधे ३ अथ देव आयु अविरति सम्यगदृष्टि मनुष्य तीर्यच देवताका आयु बांधे, सुमित्रके संयोगसे धर्मकी रुचिवाला देशविरति सरागसंयम देवायु बांधे, बालतप अर्थात् दुःखगर्नित, मोहगनित वैराग्य करके दुष्कर कष्ट पंचाग्नि साधन रस परित्यागसें, अनेक प्रकारका अज्ञान तप करनेसे निदान सहित अत्यंत रोष तथा अहंकारसे तप करे, असुरादि देवताका आयु बांधे तथा अकाम निर्जरा अजाणपणे नूख, तृषा, शीत, नभ रोगादि कष्ट सहनेसे स्त्री अन मिलते शोल पाले, विषयकी प्राप्तिके अन्नावसे विषय न सेवनेसे इत्यादि अकाम निर्जरासें तथा बाल मरण अर्थात् जलमें मूब मरे, अग्निसे जल मरे, ऊपापातसे मरे, शुन्न परिणाम किंचितवाला तो व्यंतर देवताका आयु बांधे, प्राचार्यादिककी अ. वज्ञा करे तो, किल्विष देवताका आयु बांधे, तथा मिथ्यादृष्टीके गुणांको प्रशंसा करे, महिमा बढा
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वे, अज्ञान तप करे, और अत्यंत क्रोधी होवे तो, परमाधार्मिकका आयु बांधे. इति देवायुके बंधहे. तु. यह आयु कर्म हमिके बंधन समान है. इसके नदयसे चारों गतके जीव जीवते है, और जब आयु पूर्म होजाता है तब कोश्नी तिसकों नही जोवा सक्ता है, जेकर आयुकर्म विना जोव जीवे तो मतधारोयोके अवतार पैगंबर क्यों मरते १ जितनी आयु पूर्व जन्ममें जीव बांधके आया है तिलसे एक क्षण मात्रन्नो को अधिक नही जीव सक्ता है, और न किसीको जीवा सक्ता है. मतधारो जो कहते है हमारे अवतारादिकने अमुक अमुककों फिर जीवता करा, यह वाते महा मि थ्याहै, क्योंकि जेकर ननमें ऐसी शक्ति होतीतो आप क्यों मर गये. १ सदा क्यों न जीते रहे १ ईशा महम्मदादि जेकर आज तक जीते रहतेतो हम जानते ये सच्चे परमेश्वरकी तर्फसें नपदेश क रने आये है. हम सब उनके मतमें हो जाते, मत धारीयोकों मेहनत न करनी पमतो, जब साधारण मनुष्योके समान मर गये तब क्योंकर शक्तिमान
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१७२ हो सक्तेहै १ ये सर्व जूगे वातोंकी अणघम गप्पे जंगली गुरुयोने जंगलीपणेसें मारीहै, इस वास्ते सर्व मिथ्याहै. इति आयु कर्म पंचमा.
अथ बग नाम कर्म, तिसका स्वरूप लिख. तेहै. तिसके ए३ तिरानवे नेदहै. नरकगति नाम कर्म १ तिर्यंच गति नाम २ मनुष्य गति नाम ३ देवगति नाम ४ एकेंश्यि जाति १ बीश्यि जाति तोनेश्यि जाति ३ चार इंख्यि जाति ४ पंचेंश्यि जाति ५ एवं ए कदारिक शरीर १० वेंक्रिय शरीर ११ आहारिक शरीर १२ तैजस शरीर १३ कार्मण शरीर १५ कदारिकांगोपांग १५ वैक्रियां. गोपांग १६ आहारिकांगोपांग १७ कदारिकबंधन १० वैक्रिय बंधन १ए आहारिक बंधन २० तैजस बंधन १ कार्मण बंधन २२ कदारिक संघातन २३ वैक्रिय संघातन २४ आहारिक संघातन २५ तैजस संघातन २६ कार्मण संघातन २७ वज ज्ञषन्न नराच संहनन २८ षन्न नराच संहनन २ए नराच संहनन ३० अई नराच संहनन ३१ कीलिका संहनन ३२ वर्त संहनन ३३ सम च
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१७३ तुरस्र संस्थान ३४ निग्रोध परिमंगल संस्थांन ३५ सादिया संस्थान ३६ कुब्ज संस्थान ३७ वामन संस्थान ३० हुंमक संस्थान ३० कृश्न वर्ण ४० नोल वर्ण ४१ रक्त वर्ण ४२ पीत वर्ण ४३ शुक्ल वर्ण ४४ सुगंध ४५ दुर्गंध ४६ तिक्त रस ४७ कटुक रस ४० कषाय रस ४ ग्राम्ल रस ५० मधुर रस ५१ कर्कश स्पर्श ५२ मृड स्पर्श ५३ दलका ५४ नारी ५५ शोत स्पर्श ५६ नभ स्पर्श ५७ स्निग्ध स्पर्श ५० रुक्ष स्पर्श ५० नरकानुपूर्वी ६० तिर्यचानुपूर्वी ६१ मनुष्यानुपूर्वी ६२ देवानुपूर्वी शुनविहायगति ६४ प्रशुनविदायगति ६५ परघात नाम ६६ नृत्स्वास ६७ आतप ६० नद्योत नाम ६ गुरु लघु 30 तीर्थकर नाम ७१ निर्माण १२ उपघात नाम ७३ त्रसनाम ७४ बादर नाम ७५ पर्याप्त नाम ७६ प्रत्येकनाम 99 स्थिर नाम ७८ शुभ नाम ७ सुन्नग नाम ८० सुस्वर नाम ८१ आदेय नाम ८२ यशकीर्ति नाम ८३ स्थावर नाम सूक्ष्म नाम ८५ अपर्याप्त नाम ८६ साधारण नाम
9 अस्थिर नाम ८८ अशुभ नाम ८० ग
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१७४ नाम ए इस्वर नाम ए१ अनादेय नाम ए अ यश नाम ए३ ये तिरानवे नेद नाम कर्मके है. अब इनका स्वरूप लिखतेहै. गतिनाम कर्म जिस कर्मके नदयसें जीव नरक १ तिर्यच २ मनुष्य ३ देवताकी गति पर्याय पामें, नरकादि नाम कहनेमें आवे, और जीव मरे तब जिस गतिका गतिनामकर्म, आयुकर्म मुख्यपणे और गतिनाम कर्म सहचारी होवे है, तब जीवको आकर्षण क रके ले जातेहै, तब वो जीव तिस गति नाम और आयु कर्मके वश हुआ थका जहां उत्पन्न होना होवे तिस स्थानमें पहुंचेहै. जैसे मोरेवाली सूरको चमक पाषाण प्राकर्षण का है और साच मक पाषाणकी तर्फ जाती है, मोरानी सूश्के सायही जाताहै, इस तरे नरकादि गतियोंका स्थान चमक पाषाण समान है, आयु कर्म और गतिना म कर्म लोहकी सूई समान है, और जीव मोरे समान है बीचमें पोया हुआहै, इस वास्ते परन्नवमें जीवकों आयु और गतिनाम कर्म ले जातेहै, जैसा २ गतिनाम कर्मका जीवांने बंध करा है,
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१७५
शुभ वा अशुभ तैसी गतिमें जोव तिस कर्मके नदयसें जा रहता है, इस वास्ते जो अज्ञानीयोने कल्पना कर रस्की है कि पापी जीवकों यम और धर्मी जोवकों स्वर्गके दूत मरा पीछे ले जा ते तथा जबराइल फिरस्ता जीवांकों ले जाता है, सो सर्व मिथ्या कल्पना है, क्योंकि जब यम और स्वर्गीय दूत फिरस्ते मरते होगे, तब तिनकों कौन ले जाता होवेंगा, और जीवतो जगतमें एक साथ अनंते मरते और जन्मते, तिन सबके लेजाने वास्ते इतने यम कहांसे आते होवेंगे, और इतने फिरस्ते कहां रहते होवेगे १ और जीव इस स्थूल शरीरसें निकला पीछे किसीकेजी हाथमें नही आता है, इस वास्ते पूर्वोक्त कल्पना जिनोंने सर्वज्ञका शास्त्र नही सुना है तिन अज्ञानी योंने करीहै. इस वास्ते मुख्य आयुकर्म और गतिनाम कर्मके उदयसेंही जीव परज्जवमें जाता है. इति ग तिनाम कर्म 8 अथ जातिनाम कर्मका स्वरूप लिखते है, जिसके उदयसें जीव पृथ्वी, पाणी, अनि, पवन, वनस्पतिरूप एकेंश्यि, स्पर्शेश्यिवा
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ले जीव नत्पन्न होतेहै, सो एकेंश्यि जातिनाम कर्म १ जिसके नुदयसे दोइंद्रियवाले कृम्यादिपणे नत्पन्न होवे, सो वीडिय जातिनाम कर्म २ एवं तीनेंशि कीमीआदि, चतुरिंडिय भ्रमरादि, पंचेंयि नरक पंचेंद्रिय पशु गोमहिष्यादि मनुष्य दे. वतापणे नत्पन्न होवे, सो पंचेंश्यि जातिनाम कर्म. एवं सर्व ए नदारिक शरीर अर्थात् एकेंद्रिय, ही श्यि, त्रींद्रिय, चतुरिंघिय, पंचेंश्यि, तिर्यंच मनु. ध्यके शरीर पावनेको तथा छदारीक शरीरपणे परिणामकी शक्ति, तिसका नाम ऊदारिक शरीर नाम कर्म १० जिसकी शक्तिसे नारकी देवताका शरीर पावे, जिससे मन इलित रूप बणावे तथा वैक्रिय शरीरपणे पुजल परिणामनेकी शक्ति सौ वैक्रिय शरीरनाम कर्म ११ एवं आहारिक लग्धी वालेके शरीरपणे परिणामावे १५ तेजस शरीर अंदर शरीरमें नुश्नता, आहार पचावनेकी शक्तिरूप, सो तैजस नाम कर्म १३ जिसकी शक्तिसें कर्मवर्गणाकों अपने अपने कर्म प्रकृतिके परिणामपणे परिणामावे सो कार्मण शरीर नाम कर्म
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१७७
१४ दो बाहु २ दो साथल ध पीठ ५ मस्तक ६ नरुबाती 9 नदर पेट ८ ये आठ अंग और अंगो के साथ लगा हुआ, जैसें हाथसें लगी अंगुली साथलसें लगा जानु, गोमा आदि इनका नाम नृपांग है, शेष अंगुली के पर्व रेखा रोम नखादि प्रमुख अंगोपांग है; जिसके उदयसे ये अंगोपांग पावे और इनपणे नवीन पुल परिणमावे ऐसी जो कर्मकी शक्ति तिसका नाम नपांग नाम कर्म है. नदारीकोपांग १५ वैक्रियोपांग, १६ आहारिकोपांग, १७ इति उपांग नामकर्म || पूर्वे बांध्या हुआ नदारिक शरीरादि पांच प्रकृति और इन पांचोके नवी न बंध होतेको पिबले साथ मेलकरके बधावे जैसे राल लाखादि दो वस्तुयोंकों मिला देते है, तेसेह | जो पूर्वापर कर्मको संयोग करे, सो बंधन नाम कर्म शरीरोंके समान पांच प्रकारका है. नदारिक बंधन वैक्रियबंधन इत्यादि एवं, २२ प्रकृति हुइ. पांच शरीरके योग्य विखरे हुए पुलांको एक े करे, पीछे बंधन नामकर्म बंध करे, तिस एकछे करणेवाली कर्म प्रकृतिका नाम संघातन नामक
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र्म है, सो पांच प्रकारका है, नदारिक संघातन, वैक्रिय संघातन इत्यादि एवं, २७ सत्ताइस प्रकृति हुइ, अथ नदारिक शरीरपणे जो सात धातु परिशमी है तिनमें हारुकी संधिको जो दृढ करे सो संहनन नामकर्म, सो ब ६ प्रकारका है, तिनमें सें जहां दोनो हाम दोनों पासे मर्कट बंध होवे, ति सका नाम नराच है, तिन दोनो हामोंके ऊपर तीसरा हाम पट्टेकी तरें जकम बंध होवे तिसका नाम शेषन है, इन तीनो हामके भेदनेवाली ऊपर खीली होवे तिसका नाम वज्रहै, ऐसी जिस कर्मके उदयसे दामका संधी दृढ होवे तितका नाम वज्ररुषन नराच संहनन नामकर्म है. १८ जहां दोनों हामोंके बेहमे मर्कटबंध मिले हुए होवे, और उनके उपर तीसरे दामका पट्टा होवे, ऐसी हाम संधी जिस कर्मके उदयसें होवे सो रुपन नराच संहनन नामकर्म २० जिन दामोंका मर्क टबंध तो होवे परंतु पट्टा और कीलो न होवे, जि सके उदयसें सो नाराच संहनन नामकर्म, ३० जहां एक पासे मर्कटबंध और दूसरे पासे खीली
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१७ होवे जिस कर्मके नदयसे सो अाई नराच संहनन नाम कर्म ३१ जैसे खीलीसें दो काष्ट जोमे होवे तैसें हामकी संधी जिस कर्मके नदयसे होवे, सो कीलिका संहनन नामकर्म ३२ दोनो हामोंके हमे मिले हुए होवे जिस कर्मसे सो सेवा” संहनन नामकर्म ३३ जिस कर्मके नदयसे सामुद्रिक शा स्त्रोक्त संपूर्ण लक्षण जिसके शरीरमें होवे तथा चारो अंस बराबर होवे, पलाठी मारके बेटे तब दोनों जानुका अंतर और दाहिने जानुसें वामास्कंध और वामेजानुसे दाहिनास्कंध और पलारी पीठसे मस्तक मापता चारों मोरी बराबर होवे,
और बत्तीस लक्षण संयुक्त होवे, ऐसा रूप जिस कर्मके नदयसे होवे तिसका नाम सम चतुरस्त्र संस्थान नामकर्म ३४ जैसे वह वृक्षका ऊपल्या नाग पूर्ण होवेहै, तैसेही जो नानोसें ऊपर संपू. पण लक्षणवाला शरीर होवे और नानीसें नीचे लक्षण हीन होवे, जिस कर्मके नदयसे सो निग्रोध परिमंमल संस्थान नामकर्म ३५ जिसका शरीर नान्नीसें नीचे लक्षणयुक्त होवे, और नानी
