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शीलांकाचार्य श्रीशेणसूरि प्रमुख आचार्य हुए है. तथा विद्याधरकुलमें १५४५ ग्रंथका कर्ता श्रीहरिनद्रसूरि प्रमुखाचार्य हुए है, तथा मैं इसग्रंथका लिखनेवाला चंकुलमें हुं; तथा पैंतीसमें पट्ट नपर श्रीदेवगुप्तसूरिजी हुए है. जिनोंके समीपेश्री देवर्किगणि हमाश्रमणजीने पूर्व र दो पढे थे, तथा श्री पार्श्वनाथजीके ४३ मे पट्ट ऊपर श्री क्वसूरि पंच प्रमाण ग्रंथके कर्ता हुएहै, सो ग्रंथ वि. द्यमानहै तथा ४४ मे पट्ट कपर श्रीदेवगुप्तसूरिजो विक्रमात् १७७२ वर्षे नवपद प्रकरणके करता हुए है, सोनी ग्रंथ विद्यमानहै; तथा श्रीमहावीरजीकी परंपराय वाले प्राचार्योंने अपने बनाए कितनेक ग्रंथोमें प्रगट लिखाहै कि, जो नपकेश गहै सो पट्ट परंपरायसें श्रोपार्श्वनाथ २३ तेवीसमें तीर्थकरसें अविछिन्न चला आताहै; जब जिन आचायाँकी प्रतिमा मंदिरकी प्रतिष्टा करी हुई और ग्रंथ रचे हुए विद्यमान है तो फेर तिनके होने में जो पुरुष शंसय करताहै तिसकों अपने पिता, पितामह, प्रपितामह प्रादिकी वंशपरंपरायमेनी
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