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प्र. ७५-श्री देवर्द्धिगणि दमाश्रमणसे पहिला जैन मतका कोइ पुस्तक लिखा हुआ थाके नही.
न.-अंगोपांगादि शास्त्रतो लिखे हुए नही मालुम होते है, परंतु कितनेक अतिशय अत्रुत चमत्कारी विद्याके पुस्तक और कितनीक आम्नायके पुस्तक लिखे हुए मालुम होतेहै, क्योंकि विक्रमादित्यके समयमें श्री सिद्धसेन दिवाकर नामा जैनाचार्य हुआहै, तिनौने चित्रकुटके किल्लेम एक जैन मंदिर में एक बमानारी एक पथरका बीचमे पोलामवाला स्तंन्न देखा, तिसमे श्री सिद्धसेनसे पहिले होगए कितनेक पूर्वधर आचार्योने विद्यायोंके कितनेक पुस्तक स्थापन करेथे, तिस स्तंनका ढांकणा ऐसी किसी कषधीके खेपसे बंद करा था कि सर्व स्तंन्न एक सरीखा मालम पमताथा; तिस स्तंन्नका ढांकणा श्री सिद्धसेन दिवाकरकों मालुम पमा, तिनोंने किसीक औषधीका लेप करा तिससे स्तंनका ढांकणा खुल गया. जब पुस्तक देखनेकों एक निकाला तिसका एक पत्र वांच्या,
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