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से ऊपर लक्षण रहित होवे, जिस कर्मके नदयॐ सो सादिया संस्थान नामकर्म ३६ जहां हाथ पग मुख ग्रीवादिक नत्तम सुंदर होवे, और हृदय, पेट, पूंठ लक्षण हीन होवै जिस कर्मके उदयसें सो कुब्ज संस्थान नामकर्म ३७ जहां हाथ पग लक्षण होन होवे, अन्य अंग लकण संयुक्त अच्छे होवे, जिस कर्मके नदयसे सो वामन संस्थान नामकर्म ३० जहां सर्व शरीरके अवयव लक्षण हीन होवे सो हुंमक संस्थान नामकर्म, ३ए जिस कर्मके उदयसे जीवका शरोर मषी, स्याही नील समान काला होवे तथा शरीरके अवयव काले होवे सो कृष्णवर्ण नामकर्म ४० जिसके नदयसें जीवका शरीर तथा शरीरके अवयव सूयकी पुत्र तथा जंगास समान नील अर्थात् हरित वर्ण होये, सो नीलवर्ण नामकर्म ४१ जिसके उदयसें जीवका शरीर तथा शरीरके अवयव लाल हिंगलुं समान रक्त होवे, सो रक्तवर्ण नामकर्म ४२ जिस कर्मके नदयसें जीवका शरीर तथा शरीरके अवयव पीत हरिताल, हलदी चंपकके फूलसमान
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१७१ पीले होवे, सो पीतवर्ण नामकर्म ४३ जिस कर्म के नदयसे जोवका शरीर तथा शरीरके अवयव संख स्फटिक समान नुज्वल होवे, सो शुक्लवर्ण नामकर्म ४० जिसके नदयसे जीवके शरीर तथा शरीरके अवयव सुरलि गंध अर्थात् कपूर, कस्तू री, फूल सरोखी सुगंधी होवे, सो सुरनीगंध ना मकर्म ४५ जिस कर्मके नदयसें जीवके शरीर तथा शरीरके अवयव पुरनिगंध लशुन मृतक श रीर सरीखी पुरत्नोगंध होवे, सो पुरनिगंध ना. मकर्म ४६ जिसके नदयतें जीवका शरीर तथा शरीरके अवयव नींब चिरायते सरोसा रस होवे, सो तिक्तरस नामकर्म ७ जिसके नदयसें जीव का शरीरादि सूंठ, मरिचकी तरे कटुक होवे, सो कटुकरस नामकर्म ४८ जिसके नदयसें जी वका शरीरादि हरम, बहेमें समान कसायलारस होवे, सो कसायरस नामकर्म ४९ जिस कर्मके नदयसे जोवके शरीरादिका रस लिंबू , आम्लो सरीखा खट्टा रस होवे, सो खट्टारस नामकर्म ५० जिस कर्मके नुदयसें जीवके शरीरादि खांझ, सा
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१०३ करादि समान रस होवे, सो मधुर रस नामकर्म ५१ शति रस नाम कर्म जिसके नदयसे जीवके शरीरमें तथा शरीरके अवयव कग्नि कर्कस गा यकी जीन समान होवे, सो कर्कस स्पर्श नाम कर्म ५२ जिसके नदयसें जीवका शरीर तथा शरीरके अवयव माखणकी तरे कोमल दोवे, सो मृ स्पर्श नामकर्म ५३ जिसके नदयसे जीवका शरीर तथा अवयव अर्क तूलकी तरे हलके होवे, सो लघु स्पर्श नामकर्म ५४ जिसके नदयसे लो हेवत् नारी शरीरके अवयव होवे, सो गुरु स्पर्श नामकर्म ५५ जिस कर्मके नदयसे जीवका शरीर तथा अवयव हिम बर्फवत् शीतल होवे, सोशोत स्पर्श नामकर्म ५६ जिसके नदयसें जीवका शरीर तथा अवयव उष्ण होवे, सो नष्ण स्पर्श नामकर्म ५७ जिस कर्मके नदयसे जीवका शरीर तथा शरीरावयव घृतकी तरे स्निग्ध होवें, सो स्निग्ध स्पर्श नामकर्म एज जिस कर्मके नदयसें जीवका शरीरावयव राखकी तरे रूखे होवे, सो रुक स्पर्श नामकर्म ५ए इति स्पर्श नाम कर्म नरक, तिर्यच,
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मनुष्य, देव ए चार जगें जब जीव गति नाम कर्मके नदयसे बक बांकी गति करे, तब तिस जी वकों बांके जातेको जो अपने स्थानमें ले जावे, जैसे बैलके नाकमें नाथ तैसे जीवके अंतराल वक्र गतिमें अनुपूर्वीका नदय तथा जो जीवके हाथ पगादि सर्व अवयव यथायोग्य स्थानमें स्थापन करे, सो अनुपूर्वी नामकर्म. सो चार प्रकारका है, नरकानुपूर्वी १ तिर्यंचानुपूर्वी २ मनुष्यानुपूर्वी ३ देवतानुपूर्वी ४ एवं सर्व ६३ हूर, जिसके नदय से हाथी वृषन्नकी तरे शुन्न चलनेकी गति होवे, सो शुन्न विहाय गति ६४ जिस कर्भके नदयसें ऊंटको तरे बुरी चाल गति होवे, सो अशुन्न वि हाय गति नामकर्म ६५ जिसके नदयसे परकी शाक्ति नष्ट हो जावे, परसें गंज्या परान्नव करा न जाय, सो पराघात नामकर्म ६६ जिसके नद यसें सासोस्वासके लेनेकी शक्ति उत्पन्न होवे, सो नत्स्वास नामकर्म ६७ जिसके नदयसें जीवांका शरीर नष्ण प्रकाश वाला होवे, सूर्य मंगलवत्, सो आतप नामकर्म ६८ जिसके नदयसे
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१०४ जीवका शरीर अनुष्ण प्रकाशवाला होवे, सो न द्योत नामकर्म, चं मंगलवत् ६ए जिसके नदयसें जीवका शरीर अति नारी अति हलका न होवे, सो अगुरु लघु नामकर्म ७० जिसके नदयसें चतुर्विध संघ तीर्थ श्रापन करके तीर्थकर प. दवी लहे, सो तीर्थकर नामकर्म ७१ जिस कर्मके नदयसें जीवके शरीरमें हाथ, पग, पिंकी, साथ ल, पेट, गती, बाहु, गल, कान, नाक, होठ, दांत, मस्तक, केश, रोम शरीरकी नशांकी विचित्र र चना, आंख, मस्तक प्रमुखके पदें यथार्थ यथा योग्य अपने ५ स्थानमें नुत्पन्न करे होवे, संचयसे जैसें वस्तु बनतीहै तैसेही निर्माण कर्मके नुदयसे सर्व जीवांके शरीरोंमे रचना होती है, सो निर्माणकर्म ७२ जिसके नदयसे जीव अधिक तथा न्यून अपने शरीरके अवयव करके पीमा पामे, सो नपघात नामकर्म ७३ जिसके उदयसे जीव थावरपणा गेमो हलने चलनेकी लब्धि शक्ति पावे, सो त्रस नाम कर्म है ७४ जिस कर्मके नदयसें जीव सूक्ष्म शरीर गेमके बादर चकु ग्राह्य
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१०५ शरीर पावे, सो बादर नामकर्म ७५ जिस कर्मके नदयसै जीव प्रारंन करी हुन ६ पर्याप्ति अ.
र्थात् आहार पर्याप्ति १ शरीर पर्याप्ति २ इंघिय पर्याप्ति ३ सासोत्स्वास पर्याप्ति ४ नाषा पर्याप्ति ५ मनः पर्याप्ति ६ पूरी। करे, सो पर्याप्त नामकर्म ७६ जिसके नदयसे एक जीव एकही नदारिक शरीर पावे, सो प्रत्येक नामकर्म ७७ जिस कर्मके नदयसे जीवके हाम दातादि दृढ बंध होवे, सो थिर नामकर्म ७० जिस कर्मके नदयसें नानिसें ऊपल्या नाग शरीरका पावे, दूसरेके तिस अंगका स्पर्श होवें तोनी बुरा न माने, सो शुन्न नामकर्म ७५ जिस कर्मके नदयसे विना नपका रके कस्यांनी तथा सबंध विना बल्लन लागे, सो सौनाग्य नामकर्म ८० जिस कर्मके नदयसे जी वका कोकलादि समान मधुर स्वर होवे, सो सुस्वर नामकर्म ८१ जिस कर्मके उदयसे जीवका वचन सर्वत्र माननीय होवे, सो आदेय नामकर्म ८२ जिस कर्मके नदयसे जगतमें जीवकी यशकीर्ति फैले, सो यश कीर्ति नामकर्म ८३ जिस
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कर्मके उदयसें जीव त्रसपणा बोकी स्थावर पृथ्वी, पानी, वनस्पत्यादिकका जीव हो जावे, हली चली न सके, सो स्थावर नामकर्म ८४ जिस कर्मके उदयसे सूक्ष्म शरीर जीव पावे, सो सूक्ष्म नामकर्म ८५ जिस कर्मके नदयसे प्रारंभी हुइ पर्याप्ति पूरी न कर सके, सो अपर्याप्त नामकर्म. ८६ जिस कर्मके उदयसें अनंते जीव एक शरोर पामे, सो साधारण नामकर्म ८७ जिस कर्मके नदयसें जीवके शरीर में लोहु फिरे, हामादि सिथल होवे, सो अथिर नामकर्म ८८ जिस कर्मके उदयसें नानीसें नीचेका अंग उपांगादि पावे, सो अशुभ नामकर्म ८० जिस कर्मके उदयसें जीव अपराधके विना करेही बुरा लगे, सो दौर्भाग्य नामकर्म ए० जिस कर्मके नदयसें जीवका स्वर मार्जार, ऊंट सरीखा होवे, सो दुःस्वर नामकर्म ९१ जिस कर्मके उदयसें जीवका वचन अज्ञानी होवे, तोनी लोक न माने सो अनादेय नामकर्म ९२ जिस कर्मके उदयसें जीवका अपयश की र्त्ति होवे, सो अपयश कीर्त्ति नामकर्म, ३ इति
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श७ि
नामकर्म.६. ____ अथ नामकर्म बंध हेतु लिखते है ॥ देव गत्यादि तीस ३० शुन्न नामकर्मकी प्रकृतिका बंधक कौन होवे सो लिखते है. सरल कपट रहित होवे जैसी मनमें होवे तैसोही कायकी प्रवृत्ति होवे. किसीकोनी अधिक न्यून तोला, मापा क रके न ठगे, परवंचन बुद्धि रहित होवे, झझिगार व, रसगारव, सातागारव, करके रहित होवे, पाप करता हुआ मरे, परोपकारी सर्व जन प्रिय क्षमा दि गुण युक्त ऐसा जीव शुन्न नामकर्म बांधे तथा अप्रमत्त यतिपणे चारित्रियो आहारकछिक बांधे, १ और अरिहंतादि वीश स्थानककों सेवता हुआ तीर्थकर नामकर्मकी प्रकृति बांधे । और इन पू. र्वोक्त कामोसे विपरीत करे अर्थात् बहुत कपटी होवे, कूमा, तोला, मान, मापा करके परकों ठगे, परोही, हिंसा, जूठ, चौरी, मैथुन, परिग्रहमें त त्पर होवे, चैत्य अर्थात् जिनमंदिरादिककी विरा धना करे, व्रतलेकर नम करे, तीनो गौरवमें मत्त होवे, हीनाचारी ऐसा जीव नरक गत्यादि अशु
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१०० न नाम कर्मकी ३४ चौतीस प्रकति बांधे, येह सतसा ६७ प्रकृतिकी अपेक्षा करके बंध कथन करा, इति नामकर्म ६ संपूर्ण.
__ अथ गोत्रकर्म तिसके दो नेद. प्रथम नंच गोत्र, विशिष्ट जाती, दत्रिय कास्यापादिक नुयादी कुल नत्तम बल विशिष्ट रूप ऐस्वर्य तपो गुण विद्यागुम सहित होवे, सो नंचगोत्र १ तथा निदाचरादिक कुल जाती आदोक लहे सो नीचगोत्र २ अथ नंचगोत्रके बंध हेतु ज्ञान, दर्शन, चारित्रादोक गुण जिसमें जितना जाने, तिसमें तितना प्रकाशकर गुण बोले, और अवगुण देख के निंदे नही, तिसका नाम गुण प्रेक्षी है, गुण प्रेकी होवे, जातिमद १ कुलमद २ बलमद ३ रूपमद ४ सूत्रमद ५ ऐश्वर्यमद ६ लान्नमद ७ तपोमद ये आठ मदको संपदा होवे, तोन्नी मद न करे, सूत्र सिांत तिसके अर्थके पढने पढानेकी जिस कों रुचि होवे, निराहंकारसें सुबुद्धि पुरुषको शास्त्र समकावे, इत्यादि परहित करनेवाला जीव नंच गोत्र बांधे, तीर्थंकर सिह प्रवचन संघादिकका अं
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१०ए तरंगसें नक्तीवाला जीव चंचगोत्र बांधे, श्न पू. ोक्त गुणोसे विपरीत गुणवाला अर्थात् मत्सरी १ जात्यादि आठ मद सहित अहंकारके नदयसें किसीको पढावें नही, सिइ प्रवचन अरिहंत चैत्यादिककी निंदा करे, नक्ति न होवे, सो जीव हीन जाति नीच गोत्र बांधे ॥ इति गोत्रकर्म ७,
___ अथ आठमा अंतराय कर्मका स्वरूप लिख तेहै, तिसके पांच नेदहै. जिस कर्मके नदयसे जीव शुक्ष वस्तु आहारादिकके हूएनी दान देनेकी इबानी करे, परंतु दे नही सके, सो दानांतराय कर्म १ जिस कर्मके नदयसे देनेवालेके हुए. नीशष्ट वस्तु याचनेसेंनी न पावे. व्यापारादिमें चतुरनी होवे तोनी नफा न मिले, सो लान्नांतराय कर्म जिस कर्मके नदयसे एक वार नोग ने योग्य फूलमाला मोदकादिकके हूएनो लोग न कर सके, सोनोगांतराय कर्म ३ जिस कर्मके नदयसें जो वस्तु बहुत वार नोगनेमें आवे, स्त्री आनर्ण वस्त्रादि तिनके हूएनी वारंवार लोग न कर सके, सो नपन्नोगांतराय कर्म । जिस कर्म
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२०० के नदयसे मिथ्या मतको किया न कर सके, सो बालवीर्यातराय कर्म १ जिसके नुदयसे सम्यग्रह ष्टी, देश वृत्ति धर्मादि क्रिया न कर सके, सो बाल पंमित वीयांतराय कर्म, जिसके नुदयसे सम्यम् दृष्टी साधु मोक्ष मार्गकी संपूर्ण क्रिया न कर सके, सो पंमित वीयाँतराय कर्म, अथ अंतराय कर्मके बंध हेतु लिखतेहै. श्री जिन प्रतिमाकी पुजाका निषेध करे, उत्सूत्रकी प्ररूपणा करे, अन्य जीवां को कुमार्गमें प्रवर्गवे, हिंसादिक आगरह पाप सेवनेमें तत्पर होवे तथा अन्य जीवांकों दान ला नादिकका अंतराय करे, सो जीव अंतराय कर्म बांधे. इति अंतराय कर्म ८.
इस तरें आठ कर्मकी एकसो अमतालीस १४ कर्म प्रकृतिके नदयसे जीवोंके शरीरादिककी विचित्र रचना होतीहै, जैसें आहारके खाने से शरीरमै जैसे जैसें रंग और प्रमाण संयुक्त हाम, नशा, जाल,आंखके पमदे मस्तकके विचित्र अवयबपणे तिस आहारका रस परिणमता है, यह सर्व कर्माके उदयसे शरीरकी सामर्थ्यसें होता
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११ है, परंतु यहां ईश्वर नही कुबन्नी कर्ताहै, तैसेंही काल १ स्वन्नाव नियति ३ कर्म । नद्यम ५ इन पांचो कारणोंसें जगतकी विचित्र रचना हो रहीहै. जेकर ईश्वर वादी लोक श्न पूर्वोक्त पांचो के समवायको नाम ईश्वर कहते होवे, तब तो हमन्नी ऐसे ईश्वरकों का मानतेहै. इसके सिवाय अन्य को कर्ता नहीहै, जेकर कोइ कहे जै नीयोंने स्वकपोल कल्पनासें कर्माके नेद बना र. खेहै. यह कहना महा मिथ्याहै, क्योंकि कार्यानु मानसें जो जैनीयोने कर्मके नेद मानेहै वे सर्व सिड होतेहै, और पूर्वोक्त सर्व कर्मके नेद सर्वज्ञ वीतरागने प्रत्यक्ष केवल ज्ञानसें देखेहै. इन कमौके सिवाय जगतकी विचित्र रचना कदापि नही सि होवेगी, इस वास्ते सुज्ञ लोकोको अरिहंत प्रणीत मत अंगीकार करना उचितहै, और ईश्वर वीतराग सर्वज्ञ किसी प्रमाणसेंनी जगतका कर्त्ता सिह नही होताहै, जिसका स्वरूप ऊपर लिख आये है.
प्र. १५५-जैन मतके ग्रंथ श्री महावीर
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२२ जीसें लेके श्री देवगिणितमाश्रण तक कंठाग्र रहै क्योंकर माने जावे, और श्वेतांबर मतं मूल का है और दिगंबर मत पीसें निकला, इस क पनमें क्या प्रमाण है.
न.-जैन मतके आचार्य सर्व मतोंके आचार्योंसें अधिक बुद्धिमान थे, और दिगंबराचार्यों से श्वेतांबर मतके आचार्य अधिक बुध्मिान आ त्मज्ञानी थे, अर्थात् बहुत कालतक कंगन ज्ञान रखने में शक्तिमान थे, क्योंकि दिगंबर मतके तोन पुस्तक धवल ७०००० श्लोक प्रमाण १ जयधवल ६०००० श्लोक प्रमाण महाधवल ४०००० श्लोक प्रमाण ३ श्री वीरात् ६८३ वर्षे ज्यैष्ठशुदि ५ के दिन नूतवलि १ पुष्पदंतनामें दो साधुयोंने लिखे थे, और श्वेतांबर मतके पुस्तक गिणतीमें और स्वरूपमें अलग अलग एक कोटि १००00000 पांचसौ आचार्योने मिलके और हजारों सामान्य साधुयोंने श्री विरात् एG० वर्षे वल्लनी नगरीमें लिखे थे, और बौक्ष्मतके पुस्तकतो श्री वीरात् थोमेसें वर्षों पीव्ही लिखे गयेथे, जिनोकी बुद्धि
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१५३ अल्प थी तिनोने अपने मतके पुस्तक जलदीसें लिख लीने, और जिनोकी महा प्रौढ धारणा क रनेको शक्तिवाली बुझ्थिी तिनोंने पीसें लिखे. यह अनुमानसें सिह है, और दिगंबर मतमें श्री महावीरके गणधरादि शिष्योंसें लेके ५८५ वर्ष तकके काल लग हुए हजारों आचार्योमेसें किसी आचार्यका रचा हुआ को पुस्तक वा किसी पु स्तकका स्थल नही है, इस वास्ते दिगंबर मत पीसें नत्पन्न हुआ है.
प्र.१५६-देवगिणिक्षमाश्रमणनें जो ज्ञान पुस्तकोंमे लिखाहै, सो आचार्योंकी अविविन्न परं परायसें चला आया सो लिखा है, परं स्वकपोल कल्पित नही लिखा, इसमें क्या प्रमाण है, जि ससे जैनमतका ज्ञान सत्य माना जावे.
उ.-जनरल कनिंगहाम साहिब तथा मातर हाँरनल तथा माक्तर बूलर प्रमुखोंने मथुरा नगरीमेंसे पुरानी श्री महावीरस्वामिकी प्रतिमा की पलांडी ऊपरसें तथा कितनेक पुराने स्तनों ऊपरसें जो जूने जैनमत. सबंधी लेख अपनी स्वच
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१ए४ बुद्धिके प्रन्नावसे वांचके प्रगट करे है, और अंग्रेजी पुस्तकोंमें गपके प्रसिध्द करेहै तिन जूने से खोंसे निसंदेह सिह होताहै कि, श्री महावीरजी से लेके श्री देवगिणिक्षमाश्रमण तक जैन श्वेतांबर मतके आचार्य कंगन ज्ञान रखने में बहुत नद्यमी और आत्मज्ञानी थे, इस वास्ते हम जैन मतवाले पूर्वोक्त यूरोपीयन विद्वानोका बहुत नुपकार मानते है, और मुंबइ समाचार पत्रवाला नी तिन लेखोंकों बांचके अपने संवत् १ए४४ के वर्षाके चार मासके एक प्रतिदिन प्रगट होते पत्रमें लिखताहै कि, जैनमतका कल्पसूत्र कितनेक लोक कल्पित मानते थे, परंतु इन लेखोंसें जैन मतका कल्पसूत्र सबा सिह होता है.
प्र. १५७-व लेख कौनसेंहै, जिनका जिकर आप ऊपले प्रश्नोत्तरमें लिख आए है, और तिन लेखोंसें तुमारा पूर्वोक्त कथन क्योंकर सिह होता है.
न.-वे लेख जैसे मातर बूलर साहिबने सुधारके लिखे और जैसे हमकों गुजराती ना
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१५ पातरमे नाषांतर कर्त्ताने दीयेहै तैसेंही लिखतेहै, येह पूर्वोक्त लेख सर ए. कनिंगहामकें आचिनलोजिकल (प्राचीन कालकी रही हु वस्तुयों स बंधी) रिपोर्टका पुस्तक ८ आठमेमें चित्र १३१५ तेरमे चौदवें तक प्रगट करे हुए मथुरांके शिला लेख तिनमें केवल जैन साधुयोंका संप्रदाय आचार्योंकी पंक्तियां तथा शाखायों लिखी हुश्है, के वल इतनाहो नही लिखा हुआहै, किंतु कल्पसु. त्रमें जे नवगण (गड) तथा कुल तथा शाखायों कहीहै, सोन्नी लिखी हुश्है, इन लेखोंमे जो संवत् लिखा हुआ है, सो हिंदुस्थान और सीधीया देशके वीचके राजा कनिश्क १ हविश्क २ और वासुदेव ३ इनके समयके संवत् लिखे हुएहै और अब तक इन संवतोकी शरुआत निश्चित नही हुहै, तोनी यह निश्चय कह सकते है कि येह हिंऽस्थान और सोथीया देशके राजायोंका राज्य इसवीसनके प्रथम सैकके अंतसें और दूसरे सैके के पहिले पौणेनागसे कम नही ठरा सक्तेहै, क्यों कि कनिश्क सन शवीसनके ७८ वा उए मे व
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१५६ र्षमै गद्दी पर बैग सिह हुआहै, और कितनेक लेखोंमे इन राजायोंका संवत् नही है, सो लेख इन राजायोंके राज्यसे पहिलेंका है, ऐसे माक्तर बूलर साहिब कहता है.
प्रथम लेख सुधरा हुआ नीचे लिखा जाता है. सिई। सं २०। ग्रामा १ । दि १०+५ । कोट्टि. यतो, गणतो, वाणियतो, कुलतो. वएरितो, शा. खातो, शिरिकातो, नतितो वाचकस्य अर्यसंघ सिंहस्य निर्व” नंदनिलस्य....वि.-लस्य कोडं. बिकिय, जयवालस्य, देवदासस्य, नागदिनस्य च नागदिनाये, च मातु श्राविकाये दिनाये दानं ।
। वईमान प्रतिमा. इस पाठका तरजुमा रूप अर्थ नीचे लिखते है. “फतेह" संवत् २० का नभ कालका मास १ पहिला मिति १५ ज्यवल (जय पाल)की माता बी....लाकी स्त्री दतिलको (बेटी) अर्थात् (दिना अथवा दत्ता) देवदास और नागदिन अथवा नागदत्त) तथा नागदिना (अर्थात् नागदिन्ना अथवा नागदत्ता) की संसारिक स्त्री शिष्यकी बक्षीस कीर्तिमान वईमानकी प्रतिमा
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१७
(यह प्रतिमा) कौटिक गहमेंसे वाणिज नामे कु लमेंसें वैरी शाखाका सीरीका नागके आर्य संघ सिंहकी निर्वरतन है, अर्थात् प्रतिष्टित है.॥ इति माक्तर वूलर ॥
अथ दूसरा लेख. नमो अरहंतानं, नमो सि ज्ञानं, सं. ६० + २ ग्र. ३ दि. ५ एताये पुर्वायेरार कस्य अर्यककसघ स्तस्य शिष्या आतापेको गह वरी यस्य निर्वतन चतुवस्यन संघस्य या दिना पमिना (नो. १) ग. (१ ? वैहिका ये दत्ति ॥ सका तरजमा । अरहंतने प्रणाम, सिइने प्रणा. म, संवत ६२ यह तारीख हिंजस्थान और सीथी श्रा बोचके राजायोंके संवत्के साथ सबंध नही रखती है, परंतु तिनोंसे पहिलेंके किसी राजेका संवत् है, क्योंकि इस लेखकी लिपी बहुत असल है. नश्न कालका तीसरा मास ३ मिति ५ ऊपरकी तारीखमें जिस समुदायमें चार वर्गका स. मावेश होताहै, तिस समुदायके नपत्नोग वास्ते अथवा हरेक वर्गके वास्ते. एकैक हिस्सा इस प्र. माणसे एक। या । देने में आया था। या। यह क्या
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१० वस्तु होवेगी सो मैं नहीं जानता हूं, पति नोग अथवा पति नाग इन दोनोंमेंसें कौनसा शब्द पसिंद करने योग्य है के नही, यहनी मैं नही कह सक्ताहूं (आ) आतपीको गहवरोरारा (राधा) कारहीस आर्य-कर्क सघस्त (आर्य-कर्क सघशी त) का शिष्यका निर्वतन (होश्के) वश्हीक (अ श्रवा वाहीता) को बदीस, यह नाम तोमके इस प्रमाणे अलग कर सक्ते है, आतपीक-औगहबआर्य । पीके नागमें यह प्रगट है कि निर्वतन याके साथ एकही विन्नक्तिमें है, तिस वास्ते अन्य दूसरे लेखोमेंनी बहुत करके ऐसीही पतिके लेख लिखे हुए है, निर्वर्तयतिका अर्थ सामान्य रीते सो रजु करता है, अथवा सो पूरा करता है ऐसा है, तिससे बहुत करके ऐसे बतलाता है के दीनी हुइ वस्तु रजु करनेमें आश्थी, अर्थात् जिस आ चार्यका नाम आगे आवेगा तिसकी श्वासें अर्प ण करनेमें आश्थी, अथवा तिससे सो पूरी कर. नेमें आश्थी. गणतो, कुलतों इत्यादि पांचमी वि नक्तिके रूप वियोजक अर्थ में लेने चाहिये, स्येश्
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२एए जरका संस्कृतकी वाक्य रचनाका पुस्तक ११६ ।१ देखो । इति माक्तर खूलर. अथ तोसरा लेख। सिई महाराजस्य कनिश्कस्य राज्ये संवत्सरे नवमें ॥॥ मासे प्रथ १ दिवसे ५ अस्यां पूर्वाये कोटियतो, गणतो, वाणियतो, कुलतो, वश्रीतो, साखातो वाचकस्य नागनंदि सनिवरतनं ब्रह्मधू. तुये नहिमितस कुटुंबिनिये विकटाये श्री वाईमा नस्य प्रतिमा कारिता सर्व सत्वानं हित सुखाये, यह लेख श्री महावीरकी प्रतिमा कपरहै । इस का तरजमा नीचे लिखतेहै ॥ फतेह महाराजा कनिश्यके राज्यमें ए नवमें वर्षमेंका १ पहिले महीनेमें मिति ५ पांचमीमें ब्रह्माकी बेटी और नट्टिमित (नट्टिमित्र) को स्त्री विकटा नामकीनें सर्व जीवांके कल्याण तथा सुखके वास्ते कीर्तिमान वईमानकी प्रतिमा करवाई है, यह प्रतिमा कोटिक गण (ग) का वाणिज कुलका और व शरी शाखाका आचार्य नागनंदिकी निर्वतन है, (प्रतिष्टितहै), अब जो हम कल्पसूत्र तर्फ नजर करीये तो तिस मूल प्रतके पत्रे । ०१-०२ । इस.
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२००
वी. इ. वाल्युम (पुस्तक) २२ पत्रे श्ए, हमकों मालम होताहैकि सुठिय वा सुस्थित नामे आ. चार्य श्री महावोरके आग्मे पट्टके अधिकारीने कौटिक नामे गण (गब) स्थापन कराया, तिसके विन्नाग रूप चार शाखा तथा चार कुल हूए, जि सकी तीसरी शाखा वश्रोथी और तोसरा वाणि ज नामे कुलथा, यह प्रगट हैकि गण कुल तथा शाखाके नाम मथुरांके लेखोंमें जो लिखेहै वे क स्पसूत्रके साथ मिलते आतेहै. कोटियकुबक को मोयका पुराना रूपहै, परंतु इस बातकी नकल लेनी रसिकहैकि वश्री शाखा सीरीकानत्ती (स्त्री कानक्ति) जो नंबर ६ के लेखमें लिखी हुश्है ति सके नाम का कल्पसूत्रके जानने में नहीं था, अर्थात् जब कल्पसूत्र हुआथा तिस समयमें सो नाग नही था. यह खाली स्थान ऐसाहैकि जो मुहकी दंत कथा (परंपरायसें चला पाया कथन) से लिखीहू यादगीरीसें मालुम होताहै. इति मा क्तर बूलर ॥
अथ चौथा लेख ॥ संवत्सरे ए व........
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२०१ स्य कुटुबनि, वदानस्य वोधुय....क....गणता ....वहुकतो, कालातो, मसमातो, शाखाता.... सनिकाय नतिगालाए थवानि....सिह-स ५ हे १ दि १०+२ अस्य पूर्वा येकोटो....इस लेखकी लीनी हुई नकल मेरे वसमे नहींहै, इस वास्ते इसका पूर्ण रूप मै स्थापन नहीं कर सकताहूं, परंतु पंक्तिके एक टुकमेके देखनेसें ऐसा अनुमान हो सकताहैके यह अर्पण करनेका काम एक स्त्रीसें हूआथा, ते स्त्री एक पुरुषको वहु (कुटुंबनो) तरी के और दूसरेके बेटेकी बहु (वधु) तरीके लिखने में आयो॥ दूसरी पंक्तिका प्रथम सुधारे साथ लेख नीचे लिखे मूजब होताहै ॥ कोटोयतो गण तो (प्रश्न) वाहनकतो कुलतो मऊमातो साखातो....सनीकायेके समाजमें कोटोय गछके प्रश्न वाहनकी मध्यम शाखामेंके कोटीय और प्रश्नवा हनकये दो नाम होवेंगे, ऐसें मुझकों निसंदेह मालुम होताहै, क्योंकि इस लेखकी खाली जगा तिस पूर्वोक्त शब्द लिखनेसे बराबर पूरी होजाती है, और दूसरा कारण यहहै कि कल्पसूत्र एस.
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वो. इ. पत्र-२५३ मेमें मध्यम शाखा विषयक हकीकतन्नो पूर्वोक्तही सूचन करतीहै, यह कल्प सूत्र अपनेकों एसे जनाताहैकि सुस्थित और तु. प्रतिबुधका दूसरा शिष्य प्रीयग्रंथ स्थविर मध्यमा शाखा स्थापन करोथो, हमकों इन लेखोपरसे मा लुम होताहैके प्रोफेसर जेकूबीका करा हुआ गण, कुल तथा शाखायोको संज्ञाका खुलासा खराहै, और प्रथम संज्ञा शाला बतातोहै, दूसरी आचार्यों की पंक्ति और तोजो पंक्तिमेंसे अलग हो गश्, शाखा बतावेहै, तिससे ऐसा सिह होता है, कल्प सूत्रमें गण (गड) तथा कुल जणाया विना जो शाखायोंका नाम लिखताहै, सो शाखा इस कपरल्ये पिरले गणके ताबेकी होनी चाहिये, और तिसको उत्पत्ति तिस गछके एक कुलमेंसे हुश हो चाहिये, इस वास्ते मध्यम शाखा निसंदेह कौटिक गछमें समाइ हुश्थी, और तिसके एक कुलमेंसें फटी हुइ वांकी शाखाथी के जिसके बी चका चौथा कुल प्रश्नवाहनक अर्थात् पणहवाह गय कहलाताहै, इस अनुमानकी सत्यता करने
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वाला राजशेखर अपने रचे प्रबंध कोशमें जो कोश तिनोंमें विक्रम संवत् १४०५ में रचा है, तिसकी समाप्तिमें अपनी धर्म संबंधी नलाद वि कि लिखो हुइ हकीकतसें साबूत होती है, सो अपनेकों जनाता है कि मै कोटिक गए प्रश्नवा हन कुल मध्यम शाखा हर्षपुरीय ग और मल धारी संतान, जो मलधारी नाम अजयदेवसूरिकों विरद मिला था, तिसमेंसे हुं ॥ १, २, के पिब ले शब्दोंको सुधारे करनेमें में समर्थ नहीहुं, परं तु इतना तो कह सक्ताहुंके यह बक्षीस स्तंनोकी लिखी हुई मालुम होतो है, ५, कोटिय गए अंत नंबर 2 में लिखा हुआ मालुम होताहै, जहां १, १, को २ दूसरी तर्फको यथार्थ नकल नोचे प्रमाणे वंचातीहै, सि६ = स ५ हे १ दी १०+२ अस्य पुरवाये कोटो.... सर ए. कनिंगहामकी लोनी हुइ नकल से मैं पिबले शब्द सुधार सक्ताहूं, सो ऐसें अस्यापुरवा कोट (य) मालुम होता है, परंतु टकारके ऊपरका स्वर स्पष्ट मालुम नही होता है, और यकारके वामे तर्फका स्थान थोमासाही मा
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लुम होता है ॥ ६ एक आगेके गणका तथा तिसके एक कुलके नामोंका अपभ्रंसरूप नंबर १० वाला चित्र चौदवमें १४ मालुम होता है, जहां यथार्थ नकल नीचे लिखे प्रमाणे वांचने में आती है ॥ पंक्ति पहिली ॥ स 10+ ग्रमो २० एतासय पुरवायेवरणेगतीपेतावमीकाकुलवचकस्य रेहेनदीस्यलासस्यसेनस्यनीवतनंसावकद ॥ पंक्ति दूसरी ॥ पशानवधयगोह.. ग. न....प्रपा.. ना.. मात.... ॥ मैं निसंदेह कहताहूंके गती नूलसें वांचनेमें आया है, और सो खरेखरा गणे है, जेकर इसतरे होवेतो वरणेनो इस सरीषाही शब्द चारणेके बदले नूलसें वांचने में आया होना चाहिये, क्योंकि यह गण जो कल्पसूत्र एस. वी.इ. वाल्युम पत्रे श्ए१ प्रमाणे प्रार्य सुदस्तिका पांच मा शिष्य श्री गुप्तसे स्थापन हुआथा, तिसका दूसरा कुल प्रीतिर्मिक है, (पत्रे. श्ए) यह स हजसे मालुम होता हैकि, यह नाम पेतिवमिक कुखके आचार्यका संयुक्त नाम पेतिबमिक कुल वाचकस्यमें गुप्त रहा हूआ है. जोके पेतिवमिक
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संन्नवित शब्दहै, और संस्कृत प्रति वर्मिकके दर्शक दाखल प्रीतिवर्मनका साधिक शब्द तक्षित मिणतीमें करीएतोनी मैं ऐसे मानताहूंके यह यथार्थ नकलको खामो ऊपर तथा ध और व की बीचमें निजीकके मिलते हुए कपर विचार करतां, सो बदलाके पेतिधमिक होना चाहिये, वांच
में दूसरी नूल यह आचार्यके नाममें जहां ह के ऊपर ए-मात है सो असली पिडले व अ. करके पेटेंकी है, इस नामका पहिला नाग अवस्य रेहे नही था, परंतु रोह था के जो रोह गुप्त, रोहसेन और अन्य शब्दोंमें मालुम पड़ता है. दूसरी पंक्तिमें थोमासाही सुधारनेका है, जो प्रपा यह अदर शुभ होवें और तिनका शब्द बनता होवे, तबटो अर्पणकरा हुआ पदार्थ एक पाणी पीनेका गम होना चाहिये, अब में नीचे लिखे मुजब थोमासा बीचमें प्रवेप करना सूचन करताई ॥ स ४७ अरमि २० एतस्ये पुरवाये चारपोगणे पेतीधमीक कुलवाचकस्य, रोहनदीस्य, सिसरय, सेनस्य, निवतनं सावक. दर........
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२०६ ....प्रपा (दी) ना....इसका तरजुमा नीचे लिखते है॥
संवत् ४७ नष्ण कालका महीना २ दूसरा मिति २०ऊपर लिखी मितिमें यह संसारी शिष्य द....का.............यह एक पाणी पीनेका गम देनेमें आयाथा, यह रोहनदी (रोहनंदि)का शिष्य और चारण गणके पेतिधमिक (प्रतिधर्मिक) कु लका आचार्य सेनका निवतन (है)। पिळला लेख जो ऐसोहोरीतीसे कल्पसत्रमें जनाया हुआ एक गण कुल तथा शाखाका कुबक अपभ्रंस और करे हुए नामाकों बतलाता है, सो नंबर २० चित्र १५का लेख है, तिसकी असली नकल नीचे लिखे मूजब वंचातो है ॥पंक्ति पहिली ॥ सिहन नमो अरहतो महावीरस्ये देवनासस्य राज्ञा वामुदेवस्य संवतसरे । ए.+७ । वर्ष मासे ४ दिवसे १०+१ ए तास्या॥पंक्ति दूसरी ॥ पूर्ववया अर्यरेहे नियातो गण पुरीध. का कुल व पेत पुत्रीका ते शाखातो गणस्य अर्य-देवदत्त. वन. ॥ पंक्ति तीसरी ॥ रयय-क्शेमस्य ॥ पंक्ति ४॥ प्रकगीरीणे॥ पंक्ति
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५ मी ॥ किहदिये प्रज. ॥ पंक्ति ६ बटो॥ तस्य प्र वरकस्यधीतु वर्णस्य गत्व कस्यम. युय मित्र [१] स........दत्तगा ॥ पंक्ति मी ॥ ये....वतोमह तीसरी पंक्तिसें लेके सातमी पंक्तिताईतो सुधारा हो सके तैसा है नही, और मैं तिनके सुधारनेको मेहनतत्नी नहीं करता हूं, क्योंके मेरे पास मुझको मदत करे तैसी तिसकी लीनी हु नक ल नहीं है, इतनोहो टीका करनी बस है के ही पंक्तिमें बेटीका शब्द धितु और तिस पीछेका म. युयसो बहुलतासे (माताका) मातुयेके बदले नू लसें बांचने में आया है, सो लेख यह बतलाता है, के यह अर्पणनी एक स्त्रीने करा या ॥ पंक्ति । ३॥ दूसरो तीसरीमें लिखे हुए नामवाले आचा ?के नामोकों यह बक्षीस साथका सबंध अंधेरेमें रहता है पिरले बार बिंञ्येको जगे दूसरा नमस्कार नमो नगवतो महावीरस्यको प्रायें रहो हर है, प्रथम पंक्तिमें सिइओ के बदले निश्चित शब्द प्रायें करके सिइं है, सर ए. कनिंगहामे आ बांचा हुआ अदर मेरी समझ मृजब विराम के साथें
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२०७ म है, दूसरा महावीरास्येकी जगें महावीरस्य धरना चाहिये, दूसरी पंक्तिमें पूर्व वयाके बदले पूर्ववाये गणके बदले गणतो, काकुलवके बदले काकुलतो टे के बदले पेतपुत्रिकातो, और गणस्यके बदले गणिस्य वांचनेकी जरुरीयात हरेक कोश्कों प्रगट मालुम पमेगो, नामोके सबंधमें अर्य-रेहनीय अशक्य रूपहै, परंतु जेकर अपने ऐसे मानीयेके हको ऊपर का असल खरेखरा पिछले चिन्हके पेटेका है, तद पोडे सो अर्यरोहनिय (आर्य रोहनके ताबेका) अथवा आर्य रोदनने स्थाप्या हुआ, अर्थात् संस्कृतमें आर्य रो दण होता है, इस नामका आचार्य जैन दंत कथामें अहीतरे प्रसिः है, कल्पसूत्र एस. वी. इ. पत्र श्ए१ में लिखे मूजब सो आर्य सुहस्तिका पहिला शिष्य था, और तिसने नद्देह गण स्थाप न करा था. इस गणकी चार शाखा और बकुल हुएथे, तिसकी चौथी शाखाका नाम पूर्म पत्रि. का मुख्यकरके तिसके विस्तारकी बाबतमें इस लेखके नाम पेतपुत्रिकाके साथ मायें मिलता प्रा
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२०॥
ताहै, और यह पिडला नाम सुधारके तिसकों पोनपत्रिका लिखने में मैं शंकानी नही करताहूं, सोइ नाम संस्कृतमें पौर्म पत्रिकाकी बराबर हो वेगी, और सो व्याकरण प्रमाणे पूर्ण पत्रिका करते हुए अधिक शुइनाम है, इन ग्रहों कुलोंमेसें परिहासक नामनी एक कुलहै, जो इस लेखमें कर गए हूए नाम पुरिघ-क के साथ कुबक मिल तापणा बतलाताहै, दूसरे मिलते रूपों कपर वि चार करता हूआ मैं यह संनवित मानताहूं के, यह पिडला रूपपरिहा.क के बदले भूलसे वांचनेमें आयाहै; दूसरी पंक्तिके अंतमे पुरुषका नाम प्रायें बड़ी विनक्तिमें होवे, और देवदत्त व सुधारके देवदतस्य कर सक्तेहै ॥ ऐसें पूर्वोक्त सुधारेसे प्रथम दो पंक्तियां नीचे मूजब होतीहै ॥ १ सिह (म्) नमो अरहतो महावीर (अ) स्य् (अ) देवनासस्या. २, पूर्वव्, (ओ) य् (ए) अर्यय(ओ) ह् (अ) नियतागेण (तो) प् (अ) रि (हास, क् (अ) कुल (तो) प् (ोन्) अप् (अ) त्रिकात् (ओ) साखातोगण (३) स्य अर्यय-देवदत्त (स्य)
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३१०
न......इसका तरजुमा नीचे लिखे मुजब होवेगा.
___ "फतेह" देवतायोंका नाश करता अरहत महावीरको प्रणाम (यह गुण वाचक नामके ख रेपणेमें मेरेको बहुत शकहै, परंतु तिसका सुधा रा करनेकों में असमर्थहूं) राजा वासुदेवके संवतुके एज मे वर्ष में वर्षाऋतुके चौथे महीने में मिति ११ मीमें इस मितिमें................परिहासक (कुल) में कापोन पत्रिका (पोर्मपत्रिका) शाखा का अरय्य-रोहने (आर्यरोहने) स्थापन करी शाला (गण) मेंका अरयय देवदत (देवदत्त) ए शालाका मुख्य गणि॥ येह लेख एकल्ले देखनेसें यह सिह करतेहैके मथुरांके जैन साधुयोंने संवत् ५ से ए अगनवे तक वा इसवीसन ७३ । वा न्य से लेके सन इसवी १६६ वा १६७ के बीचमें जैनधर्माधिकारी हुदेवालोंने परस्पर एक संप क राथा, और तिनमेसें कितनेक गहोंमें मतानुचा रीयोमें विनाग पमाया, और सो नाग हरेक शाला (गण) का कितनेक तिसके अंदर नाग ह एथे. ऊपर लिखे हूए नामों वाले पुरुषांको वाचक
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१११ अथवा आचार्यका श्लकाब मिलताहै, जो बुष्टि नाणकके साथ मिलताहै और सो इलकाब (पद वीका नाम) बहुत प्रसिह रीतीसें जैनके जो यति लोक साधु धर्म संबंधी पुस्तकों श्रावक साधुयों को समझने लायक गिणनेमे आतेथे तिनको दे. नेम आतेथे, परंतु जो साधु गणि (आचार्य) एक गलका मुखीया कहने में आताया, तिसका यह नारो श्लकाब था, और हाल मेंनी पिबलीरीती प्रमाणे बमे साधु मुख्य आचार्यकों देनेमें आता है. शाला (गणो) मेसें कोटिक गणके बहुत फांटे है, और तिसके पेटे नाग होके दो कुल, दो सा खायों और एक नत्ति हुआहै, इस वास्ते तिसका बमा लंबा इतिहास होना चाहिये, और यह क हना अधिक नही होवेगा, क्योंकि लेखोंके पुरावे ऊपरसें तिसकी स्थापना अपणे ईसवी सनको शूरुआतसे पहिले प्रोमेसें थोमा काल एक सैंकमा (सो वर्ष) में हूश्यी, वाचक और गणि सरी पेश्लकाबोंकी तथा ईसवी सन पहिले सैकेके अं तमें असलकी शालाकी हयाती बतलाबेदके तिस
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२१२ बखतमें जैन पंथकी बहुत मुदत हुआं चलती आत्मज्ञानोकी हयाती हो चुकीश्री (कितनेही का लसें कंगन ज्ञानवान् मुनियोकि परंपरायसें संतति चलो आतीथी) तिस संततिमें साधु लोक तिस वखतमें अपने पंथकी वृद्धिकी बहुत हुस्या रीसं प्रवृत्ति राखतेथे, और तिस कालसें पहिलेनो राखी होनी चाहिये, जेकर तिनोमें वाचक सेतो यहनो संन्नवितहैके कितनेक पुस्तक वंचा ने सीखाने वास्ते बराबर रीतीसें मुकरर करा हुआ संप्रदाय तथा धर्म सबंधी शास्त्रनी था. क स्पसूत्रके साथ मिलनेसें येह लेखों श्वेतांबरमतकी दंत कथाका एक बड़ा नागकों (श्वेतांबरके शास्त्रके बड़े नागकों) बनावटके शक (कलंक) से मुक्त करते है, (श्वेताबर शास्त्रके बहुत हिस्से बनावटके नही है किंतु असली सच्चे है) और स्थिविरावलिके जिस नाग ऊपर हालमे हम अ ख्तियार चला सक्ते है, सो नाग निःकेवल जैनके श्वेतांबर शाखाकी वृश्किा नरोसा राखने ला यक दवाल तिसमें हयाती साबित कर देता है,
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और तिस नागमेंनी ऐसीयां अकस्मात् भूले तथा खामोयों मालुम होती है, के जैसे कोइ कं वायको दंत कथाकों हाल में लिखता हुआ बोचमे रही जाए ऐसें हम धार सक्ते है, यह परिणाम (आय) प्रोफेसर जेकोबी और मेरी माफक जे सखस तकरार करता होवे के जैन दंत कथा ( जैन श्वेतांबर के लिखे हुए शास्त्रोंको वात ) टीकाके असाधारण कायदे हेठ नही रखनी चाहि ये, अर्थात् तिसमेके इतिहास सबंधी कथनो अ श्रवा दूसरे पंथोकी दंतकथामेसें मिली हुई दूसरी स्वतंत्र खबरोंसें पुष्टो मिलती होवे तो, सो माननी चाहिये; और जो ऐसी पुष्टो न होवे तो जैनमनकी कहनी [ स्यादवा ] तिसकों लगानी चाहिये, तैसें सखसोंकों नत्तेजन देनेवाला है. क ल्पसूत्रकी साथे मथुरां के शिला लेखोंका जो मि लतापणा है, सो दूसरी यह बातमी तब लाता है कि इस मथुरां सहरके जैनलोक श्वेतांबरी थे। इति मातर बूलर || अब दम [इस ग्रंथ के कर्त्ता ] भी इन लेखोंकों वांचके जो कुछ समऊ है सोइ
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२१४ लिख दिखलाते है॥ जैनमतके वाचक १ दिवाकर २ दमाश्रमण ३ यह तीनो पदके नाम जो आचार्य ग्यारे अंग, और पूर्वोके पढे हुएथे ति. नकों देने में आतेथे, जैसे नमास्वातिवाचक १ सिइसेन दिवाकर ए देवर्किगणिक्षमाश्रमण ३; इस वास्ते मथुरांके शिला लेखोंमें जो वाचकके नामसे आचार्य लिखे है, वे सर्व इग्यारे अंग और पूर्वोके कंगन ज्ञानवाले थे, और सुस्थित नामे आचार्यका नाम जो बूलरसाहिबने लिखाहै तो सुस्थित नामे आचार्य विरात् तीसरे सकेमे हुआ है, तिससे कोटिक यणकी स्थापना हुश्है, और जो वश्री शाखा लिखी है सो विरात् ५०५ वर्षे स्वर्ग गये, वनस्वामीसें स्थापन हुश्थी वरी शा खाके विना जो कुल और शाखाके आचार्य स्थापनेवाले सुस्थित आचार्यके लगनग कालमें हुए संलव होतेहै, इन लेखोंकों देखके हम अपने ना दिगंबरोंसें यह विनतो करते है कि जरा मतका पक्षपात गेमके इन लेखोंकी तर्फ जरा ख्याल करोके श्न लेखोंमें लीखे हुए गण, कुल शाखाके
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२१५
नाम श्वेतांबरोंके कल्पसूत्र के साथ मिलते है, वा तुमारेनी किसी पुस्तकके साथ मिलते है, मेरी समझमें तो तुमारे किसी पुस्तकमें ऐसे गण, कुल, शाखाके नाम नहीं है, जे मथुरांके शिला लेखोंके साथ मिलते आवे इससे यह निसंदेह सिह होता है, कि मथुरांके शिला लेखोंमें सर्व गण, कुल शाखा, आचार्योंके नाम श्वेतांबरोंके है, तो फेर तुमारे देवनसेनाचार्यनें जो दर्शन सार ग्रंथमें यह गाथा लिखोहैकि बत्तीस बाससए, विक्कम निवस्स, मरण पत्तस्त, सोरठे वल्लहीए, सेवा संघस मुपनो ॥१॥ __अर्थ. विक्रमादित्य राजाके मरां एकसौ न तीस १३६ वर्ष पीने सोरठ देशकी वल्लनी नग. रीमें श्वेतपट (श्वेतांबर संघ नत्पन्न हुआ) यह कहनां क्योंकर सत्य होवेगा, इस वास्ते इन शिला लेखोंसे तुमारा मत पीसें निकला सि होता हे, इस वास्ते श्री विरात् ६० वर्ष पी दिगंबर मतोत्पत्ति, इस वाक्यसें श्वेतांबरोका कथन सत्य मालुम होता है, और अधुनक मतवाले लुंपक,
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२१६ ढुंढक, तेरापंथी वगेरे मतोंवालोंसेंनी हम मित्रतासे विनती करते हैके, तुमन्नी जराश्न लेखोंकों बांचके बिचार करोके श्री महावीरजीकी प्रतिमा के ऊपर जो राजा वासुदेवका संवत् ए अग. नवेका लिखा हुआहै, और एक श्री महावीरजी की प्रतिमाकी पलांग ऊपर राजा विक्रमसें पहिले हो गए किसी राजेका संवत् विसका लिखा हुआहै, और इन प्रतिमाके वनवनेवाले श्रावक श्राविकांके नाम लिखे हूएहै, और दश पूर्वधारी आचार्योंके समयके आचार्योके नाम लखे हूएहै। जिनोंने इन प्रतिमाको प्रतिष्टा करी है; तो फेर तुम लोक शास्त्रांके अर्थ तो जिनप्रतिमाके अधि कारमें स्वकल्पनासें जूठे करके जिन प्रतिमाकी नबापना करतेहो, परंतु यह शिला लेख तो तु. मारेसें कदापि जूठे नही कहे जाएंगे, क्योंके इन शिला लेखोंकों सर्व यूरोपीयन अंग्रेज सर्व विधानोने सत्य करके मानेहै, इस वास्ते मानुष्य जन्म फेर पाना पुर्खनहै, और थोमे दिनकी जिं दगीहै, इस वास्ते पक्षपात बोमके तुम सच्चा धर्म
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२१७ तप गलादि गोंका मानो, और स्वकपोल क. ल्पित बावीस २२ टोलेका पंथ और तेरापंथीयों का मत बगेम देवो, यह हित शिक्षा मैं आपकों अपने प्रिय बंधव मानके लिखीहै ।
प्र. १५७-हमारे सुनने में ऐसा आयाहैकि जैनमतमें जो प्रमाण अंगुल (नरत चक्रीका अंगुल) सो नत्सेधांगुल (महावीरस्वामिका आधाअंगुल) से चारसौ गुणा अधिकहै, इस वास्ते नत्सेधांगुलके योजनसें प्रमाणांगुलका योजन चारसौ गुणा अधिकहै, ऐसे प्रमाण योजनसे श षन्नदेवकी विनोता नगरी लांबी बारां योजन और चौमी नव योजन प्रमाणथी जब इन योजनाके नत्सेज्ञांगुलके प्रमाणसे कोस करीये, तब १५००० चौद हजार चारसो कोस विनीता चौडो और १५२०० कोस लंबी सिाह होतोहै, जब एक नग री विनिता इतनी बमी सिह हू, तबतो अमेरि का, अफरीका, रूस, चीन, हिंदुस्थान प्रमुख सर्व देशोंमें एकही नगरी हूर, और कितनेक तो चारसौ गुणेसेंनी संतोष नही पातेहै, तो एक हजार
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२१७ गुणा नत्सेध योजनसे प्रमाण योजन मानते है, तब तो विनीता ३६००० हजार कोस चौमी और UG000 हजार कोस लांबी सिाह होती है, इस कालके लोकतो इस कथनको एक मोटी गप्प स मान समझेंगे, इस वास्ते आपसे यह प्रश्न पूबते है कि जैनमतके शास्त्र मुजब आप कितना बमा प्रमाण अंगुलका योजन मानतेहो ?
न. जैनमतके शास्त्र प्रमाणे तो विनोता नगरी और दारकांका मापा और सर्व होप, समुझ, नरक, विमान. पर्वत प्रमुखका मापा जिस प्रमाण योजनसें कहाहै सो प्रमाण योजन नुत्सेधांगुलके योजनसे दश गुणा और श्री महावी रस्वामोके हाथ प्रमाणसे दो हजार धनुषके एक कोस समान (श्री महावीरस्वामीके मापेसें सवा योजन) पांच कोस जो क्षेत्र होवे सो प्रमाण यो जन एक होताहै, ऐसे प्रमाण योजनसे पूर्वोक्त विनीता जंबू घोपादिका मापाहै, इस हिसाबसे विनीता धारकांदि नगरीयां श्री महावीरके प्रमा के कोसोंसें चौमीयां ए पैतालीस कोस और
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लंबीयां साठकोस प्रमाण सिह होतीयां है इतनी बमी नगरीको कोश्नी बुद्धिमान् गप्प नही कह सकताहै, क्योंकि पीले कालमें कनोज नगरोमें ३०००० तीस हजार उकानो तो पान वेचनेवालों की थी, ऐसे इतिहास लिखनेवाले लिखतेहै तो, सो नगर बहुत बमा होना चाहिये. अन्यन्नी इस कालमें पैकिन नंदन प्रमुख बमे बमे नगर सुने जातेहै, ..ो चौथे तीसरे आरके नगर इनसे अ. धिक बमे होवे तो क्या आश्चर्य है, और जो चारसौ गुणा तस्या एक हजार गुणा नत्सेधांगुलके योजनसें प्रमाणांगुलका योजन मानते है, वैशा स्त्रके मतसें नही है, जो श्री अनुयोगद्वार सूत्रके मूल पाठ में ऐसा पाठ है, नत्सेधांगुलसें सहस्सगुणं प्रमाणं गुलंनवति इस पाठका यह अभिप्राय है कि एक प्रमाणांगुल नत्सेधांगुलसें चारसौ गुणीतो लांबी है, और अढाइ नत्सेधांगुल प्रमाण चौमो है, और एक नत्सेधांगुल प्रमाण जामी [मोटी] है, इस प्रमाण अंगुलके जब नत्सेधांगुल प्रमाण सूची करोये तब प्रमाणांगुलके तीन
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टुकमे करीये, तब एक टुकमा एक नत्सेघांगुल प्रमाण चौका और एक नत्सेधांगुल प्रमाण जामा (मोटा) और चार सौ नत्सेघांगुलका लंबा होता है, ऐसाही दूसरा टुकका होता है, और तीसरा टुकमा एक नत्सेवांगुल प्रमाण चौमा और इतनाही जामा (मोटा ) और दोसो उत्सेधांगुल प्र मारा लंबा होता है, अब इन तीनों टुकमोंकों क मसें जोमोये तब एक नत्सेघांगुल प्रमाण चोमो और एक नत्सेधांगुल प्रमाण जामी (मोटी ) और एक हजार नत्सेधांगुल प्रमास लांबी सूची होती है, अनुयोगद्वार में जो मूल पाठ हजार गुणी कहता है, सो इस पूर्वोक्त सूचीकी अपेक्षा से कहता हैं, परंतु प्रमाणांगुलका स्वरूप नही है, प्रमाणां जैसी ऊपर चारसौ गुण लिख आए है तैसी है, इस चारसौ गुणी प्रमाणांगुल से रुषनदेव भरत की अवगाहनादिका मापाहै, परंतु विनीता, द्वारकां, पृथ्वी, पर्वत, विमान, छोप, सागरोंका मापा हजार गुणी वा चारसौ गुणी अंगुलसें नही है, इन नगगे छोपादिकका मापा तो प्रमाणांगुल
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२२१ अढाइ नत्सेंधांगुल प्रमाण चौमी है, तिससे मापा करा है, यह जैनमतके सिहांतकारोका मत है, परंतु चारसौ तथा एक हजार गुणी नत्सेधांगुल से विनीता, हारकां, द्वीप, सागर, विमान, पर्वतोका मापा करनां यह जेन सिहांत का मत नही हे, यह कथन जिनदास गणि दमाश्रमणजो श्री अनुयोगद्वारकी चूर्मि में लिखते है, तथा च चूर्मिका पाठः जेअपमाणंगुलानपुढवायपमाणापिङति तेअपमाणंगुलविकंनेणाणेयवानपुण सूर अंगुलेणंतिएयंचविवत्तगुणएणकेश्एअस्सजंपु रामिणंतिअन्नेनसूअंगुलमाणेगनसुत्तन्नणियंतं॥ इस पाठको नाषा ॥ जिस प्रमाणांगुलसें पृथ्वी, पर्वत, दीपादिका प्रमाण करीये है सो प्रमाणांगु लका जो विस्कंन (चौमापणा) अढाइ नत्सेध आं गुल प्रमाणसे करना, परंतु सूची आंगुलसें पृथ्वी आदिकका प्रमाण न करना, और कितनेक ऐसें कहते है कि एक प्रमाणांगुलमें एक हजार नत्सेधां गुल मावे, ऐसे प्रमाणांगुलसें मापनां, और अन्य आचार्य ऐसें कहता है कि नत्सेधांगुलसें चारसौ
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गुणी ऐसें प्रमाणांगुलसें पृथ्वी आदिकका मापा करना, अब चूर्मिकार कहता है कि ये दोनों मत हजार गुणो अंगुल और चारसौ गुणी अंगुलके मापेसें पृथ्वी आदिकके मापनेके मत, सूत्र न. णित नही (सिशंत सम्मत नही) है, और अंगुल सत्तरी प्रकरणके कर्ता श्री मुनिचंद सूरिजी (जो के विक्रम संवत् ११६१ मे विद्यमान थे) श्न पूवोक्त दोनो मतोंकों दषण देतेहै तथाच तत्पाठः॥ किंचमयेसुदोसुविमगहंगकलिंगमा आसव्वेपायेणारियदेसाएगंमियजोयणेहुंति ॥ १६॥ गाथा ॥ इसकी व्याख्या ॥ जेकर ऐसें मानीयेके एक प्र. माण अंगुलमें एक सहस्त्र नत्सेधांगुल अथवा चा रसौ नत्सेधांगुल मावे, ऐसे योजनोंसे पृथ्वी आ दिक मापीए, तबतो प्रायें मगधदेश, अंगदेश, कलिंगदेशादि सर्व आर्य देश एकही योजनमें मा जावेंगे, इस वास्ते दशगुणें नत्सेधांगुलके विकंनंपणेसें मापना सत्य है, इस चर्चासें अधिक पांचसौ धनुषकी आवगाहना वाले लोक इस गे टेसें प्रमाणवासी नगरीमें क्योंकर मावेंगे, और
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२२३ द्वारकांके करोड़ों घर कैसें मावेंगे, और चक्रवर्ती के गनवे ए६ करोम गाम इस गेटेसे नरतखंझमें क्योंकर वसेंगे, इनके नत्तर अंगुलसत्तरीमें बहुत अहीतरेंसें दीने है, सो अंगुलसत्तरी वांचके देखनां, चिंता पूर्वोक्त नही करनी, यह मेरा इस प्र. भोत्तरका लेख बुद्धिमानोंकों तो संतोषकारक होवेगा, और असत् रूढोके माननेवालोंकों अञ्चना जनक होवेगा, इसी तरे अन्यत्नो जैनमतको कितनीक वाते असतरूढीसें शास्त्रसे जो विरूइ है, सो मान ररको है, तिनदा स्वरूप इहां नही लिखते है.
प्र. १५ए-गुरु कितगे प्रकारके किस किस की नपमा समान और रूप १ नपदेश २ क्रिया ३ कैसी और कैसेके पासों धर्मोपदेश नही सुननां. और किस पासों सुनना चाहिये.
न.-इस प्रश्नका उत्तर संपूर्म नीचे मुजब समझ लेनां.
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___ २२४
एक गुरु चास (नीलचास) पदी
समान है. १ जैसें चाप पक्षीमें रूप है, पांच वर्म सुंदर होनेसें और शकुनमेंनी देखने लायक है १ परंतु नपदेश ( वचन) सुंदर नही है, २ कीमे आदिके खानेसे क्रिया (चाल) अछी नही है ३ तैसेही कि तनेक गुरु नामधारीयोमें रूप (वेष) तो सुविहित साधुका है १ परं अशुः (नत्सूत्र) प्ररूपनेसें नपदे श शुः नही, और क्रिया मूलोत्तर गुण रूप नही है, प्रमादस निरवद्याहारादि नही गवेषण करते है ३ यक्तं ॥ दगपाणंपुप्फफलंअणेसणिऊं गिहबकि चाईअजयापमिसेवंतिजश्वेसविमंबगानरं ॥१॥ इत्यादि । अस्यार्थः ॥ सञ्चित्त पाणी, फूल, फल, अनेषणीय आहार गृहस्थके कर्त्तव्य जिवहिंसा १ असत्य र चोरी ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ रात्रिनोज न स्नानादि असंयमी प्रति सेवतेहै, वेनी गृहस्थ तुल्यहो है, परंतु यतिके वेषकी विटंबना करनेसें इस वातसे अधिक है, ऐसे तो संप्रति कालमे खम आरेके प्रनावसें बहूत है, परंतु तिनके
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२३५ माम नही लिखते है, अतीत कालमेंतो ऐसे कु. लवालकादिकोंके दृष्टांत जान लेने, कुलवालकमें सुविहित यतिका वेषतो था. १ परं मागधिका ग णिकाके साथ मैथुन करने में आशक्त था, इस वास्ते अहो क्रिया नहोथी और विशाला नंगादि महा आरंनादिका प्रवर्तक होनेसे नपदेशनी शुरुनही था, सामान्य साधु होनेसे वा नपदेशका तिसकों अधिकार नही था, ३ ऐसेही महाव्रतादि रहित १ नत्सूत्र प्ररूपक (गुरु कुलवास त्यागो) सो कदापि शुइ मार्ग नही प्ररूप शक्ताहै २ निकेवल यति वेषधारक है ३ इति प्रथमो गुरु नेद स्वरु प कथनं ॥१॥ दूसरा गुरु कोंच पदी समान है. २
कोंचपक्षीमें सुंदर रूप नही है, देखने योग्य वर्णादिके अन्नावसे १ क्रियानी अहो नही, कीमे आदिकोंके नदण करनेसें २ केवल उपदेश (म धुर ध्वनि रूप ) है ३ ऐसेही कितनेक गुरुयों में रूप नही. चारित्रिये साधु समान वेषके अन्नाव से १ सत क्रियानी नही, महाव्रत रहित और
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५२६ प्रमादके सेवनेसे ३ परंतु नपदेश शु मार्ग प्ररू पण रूप है ३ प्रमादमें पके और परिव्राजकके वेषधारी झपन्न तीर्थंकरके पोते मरीच्यादिवत् अथवा पासबे आदिवत् क्योंकि पासबेमें साधु समान क्रिया तो नहीं है १ और प्रायें सुबिहित साधु समान वेषनी नही, यमुक्तं ॥ वबंदुपमिले हियमपाणसकन्निकूलाई इत्यादि।अर्थः-वस्त्र उप्रति लेखित प्रमाण रहित सदशक पछेवमी र खनेसें सुविहितका वेष नही परं शुद्ध प्ररूपक है, एक यथादेकों वर्जके पासबा १ अवसन्ना २ कुशील ३ संसक्त ४ ये चारों शुः प्ररूपक होस क्तेहै, परंतु दिन प्रतिदश जणोका प्रतिबोधक नं. दिषेसरीषे इस नांगेमें न जानने, क्योंके नं. दिषेणके श्रावकका लिंग था ॥ इति उसरा गुरु स्वरूप नेद ॥॥
तीसरा गुरु मरे समान है. ३ उमरमें सुंदर रुप नही, कश्न वर्म होनेसे १ नपदेश (तिसका नदात्त मधुर स्वर) नहीं है । केवल क्रियाहै नत्तम फूलोंमेंसें फूलोंकों विना मुख देनेसे तिनका परिमल पीनेसे ३ तैसेही कितनेक
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२५७ गुरु यतिके वेषवालेनी नहीहै । और उपदेशक नी नही है । परंतु क्रिया है, जैसे प्रत्येक बुझा दिकोंमे प्रत्येकबुछ, स्वयंबुद्ध तीर्थकरादि यद्यपि साधुतो है, परंतु तीर्थगत साधुयोंके साथ प्रवच न १ लिंगसे २ साधर्मिक नहीं है, इस वास्ते यति वेष नी नही,१ उपदेशक नी नही ५ "देशनाऽना सेवकः प्रत्येकबुझदि रित्यागमात्" क्रियातो है, क्योंकि तिस नवसेंही मोद फल होनाहै ॥ इति तृतियो गुरु स्वरूप नेद ॥३॥
चौथा अरु मोर समान है. ४
जैसे मोरम रूपतो है पंच वर्ण मनोहर १ और शब्द मधुर केकारूप है । परं किया नही है, सादिकोंकोजो नकरा कर जाता है, निर्दय होनेसे ३ तैसें गुरुयों कितनेकमें वेष १ उपदेशतो है परंतु सक्रिया नही है, ३ मंग्वाचार्यवत् ॥ इति चोथा गुरु स्वरूप नेद ॥४॥ पांचमा गुरु कोकोला समान है. ५
कोकिलामें सुंदर उपदेश (शब्द) तो है, पं चम स्वर गानेसें १ और किया आंबकी मांजरा.
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१२०
दि शुचि आहारके खाने रूपहै. तथा चाहुः॥श्रा हारे शुचिता, स्वरे मधुरता, नोमे निरारंजता । बंधी निर्ममता, वने रसिकता, वाचालता माधवे॥ त्यत्का तधिज कोकील, मुनिवरं दूरात्पुनःनिकं। वंदते वत खंजनं, कृमि नुजं चित्रा गतिः कर्म णां ॥१॥ परंतु रूप नही काकादिसेंनी हीनरूप होनेसे ३ तैसेंहो कितनेक गुरुयोंमें सम्यक् क्रिया १नपदेश २ तोहै, परंतु रूप (साधुका वेष) किसी हेतुसे नहीं है, सरस्वतीके बुमाने वास्ते यति वेष त्यागि कालिकाचार्य वत् ॥ भसि पांचमा गुरु स्वरूप नेद ॥ ५॥
बहा गुरु हंस समान है. ६ ___ हंसमे रूप प्रसिद्ध है १ क्रिया कमल नाला दि आहार करनेसे अछोहै २ परंतु हंसमे उपदेश (मधुर स्वर) पिक शुकादिवत् नही है ३ तैसें ही कितने एक गुरुयोंमें साधुका वेष १ सम्यक् कि यातो है ३ परंतु उपदेश नही, गुरुने नपदेश करनेकी आज्ञा नही दोनी है, अनधिकारी होनेसें धन्यशालिनशदि महा कृषियोंवत् ॥ इति बन
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२१०
गुरु स्वरूप ने
॥६॥
सातमा गुरु पोपट तोते समान है. 9
तोता इहां बहुविध शास्त्र सूक्त कथादि परिज्ञान प्रागल्भ्यवान् ग्रहण करनां. तोता रूप करके रमणीय है १ क्रिया आंब कदली दामि फ लादि शुचि आहार करता है. इस वास्ते ही है. २ उपदेश वचन मधुरादि तोतेका प्रसिद्ध है ३ तैसें कितनेक गुरु वेष १ उपदेश २ सम्यक क्रिया. ३ तीनों करके संयुक्त है, श्रीजंबु श्रीवज्रस्वाम्या दिवत् इति सातमा गुरु स्वरूप भेद ||७|| आठमा गुरु काक समान है.
जैसे काक में रूप सुंदर नही है १, उपदेशजी नहो, करुया शब्द बोलनेसें २ क्रियानो अही नही है, रोगी, बूढे बलदादिकोंके प्रांख कढ लेनी, चूंच रगमनी और जानवरोंका रुधिर मांस, म लादि प्रशुचि आदारि दोनेसें ३ ऐसँही कितनेक गुरुयोंमे रूप१ उपदेश २ क्रिया ३ तीनोदी नही है, अशुद्ध प्ररूपक संयम रहित पास आदि जा नने, सर्व परतीर्थीकनी इसी जंगमे जानने ॥
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२३० इति आठमा गुरु स्वरूप नेद ॥ ७ ॥ इनमेसें उपदेश सुनने योग्यायोग्य
कौन है. इन आगेही नांगोमें जो नंग क्रिया रहित (संयमरहित) है वे सर्व त्यागने योग्य है, और जो नंग सम्यक् क्रिया सहित है वे आदरने योग्य है, परंतु तिनमें नो जो उपदेश विकल नंगहै वे स्वतारकन्नी है, तोनी परकों नही तारसक्ते है, और जे नंग अशुःोपदेशक है. वेतो अपनेकों और श्रोताको संसार समुश्में मबोनेही वाले है, इस वास्ते सर्वथा त्यागने योग्य है, और शुद्धोप देशक, क्रियावान पद कोकिलाके दृष्टांत सूचित अंगीकार करने योग्य है, त्रीक योगवाला पद तोतेके दृष्टांत सूचित सर्वसें नत्तमहै । और शुभ प्ररूपक पासबादि चारोंके पास नपदेश सुनना नी शुइ गुरुके अन्नावसे अपवादमें सम्मत है.
प्र. १६०-इस जगतमें धर्म कितने प्रकारके और कैसी उपमासें जानने चाहिये.
न. इस प्रश्रोत्तरका स्वरूप नीचे लिखे
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२३१
यंत्रसें जानना धर्म पांच प्रकारका है. एक धर्म कं- इस वन समान नास्तिक मतियोंथे। वन सका माना हुआ धर्म है, सर्वथा श्रो. मानहै, जैसे मासान्नी शुन्न फल नही देता है, कंधेरी वननि और परनवमें नरकादि गतियोंमे ष्फल है. सीख अनर्थकों देता है, और इस लो प्रकारसे केव कमें लोक निंदा! धिक्कार नृप दंमाल कांटो क-दिके नयसे इस कुकर्मी नास्तिक मरके व्याप्त होतमें प्रवेश करना मुशकल है. और नेसें लोकांकों जो इस मतमें प्रवेश कर गये है, ति विदारणादि नकों स्व श्वानुसार मद्य मांसादिन अनर्थ जन-कण मात, बहिन. बेटीको अपेक्षा क होता है,रहित स्त्रीयोंसे नोगादि विषयके सु.
और तिस व-स्वादके सुखको लंपटतासें तिस नानमे प्रवेश निस्तिक मतमेसे निकलनानी मुशकल र्गमननी 5-हे, इस वास्ते यह धर्म सर्वथा सुझकर है॥१॥ जनोको त्यागने योग्यहै, इस मतमें
धर्मके लक्षणतो नही है, परंतु तिसके माननेवाले लोकोने धर्म मान रस्का
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२३२ है, इस वास्ते इसका नामन्त्री धर्मही
लिखाहै ॥ इति प्रश्रम धर्म नेद॥१॥ एकधर्मशमी इस वन समान बौका धर्म है, खेजमो वंबू क्योंकि ब्रह्मचर्यादि कितनीक सत् व कीकर ख/क्रिया और ध्यान योगाभ्यासादिकके दिर वेरी करी करनेसे मरां पी व्यंतर देवताकी ग. रादि करके तिमे नत्पन्न होनेसे कुबक शुन्न सुख मिश्रित वनारूप फल नोगमें देताहै, तथा चोक्तं समानहै यह बौः शास्त्रे ॥ मृदीशय्या प्रातरुवाय वन विशिष्टपेया॥ नक्तं मध्ये पानकंचा परान्हे ॥ शुन्न फल नदादा पाणं शकराच ईरात्रौ ॥ मोकही देता है श्वांत शाक्य पुत्रेण दृष्टः ॥१॥ मणुन किंतु सांगरोलोयणं, नुच्चा मणुनं, सयणासणं म वव्वूल फला-गुन, सिगारंसि मणुनं, कायए दि सामान्य मुणी ॥॥ इत्यादि॥ बौइ मतके शा नोरस फल देत्रानुसारे अपने शरीरको पुष्ट करना, तेहै, सांगरो मनके अनुकूल आहार, शय्यादिकके पक्को शुष्क नोगसें और बोइनिङके पात्रमें कोई हुइ हो कि-मांस दे देवे तो तिसकोनो खा लेनां,
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चित् प्रअमास्नानाविकके करनेसे पांचो इंडियोंके खाते हुए मो पोषनरूप और तप न करनेसे आ. ठी लगती है दिमें तो मीग (अला) लगता है, प. परंतु कंटकारंतु नवांतरमें दुर्गति आदिक अनर्थ कोर्म होनेसे कल नत्पन्न करताहै, इस वास्ते यह विदारणादि धर्मन्नी त्यागने योग्य है।। इति दूसअनर्थका हेतु रा धर्म नेद ॥२॥ हौवेहै ॥२॥ एक धर्म पर्व इस वन समान तापस ! नैयायिक, तके वनतथा वैशेषिक, जैमनीय, सांख्य, वैश्नवा जंगली वनादि आश्रित सर्व लौकिक धर्म और समानहै,इस चरक परिव्राजक इनके विचित्रपणे. वनमें थोहर,से विचित्र प्रकारका फलहै सो दि कंधेरो, कुमाखातेहै, कितनेक वेदोक्त महा यज्ञ, र प्रमुखके फापशुवध रूप स्नान होमादि करके धर्म ल देनेवाले समानतेहै, वे कंधेरो वनवत् है. परन्नकहै और कं-वमें अनर्थरूप जिनका प्राये फल हो टकादिसें वि-वेगा. और कितनेक तो तुरमणोश दारण करणेदत्तराजाको तरे निकेवल नरकादि
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२६४ से अनर्थके-फल वाले होते है । तथाचोक्तं आर.
नी जनकदेण्यके ॥ येवैश्हयथा श् यज्ञेषुपशुन्विश १और कित-संतितेतथा २ इत्यादि ॥ तथाशुकसं. नेक धव स-वादे॥ यूपं ठित्त्वा, पशून हत्वा, कृत्वा लकोके सुप रुधिर कई मं, यद्येवं गम्यते स्वर्गे, नरलाश पनस के केन गम्यतेः॥१॥ स्कंधपुराणे ॥ सीसमादि वारदां बित्वा, पशून् हत्वा, कृत्वा रु कहै,इनके फाधिर कर्दमं, दग्ध्वा वन्हौ तिलाज्यादि, लतो निःसा चित्रं स्वयोनिलष्यते ॥१॥ कितनेक रहै, परंतु विअपात्रको अशुद्ध दान गायत्र्यादिके शिष्ट अनर्थ जापादि धव पलाशादिवत् प्राय फल जनक नहीहैदेनेवालेनो सामग्री विशेष मिले किं २ और कितचित् फलजनक है, परं अनर्थ जनक नेक वेरी खे-नही, विवक्षितहै, इस स्थल में प्रतिदिन जमो खयरा-लद दान देनेवाला मरके हाथी हुए दि निःसार सेववत्, तथा दानशालादि करानेवाले अशुन्नफलदेतेनंदमणिकारवत् और सेचनक हाथीके हैकंटकोंसेवि जीव लद नोजी ब्राह्मणवत् दृष्टांत दारणादि अजानने ॥॥ कितनेक तो सावद्य (स
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२३५ निष्टके जन-पाप) अनुष्टान, तप, नियम दानादि कन्नीहोतेहै। अन्यायसे व्योपार्जन करी कुपात्रदा और कितने-नादि वेरो खेजमीवत् किंचित् राज्या क किंपाका-दि असार शुन्न फल उर्खन बोधिपदि का हीन जातित्व परिणाम विरसादि मुख मीठे प-अनर्थन। देवेहै, कौणिक पिबले न. रिणाम नवमें तपस्वीवत् और जैनमति नाम राम लामिथ्यादृष्टो सुसढादि देव गतिमें गए देवानमिबहुल संसारी हूए, वे जो मिथ्या ननेकन तप करनेमें तत्पर हुए होए,श्सी नंगमें
जानने ॥३॥ कितनेक किंपाकादिको
तर असत् आग्रह देव गुरुके प्रत्यनीनिःसारशुन
कादि नाव वाले तथाविध तपोनुष्टा
शुल नादि करके एकवार स्वर्गादि फल देके फसवाल कनबहल संसार तिर्यच नरकादिके उख टकादिक अ-देनेवाले होतेहै, गौशालक, जमालि नावसे अन-आदिवत् ॥॥ तथा कितनेक नश्ता र्थ जनकनही व विशेष पात्र गुणादि परिज्ञान रहि है। कितनेकात दान पूजादि मिथ्यात्वके रागसें नारिंग, जंबी करतेहै, वे उंबरादिवत् किंचित् राज्य
व्वा
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२२६
र, करस्मादि | मनुष्य के जोग समय्यादि असार शुन मध्यम फला फल ही देते है, दूसरेके नपरोधसें दान के वृक्ष है, परं देनेवाले सुंदर वालीयेकीतरें जैनधर्मा तु अनर्थ ज-श्रित जी निदान सहीत प्रविधिसें नक नहीं है ६ तप अनुष्टान दानादि करनेवाले जी कितनेक रा- इसी जंग में जान लेने, चंड, सूर्य वहु यण ( खिर-पुत्रिकादिके दृष्टां । जान लेने ॥ ५ ॥ सी) प्रांब, कितनेक तापसादिधर्मी बहुत पाप र प्रियंगु प्रमु· हित तपोनुष्टान कंदमूल फलादि सख सरस शु-चित्त जोजन करनेवाले अल्प तपवाले न पुष्प फल नारंग, जंबीर, करणादि तरुवत् ज्यो वाले है, ये तिषि नवनपत्यादि बि मध्यम देवर्द्धि सर्व मालकी फलदायी है. श्री वीर पिबले नवों में रहित जानने परिव्राजक पूर्ण तापसवत् तथा जैन 9 ऐसें तार-मति सरोस गोरव प्रमाद संयमीश्रा तम्यतासें यदि मंसुकी वध करनेवाले रूपक मुनि घम, मध्यम, मंगु आचार्यादिवत् ॥ ६ ॥ कितनेक उत्तम वृक्षों- तामलि कृषिको तरें नम्र तप करनेकी विचित्र वाले चरक परिव्राजकादि धर्मवाले
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तासे पर्वतके प्रांबादि वृक्रवत् ब्रह्मदेवलोकावधि वनोंकी नी सुख फल देते है ॥७॥ ये सर्व पर्वतके विचित्रताजा वन समान कथन करे, परंतु सम्यम् ननी ॥३॥ दृष्टोको ये सर्व त्यागने योग्यहै ॥
इति तोसरा धर्म नेद ॥३॥ एक धर्म न इस वन समान श्रा (श्रावक) धर्म पवन समानासम्यक्त्वे पूर्वक बारांव्रताकी अपेक्षा श्रावक धर्महैतेरासौकरोम अधिक नेद होनेसे वि. राजके वनचित्र प्रकारका सम्यग् गुरु समीपे अंअंब, जंबू रा-गोकार करनेसे परिगृहीतहै, अज्ञान जादनादि जामए लोकिक धर्मसें अधिकहै, और अ घन्य वृक्ष हैतिचार विषय कषायादि चौर श्वापकेला, नालो दादिकोंसे सुरक्षितहै, और गुरु नपकेर सोपारी देश आगमाभ्यासादि करके सदा सुआदिमध्यम सिंच्य मानहै, सौ धर्म देवलोकके माधवी लता सुख जघन्य फल है, सुलन्नबोधि हो तमाल एला, नेसे और निश्चित जलदी सिहि सुलवंग चंदनाखांके देनेवाले होनेसें और मिथ्यागुरुतगरा दयात्वीके सुखांसें बहुत सुन्नग आनंदा
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२३० नत्तम चंपकदि श्रावकोंकी तरें देतेहै, और कुत्कराज चंपकर्षसे तो जीर्ण सेहादिकी तरें बारमे जाति पाढ-अच्युत देवलोकके सुख देतेहै। इस लादि फूल तवास्ते बारांव्रत रूप श्राइ (श्रावक) रु विचित्र है, धर्म यत्नसे अंगीकार गृहस्थ लोकोने ये सर्व गिरि करना, और अधिक अधिक शुभनावनके वृकोसेवोंसें पालनां आराधनां चाहिये । सींचे, पाले ति चौथा धर्म नेद ॥ ४ ॥ हुए होनेसें अ धिक फल, प
त्र पुष्पवाले
है, सदा सरस बहु मोले फलादि देते है ॥४॥
एक धर्म दे इस वन समान चारित्र धर्मनी पु. वताके वनसलाक बकुश कुशील निर्मथ स्नातका मान साधु धदि विचित्र नेदमय है, विराधक श्राम है. देवता-वक साधुयोंका धर्म तोसरे मिथ्यात्व के वनमें देवधर्ममें ग्रह करनेसे इस धर्ममें अवि
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२३॥ तायोंकी तारराधक यति धर्मवाले जानने, तिनकों ताम्यतासे शाजघन्य सौधर्म देवलोकके सुखरूप फ दि मानोके लहै. आराधिक श्रावक धर्मवालेसें अ क्रीमाकरनेके धिक और बारा कल्प देवलोक, नव नंदन वनादिवेयकादि मध्यम सुख और नत्कमेंनी राजा-टतो अनुत्तर विमानके सुख संसारिके वनवत् जक और संसारातीत मोक्ष फल देतेहै, घन्य,मध्यम,इस वास्ते ते यह धर्म सर्व शक्तिसे उत्तमवृत हो उत्तरोत्तर अधिक अधिक आराधना तेहै,सर्व शतु चाहिये, यह सर्व धर्मासें नत्तम धर्महै, के फलवान यह कथन नपदेश रत्नाकरसे किंचित् वृदोंके होने-लिखाहै ॥ से और देवताके प्रत्नावसे सर्व रोग विषादि दूर करे. मनचिं तित रूप करण जरा प.
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लित नाशक इत्यादि बहु प्रनाववाली उषधीयां पत्र फलादिकरके संयुक्तहै, पिबले सर्व व. नोस यह प्रधान वन है। इति पाचमा धर्म नेद ॥५॥
प्र. १६१-जो जैनमतमें राजे जैनधर्मी होते होवेंगे, वे जैनधर्म क्योंकर पाल सक्ते होवें. गे, क्योंकि जैनधर्म राज्यधर्मका विरोधी हमकों मालुम होताहै.
न-गृहस्थावस्थाका जैनधर्म राज्यधर्म (रा ज्यनीति) का विरोधी नही है. क्योंकि राज्यधर्म चौर यार खूनी असत्यनाषो प्रमुखाको कायदे मू जब दंग देनाहै. इस राज्यनीतिका जैनराजाके प्रथम स्थूल जीवहिंसा रूप व्रतका विरोध नही है, क्योंकि प्रथम व्रतमें निरपराधिकों नही मा
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२४१ रना ऐसा त्याम है, और चौर यार खूनी असत्य नापी आदिक अन्याय करनेवालेतो राजाके अ. पराधी है, इस वास्ले तिनके यथार्थ दंग देनेसें जैन धर्मी राजाका प्रथम व्रत जंग नहीं होताहै, इसी तरे अपने अपराधि राजाके साथ लमा करनेसे नी व्रत जंग नहीं होताहै. चेटक महाराज संप्र ति कुमारपालादिवत्, और जैनधर्मी राजे बारांबतरूप गृहस्थका धर्म बहुत अली तरेसे पालते थे, जैसे राजा कुमारपालने पाले.
म. १६२-कुमारपाल राजाने बारांव्रत किस तरेंके करे, और पाखे थे.
न.-श्री कुमारपाल राजाके श्री सम्यक्त मूल बारांव्रत पालनके थे॥ त्रिकाल जिन पूजा. १ अष्टमी चतुर्दशीमें पोषधोपवासके पारणेमें जो देखने में कोई पुरुष आया तिसको यथार्थ वृत्ति दान देकर संतोष करना और जो कुमारपालके साथ पोषध करते थे तिनको अपने आवासमें पारणा करानां ३ टूटे हुए साधर्मिकका नक्षर क रनां, एक हजार दोनार देना । एक वर्ष में साध
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मियोको एक करोम दीनार देने, ऐसें चौदह वर्ष में चौदह करोम दोनार दोने ५ अगनवे लाख ए७ रूपक नचित दान में दीने, बहत्तर ७२ लक्ष रूपक व्यके पत्र निसंतान रोनेवालीके फामे ७ इक्कीस २१ कोश (ज्ञाननंडार) लिखवाए - नित्य प्रतें श्री त्रिनुवनपाल विहार (जो कुमारपालने गन वे ए६ करोम रूपकके खरचसे जिन मंदिर बनवाया था) तिसमें स्नात्रोत्सव करना ए श्री हेमचंसूरिके चरणोंमे द्वादशावर्त वंदन करना १० पीने क्रमसे सर्व साधुयोको वंदन करनां ११ जिस श्रावकने पहिला पोषधादि व्रत करे होवे तिसको वंदन, मान, दानादि करनां १२ अगरह देशोमे अमारीपटह कराया १३ न्याय घंटा बजानां १४ और अगरह देशोके सिवाय अन्य चौदह देशोमें धनबलसें मैत्रीबलसें जीव रक्षाका कराना१५ चौदहसौ चौतालोस १५४४ नवोन जिन मंदिर बनवाए १६ सोलेसौ १६०० जीर्ण जिन मंदिरोका नुहार कराया १७ सातवार तीर्थ यात्रा करी १७ ऐसे अम्यक्तकी आराधना करी ॥ पहिले व.
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२४३
तमे सपराधी विना मारो ऐसे शब्दके कहने से एक उपवास करनां १ दूसरे व्रतमे नूलसे जूठ बोला जावे तो प्राचाम्लादि तप करनां २ तीसरे व्रतमें निसंतान मरेका धन नही लेनां ३ चौथे व्रत में जैनी हुआ पीछे विवाह करणेका त्याग और चौमासेके चार मास त्रिधा शील पालनां, मनसें नंगे एक उपवास करनां, वचनसें नंगे एकाचाम्ल, काय से जंगे एकाशन. एक परनारी सहोदर बिरुद धरनां. नोपलदेवी आदि आठों राणोचोंके मरे पीछे प्रधानादिकों के आग्रहसेंनी विवाह करनां नही, ऐसा नियम जंग नही करा. आरात्रिकार्थ सोनेमय नोपलदेवीकी मूर्त्ति करवाई, श्री हेमचंश्सूरिजीए वासक्षेप पूर्वक राजर्षि बिरुद दीना ४ पांचमे वृतमें ब करोमका सोना, आठ करोमका रूपा, हजार तुला प्रमाण महर्घ्य मणिरत्न, बत्तीस हजारमण घृत, बत्तीस हजारम हम तेल, लक्षा शालि चने, जुवार, मूंग प्रमुख धान्योके मूंढक रस्के पांच लाख ५००००० अश्व, पांच हजार ५०००, हाथी, पांचसौ ५०० ऊंट, घर,
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१४४
हाट, सन्नायान पात्र गामे वाहिनीये सर्व अलग अलग पांचसो पांचसौ रक. ग्यारेसो हाथी११००, पंचास हजार ५०००० संग्रामी रथ, ग्यारे लाख ११००००० घोमे, अगरह लाख १001000 सुन्नट. ऐसें सर्व सैनका मेल रस्का. ५ उठे वृतमें वर्षाकालमें पट्टनके परिसरसे अधिक नही जाना ६ सातमें लोगोपनोग वृतमें मद्य, मांस, मधु, प्र कण, बहुबीज पंचोई बरफल, अन्नक, अनंतका य, घृत पूरादि नियम देवताके विना दीना वस्त्र, फल आहारादि नही लेनां. सचित्त वस्तुमें एक पानकी जाति तिसके बीमे पाठ, रात्रिमें चारों
आहारका त्याग. वर्षाकालमें एक घत विकृती लेनी, हरित शाक सर्वका त्याग. सदा एकाशनक करना, पर्वके दिन अब्रह्मचर्य सर्व सचित विगय. का त्याग ७ आठमें वृतमें सातों कुव्यसन अपने देशसे काढ देने, 5 नवमें तृतमें नन्नय काल सामायिक करना, तिसके करे हुए श्री हेमचंद्रसूरिके विना अन्य जनसे बोलनां नही. दिनप्रते १५ प्र. काश योग शास्त्रके २० वीस वीतराग स्तोत्रके प
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२४५ ढने ए. दशमें तृतमें चतुर्मासेमें शत्रू ऊपर चढाइ नही करनी १० पोषधोपवासमें रात्रिमें कायोत्स र्ग करना, पोषधके पारणे सर्व पोषध करनेवालों को नोजन करानां ११ अतिथी संविनाग वृतमें पुखिये साधर्मि श्रावक लोकांका, ७३ लह व्य का कर गेम्नां, श्री हेमचंऽसूरिके नत्तरनेकी धर्म शालामें जो मुखवस्त्रिकाका प्रतिलेखक साधर्मिकों ५०० पांचसौ घोमे और बारां मामका स्वामी करा, सर्व मुख वस्त्रिकाके प्रतिलेखकांकों. ५०० पांचसौ गाम दीने १२ इत्यादि अनेक प्रकारकी शुलकरणी विवेक शिरोमणि कुमारपाल राजाने करीयो, यह गुरु १ धर्म २ और कुमारपालके - ताके स्वरूप नपदेश रत्नाकरसे लिखे है,
प्र. १६३-इस हिंस्थानमें जिलने पंथ चम रहेहै, वे प्रथम पो किस क्रमसे हूएहै, जैसे प्रा बके जानने में होवे तैसें लिख दीजिये?
उ.-प्रश्रम झपन्नदेवसें जेंनधर्म चला? पीने सांख्यमत पो वैदिक कर्म कामका ३ पीने वे दांत मत ५ पोरे पातंजलि मत ए पी नैयायि
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२४६ क मत ६ पीछे बौड़मत ७ पीछे वैशेषिक मत G पीने शैव मत ए पोडे वामीयोंका मत १० पीछे रामानुज मत ११ पीछे मध्व १२ पीछे निंबार्क १३ पोडे कबीर मत १३ पीछे नानक मत १५ पीले वल्लन्न मत १६ पीने दाउमत १७ पीले रामानंदोयोंका मत १७ पीने स्वामिनारायणका मत १ए पी ब्रह्म समाज मत २० पी आर्या समाज मत दयानंद सरस्वतोने स्थापन करा.११ इस कथनमें जैनमतके शास्त्र १ वेदनाष्य २ दंत कथा ३ इतिहास के पुस्तकादिकोंका प्रमाण है ॥ इत्यलम् ॥ अहमदावादका वासी और पालणपुरमें न्यायाधीश राज्याधिकारी श्रावक गिरधरला ल होरालाइ कतकितनेक प्रश्न तिनके नुत्तर पा लिताणेंमें चार प्रकार महा संघके समुदायने आ चार्य पद दत्त नाम विजयानंद सूरि अपर प्रसिः नाम आत्माराम मुनि कृत समाप्त हुएहै । इन सर्व प्रश्नोत्तरों में जो वचन जिनागम विरुइ नूल में लिखा होवे तिसका मिथ्या :कृत देताहुं । सर्व सुइ जन भागमानुसार सुधारके लिख दोजो,
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२४७ और मेरे कहे नत्सूत्रका अपराध माफ करजो॥ इति प्रश्नोत्तरावलि नाम ग्रंथ समाप्तम्.
(अथ गुरु प्रशस्तिः )
(अनुष्टुप् वृत्तम्-) श्रीमदीर जिनेशस्य शिष्य रत्नेषु घुत्तमः सुधर्म इति नाम्नाऽनूत् पंचमः गणभृत् सुधीः १ अयमेव तपागन महाशेर्मूलमुच्चकैः शेषः पौरस्त्यपट्टस्य नूषणं वाग्वि नूषणं ५ परंपरायां तस्यासीत् शासनोत्तेजकः प्रधीः श्रीमद्विजयसिंहाव्हः कर्मः धर्म कर्मणि- ३ तस्य पट्टांबरे चंः विजयः सत्यपूर्वकः अभूत् श्रेष्ठ गुणग्रामैः संसेव्यः निखिले जनैः ४ पट्टे तदोयके श्रीमत् कर्पूर विजयानिवः आसोत् सुयशाः ज्ञान किया पात्रं सदोद्यमः ५ तत्पट्ट वंश मुक्तासु मणिरिवेप्सितप्रदः सिखंत हेमनिकषः क्षमा विजय इत्यनुत् ६ जिनोत्तम पद्म रूप कीर्ति कस्तूर पूर्वकाः विजयांता क्रमेणैते बभूवुर्बुझिसागराः ७
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१४न तस्य पट्टाकरे चिंता मणिरिचेप्सितप्रदः मणिविजय नामाऽभूत् घोरेण तपसाकशः ७ ततोऽनत् बुद्धि विजयः बुध्यष्टगुणगुम्फितः । प्रस्तुतस्या स्मदीयस्य गडवर्यस्य नायकः । चक्रे शिष्येण तस्येयं जैन प्रश्रोत्तराक्ली सद्युक्त्या श्रीमदानंद विजयेन सविस्तरा १० संवत् बाण युगांऽ के पोष मास्यऽसितदे त्रयोदश्यां तिश्री रम्ये वासरे मंगलात्मनि ११ पल्लवि पार्श्वनाथाऽधिष्टिते प्रल्हादनेपुरे स्थित्वाऽयं पूर्मतांनीतः ग्रंथः प्रश्रोत्तरात्मकः १२
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शुद्धि पत्र.
অথড
पानु लीटी. प्रस्तावना
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३८
प्रपेटे मिथात्वं वाचतो
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जेने
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मगट मिथ्यात्व बाबतो जेओ महत् छेवटे चाज आव्यो से
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222
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महृद छैटे बाज आच्यो छे एक हहीरोड आमानंद
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हेरीसरोड आत्मानंद
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प्रश्नोतर
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सत्तर
सित्तेर
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गोष्टी
गोष्टी सरा
करा स्वामोत्सामसे खासोवास
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पांच
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४
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५१ ११.
५६.
३.
५६
१७.
५७
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૮૨
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१५
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बने
प्रयाह
हो है
भक्षणक
पुस्हक
शावकों क
अवमी
मनुष्यम्
एकसौ
वजंत्रो
केबल
वलदेव
आर
स्याही
दुर्भिक्ष
देवगुप्त
करी है.
श्री कक्क
बने
प्रवाह
नहीं है
भक्षण करे
पुस्तक श्रावको को
१२०.
१२७
सूपर
१३१
पडते
१४१
धमन
१४६
मृढ़.
१६०
देशव्नती
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अबभी
मनुष्य में
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बाजींत्रो
केवल
बलदेव
और
सुवर
पढते
वमन
सूट
देशवती
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(३)
बंध
१६८
१९
जुगार
(स्यादक) नंदन प्रमाणं दषण आवगाहना प्रमादम शर्कराम
(स्यादवाद) लंडन प्रमाणां दूषण अवगाहना प्रमादमे शर्करामा
૨૨૨
२२४
२३२ ११
जन
जैन
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